इस लेख की अन्तिम कड़ी
मेरे लेखों के जवाब में लिखे अपने लेख "बरसाती नदियां बहुत धोखेबाज़ होती हैं नीलाभ जी" की भूमिका में मृणाल वल्लरी लिखती हैं -- "जनवादी ख़ेमों में पार्टी शिक्षण और अस्मिता के सवाल पर लिखने से पहले अन्देशा था कि चौतरफ़ा हमला होगा."
इस भोले-से झूठ पर बलिहारी जाने को मन करता है. कारण यह कि जनवादी होने का दावा तो सभी वामपन्थी दल करते हैं, फिर चाहे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी हो या भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) न्यू डेमोक्रेसी, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) या और भी कोई कम्यूनिस्ट धड़ा. लेकिन मृणाल वल्लरी ने अपनी सारी तहक़ीक़ात माओवादियों पर ही केन्द्रित रखी है, क्योंकि फ़िलहाल वही महाराज चिदम्बरम और सम्राट मनमोहन सिंह के निशाने पर हैं; और मृणाल वल्लरी के ये आक़ा माओवादियों ही के ख़िलाफ़ झूठ और फ़रेब का तूमार खड़ा करना चाहते हैं; फिर वे प्रतिबन्धित होने के नाते वैसे भी जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं. सी.पी.आई., सी.पी.आई.एम. और सी.पी.आई.एम-एल लिबेरशन के सिलसिले में ऐसी कोई पाबन्दी नहीं है और इसलिए मृणाल वल्लरी ने उन्हें "जनवादी खेमों में पार्टी शिक्षण और स्त्री अस्मिता" वाले इस "मेधावी" शोध-पत्र के दायरे से बाहर रखा है. इस कारण भी कि इन जनवादी दलों के बारे में वैसी ऊल-जुलूल बातें लिखना मृणाल वल्लरी के लिए ख़ासी सांसत खड़ी कर सकता था. सो, मृणाल ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं. आक़ाओं को खुश किया है, ऐसे लोगों के विरुद्ध दुष्प्रचार किया है जो जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं, अपने स्त्रीवादी होने को साबित करने की कोशिश की है और लगे हाथ जनवादियों पर कीचड़ उछालने की कुचेष्टा की है.
इसलिए इस प्रसंग में हमारा आरोप अब भी क़ायम है. जवाब मृणाल वल्लरी को देना है. और कुछ नहीं तो स्त्रीवादी होने के नाते उमा उर्फ़ सोमा मांडी की ख़ातिर.
अब आइए मृणाल वल्लरी की दूसरी व्यथा-कथा पर. उनकी आपत्तियों और आक्षेपों को एक-एक करके उठाऊं तो --
पहली बात यह है कि जिस गोष्ठी का ज़िक्र मृणाल वल्लरी कर रही हैं, वह आज़ाद और हेमचन्द्र पण्डेय, दोनों की हत्या का विरोध करने के लिए बुलायी गयी थी और मैं न तो उसके आयोजकों में शामिल था, न यह तय करने वालों में कि उसमें कौन आयेगा कौन नहीं. इस तरह के कुतर्क से तो यह भी कहा जा सकता है कि सरकार की बनायी सड़क पर मैं भी चलता हूं और स्वामी अग्निवेश और चिदम्बरम भी और महज़ इस कारण मैं उनका साथी हो गया.
मृणाल की दूसरी आपत्ति "होते-सोतों" शब्द के इस्तेमाल पर है.वे लिखती हैं -- "लेकिन नीलाभ जी एक प्रतिबद्ध रचनाकार की तरह सैद्धांतिकी में फटकार कर चुप नहीं रहे। मेरे लेख पर प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने एक स्त्री की नियति की तरह मुझे बिस्तर पर पटक डाला, मेरे होते/सोतों की जानकारी दी। मेरे लिए नीलाभ जी का यह स्टैंड भयावह और स्तब्ध कर देने वाला था। इधर कुछ दिनों से रोज नीलाभ जी के ब्लॉग पर वह लेख एक बार पढ़ लेती थी।"
मुझे लगता है मृणाल जी ने मेरे इस शब्द को राजेन्द्र यादव के कुख्यात लेख "होना सोना एक ख़ूबसूरत दुश्मन के साथ"में प्रयुक्त "होना-सोना" से कन्फ़्यूज़ कर दिया है. मृणाल जी की जानकारी के लिए बता दूं कि यह शब्द आम तौर पर सगे-सम्बन्धियों और समर्थकों के लिए इस्तेमाल होता है और इसका हमबिस्तरी से कोई ताल्लुक़ नहीं है. हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्रकाशित और आचार्य राम चन्द्र वर्मा द्वारा सम्पादित "मानक हिन्दी कोश, १९६६" में "होता-सोता" का अर्थ दिया गया है --
"होता-सोता - (वि० हिन्दी} - निकट का सम्बन्धी. जैसे - अपने होते-सोतों की ऐसी बातें अच्छी नहीं लगतीं."
तथा
"होते-सोते ०- अव्य० - किसी के वर्तमान रहते हुए. जैसे - हमारे होते-सोते तुम्हें कौन कुछ कह सकता है."
मृणाल ने आगे अपने लेख में मुझ पर व्यंग्य करते हुए लिखा है -- "नीलाभ जी के बारे में सुना है कि वे साहित्य और विचार की दुनिया में विचरने वाले एक वरिष्ठ व्यक्ति हैं। अपनी उम्र वे बार-बार बता रहे हैं कि वे 65 साल के हैं। इसका मतलब वरिष्ठ ही होंगे। बहरहाल, उनके बारे में अपनी अज्ञानता पर कम-से-कम अब मुझे अफसोस नहीं है।"
मेरे बारे में अज्ञानता पर उन्हें क़तई अफ़सोस न होना चाहिए, लेकिन हिन्दी के अपने अज्ञान पर ज़रूर होना चाहिए क्योंकि वे अगर जुझारू पत्रकार हैं भी तो हिन्दी की ही हैं, किसी और भाषा की नहीं. और यह भी देखिए कि वे ख़ुद ही लिखती हैं कि "इधर कुछ दिनों से रोज नीलाभ जी के ब्लॉग पर वह लेख एक बार पढ़ लेती थी।" मेरे ब्लॉग पर सिर्फ़ वह लेख ही नहीं और भी बहुत कुछ है और पढ़तीं चाहे वे उसी एक लेख को रही हों बाक़ी का लिखा हुअ भी उनकी नज़र से गुज़रा ही होगा. इस पर भी अगर उनमें अज्ञानता बनी रही है तो वे उस कड़छुल की तरह हैं जो सारी उम्र दाल में घुमायी जाने के बाद भी उसके स्वाद से अनभिज्ञ ही रहती है.
मृणाल को ऐतराज़ है कि मैंने हेम चन्द्र पाण्डेय और उसकी पत्नी का ज़िक्र क्यों किया, तमाम दलितों-वंचितों के ख़िलाफ़ अत्याचारों और बर्बरताओं की अन्तहीन-सी श्रृंखला का ज़िक्र क्यों नहीं किया. इसलिए नहीं किया प्रिय मृणाल जी, क्योंकि जो प्रसंग हो उसी की बात करनी चाहिए. आप माओवादियों पर एक सरासर झूठा आरोप लगा रही थीं जो पकड़ा जा चुका था और यह भी साबित हो चुका था कि वह अंग्रेज़ी अख़बार की जूठन था. अगर प्रसंग दलितों और वंचितों और उनके ख़िलाफ़ होने वाले अत्याचारों का होता तो बात दूसरी होती. चूंकि अपने सारे बड़बोलेपन और झूठ के नीचे आप यह छिपाने में नाकाम रही हैं कि आपको किसी भी कम्यूनिस्ट पार्टी का प्रथम दृष्टया अनुभव नहीं है, इसलिए मार्क्स हों या माओ या और कोई कम्यूनिस्ट विचारक, या माओवादी या और कोई वाम अथवा जनवादी आन्दोलन, आपकी बातें अज्ञान से भरे पूर्वाग्रहयुक्त प्रलाप के सिवा और कुछ नहीं हैं. संवेदना, सम्वेदनशीलता की दुहाई भी आपने निहायत अमूर्त ढंग से अपने लचर तर्कों को ढांपने की ख़ातिर दी है.
रही बात आपके सात साल पुराने लेख से मेरे मतभेदों को ले कर आपकी व्यथा की.
मेरी पहली आपत्ति मृणाल के वैचारिक कच्चेपन को ले कर थी जिसकी वजह से उन्होंने यह मान कर भी कि हमारे समाज में पुरुष स्त्रियों पर अब भी ज़ोर-ज़ुल्म करते हैं, अर्चना नामक लड़की के मामले को एक केस-स्टडी बना कर एक सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्या को नितान्त व्यक्तिवादी ढंग से देखते हुए अपार भोलेपन और नक़ली सात्विक आक्रोश से पुरुषों को "दोग़ले" कहा था. मेरा कहना था कि "दोग़ला" शब्द न सिर्फ़ पुरुष-प्रधान मानसिकता से नि:सृत हुआ है, बल्कि उसमें वर्णवादी, जातिवादी और नस्लवादी अभिप्राय भी नत्थी हैं. पुरुषों को उन्हीं की मानसिकता से नि:सृत गाली देना अन्तत: उन्हीं के पाले में उतर जाना है. चूंकि मृणाल ने इस शब्द को अपने लेख में कई बार इस्तेमाल किया है, इसलिए भी अनुमान होता है कि उन्हें पुरुषों का प्रतिकार करने के लिए यह शब्द बहुत उपयुक्त लगता है, वरना "पाखण्डी" शब्द न केवल बेहतर था, बल्कि अधिक उपयुक्त भी और उन सारे अभिप्रायों से मुक्त जो "दोग़ला" में निहित हैं. इसीलिए मैंने कहा था -- "ब्लौग के पाठक चूंकि इस जानकारी से अपरिचित हैं इसलिए उन्हें मृणाल का सतही आक्रोश इस गाली से मण्डित हो कर और भी मनमोहक लगता है वैसे ही जैसे किसी औरत का मां और बहन की गाली देना; कि भई वाह, क्या मर्दानगी दिखायी है. "
इसी से जुड़ी मेरी दूसरी आपत्ति यह थी कि -- "हमारा समाज पिछले चार-पांच हज़ार वर्षों के अर्से में इतनी पुरपेच गलियों से हो कर आया है कि स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की जटिलताएं कई तरह के परस्पर विरोधी विचार-आचार सरणियों, संस्कारों और दबावों का शिकार हो गयी हैं और स्त्रियों को उनकी वाजिब जगह हासिल कराने के लिए -- चाहे वह सामाजिक धरातल पर हो या स्त्री-पुरुष के नितान्त निजी दायरे में ( मृणाल जी और उनके प्रशंसक ग़ौर करेंगे कि मैं जान बूझ कर "वैवाहिक दायरे" जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर रहा) -- एक लम्बी लड़ाई लड़नी है, लड़ी भी जा रही है और इसमें सिर्फ़ स्त्रियां ही नहीं, मर्द भी शरीक हैं और होंगे. वर्ना क्या मृणाल जी बता पायेंगी कि पुरुष तो स्त्रियों पर अत्याचार करते ही हैं, औरतें क्यों औरतों पर ज़ुल्म ढाती हैं ? परम्परागत सास-बहू, ननद-भौजाई और देवरानी-जेठानी की दुश्मनी के अलावा कई बार सहोदरा बहनों में भी कैसी कट्टम-जुज्झ मचती है, उससे क्या मृणाल जी नावाक़िफ़ हैं."
