बात उन दिनों की है जब हिन्दुस्तान बीसवीं सदी की सात दहाइयां पार कर आने के बाद एक नये दौर में क़दम रखने के लिए पर तोल रहा था. आपातकाल को बीते लगभग दस बरस गुज़र चुके थे, हालांकि लोगों के ज़ेहन में उसकी स्मृतियां अभी धूमिल नहीं हुई थीं. इस बीच किसिम-किसिम के सियासी पैंतरे और पैंतरेबाज़ियां और मुनासिब-ग़ैर-मुनासिब गंठजोड़ देखने को मिले थे, मगर बिल-आख़िर कांग्रेस पार्टी गद्दी पर वापस आने में कामयाब हो गयी थी. एशियाई खेल सम्पन्न हो चुके थे. रंगीन टीवी और नित-नये खुलते प्रसारण-मीनारों ने मनोरंजन ही नहीं, सूचना-संचार के अब तक अनदेखे क्षितिज खोल दिये थे, गो आगे कुछ वक़्त बीतते ही निजीकरण की बयार के चलते ही उसकी जो बहार नज़र आने वाली थी, वह अभी मौसम की छुअन का इन्तज़ार करती कलियों की तरह अर्द्ध-निमीलित अवस्था में थी. श्रीमती गान्धी का करिश्मा -- जिसने उन्हें १९४७ के बाद के हिन्दुस्तान का अब तक का सबसे ताक़तवर नेता बना दिया था -- धीरे-धीरे अपना असर खो कर उन्हें कुछ ऐसी ग़लतियां करने पर मजबूर कर चुका था जो अन्तत: उनकी हत्या का सबब बन गयीं. चूंकि उनके पुत्र एवं राजनैतिक उत्तराधिकारी संजय गान्धी १९८१ में ही अकाल कवलित हो चुके थे, चुनांचे श्रीमती गान्धी के बड़े पुत्र राजीव गान्धी को विमान चलानें की हिकमतों से काम लेते हुए, देश चलाने की ज़िम्मेदारी को प्रकट अनिच्छा से अपने कन्धों पर लेने के लिए "विवश" होना पड़ा और उन्होंने इस फ़ैसले से भारतीय राजनीति में वंशवाद की अंकुआती हुई परम्परा पर आधिकारिक मुहर लगा दी और १९८४ के बाद की राजनैतिक प्रवृत्तियों में इस अंकुए को एक अच्छा-ख़ासा पेड़ बनने में मदद दी. कांग्रेस के भीतर उसके टूटते हुए आधार को ले कर काफ़ी उथल-पुथल हो ही रही थी. आपातकाल की नाकामियों की एक वजह हमारी अर्थ-व्यवस्था में अविचारित राष्ट्रीयकरण से उपजी मन्दी थी, दूसरी ओर बड़े पूंजीवादी घरानों के भीतर कल्याणकारी राज्य के प्रति असन्तोष था. इसी के साथ-साथ धर्म और साम्प्रदायिकता के दबाव ने कांग्रेस को अब तक न टटोले गये कुछ उपाय आज़माने के लिए प्रेरित करना भी शुरू कर दिया था. तेज़ नज़र वालों से यह बात न छुपी रही होगी कि श्रीमती गान्धी की अन्त्येष्टि के समय राजीव गान्धी ने ज़रूरत से ज़्यादा मोटा यज्ञोपवीत पहन रखा था -- इतना कि कैमरे के लौंग शौट में भी नज़र आ जाये. इसलिए उन्हें इस बात से भी हैरत नहीं हुई कि सत्ता संभालते ही एक ओर तो राजीव गान्धी ने उदारीकरण, निजीकरण और नयी आर्थिक नीतियों के तहत विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए धड़ाधड़ दरवाज़े खोलने शुरू कर दिये और यह सोचे बग़ैर कि देश की अपार श्रम-शक्ति को कैसे रोज़गार मुहैया कराया जाये, कम्प्यूटरीकरण और नयी, आधुनिक तकनीकों को अमल में लाने के लिए क़दम उठाने शुरू कर दिये; दूसरी ओर "जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है" जैसा नायाब सूत्र देते हुए सिक्खों का क़त्ले-आम कराने और उन्हें सबक़ सिखाने के बाद बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा कर दो राष्ट्रों के सिद्धान्त पर १९४७ में हुए देश के बंटवारे के बाद हिन्दुस्तान के इतिहास के सबसे बड़े साम्प्रदायिक विग्रह की बुनियाद रख दी. कहने की बात नहीं है कि इन सारी बदली हुई या कहें कि तेज़ी से बदलती हुई परिस्थितियों का फ़ौरी असर मीडिया पर देखने को मिला, क्योंकि वही एक तरह से घटनाओं का सब से पहला गवाह होता है. मैं ने ऊपर मनोरंजन और सूचना-संचार के आसन्न परिवर्तनों का ज़िक्र किया है. इन परिवर्तनों की एक बेहद छोटी-सी झलक मुझे इन्हीं दिनों ग़ालिबन १९८६-८७ में देखने को मिली जिन से मुझे हल्का-सा अन्दाज़ा हुआ कि इस क्षेत्र में चल रही बयार कैसी आंधी की शक्ल लेने वाली है.