मृणाल ने मुझे जड़ और मूर्ख कहते हुए अपनी जड़ता और मूर्खता का जो प्रदर्शन किया है वह मुलाहिज़ा करने लायक़ है -- "अब नीलाभ जी की इस बात पर पता नहीं हंसा जाए कि रोया जाए। किसी इस तरह की बात पर हंसने की गुंजाइश तब बनती है, जब किसी व्यक्ति की समाज की समझ बिल्कुल वही हो, जो उसे विरासत में मिली हो। पितृसत्तात्मक पुरुष व्यवस्था को अपने भीतर हूबहू उतारे हुए कोई व्यक्ति अगर इस तरह की राय जाहिर करता है, तो इससे उसके भीतर की ‘क्रांतिकारिता’ के पैमाने का अंदाजा लगाया जा सकता है। नीलाभ ने ‘स्त्रियां ही स्त्रियों की सबसे बड़ी दुश्मन हैं’ की जड़ और मूर्खता की प्रदर्शनी लगाने वाली धारणा को साबित करने के लिए ऊपर जो तथाकथित ‘प्रश्नवाचक’ तर्क दिये हैं, उस पर आज का एक नौसिखिया सोच-समझ रखने वाला व्यक्ति भी हंसता है। कट्टम-जुज्झ मचाती हुई परंपरागत सास-बहू, ननद-भौजाई या देवरानी-जेठानी को मानव व्यवहार की जटिलता के बजाय पुरुष द्वंद्व के बरक्स और औरतों पर जुल्म ढाती हुई औरतों को पितृसत्ता निबाहती हुई स्त्रियों के रूप में देखना दरअसल एक ऐसे अविकास का उदाहरण है, जिसके साथ जीता हुआ व्यक्ति अगर खुद को प्रगतिशील भी बताता है, तो सचमुच सिर्फ हंसी ही आएगी।"
पहली बात तो यह कि मैंने कहीं भी यह नहीं कहा कि ‘स्त्रियां ही स्त्रियों की सबसे बड़ी दुश्मन हैं.’
निहायत बेइमानी से, जिसका सबूत मृणाल पग-पग पर देती हैं, उन्होंने ऐसे शब्द मेरे मुंह में रख दिये हैं जो मैंने कहे ही नहीं. अलबत्ता, यह बात मैं अब भी मानता हूं कि औरतों का बहुत-सा आचरण पुरुष प्रधान समाज की "कण्डिशनिंग" -- अनुकूलन -- का नतीजा है. औरतें क्यों औरतों पर ज़ुल्म ढाती हैं ? का सवाल इसी से उपजा है. पुरुष प्रधान समाज की "कण्डिशनिंग" -- अनुकूलन -- के चलते ही सास-बहू, ननद-भौजाई और देवरानी-जेठानी की परम्परागत दुश्मनी के और कई बार सहोदरा बहनों में भी कट्टम-जुज्झ मचने के अलावा हमारे समाज में ऐसी माएं भी हैं जो इज़्ज़त के नाम पर अपने ही जाये बेटों-बेटियों को या तो क़त्ल हो जाने देती हैं या ख़ुद भी उस क़त्ल में शरीक हो जाती हैं. यही नहीं, गुजरात के मोदी संचालित फ़सादों में गुजराती महिलाओं का अपने पतियों को मुस्लिम महिलाओं की बेहुरमती करने के लिए उकसाना (जो कई जांच दलों द्वारा सिद्ध हो चुका है) भी इसी मानसिकता की उपज है.
यही नहीं कई बार अजाने ही स्त्रियां ऐसी "बौडी-लैंग्वेज" अपना लेती हैं जो पुरुषों से ही नि:सृत है. मिसाल के लिए बैडमिण्टन की दो ख़िताबी खिलाड़िनों की मुद्राओं पर ग़ौर कीजिए जो हिन्दुस्तान टाइम्ज़ के १५ अक्तूबर के अंक में छपी हैं. सायना नेहवाल की मुद्रा आम तौर पर पुरुष खिलाड़ियों के सिलसिले में देखने को आती है और समाज शास्त्रियों के अनुसार इस में यौन अभिप्राय निहित हैं. कई बार जब यह खेल के मैदान के बाहर प्रदर्शित की जाती है तो किसी क़दर अश्लील भी समझी जा सकती है. इसके विपरीत ज्वाला गुट्टा की मुद्रा में कोई यौन अभिप्राय नहीं है. अगर कोई सायना नेहवाल से पूछे तो शायद उसे इस बात का आभास भी नहीं होगा. उसे ही क्यों, संसार की अनेक खिलाड़िनों को नहीं होगा कि यह मुद्रा पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता से उद्भूत है. उन सभी ने अजाने ही इसे अपना लिया है.
एक और उदाहरण दूंगा. मृणाल ने अर्चना वाले लेख में "बहनचोद" गाली का ज़िक्र किया है. पूरब हो या पश्चिम ज़्यादातर गालियां स्त्री-आधारित ही हैं. इसी को लक्ष्य करके डाक्टर राम विलास शर्मा ने "निराला की सहित्य साधना" में लिखा है कि निराला जी स्त्री-आधारित गालियां नहीं देते थे. लेकिन वे "चूतिया" शब्द का इस्तेमाल करते थे. ऐसा इसलिए होता होगा, क्योंकि पूरब में यह शब्द आम तौर पर "मूर्ख" के अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है और किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती. लेकिन क्या मृणाल जी को समझाना पड़ेगा कि जहां इसे इसके मूल अभिप्राय में ही ग्रहण किया जाता है, मसलन पंजाब और उससे लगते उत्तर प्रदेश के ज़िलों में, वहां सभ्य समाज में इसका इतना बुरा क्यों माना जाता है. चुनांचे, मृणाल जी को समझना चाहिए कि पुरुष अनुकूलन कहां-कहां और किस तरह काम करता है और फ़ालतू की कजबहसी न करनी चाहिए. "दोग़ले" शब्द के सिलसिले में भी अगर मृणाल ने सिर्फ़ एक बार इसका प्रयोग किया होता तो शायद दरगुज़र किया भी जा सकता, लेकिन उन्होंने लगभग प्रतिशोध-प्रियता से इसे बार-बार इस्तेमाल किया है, भले ही "पाखण्डी" के अर्थ में, और ऐतराज़ इसी बात पर है कि उन्हें ऐसा न करना चाहिए था.
बहरहाल, इस प्रसंग मे इतना और कहना है कि चूंकि मृणाल ने मनमाने ढंग से मेरे मुंह में अपने शब्द -- "स्त्रियां ही स्त्री की दुशमन है" -- धर दिये हैं और अपने लेख में आगे उन्हीं को बार-बार उद्धृत करते हुए अनर्गल प्रलाप किया है, इसलिए ऐसे प्रसंगों पर मैं कुछ नहीं कहूंगा.
जहां तक विवाह और वैवाहिक सम्बन्धों का प्रश्न है, यहां भी मृणाल ने मनमाने ढंग से मेरे वाक्यों को सन्दर्भ-च्युत करके उद्धृत करते हुए अनाप-शनाप लिख मारा है और मोहल्ला लाइव के ब्लौगियों ने मेरा मूल लेख देखने की ज़हमत उठाये बिना मूढ़ता-भरी टिप्पणियां चेंप दी हैं. यहां मैं अपने कुछ वाक्य उद्धृत कर रहा हूं :--
१. "हमारा समाज पिछले चार-पांच हज़ार वर्षों के अर्से में इतनी पुरपेच गलियों से हो कर आया है कि स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की जटिलताएं कई तरह के परस्पर विरोधी विचार-आचार सरणियों, संस्कारों और दबावों का शिकार हो गयी हैं और स्त्रियों को उनकी वाजिब जगह हासिल कराने के लिए -- चाहे वह सामाजिक धरातल पर हो या स्त्री-पुरुष के नितान्त निजी दायरे में ( मृणाल जी और उनके प्रशंसक ग़ौर करेंगे कि मैं जान बूझ कर "वैवाहिक दायरे" जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर रहा) -- एक लम्बी लड़ाई लड़नी है, लड़ी भी जा रही है और इसमें सिर्फ़ स्त्रियां ही नहीं, मर्द भी शरीक हैं और होंगे."
( इस कथन में तथ्यत: क्या ग़लत है ? यों विरोध करने के लिए कोई कुछ भी कहने के लिए स्वतन्त्र है. क्या मृणाल जी यह कहना चाहती हैं कि स्त्रियों को उनकी वाजिब जगह हासिल कराने के लिए -- चाहे वह सामाजिक धरातल पर हो या स्त्री-पुरुष के नितान्त निजी दायरे में -- एक लम्बी लड़ाई नहीं लड़नी है, नहीं लड़ी जा रही है और इसमें सिर्फ़ स्त्रियां ही शरीक हैं, मर्द नहीं, और न उन्हें होना चाहिए ?)
2. "विवाह की प्रथा का आरम्भ मातृसत्ता की पराजय के बाद और व्यक्तिगत सम्पत्ति के उदय के बाद ही हुआ था. अगर मृणाल जी को मार्क्स-एंगेल्स-माओ से बहुत एलर्जी है तो अपने ही वेद-पुराणों में श्वेतकेतु की कथा पढ़ने की ज़हमत उठाएं. शुरू से आज तक विवाह एक पौरुष प्रधान समाज की अभिव्यक्ति रहा है और समय के साथ वह इतना पेचीदा हो गया है कि विवाह का टूटना या उसमें विकृतियों का पैदा होना केवल एक पक्ष ही की ज़िम्मेदारी नहीं होता. भिन्न-भिन्न मात्राओं में स्त्री-पुरुष और उनके साथ-साथ उनके इर्द-गिर्द का समाज भी ज़िम्मेदार होता है. इसलिए एक तो इस सिलसिले में कोई सरलीकरण करना ग़लत है. अनेक दलित स्त्रियां सवर्ण या या ब्राह्मण स्त्रियां दलित पुरुषों के साथ सुखी वैवाहिक जीवन बिताती रही हैं, बिता रही हैं, यहां तक कि अलग-अलग धर्मॊं के दम्पति भी निर्विघ्न जीवन जीते रहे हैं, जी रहे हैं जबकि चारों ओर खुले दिमाग़ से नज़र दौड़ाने पर अनेक सगोत्रीय, सजातीय समान धर्मी विवाह -- बल्कि ९५ प्रतिशत सगोत्रीय, सजातीय समान धर्मी विवाह -- किसी न किसी व्यथा और रुग्णता का शिकार पाये जायेंगे."
(मुझे नहीं मालूम मृणाल जी विवाहित हैं या नहीं और उन्हें वैवाहिक सम्बन्धों की कितनी और कैसी जानकारी है. समाजशास्त्रीय विवेचन में कोई भी सामान्य निष्कर्ष केवल एक मिसाल के बल पर नहीं निकाला जाता. यह सर्वमान्य सिद्धान्त है. लेकिन मृणाल ने हठधर्मी से एक अर्चना वाले मामले को उठा कर अपने लेख "वह चुप्पी जो आज भी गूंज रही है" में सामान्यीकरण किया है और उनके समर्थक ने इसी से "क्यू" ले कर आलोकधन्वा और उनकी पत्नी के मामले पर टिप्पणी करने की असभ्यता की है. मुझे इसी पर ऐतराज़ था. अगर मृणाल अनेक मामलों के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालतीं तो शायद उनका लेख इतना वायवी, उच्छवासपूर्ण और भावुक आक्रोश से भरा न होता, बल्कि गम्भीर और विचारोत्तेजक होता. अगर दो-तीन अखबारों में ले कर घूमने के बावजूद किसी ने उसे छापने लायक़ नहीं समझा और यह बहुत बाद में ही छप पाया तो इसका कारण कदाचित इस लेख में सही "फ़ोकस" का अभाव ही है.)
3." दूसरे उनके विचारों से ही उत्तेजित हो कर किन्हीं महाशय ने सन्दर्भ-च्युत ढंग से कवि आलोकधन्वा को और क्रान्ति भट्ट से उनके वैवाहिक सम्बन्धों पर अनाप-शनाप टिप्पणी कर मारी है. दो व्यक्तियों का सम्बन्ध और फिर सम्बन्ध-विच्छेद कोई सार्वजनिक विश्लेषण और निष्कर्ष प्रतिपादन का मामला नहीं होता. चूंकि मैं इस दम्पति विशेष के काफ़ी क़रीब रहा हूं इसलिए मैं अधिकारपूर्वक कह सकता हूं कि आलोकधन्वा और क्रान्ति ( अब असीमा ) भट्ट का अलग होना सिर्फ़ एक पक्ष के चलते नहीं हुआ. यों कोई भी ब्लौग पर कुछ भी कहने के लिए स्वतन्त्र है, चाहे वह दूसरे पर कीचड़ उछालने से ले कर उसका चरित्र हनन करने तक क्यों न चला जाये."
(यह कथन बस इतनी टिप्पणी की अपेक्षा रखता है कि ऊपर जो मैंने लिखा कि "विवाह का टूटना या उसमें विकृतियों का पैदा होना केवल एक पक्ष ही की ज़िम्मेदारी नहीं होता. भिन्न-भिन्न मात्राओं में स्त्री-पुरुष और उनके साथ-साथ उनके इर्द-गिर्द का समाज भी ज़िम्मेदार होता है." और फिर आगे यह कि "दो व्यक्तियों का सम्बन्ध और फिर सम्बन्ध-विच्छेद कोई सार्वजनिक विश्लेषण और निष्कर्ष प्रतिपादन का मामला नहीं होता," तो इसमें कोई विरोधाभास नहीं है. किसी भी सम्बन्ध-विच्छेद के कई पहलू होते हैं. मृणाल के लेख में बुनियादी खोट यह है कि उन्होंने अर्चना वाले मामले का सरलीकरण करते हुए मनमाने ढंग से स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर लिखा है.)
4. "मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि अगर मृणाल की मुहिम से एक भी अर्चना की जान बचती है, और सिर्फ़ जान ही नहीं बचती, बल्कि वह अपने बल पर जीवन जीने में समर्थ भी होती है तो मैं मृणाल के प्रयत्नों का स्वागत करूंगा लेकिन मृणाल केवल पढ़ी-लिखी साधन-सम्पन्न अर्चनाओं पर ही नज़र न टिकाये रखें, न अपने दायरे को वर्ण या धर्म के बन्धनों तक ही सीमित रखें. वे ज़रा वहां भी नज़र दौड़ायें जहां औरतें सत्ता और सत्ता के गुर्गों -- पुलिसवालों, नेताओं आदि का शिकार बनती हैं. जहां दलितों से बदला लेने या उन्हें उनकी औक़ात बताने के लिए उनकी औरतों के साथ बलात्कार किया जाता है."
(इसमें क्या ग़लत है, क्या मृणाल जी बतायेंगी, या वे नीलाभ-विरोध से इस क़दर ग्रस्त हैं कि विवेक ही खो बैठी हैं.)
5. "कौन नहीं जानता है कि एक सवर्ण पढ़ी-लिखी लड़की के पास आत्महत्या के अलावा सौ रास्ते होते हैं जो समाज की दलित ८० फ़ीसदी औरतों को उपलब्ध नहीं होते. उच्छ्वास बहुत अच्छा लगता है, पर कैरियर की सीढ़ियां चढ़ने में सहायक होने के अलावा बहुत दूर नहीं ले जाता. फिर इससे आगे बढ़ कर वे स्त्रियां हैं जो यह जानती हैं कि शोषण पर टिके इस समाज में सिर्फ़ स्त्रियां ही परतन्त्र नहीं हैं, बल्कि पुरुष भी उतनी ही मात्रा में परतन्त्र हैं और स्त्रियों की मुक्ति की लड़ाई लामुहाला पुरुषों की मुक्ति की भी लड़ाई है. मृणाल अगर अपने कर्म को वाक़ई सार्थक करना चाहती हैं तो उन्हें यह सत्य समझना चाहिए."
(पहली बात तो यह है कि एक सवर्ण पढ़ी-लिखी लड़की जब किसी दलित लड़के से विवाह करती है तो क्या वह सिर्फ़ भावुकता में ऐसा करती है या उसने सोच-समझ कर यह क़दम उठाया होता है. मैं चूंकि अर्चना से वाक़िफ़ नहीं इसलिए मेरे पास इस मामले में मृणाल के लेख में दिये गये तथ्य ही हैं. ज़रा देखिए वे क्या लिखती हैं --
"यह कोई आम घरेलू लड़की नहीं थी। उच्च शिक्षा प्राप्त इस लड़की को सरकारी नौकरी मिली हुई थी। अर्चना एक ब्राह्मण परिवार से आती थी, जिसने अपनी मर्जी से एक दलित युवक से शादी की थी। आज दिल्ली जैसे आधुनिक समाज में भी किसी दलित युवक से शादी करने के लिए एक ब्राह्मण परिवार की लड़की को पारिवारिक तथा सामाजिक स्तर पर जितनी और जिस प्रकार की उपेक्षा सहनी पड़ती है, अर्चना उससे मुक्त नहीं थी। अर्चना के इस निर्णय से उसके जुझारू और प्रगतिशील प्रवृत्ति का अंदाजा लगाया जा सकता है।"
मृणाल आगे लिखती हैं -- "लेकिन शादी के बाद उसने उस लड़की के सामने अपनी कौन सी पहचान को पेश किया? दलित होने के कारण सामाजिक वर्चस्व के खिलाफ एक स्त्री के प्रति जिस संवेदनशीलता की उम्मीद उस लड़की को थी, वह पूरी नहीं हुई। अंततः उसके पति का पौरुष ही उसपर हावी हो गया। समाज से विद्रोह कर विवाह करने वाली वह लड़की परिवार के अंदर ही इस पौरुष का शिकार हो गयी। इसका प्रमाण है उसका आत्मकथ्य, जो पुलिस को कुछ पन्नों के रूप में मिला है।
अपने आप को लेकर सजग रहने वाली नारी फेमीनिस्ट एप्रोच के साथ वैवाहिक संस्था नहीं चला पाती है। अब तक जो मेल डामिनेटिंग रहा है, वो कैसे बदल जाएगा पर बदलने की कोशिश तो जो है, सो है।
अर्चना के इन शब्दों से हमें उसके प्रगतिशीलता तथा उसके नारी विमर्श संबंधी एक परिपक्व सोच का पता चलता है। उसने इन दृष्टिकोणों में आस्था रखते हुए एक दलित युवक से शादी की। पर वह युवक नारीवादी दृष्टिकोण में अपनी आस्था नहीं रख पाया। विश्वविद्यालय कैंपस की सभाओं-गोष्ठियों में उसने जैसा चरित्र प्रस्तुत किया, वैसा ही चरित्र वह अपने घर के अंदर नही रख पाया। पत्नी में अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व भी हो सकता है शायद यह उसे स्वीकृत न हो सका। ऐसी पत्नी जिसका अपना कोई व्यक्तित्व न होता तो शायद यह हादसा भी न होता।
अब जब भी कोई अच्छे-अच्छे उसूलों की बात करता है, तो अंदर से हंसी और गुस्सा दोनों आते हैं कि पता नहीं खुद ये कितनी कोशिश करते होंगे, कितना स्त्री सम्मान जैसी अवधारणाएं मन में होती होंगी। ‘बहनचोद’ जैसी गाली आम है एक पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी व्यक्ति के लिए जो अपने संस्कारों से निकलने के प्रोसेस में है… मैं चाहूं तो सब कुछ सही चल सकता है। प्रतिरोध करना बंद कर दूं, अच्छी सुघड़ गृहिणी बन जाऊं, पति के पैर पूजूं (कोई भी लड़की मुझे पूजती… अक्सर कहा जाने वाला जुमला), जबान न चलाऊं, तो सब कुछ अच्छा ही अच्छा है।"
दिक़्क़त यह है कि अपने जोश में मृणाल ने यह स्पष्ट रूप से इंगित नहीं किया कि ठीक-ठीक कौन-सी पंक्तियां अर्चना की हैं और कौन-सी ख़ुद मृणाल की. इसीलिए मुझे इतना लम्बा अंश उद्धृत करना पड़ा है. तो भी इतना तो समझ में आता ही है कि यह विवाह जो हर तरह के विरोध को झेल कर अपनी मर्ज़ी से किया गया था, एक अनमेल विवाह साबित हुआ. इसमें भी शक करने की कोई बात नहीं है कि अर्चना के पति का रवैया आम पुरुषों वाला रवैया ही रहा होगा. ऐतराज़ वहां है जहां मृणाल यह कहने के बाद कि अर्चना "कोई आम घरेलू लड़की नहीं थी। उच्च शिक्षा प्राप्त इस लड़की को सरकारी नौकरी मिली हुई थी," और अर्चना के जुझारूपन, परिपक्व सोच और प्रगतिशीलता का ज़िक्र करने के बाद उसे एक थकी-हारी, पस्त और कच्ची लड़की के रूप में चित्रित करके सिर्फ़ पौरुष-प्रधान समाज को गालियां दे कर रह जाती हैं और इस मामले में सिर्फ़ अर्चना की डायरी में लिखे हुए को इकतरफ़ा सबूत मान लेती हैं.