उन दिनों "जनसत्ता" और "नव भारत टाइम्ज़" के दफ़्तर दिल्ली के बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग पर अगल-बग़ल हुआ करते थे. मेरे मित्र मंगलेश डबराल "जनसत्ता" में थे और इब्बार रब्बी और विष्णु नागर "नव भारत टाइम्ज़" में. इन सभी से मिलने के लिए मैं इन दोनों अख़बारों के दफ़्तरों में जाया करता था. जनसत्ता के साथ उन दिनों कुछ अधिक जुडाव था. मंगलेश ने ही अपने अमृत प्रभात के दिनों में जब वह इलाहाबाद में था मुझको और अन्य लोगों को अख़बार में लिखने की तरफ़ खींचा था और अब "जनसत्ता" में भी वह उसी रवैये पर क़ायम था. भोपाल गैस काण्ड के बाद "जनसत्ता" प्रतिरोध का एक गढ़-सा बना हुआ था और उसके व्यवस्था-विरोधी रवैये की वजह से भी हम लोग वहां ज़्यादा जाते थे. सिक्खों के नरसंहार के बाद "जनसत्ताव के पत्रकारों ने कुछ बेहतरीन समाचार और विश्लेषण प्रकाशित किये थे. "जनसत्ता" के एक युवा पत्रकार ने बड़ी निर्भीकता से इस नरसंहार की हिला देने वाली ख़बरें फ़ाइल की थीं. यही नहीं उसने शराब माफ़िया के एक बड़े सेठ द्वारा छ्त्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के अप्रतिम योद्धा शंकर गुहा नियोगी की हत्या की घटना पर भी ऐसी साहसी और विचारोत्तेजक रिपोर्टिंग की थी जिसे आन्दोलनकारी कहा जा सकता था.
तभी मुझे दूरदर्शन के लिए बनाये जा रहे एक डाक्युमेण्टरी धारावाहिक के आलेख तैयार करने और अपनी आवाज़ में उन्हें रिकार्ड कराने के लिए कुछ समय के लिए अन्यत्र व्यस्त हो जाना पड़ा और "जनसत्ता" के दफ़्तर जाना थोड़ा अनियमित हो गया. कुछ दिन बाद जब मैं वहां गया तो एक चर्चा वहां आम थी कि उस तेज़-तर्रार युवा पत्रकार को चन्द्रा स्वामी ने एक क़ीमती पुखराज की अंगूठी दी है. मुझे एकबारगी विश्वास नहीं हुआ. लोगों ने कहा कि विश्वास न हो तो पूछ लीजिए, आखिर आपका अज़ीज़ है. मैंने उस युवा पत्रकार को तलाश किया और छूटते ही उससे पूछा कि भई, तुम्हारे बारे में जो यह कहा जा रहा है वह क्या सच है. उसने कहा हां, चन्द्रा स्वामी से मैं खबरों के सिलसिले में मिलने जाता था, उन्होंने यह पुखराज की अंगूठी दी है. और उसने अपने हाथ में पहनी अंगूठी मुझे दिखायी. यह भी बताया कि पुखराज दस कैरेट का है. मुझे याद है पुख्रराज बहुत उम्दा था, उस अंगूठी की दोनों तरफ़ दो-दो या शायद तीन-तीन हीरे जड़े थे और वह ख़ासी भारी थी. चन्द्रा स्वामी तब तक अपनी बदनामी की राह पर क़दम रख चुके थे और हथियारों के सौदागर ख़ाशोग्गी से उनके सम्बन्धों की चर्चा आम थी. अपने उस प्रिय युवा पत्रकार के चेहरे पर किसी क़िस्म की शर्मिन्दगी या अस्वस्ति का भाव न पा कर मैं एक आहत ख़ामोशी में डूब गया था.