पौरुष-प्रधान समाज और उसकी विकृतियों और स्त्री-दमनकारी प्रवृत्तियों से मुझे इनकार नहीं है, लेकिन जिन गुणों से अर्चना को मृणाल ने सम्पन्न बताया है, उन गुणों वाली लड़की आत्म-हत्या नहीं करती. अगर वह सवर्ण है तो उसके पास एक अनमेल विवाह से जूझने और बाहर आने के सौ रास्ते होते हैं. ऐसा ही मैंने पहले भी लिखा था और ऐसा ही मैं अब भी मानता हूं. आम तौर पर अनमेल विवाहों में आत्महत्या करने वाली लड़कियां और औरतें उन गुणों के अभाव की स्थिति में ही ऐसा करती हैं. जहां-जहां और जिन-जिन मामलों में लड़कियां और औरतें पढ़ी-लिखी, परिपक्व सोच वाली, जुझारू, प्रगतिशील, वैवाहिक सम्बन्ध बनाते समय हर तरह के विरोध से पार पाने वाली और सरकारी नौकरी प्राप्त होती है, वह आत्म-हत्या नहीं करती, या अपवाद स्वरूप ही ऐसा क़दम उठाती है. )
6. अन्त में यह कि हाल के सर्वेक्षणों ने यह भी बताया है कि जहां स्त्रियों ने आर्थिक वर्चस्व हासिल कर लिया है, वहां थोड़ी मगर बढ़ती मात्रा में पुरुष भी यौन अथवा अन्य उत्पीड़नों का शिकार बने हैं, बन रहे हैं. मृणाल चाहें तो किसी भी समाज शास्त्री से पूछ सकती हैं. इसलिए उन्हें चाहिए कि ज़रा गहरे उतरें. फ़िलहाल तो यही लगता है कि -- भले ही सात साल पुराना लेख दोबारा पेश करते हुए उन्होंने यह कहा है कि आज वे इसे दूसरी तरह लिखतीं -- वे इस लेख से बहुत दूर नहीं हटी हैं वरना इसे दोबारा पेश करने के लालच में न पड़तीं.
(स्त्री-विमर्श का उद्देश्य स्त्रियों का वर्चस्व क़ायम करना नहीं हो सकता. पुरुषों का वर्चस्व समाप्त करने का अर्थ अगर स्त्रियों का वर्चस्व स्थापित करना होगा तो नतीजा मृणाल वल्लरी के लेखों जैसा ही होगा. स्वस्थ स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का आधार वर्चस्व नहीं, समता और सामंजस्य पर ही आधारित हो सकता है. वर्चस्व की लड़ाई हमेशा विकृतियों की तरफ़ ले जायेगी. मैं फिर कहूंगा कि जहां स्त्रियों ने आर्थिक वर्चस्व हासिल कर लिया है, वहां थोड़ी मगर बढ़ती मात्रा में पुरुष भी यौन अथवा अन्य उत्पीड़नों का शिकार बने हैं, बन रहे हैं. मृणाल चाहें तो किसी भी समाज शास्त्री से पूछ सकती हैं. इतना और जोड़ूंगा -- बशर्ते कि वे अपने को सर्वज्ञ न समझें).
Thursday, October 28, 2010
Wednesday, October 27, 2010
चिदम्बरम के गोएबल्ज़
कल के लेख की अगली कड़ी
छत्तीसगढ़, झारखण्ड, महाराष्ट्र, आन्ध्र, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में सरकार ने जो इतने बड़े पैमाने पर गृह-युद्ध छेड़ रखा है, उसके पीछे अरबों डालरों की लूट का सवाल है जो प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह की सरकार की मदद से बाहर की कारपोरेट कम्पनियां करना चाहती हैं. ज़ाहिर है इस लूट को सुगम बनाने के लिए वहां बसे आदिवासियों का सफ़ाया करना अनिवार्य हो उठा है, क्योंकि वे अपने वन, अपनी नदियां और अपनी सम्पदा बचाने -- यानी अपने जीवन बचाने के लिए इन कम्पनियों और सरकार का विरोध कर रहे हैं. अब जैसा कि युद्ध में होता है सिर्फ़ फ़ौज से काम नहीं चलता, वरना हिटलर को गोएबल्ज़ की ज़रूरत न पड़ती जिसने मीडिया को अपना योगदान एक अद्भुत सूत्र की शक्ल में दिया था और जिसे मृणाल वल्लरी, बरखा दत्त, अर्नब गोस्वामी, चन्दन मित्रा और उन जैसे अन्य पत्रकारों ने गृह मन्त्री चिदम्बरम के गोएबल्ज़ होने के नाते अपने मन-वचन-कर्म से अपना लिया है. सूत्र था -- झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच मान लिया जाता है. तो साहब गृह मन्त्री पी. चिदम्बरम ने फ़ौजी कमाण्डरों से कहा कि इस सम्बन्ध में वे कुछ करें. आगे क्या हुआ, यह आप प्रसिद्ध लेखिका अरुन्धती राय के लेख के उद्धरण में पढ़िए :--
"आपातकाल के दौरान, कहते हैं, जब श्रीमती गांधी प्रेसवालों को झुकने के लिए कहती थीं तो वे रेंगने लगते थे. और तिस पर भी, उन दिनों में ऐसी मिसालें थीं जब राष्ट्रीय दैनिकों ने सेन्सरशिप का विरोध करते हुए चुनौती-भरे अन्दाज़ में कोरे सम्पादकीय छापे थे. .... इस बार इस अघोषित आपातकाल में चुनौतियों की बहुत गुंजाइश नहीं है, क्योंकि मीडिया ही सरकार है. कोई भी, सिवा उन पूंजीवादी घरानों और निगमों के, जिनका उस पर नियन्त्रण है, उसे (मीडिया को) यह नहीं बता सकता कि वह क्या करे. वरिष्ठ राजनेता, मन्त्री और सुरक्षा व्यवस्था के अफ़सर टेलीविज़न पर आने के लिए लालायित रहते हैं -- दुर्बल स्वरों में अर्नब गोस्वामी और बरखा दत्त से बिनती करते हुए कि उन्हें उस दिन के प्रवचन में कुछ अपनी ओर से भी कहने की मोहलत दी जाये. कई टीवी चैनल और समाचार-पत्र छुपे तौर पर औपरेशन ग्रीनहण्ट के युद्ध कक्ष और उसके द्वारा ग़लत सूचनाएं प्रसारित करने के अभियान का संचालन कर रहे हैं. कई अख़बारों में भिन्न-भिन्न रिपोर्टरों के नाम से लेकिन हू-ब-हू उन्हीं लफ़्ज़ों में "माओवादियों के १५०० करोड़ के उद्योग" की खबर छपी. लगभग सभी अख़बारों और समाचार चैनलों ने मई २०१० में झाड़ग्राम (पश्चिम बंगाल ) में पटरी से रेल के उतर जाने की भयानक घटना के लिए, जिसमे १४० लोग मारे गये, "पुलिस सन्त्रास विरोधी जनगणेर समिति" को ( "माओवादियों" से अदल-बदल कर इस्तेमाल करके) दोषी ठहराते हुए ख़बरें छापीं. दो प्रमुख सन्दिग्ध लोगों को "मुठभेड़ों" में पुलिस ने मार गिराया है इस बात के बावजूद कि उस घटना के गिर्द छाया हुआ रहस्य अब तक खुल रहा है. प्रेस ट्रस्ट औफ़ इण्डिया ने कई झूठी ख़बरें जारी की हैं जिन्हें इण्डियन एक्सप्रेस ने वफ़ादारी से सुर्ख़ियों में छापा है जिनमें वह ख़बर भी शामिल है जिसमें कहा गया था कि माओवादियों ने अपने द्वारा मारे गये पुलिसवालों के शवों को टुकड़े-टुकड़े कर दिया था. (इसका खण्डन जो खुद पुलिस की तरफ़ से आया था, बीच के किसी पन्ने पर डाक टिकट के आकार मॆं छापा गया.) कई हू-ब-हू एक जैसे इण्टर्व्यू छपे हैं -- सब "एक्सक्लूसिव" की सुर्ख़ी के साथ -- उस महिला छापामार के बारे में कि कैसे माओवादी नेताओं ने उसके साथ बलात्कार और फिर-फिर बलात्कार किया. बताया गया कि वह हाल ही में जंगलों और माओवादियों के चंगुलों से छूट कर दुनिया को अपनी कहानी सुनाने के लिए भाग निकली थी. अब पता चल रहा है कि वह महीनों से पुलिस की हिरासत में थी.......