दूसरी घटना भी इसके कुछ ही समय बाद की है. और इसका सम्बन्ध "जनसत्ता" के तत्कालीन सम्पादक प्रभाष जोशी से है. प्रभाष जी -- राजेन्द्र माथुर और राहुल बारपुते के साथ-साथ -- "नयी दुनिया, इन्दौर" के उन पत्रकारों में से थे जिन्होंने हिन्दी पत्रकारिता में एक नयी लहर पैदा की थी. "नयी दुनिया" से हम सब का परिचय इसलिए भी था कि शरद जोशी उसमें नियमित रूप से लिखते रहे थे, चुनांचे राजेन्द्र जी और प्रभाष जी से भी हो गया. फिर राजेन्द्र माथुर "नयी दुनिया" से "नव भारत टाइम्ज़" में आ गये और प्रभाष जी ने "आस-पास" निकालने के बाद "जनसत्ता" निकाला और जब मैं १९८४ के आरम्भ में वापस हिन्दुस्तान आया तो "जनसत्ता" को निकलते १३ महीने हो चुके थे और उसका सर्कुलेशन १,७५००० हो चुका था जैसा कि मंगलेश ने मुझे बताया था. यों,
"नयी दुनिया" और उसके पत्रकारों की तेवर भरी पत्रकारिता से चमत्कृत होते हुए भी हम दिल में यही महसूस करते थे कि उन सब का रुझान कुछ-कुछ दक्षिणपन्थी है. यह बात आगे चल कर साबित भी हुई जब दिवराला के सती-प्रसंग में प्रभाष जी ने सती-प्रथा के समर्थन में "जनसत्ता" मे लिखे बनवारी के बेहद दक़ियानूसी लेखों की ताईद ही नहीं की, बल्कि अपनी ओर से बनवारी के रुख़ और रवैये का समर्थन भी किया और वह भी आंख के सील के सूखने की परवाह किये बग़ैर. (यही प्रभाष जोशी थे जिन्होंने अपने आखिरी दिनों में मेधा को चितपावन ब्राह्मणों से जोड़ते हुए सचिन तेण्डुलकर के पराक्रम का असली उत्स चिह्नित किया था.)
बहरहाल, सती-प्रसंग वह पहला प्रकरण था जिससे प्रभाष जी के रूढ़िवादी गुण उजागर हुए थे. उस प्रकरण के सिलसिले में इतना और कि तब तक उनकी और उनके अख़बार की छवि वामपन्थी न होते हुए भी किसी हद तक आन्दोलनकारी कही जा सकती थी और उसमें सनसनी और चटपटेपन, दुष्टता और कुटिल वाम-विरोध का वह पुट नहीं था जो बाद के वर्षों में बढ़ता और नुमायां होता चला गया. और जिसके अलमबरदार मृणाल वल्लरी और उन जैसे दसियों दूसरे पत्रकार हैं, जो मुखर -- या कहा जाये बड़बोली, कथित रूप से समाज-सुधारक, लेकिन वास्तव में सनसनीख़ेज़ और कटखनेपन तक आक्रामक -- पत्रकारिता के हामी हैं.
प्रभाष जी हों या बनवारी, उनमें इतनी विशेषता तो थी कि जो वे लिखते थे वह उनकी अपनी सोच होती थी. वे किसी के इशारे पर या अंग्रेज़ी अख़बारों से उठा कर न तो कोई ख़बर छापते थे, न व्याख्या-विवेचन ही करते थे. दिवराला वाले काण्ड में भी झगड़ा तथ्यों को ले कर उतना नहीं था जितना उस घटना को देखने के नज़रिये का था. रूपकुंवर का परिवार औसत मध्यवर्गीय राजपूत परिवार था, दक़ियानूसी और पश्चगामी. और रूपकुंवर द्वारा पति के साथ सती हो जाने की घोषणा एक सद्य:-विधवा युवती के शोक पीड़ित चित्त की सहज विक्षिप्तता की उद्भावना थी, उसके पीछे सदियों से गहरे पैठे कुसंस्कारों और रूढ़िवादी सोच का हाथ था. इसलिए ऐसा नहीं था कि रूपकुंवर को किसी बड़ी सम्पत्ति के अधिकार से वंचित करने के लिए उसे सती होने दिया गया, जैसा कि कई मामलों मे देखा गया था. लेकिन जैसा कि मुझसे इण्टरव्यू में मारग्रेट अल्वा ने कहा था, सवाल और बुनियादी था; श्रीमती अल्वा ने कहा था कि आप कनाट प्लेस में एक व्यक्ति की हत्या कर देंगे और उसे हत्या कहेंगे और एक औरत को उसके पति की चिता पर ज़िन्दा जल जाने देंगे और सती के तौर पर उसका गुणगान करेंगे, यह कैसा तर्क हुआ.
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि मैं तब तक श्रीमती अल्वा का विरोधी ही था, क्योंकि मैं उन्हें राजीव गान्धी के किचन-कैबिनेट ही का सदस्य समझता था. लेकिन उनकी इस बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया था. अपने अन्तर्निहित सत्य के कारण भी और इसलिए भी कि उस समय राजस्थान में हरिदेव जोशी की कांग्रेसी सरकार थी और उस पर वहां के राजपूत धड़ों का बेपनाह दबाव था और बड़े-बड़े सामन्तों की अगुवाई में राजपूत जयपुर की सड़कों पर जुलूस निकाल रहे थे, और राजस्थान सर्कार निष्क्रिय बनी हुई थी. तो भी श्रीमती अल्वा ने अपनी पार्टी की सरकार के बचाव में हरिदेव जोशी के रुख़ की लीपा-पोती करने की बजाय दूरदर्शन पर, जो तब तक पूरी तरह सरकारी माध्यम था, खुली-खरी कहने का -- साहस, नहीं यह शब्द सरासर ग़लत होगा -- उत्तरदायित्व निभाया था.
बहरहाल, ये पुराने प्रसंग मुझे उन तब्दीलियों के सिलसिले में याद आये जो उन पुराने पत्रकारों की तुलना में आज के पत्रकारों में नज़र आती हैं, जब मीडिया धीरे-धीरे अपनी सारी, या कहा जाये लगभग सारी, विश्वसनीयता खोता चला गया है. अब यही देखिए कि मृणाल वल्लरी जैसी पत्रकार हैं जो अत्यन्त निर्लज्जता से पत्रकारिता के सारे उसूलों को ताक़ पर धर कर सरकार के माओवाद-विरोधी अभियान और दुरभिसन्धि में शामिल हैं. अपने महान अख़बार "जनसत्ता" में ९ सितम्बर २०१० को "लाल क्रान्ति के सपने की कालिमा" शीर्षक से छपे लेख में वे अगस्त में अंग्रेज़ी अख़बार में छपी ख़बर की जूठन को बड़े तम-तराक से पेश करके गृह मन्त्री चिदम्बरम की घृणित साज़िश में शिरकत करती हैं और जब उनसे सवाल पूछे जाते हैं तो उनका जवाब देने की बजाय पलट कर हमला करते हुए अपने विरोधिय़ों पर स्त्री-विरोधी होने का आरोप लगाती हैं. यही नहीं अपने जुझारू स्त्रीवादी होने को साबित करने के लिए वे सात साल पुराना एक लेख फिर से छपवाती हैं जिसका कोई सम्बन्ध उनके पिछले लेख से नहीं है.
अगले अंक में कल अगला हिस्सा पढ़ें -- "झूठ के पुलिन्दों पर बैठा स्त्री-विमर्श"
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