.............जैसे-जैसे युद्ध घिरता जा रहा है, फ़ौजों ने ऐलान कर दिया है (जिस तरह सिर्फ़ वे ही कर सकती हैं) कि वे भी हमारे दिमाग़ों के साथ खिलवाड़ करने के धन्धे में उतरने के लिए तैयार हो रही हैं. जून २०१० में उन्होंने दो "सामरिक सिद्धान्त" जारी किये. एक था साझी हवाई-ज़मीनी सामरिक कार्रवाई का सिद्धान्त. दूसरा था सैन्य मनोवैज्ञानिक कार्रवाई का सिद्धान्त, "जिसमें चुने हुए श्रोताओं के पूर्वलक्षित समुदाय को सन्देश देने की योजनाबद्ध प्रक्रिया शामिल है ताकि ऐसे ख़ास विषयों का प्रचार-प्रसार किया जाये जिनसे वांछित रवैये और व्यवहार पैदा हों जो देश के राजनैतिक और फ़ौजी मक़सदों को पूरा करें. यह सिद्धान्त ग़ैर-पारम्परिक कार्रवाइयों में बोध का प्रबन्ध करने से सम्बन्धित गतिविधियों के लिए मार्ग-दर्शन भी उपलब्ध कराता है, ख़ास तौर पर आन्तरिक परिवेश में जहां बहकायी हुई आबादी को मुख्यधारा में लाने की ज़रूरत हो." प्रेस विज्ञप्ति में आगे कहा गया था कि "सैन्य मनोवैज्ञानिक कार्रवाइयों का सिद्धान्त अमल में लाया जाने वाला ऐसा नीति और योजना सम्बन्धी दस्तावेज़ है जिसका उद्देश्य है सामरिक सेवाओं द्वारा उस मीडिया का इस्तेमाल करके, जो उन्हें उपलब्ध है, ऐसा अनुकूल माहौल बनाना जिसमें वे अपने फ़ायदे के लिए कार्रवाई कर सकें."............
यह है "लाल क्रान्ति के सपने की कालिमा" की हक़ीक़त जिसके उजागर होने पर मृणाल वल्लरी ने उलटे एक आक्रामक मुद्रा अख़्तियार करके अपने विरोधियों को चुप कराने की कोशिश की है और वे ख़ुद कितनी जुझारू हैं इसे साबित करने के लिए अंजनी के लेख में उठाये गये सवालों को नज़रन्दाज़ करके सात साल पुराना लेख मोहल्ला लाइव में चेंप दिया है. हम यह ध्यान दिलाना चाहते हैं कि नक्सलबाड़ी आन्दोलन के बाद के इन ४३ बरसों में यह पहली बार हुआ है कि एक योजनाबद्ध तरीक़े से नक्सलवादियों पर (बदले हालात में अब उन्हें माओवादी कह लीजिए, वैसे अनेक वामपन्थी धड़े हथियारबन्द क्रान्ति का समर्थन करते रहे हैं और १९६७ से ही हर तरह की केन्द्रीय सरकार उनका दमन करती रही है) "वसूली" और "बलात्कार" जैसे आरोप लगाये जा रहे हैं, जो आरोप उनके ख़िलाफ़ आज तक किसी ने नहीं लगाये. कारण ऊपर बयान की गयी हक़ीक़त में है -- प्रधान मन्त्री कार्यालय, गृह मन्त्रालय, सेना, कारपोरेट पूंजीवादी घरानों और निगमों और उनके पोषित मीडिया का घृणित गंठजोड़, जिसकी हिरावल और सबसे वफ़ादार क़तार में मृणाल वल्लरी के साथ हैं चन्दन मित्रा, बरखा दत्त और अर्नब गोस्वामी जैसे "हिज़ मास्टर्स वायस" के क़दम-तालिये. अ़च्छा तो यह होता कि मृणाल वल्लरी अपनी "प्रखर" और "जुझारू" चेतना और स्त्रीवादी विचारधारा से अनुप्राणित हो कर उमा उर्फ़ सोमा मांडी के साथ सरकार द्वारा किये गये बलात्कार का (हां, किसी भी महिला को सत्ता द्वारा अपनी घिनौनी साज़िश का औज़ार बनाना उसके साथ बलात्कार करना ही है) प्रतिकार करतीं. लेकिन इस काम में उनका अन्ध-माओवाद विरोध आड़े आ गया और उनके सारे स्त्रीवाद की पोल खोल गया. उन्होंने मेरे लेखों का इतना नोटिस लिया, मुझ पर तरह -तरह के ताने-तिश्ने कसे, लेकिन न तो मोहल्ला लाइव में उद्धृत अपने पहले लेख के शीर्षक "लाल क्रान्ति के सपने की कालिमा" के ऊपर लगाये गये मुख्य शीर्षक "क्या माओवादी बलात्कारी होते हैं ?" पर आपत्ति की, न मौडरेटर की टिप्पणी पर कुछ कहा, न अंजनी के सवालों का जवाब दिया. मैं यहां मौडरेटर की टिप्पणी उद्धृत कर रहा हूं :-
यह लेख आज जनसत्ता में छपा है। इसमें यह लगभग स्थापित करने की कोशिश की गयी है कि माओवादी मूवमेंट से जितनी भी महिलाएं जुड़ी हैं, वे बलात्कार की शिकार होती हैं और यह भी कि पूरा माओवादी मूवमेंट अपनी अंतर्यात्रा में एक चकलाघर है। किसी भी राज्यविरोधी आंदोलन को लेकर इस तरह के प्रचार की परंपरा नयी नहीं है और अपने समय के प्रखर बुद्धिजीवियों को राज्य की ओर से कोऑप्ट कर लेने की परंपरा भी पुरानी है। दिलचस्प ये है कि इस पूरे आलेख में उन अखबारों में छपे वृत्तांतों की विश्वसनीयता को आधार बनाया गया है, जो बाजार और राज्य के हाथों की कठपुतली है। यहां दो लिंक दे रहा हूं, उमा वाली खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में है और छवि वाली खबर द पायोनियर में है (जिस अख़बार के महान सम्पादक वही भा.ज.पा. के चहेते चन्दन मित्रा हैं -- नीलाभ) । इसी किस्म का एक अभियान द हिंदू में भी आप देखेंगे, जिसमें माओवादी आंदोलनों से जुड़ी खौफनाक-दुर्दांत सच्चाइयां (!) समय समय पर छापी जाती हैं। द हिंदू घोषित तौर पर सीपीएम का अखबार है और सीपीएम और माओवादियों की लड़ाई जगजाहिर है। भारत में मुख्यधारा के कम्युनिस्ट आंदोलनों का वर्तमान हमारे सामने है और माओवाद की चुनौतियों को नजरअंदाज करने के लिए उनके बुद्धिजीवी अतिजनवाद जैसे जुमलों के साथ इस आंदोलन के वैचारिक आधार से तार्किक सामना नहीं करते बल्कि कुछ कथित हादसों की गिनती का सहारा लेते हैं। जैसे अतिजनवाद के बरक्स कमजनवाद जनता की ज्यादा विवेकशील चिंता करता हो। बहरहाल, मृणाल वल्लरी के इस लेख को किसी भी जन आंदोलन के खिलाफ एक घिनौनी साजिश का हिस्सा मानना चाहिए, जिसमें कुछ घटनाओं के माध्यम से पूरे आंदोलन को बर्खास्त करने की कोशिश की जाती है : मॉडरेटर
सुधी पाठकगण, मौडरेटर की अन्तिम पंक्तियां ग़ौर-तलब हैं -- "मृणाल वल्लरी के इस लेख को किसी भी जन आंदोलन के खिलाफ एक घिनौनी साजिश का हिस्सा मानना चाहिए, जिसमें कुछ घटनाओं के माध्यम से पूरे आंदोलन को बर्खास्त करने की कोशिश की जाती है." लेकिन इसका गिला अब क्या करना, उनके दूसरे लेख मॆं भी यही प्रवृत्ति दिखती है और चूंकि वह लेख सात साल पहले का है, इसलिए क्या यह नहीं माना जा सकता कि सात साल में वह प्रवृत्ति इतनी बद्धमूल हो गयी कि सत्ता और पूंजीपतियों की बांदी बन गयी ?
इस लेख की अगली कड़ी -- "स्त्री-विमर्श का पाखण्ड-प्रपंच" -- अगले अंक में कल पढ़िए
छत्तीसगढ़, झारखण्ड, महाराष्ट्र, आन्ध्र, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में सरकार ने जो इतने बड़े पैमाने पर गृह-युद्ध छेड़ रखा है, उसके पीछे अरबों डालरों की लूट का सवाल है जो प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह की सरकार की मदद से बाहर की कारपोरेट कम्पनियां करना चाहती हैं. ज़ाहिर है इस लूट को सुगम बनाने के लिए वहां बसे आदिवासियों का सफ़ाया करना अनिवार्य हो उठा है, क्योंकि वे अपने वन, अपनी नदियां और अपनी सम्पदा बचाने -- यानी अपने जीवन बचाने के लिए इन कम्पनियों और सरकार का विरोध कर रहे हैं. अब जैसा कि युद्ध में होता है सिर्फ़ फ़ौज से काम नहीं चलता, वरना हिटलर को गोएबल्ज़ की ज़रूरत न पड़ती जिसने मीडिया को अपना योगदान एक अद्भुत सूत्र की शक्ल में दिया था और जिसे मृणाल वल्लरी, बरखा दत्त, अर्नब गोस्वामी, चन्दन मित्रा और उन जैसे अन्य पत्रकारों ने गृह मन्त्री चिदम्बरम के गोएबल्ज़ होने के नाते अपने मन-वचन-कर्म से अपना लिया है. सूत्र था -- झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच मान लिया जाता है. तो साहब गृह मन्त्री पी. चिदम्बरम ने फ़ौजी कमाण्डरों से कहा कि इस सम्बन्ध में वे कुछ करें. आगे क्या हुआ, यह आप प्रसिद्ध लेखिका अरुन्धती राय के लेख के उद्धरण में पढ़िए :--
"आपातकाल के दौरान, कहते हैं, जब श्रीमती गांधी प्रेसवालों को झुकने के लिए कहती थीं तो वे रेंगने लगते थे. और तिस पर भी, उन दिनों में ऐसी मिसालें थीं जब राष्ट्रीय दैनिकों ने सेन्सरशिप का विरोध करते हुए चुनौती-भरे अन्दाज़ में कोरे सम्पादकीय छापे थे. .... इस बार इस अघोषित आपातकाल में चुनौतियों की बहुत गुंजाइश नहीं है, क्योंकि मीडिया ही सरकार है. कोई भी, सिवा उन पूंजीवादी घरानों और निगमों के, जिनका उस पर नियन्त्रण है, उसे (मीडिया को) यह नहीं बता सकता कि वह क्या करे. वरिष्ठ राजनेता, मन्त्री और सुरक्षा व्यवस्था के अफ़सर टेलीविज़न पर आने के लिए लालायित रहते हैं -- दुर्बल स्वरों में अर्नब गोस्वामी और बरखा दत्त से बिनती करते हुए कि उन्हें उस दिन के प्रवचन में कुछ अपनी ओर से भी कहने की मोहलत दी जाये. कई टीवी चैनल और समाचार-पत्र छुपे तौर पर औपरेशन ग्रीनहण्ट के युद्ध कक्ष और उसके द्वारा ग़लत सूचनाएं प्रसारित करने के अभियान का संचालन कर रहे हैं. कई अख़बारों में भिन्न-भिन्न रिपोर्टरों के नाम से लेकिन हू-ब-हू उन्हीं लफ़्ज़ों में "माओवादियों के १५०० करोड़ के उद्योग" की खबर छपी. लगभग सभी अख़बारों और समाचार चैनलों ने मई २०१० में झाड़ग्राम (पश्चिम बंगाल ) में पटरी से रेल के उतर जाने की भयानक घटना के लिए, जिसमे १४० लोग मारे गये, "पुलिस सन्त्रास विरोधी जनगणेर समिति" को ( "माओवादियों" से अदल-बदल कर इस्तेमाल करके) दोषी ठहराते हुए ख़बरें छापीं. दो प्रमुख सन्दिग्ध लोगों को "मुठभेड़ों" में पुलिस ने मार गिराया है इस बात के बावजूद कि उस घटना के गिर्द छाया हुआ रहस्य अब तक खुल रहा है. प्रेस ट्रस्ट औफ़ इण्डिया ने कई झूठी ख़बरें जारी की हैं जिन्हें इण्डियन एक्सप्रेस ने वफ़ादारी से सुर्ख़ियों में छापा है जिनमें वह ख़बर भी शामिल है जिसमें कहा गया था कि माओवादियों ने अपने द्वारा मारे गये पुलिसवालों के शवों को टुकड़े-टुकड़े कर दिया था. (इसका खण्डन जो खुद पुलिस की तरफ़ से आया था, बीच के किसी पन्ने पर डाक टिकट के आकार मॆं छापा गया.) कई हू-ब-हू एक जैसे इण्टर्व्यू छपे हैं -- सब "एक्सक्लूसिव" की सुर्ख़ी के साथ -- उस महिला छापामार के बारे में कि कैसे माओवादी नेताओं ने उसके साथ बलात्कार और फिर-फिर बलात्कार किया. बताया गया कि वह हाल ही में जंगलों और माओवादियों के चंगुलों से छूट कर दुनिया को अपनी कहानी सुनाने के लिए भाग निकली थी. अब पता चल रहा है कि वह महीनों से पुलिस की हिरासत में थी.......
.............जैसे-जैसे युद्ध घिरता जा रहा है, फ़ौजों ने ऐलान कर दिया है (जिस तरह सिर्फ़ वे ही कर सकती हैं) कि वे भी हमारे दिमाग़ों के साथ खिलवाड़ करने के धन्धे में उतरने के लिए तैयार हो रही हैं. जून २०१० में उन्होंने दो "सामरिक सिद्धान्त" जारी किये. एक था साझी हवाई-ज़मीनी सामरिक कार्रवाई का सिद्धान्त. दूसरा था सैन्य मनोवैज्ञानिक कार्रवाई का सिद्धान्त, "जिसमें चुने हुए श्रोताओं के पूर्वलक्षित समुदाय को सन्देश देने की योजनाबद्ध प्रक्रिया शामिल है ताकि ऐसे ख़ास विषयों का प्रचार-प्रसार किया जाये जिनसे वांछित रवैये और व्यवहार पैदा हों जो देश के राजनैतिक और फ़ौजी मक़सदों को पूरा करें. यह सिद्धान्त ग़ैर-पारम्परिक कार्रवाइयों में बोध का प्रबन्ध करने से सम्बन्धित गतिविधियों के लिए मार्ग-दर्शन भी उपलब्ध कराता है, ख़ास तौर पर आन्तरिक परिवेश में जहां बहकायी हुई आबादी को मुख्यधारा में लाने की ज़रूरत हो." प्रेस विज्ञप्ति में आगे कहा गया था कि "सैन्य मनोवैज्ञानिक कार्रवाइयों का सिद्धान्त अमल में लाया जाने वाला ऐसा नीति और योजना सम्बन्धी दस्तावेज़ है जिसका उद्देश्य है सामरिक सेवाओं द्वारा उस मीडिया का इस्तेमाल करके, जो उन्हें उपलब्ध है, ऐसा अनुकूल माहौल बनाना जिसमें वे अपने फ़ायदे के लिए कार्रवाई कर सकें."............
यह है "लाल क्रान्ति के सपने की कालिमा" की हक़ीक़त जिसके उजागर होने पर मृणाल वल्लरी ने उलटे एक आक्रामक मुद्रा अख़्तियार करके अपने विरोधियों को चुप कराने की कोशिश की है और वे ख़ुद कितनी जुझारू हैं इसे साबित करने के लिए अंजनी के लेख में उठाये गये सवालों को नज़रन्दाज़ करके सात साल पुराना लेख मोहल्ला लाइव में चेंप दिया है. हम यह ध्यान दिलाना चाहते हैं कि नक्सलबाड़ी आन्दोलन के बाद के इन ४३ बरसों में यह पहली बार हुआ है कि एक योजनाबद्ध तरीक़े से नक्सलवादियों पर (बदले हालात में अब उन्हें माओवादी कह लीजिए, वैसे अनेक वामपन्थी धड़े हथियारबन्द क्रान्ति का समर्थन करते रहे हैं और १९६७ से ही हर तरह की केन्द्रीय सरकार उनका दमन करती रही है) "वसूली" और "बलात्कार" जैसे आरोप लगाये जा रहे हैं, जो आरोप उनके ख़िलाफ़ आज तक किसी ने नहीं लगाये. कारण ऊपर बयान की गयी हक़ीक़त में है -- प्रधान मन्त्री कार्यालय, गृह मन्त्रालय, सेना, कारपोरेट पूंजीवादी घरानों और निगमों और उनके पोषित मीडिया का घृणित गंठजोड़, जिसकी हिरावल और सबसे वफ़ादार क़तार में मृणाल वल्लरी के साथ हैं चन्दन मित्रा, बरखा दत्त और अर्नब गोस्वामी जैसे "हिज़ मास्टर्स वायस" के क़दम-तालिये. अ़च्छा तो यह होता कि मृणाल वल्लरी अपनी "प्रखर" और "जुझारू" चेतना और स्त्रीवादी विचारधारा से अनुप्राणित हो कर उमा उर्फ़ सोमा मांडी के साथ सरकार द्वारा किये गये बलात्कार का (हां, किसी भी महिला को सत्ता द्वारा अपनी घिनौनी साज़िश का औज़ार बनाना उसके साथ बलात्कार करना ही है) प्रतिकार करतीं. लेकिन इस काम में उनका अन्ध-माओवाद विरोध आड़े आ गया और उनके सारे स्त्रीवाद की पोल खोल गया. उन्होंने मेरे लेखों का इतना नोटिस लिया, मुझ पर तरह -तरह के ताने-तिश्ने कसे, लेकिन न तो मोहल्ला लाइव में उद्धृत अपने पहले लेख के शीर्षक "लाल क्रान्ति के सपने की कालिमा" के ऊपर लगाये गये मुख्य शीर्षक "क्या माओवादी बलात्कारी होते हैं ?" पर आपत्ति की, न मौडरेटर की टिप्पणी पर कुछ कहा, न अंजनी के सवालों का जवाब दिया. मैं यहां मौडरेटर की टिप्पणी उद्धृत कर रहा हूं :-
यह लेख आज जनसत्ता में छपा है। इसमें यह लगभग स्थापित करने की कोशिश की गयी है कि माओवादी मूवमेंट से जितनी भी महिलाएं जुड़ी हैं, वे बलात्कार की शिकार होती हैं और यह भी कि पूरा माओवादी मूवमेंट अपनी अंतर्यात्रा में एक चकलाघर है। किसी भी राज्यविरोधी आंदोलन को लेकर इस तरह के प्रचार की परंपरा नयी नहीं है और अपने समय के प्रखर बुद्धिजीवियों को राज्य की ओर से कोऑप्ट कर लेने की परंपरा भी पुरानी है। दिलचस्प ये है कि इस पूरे आलेख में उन अखबारों में छपे वृत्तांतों की विश्वसनीयता को आधार बनाया गया है, जो बाजार और राज्य के हाथों की कठपुतली है। यहां दो लिंक दे रहा हूं, उमा वाली खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में है और छवि वाली खबर द पायोनियर में है (जिस अख़बार के महान सम्पादक वही भा.ज.पा. के चहेते चन्दन मित्रा हैं -- नीलाभ) । इसी किस्म का एक अभियान द हिंदू में भी आप देखेंगे, जिसमें माओवादी आंदोलनों से जुड़ी खौफनाक-दुर्दांत सच्चाइयां (!) समय समय पर छापी जाती हैं। द हिंदू घोषित तौर पर सीपीएम का अखबार है और सीपीएम और माओवादियों की लड़ाई जगजाहिर है। भारत में मुख्यधारा के कम्युनिस्ट आंदोलनों का वर्तमान हमारे सामने है और माओवाद की चुनौतियों को नजरअंदाज करने के लिए उनके बुद्धिजीवी अतिजनवाद जैसे जुमलों के साथ इस आंदोलन के वैचारिक आधार से तार्किक सामना नहीं करते बल्कि कुछ कथित हादसों की गिनती का सहारा लेते हैं। जैसे अतिजनवाद के बरक्स कमजनवाद जनता की ज्यादा विवेकशील चिंता करता हो। बहरहाल, मृणाल वल्लरी के इस लेख को किसी भी जन आंदोलन के खिलाफ एक घिनौनी साजिश का हिस्सा मानना चाहिए, जिसमें कुछ घटनाओं के माध्यम से पूरे आंदोलन को बर्खास्त करने की कोशिश की जाती है : मॉडरेटर
सुधी पाठकगण, मौडरेटर की अन्तिम पंक्तियां ग़ौर-तलब हैं -- "मृणाल वल्लरी के इस लेख को किसी भी जन आंदोलन के खिलाफ एक घिनौनी साजिश का हिस्सा मानना चाहिए, जिसमें कुछ घटनाओं के माध्यम से पूरे आंदोलन को बर्खास्त करने की कोशिश की जाती है." लेकिन इसका गिला अब क्या करना, उनके दूसरे लेख मॆं भी यही प्रवृत्ति दिखती है और चूंकि वह लेख सात साल पहले का है, इसलिए क्या यह नहीं माना जा सकता कि सात साल में वह प्रवृत्ति इतनी बद्धमूल हो गयी कि सत्ता और पूंजीपतियों की बांदी बन गयी ?
इस लेख की अगली कड़ी -- "स्त्री-विमर्श का पाखण्ड-प्रपंच" -- अगले अंक में कल पढ़िए
Tuesday, October 26, 2010
झूठ के पुलिन्दों पर बैठा स्त्री-विमर्श
कल से आगे आज जारी अगला हिस्सा
इससे पहले कि मैं मृणाल के लेख "बरसाती नदियां बहुत धोखेबाज़ होती हैं, नीलाभ जी" की कुछ बातों पर टिप्पणी करूं, मैं "जनज्वार" ब्लौग से अंजनी के लेख की कुछ पंक्तियां उद्धृत कर रहा हूं जिनका उत्तर देने में अक्षम होने और अपनी चोरी पकड़े जाने पर मृणाल ने मुझे अपने तीरों का निशाना बनाने की कोशिश की है :--
"उमा मांडी यानी सोमा मांडी के आत्मसमर्पण एवं सीपीआई (माओवादी) के नेताओं पर बलात्कार के आरोप की कहानी 24अगस्त को टाइम्स ऑफ इंडिया ने सनसनीखेज तरीके से पेश की। एक स्त्री की गरिमा और आम परम्परा तथा विशाखा निर्देशों (महिला हितों की रक्षा के लिए बना कानून) की धज्जी उड़ाते हुए इस अखबार ने उमा मांडी के फोटो और मूल नाम को भी छापा। इस घटना के लगभग दो हफ्ते बाद जनसत्ता में उसी कहानी को सच मानते हुए न केवल माओवादियों पर बल्कि लाल क्रांति पर कीचड़ उछालने वाला मृणाल वल्लरी का लेख छपा।
बीच के दो हफ़्तों में इस संदर्भ में तथ्य संबधी लेख,खबर और प्रेस रिपोर्ट भी छपकर सामने आये,लेकिन न तो लेखिका (मृणाल वल्लरी) को पत्रकारिता के न्यूनतम उसूलों की चिंता थी और न ही 'जनसत्ता' को सच को प्रतिष्ठा प्रदान करने की। लगता है कि उनकी चिंता 'कालिमा' को सनसनीखेज तरीके से पेश करने की थी और इसके लिए माओवादी आसान पात्र थे। ठीक वैसे ही जैसे किसी भी जनपक्षधर नेतृत्व को माओवादी घोषित कर पूरे जनांदोलन को सनसनीखेज बनाकर कुचल देने के लिए पूर्व कहानी गढ़ लेना। आइए, दो हफ्ते में गुजरे कुछ तथ्यों पर नजर डालें।
द टेलीग्राफ में 29अगस्त को प्रणब मंडल के हवाले से सोमा यानी उमा मांडी के कथित आत्मसमर्पण की कहानी पर खबर छपी। इस रिपोर्ट के अनुसार उमा मांडी 20अप्रैल को कमल महतो के साथ मिदनापुर से 15किमी दूर राष्ट्रीय राजमार्ग-6पर पोरादीही में गिरफ्तार हुई थीं। कमल महतो को पुलिस ने 17अगस्त को कोर्ट में पेश कियालेकिन सोमा की गिरफ्तारी नहीं दिखाई गयी। इस रिपोर्टर के अनुसार इस बात की पुष्टि न केवल उनके रिश्तेदार, बल्कि पुलिस के एक हिस्से ने भी की।
इसी तारिख को 'यौन उत्पीड़न और राजकीय हिंसा के खिलाफ महिला मंच' ने एक प्रेस रिपोर्ट जारी कर टाइम्स ऑफ़ इंडिया के खबर की तीखी आलोचना करते हुए कुछ सवाल उठाये। एक सवाल का तर्जुमा देखिये :-आत्मसमर्पण के समय उमा द्वारा दिये गये बयान को ही आधार बनाकर खबर दे दी गयी। इसे अन्य स्रोतों से परखा नहीं गया। इस खबर को बाद में भी अन्य स्रोतों के बरक्स नहीं रखा गया। ज्ञात हो कि उपरोक्त मंच में एपवा से लेकर स्त्री अधिकार संगठन और एनबीए जैसे 60संगठन और सौ से ऊपर व्यक्तिगत सदस्य हैं। 11सितम्बर के तहलका (अंग्रेजी) में बोधिसत्व मेइती की खबर के अनुसार ज्ञानेश्वरी रेल त्रासदी के आरोप में 26मई को हीरालाल महतो को गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के समय पुलिस ने हीरालाल को एक दूसरी पुलिस जीप में हथकड़ी के साथ बांधी गयी उमा मांडी के सामने पेश करते हुए कहा- यह तुम्हें जानती है कि तुम माओवादी सहयोगी हो। उमा मांडी को पुलिस की जीप में और साथ में पुलिस को वर्दी में देखने वाले ग्रामीणों के बयान को भी इस रिपोर्ट में पढ़ा जा सकता है।
मानिक मंडल ने 31अगस्त को प्रेस क्लब, दिल्ली में बताया कि उमा मांडी की कहानी पुलिस द्वारा गढ़ी गयी है। उन्होंने अपने जेल अनुभव सुनाते हुए जेल में बंद पीसीपीए के कार्यकर्ताओं के उन पत्रों का हवाला दिया जिसमें उमा मांडी के पुलिस इन्फोर्मर होने की बात कही गयी है। इस पत्र के कुछ अंश तहलका ने जारी किये हैं।
उपरोक्त तथ्यों के अलावा यदि हम प.मिदनापुर के एसपी मनोज वर्मा के उमा मांडी के आत्मसमर्पण के समय के और बाद के बयानों को देखें तब भी इस मुद्दे के ढीले पेंच नजर आयेंगे। एक संवेदनशील एवं गंभीर मुद्दे पर इन तथ्यों को नजरअंदाज कर लेख लिख मारने और छाप देने के पीछे न तो जल्दीबाजी का मामला दिख रहा है और न ही लापरवाही का। क्योंकि यहाँ हम इस तथ्य से भी वाकिफ हैं कि मृणाल वल्लरी लंबे समय से पत्रकारिता कर रही हैं, 'जनसत्ता' से जुड़ी हुई हैं और उन्हें युवा संभावनाशील पत्रकारों में शुमार किया जाता है।
अब सवाल यह है कि अपने अख़बार और मोहल्ला ब्लौग में सारी कूद-फांद मचाने के बाद महान स्त्रीवादी आन्दोलनकर्त्री और जुझारू पत्रकार मृणाल वल्लरी इन आरोपों का जवाब देने से क्यों कतरा गयीं ? ऐसा नहीं है कि उमा उर्फ़ सोमा मांडी की असलियत उनसे छिपी थी. दरअसल, खेल इससे कहीं अधिक गहरा और घातक है.
इस लेख की अगली कड़ी "चिदम्बरम के गोएबल्ज़" -- कल के अंक में देखें
इससे पहले कि मैं मृणाल के लेख "बरसाती नदियां बहुत धोखेबाज़ होती हैं, नीलाभ जी" की कुछ बातों पर टिप्पणी करूं, मैं "जनज्वार" ब्लौग से अंजनी के लेख की कुछ पंक्तियां उद्धृत कर रहा हूं जिनका उत्तर देने में अक्षम होने और अपनी चोरी पकड़े जाने पर मृणाल ने मुझे अपने तीरों का निशाना बनाने की कोशिश की है :--
"उमा मांडी यानी सोमा मांडी के आत्मसमर्पण एवं सीपीआई (माओवादी) के नेताओं पर बलात्कार के आरोप की कहानी 24अगस्त को टाइम्स ऑफ इंडिया ने सनसनीखेज तरीके से पेश की। एक स्त्री की गरिमा और आम परम्परा तथा विशाखा निर्देशों (महिला हितों की रक्षा के लिए बना कानून) की धज्जी उड़ाते हुए इस अखबार ने उमा मांडी के फोटो और मूल नाम को भी छापा। इस घटना के लगभग दो हफ्ते बाद जनसत्ता में उसी कहानी को सच मानते हुए न केवल माओवादियों पर बल्कि लाल क्रांति पर कीचड़ उछालने वाला मृणाल वल्लरी का लेख छपा।
बीच के दो हफ़्तों में इस संदर्भ में तथ्य संबधी लेख,खबर और प्रेस रिपोर्ट भी छपकर सामने आये,लेकिन न तो लेखिका (मृणाल वल्लरी) को पत्रकारिता के न्यूनतम उसूलों की चिंता थी और न ही 'जनसत्ता' को सच को प्रतिष्ठा प्रदान करने की। लगता है कि उनकी चिंता 'कालिमा' को सनसनीखेज तरीके से पेश करने की थी और इसके लिए माओवादी आसान पात्र थे। ठीक वैसे ही जैसे किसी भी जनपक्षधर नेतृत्व को माओवादी घोषित कर पूरे जनांदोलन को सनसनीखेज बनाकर कुचल देने के लिए पूर्व कहानी गढ़ लेना। आइए, दो हफ्ते में गुजरे कुछ तथ्यों पर नजर डालें।
द टेलीग्राफ में 29अगस्त को प्रणब मंडल के हवाले से सोमा यानी उमा मांडी के कथित आत्मसमर्पण की कहानी पर खबर छपी। इस रिपोर्ट के अनुसार उमा मांडी 20अप्रैल को कमल महतो के साथ मिदनापुर से 15किमी दूर राष्ट्रीय राजमार्ग-6पर पोरादीही में गिरफ्तार हुई थीं। कमल महतो को पुलिस ने 17अगस्त को कोर्ट में पेश कियालेकिन सोमा की गिरफ्तारी नहीं दिखाई गयी। इस रिपोर्टर के अनुसार इस बात की पुष्टि न केवल उनके रिश्तेदार, बल्कि पुलिस के एक हिस्से ने भी की।
इसी तारिख को 'यौन उत्पीड़न और राजकीय हिंसा के खिलाफ महिला मंच' ने एक प्रेस रिपोर्ट जारी कर टाइम्स ऑफ़ इंडिया के खबर की तीखी आलोचना करते हुए कुछ सवाल उठाये। एक सवाल का तर्जुमा देखिये :-आत्मसमर्पण के समय उमा द्वारा दिये गये बयान को ही आधार बनाकर खबर दे दी गयी। इसे अन्य स्रोतों से परखा नहीं गया। इस खबर को बाद में भी अन्य स्रोतों के बरक्स नहीं रखा गया। ज्ञात हो कि उपरोक्त मंच में एपवा से लेकर स्त्री अधिकार संगठन और एनबीए जैसे 60संगठन और सौ से ऊपर व्यक्तिगत सदस्य हैं। 11सितम्बर के तहलका (अंग्रेजी) में बोधिसत्व मेइती की खबर के अनुसार ज्ञानेश्वरी रेल त्रासदी के आरोप में 26मई को हीरालाल महतो को गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के समय पुलिस ने हीरालाल को एक दूसरी पुलिस जीप में हथकड़ी के साथ बांधी गयी उमा मांडी के सामने पेश करते हुए कहा- यह तुम्हें जानती है कि तुम माओवादी सहयोगी हो। उमा मांडी को पुलिस की जीप में और साथ में पुलिस को वर्दी में देखने वाले ग्रामीणों के बयान को भी इस रिपोर्ट में पढ़ा जा सकता है।
मानिक मंडल ने 31अगस्त को प्रेस क्लब, दिल्ली में बताया कि उमा मांडी की कहानी पुलिस द्वारा गढ़ी गयी है। उन्होंने अपने जेल अनुभव सुनाते हुए जेल में बंद पीसीपीए के कार्यकर्ताओं के उन पत्रों का हवाला दिया जिसमें उमा मांडी के पुलिस इन्फोर्मर होने की बात कही गयी है। इस पत्र के कुछ अंश तहलका ने जारी किये हैं।
उपरोक्त तथ्यों के अलावा यदि हम प.मिदनापुर के एसपी मनोज वर्मा के उमा मांडी के आत्मसमर्पण के समय के और बाद के बयानों को देखें तब भी इस मुद्दे के ढीले पेंच नजर आयेंगे। एक संवेदनशील एवं गंभीर मुद्दे पर इन तथ्यों को नजरअंदाज कर लेख लिख मारने और छाप देने के पीछे न तो जल्दीबाजी का मामला दिख रहा है और न ही लापरवाही का। क्योंकि यहाँ हम इस तथ्य से भी वाकिफ हैं कि मृणाल वल्लरी लंबे समय से पत्रकारिता कर रही हैं, 'जनसत्ता' से जुड़ी हुई हैं और उन्हें युवा संभावनाशील पत्रकारों में शुमार किया जाता है।
अब सवाल यह है कि अपने अख़बार और मोहल्ला ब्लौग में सारी कूद-फांद मचाने के बाद महान स्त्रीवादी आन्दोलनकर्त्री और जुझारू पत्रकार मृणाल वल्लरी इन आरोपों का जवाब देने से क्यों कतरा गयीं ? ऐसा नहीं है कि उमा उर्फ़ सोमा मांडी की असलियत उनसे छिपी थी. दरअसल, खेल इससे कहीं अधिक गहरा और घातक है.
इस लेख की अगली कड़ी "चिदम्बरम के गोएबल्ज़" -- कल के अंक में देखें
Monday, October 25, 2010
समाधान की नक़ाब ओढ़े संहार उर्फ़ दोज़ख़ में बदली हुई जन्नत
जैसे-जैसे हमारे देश में आन्तरिक विग्रह बढ़ता जा रहा है और लूट-खसोट का बाज़ार अपने उरूज़ पर है, जिसकी सबसे नुमायां मिसालें हैं हाल के कौमनवेल्थ खेल और पिछले कई वर्षों से छत्तीसगढ़, झारखण्ड, आन्ध्र, महाराष्ट्र, उड़ीसा और बंगाल के आदिवासी इलाक़ों में सरकार की मदद से बड़े पूंजीवादी निगमों के दमन और अत्याचार का कसता शिकंजा, जैसे-जैसे हमारे देश में आबादी का एक बड़ा हिस्सा महंगाई, बेरोज़गारी और बुनियादी अधिकारों के छिनने का शिकार हो रहा है. जैसे-जैसे हमारे देश में अमीर इतने अमीर हो गये हैं कि उनकी दौलत साधारण गणित के बाहर चली गयी है और ग़रीब इतने ग़रीब कि वे भी शुमार के परे पहुंच गये हैं. जैसे-जैसे हमारे देश में कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना को परीकथाओं के लोक में धकेल दिया गया है और सरकार ने उन लोगों के प्रति अपनी सारी ज़िम्मेदारियों से हाथ धो लिये हैं, जिनका प्रतिनिधित्व करने का वह दावा करती है. और जैसे-जैसे हमारे देश में स्वर्ग ही की तरह लोकतन्त्र भी इहलोक की जगह परलोक की चीज़ हो गया है जिसके मिलने की सम्भावना शायद मरणोपरान्त ही है, अगर है तो -- वैसे-वैसे कश्मीर का सवाल और अयोध्या के प्रस्तावित राम मन्दिर का प्रश्न -- ये दो मसले और सभी सवालों को पीछे छोड़ कर आगे आ गये हैं और इनके बारे में किसिम-किसिम के बयान और फ़तवे दिये जाने लगे हैं जबकि ये मसले स्थायी और न्यायपूर्ण समाधान की मांग करते हैं.
जहां तक अयोध्या का मसला है, उस पर हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने जो फ़ैसला दिया है, उसने आस्था को आधार बना कर तथ्य और तर्क को परे रखते हुए, होशमन्द-से-होशमन्द आदमी को चकरा दिया है. इस फ़ैसले की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि न्यायाधीश तो जानते ही थे कि इस फ़ैसले को चुनौती दी जायेगी, अब आम लोग भी जानने लगे हैं कि इस फ़ैसले से सवाल सुलझेगा कम, उलझ अलबत्ता और भी जायेगा. खुश हैं तो सिर्फ़ संघ परिवार के लोग जिनकी पिटी हुई नौटंकी को इस फ़ैसले से नयी ज़िन्दगी और नयी मीयाद मिल गयी है. उनके दोनों हाथों में लड्डू हैं. वे बाबरी मस्जिद की विवाद-ग्रस्त ज़मीन के दो-तिहाई हिस्से पर (निर्मोही अखाड़े के साथ) मन्दिर बना सकते हैं, अदालत के बाहर सुन्नी वक्फ़ बोर्ड पर दबाव बना कर उसे मस्जिद बनाने से उपराम कर सकते हैं या उस ज़मीन को मन्दिर हेतु देने के लिए राज़ी करने की कोशिश कर सकते हैं, या फिर सर्वोच्च न्यायालय में जा सकते हैं. इस फ़ैसले के बल पर वे हिन्दुओं में अपनी गिरी हुई पैठ को फिर दुरुस्त करने की कोशिश तो करेंगे ही. सुन्नी वक्फ़ बोर्ड ज़रूर सांसत में है, क्योंकि उसकी स्थिति दांतों के बीच जीभ जैसी है. जगह का जैसे बंटवारा करने की जुगुत न्यायाधीशों ने बैठायी है, उसके हिसाब से मस्जिद तो बनेगी नहीं और ऐसी कोई भी कोशिश अप्रियता ही पैदा करेगी और उसे छोड़ देना जैसा कि दबाव हिन्दू कट्टरपन्थियों और उदार धर्म-निरपेक्षतावादियों द्वारा डाला जा रहा है, उसे मान लेना अपनी सारी टेक छोड़ देने के बराबर होगा और वह भी किसी लज़्ज़त के बग़ैर और मसले के किसी मुस्तक़िल हल तक पहुंचे बिना. सो, सर्वोच्च न्यायालय जाना ही एकमात्र उपाय बचता है. यों, अब तक के सारे घटनाक्रम के बाद न्यायालय पर कितना भरोसा मुसलमानों को रह गया होगा, यह सोचने की बात है.
रहा सवाल कश्मीर का, तो यह मसला भी अपने ताज़ा दौर में लगभग उतना ही पुराना है जितना अयोध्या का मसला. कश्मीर में क़बाइलियों का हमला 1948 में हुआ था तो बाबरी मस्जिद के सिलसिले में मुक़द्दमा भी 1948 में ही दायर हुआ और अयोध्या में षड्यंत्रपूर्वक रामलला की मूर्ति न्यायालय में विचाराधीन वाद को प्रभावित करने की ख़ातिर 1949 में रखी गयी जिसका हवाला सब-इन्सपेक्टर की रिपोर्ट में है और जिसका संज्ञान तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले में नहीं लिया गया है. सच तो यह है कि ये दोनों ही मसले आधुनिक हिन्दुस्तान की तारीख़ में सीधे-सीधे उस विराट अनर्थकारी घटना के परिणाम हैं जिसे हिन्दुस्तान का बंटवारा कहते हैं.
वैसे तो किसी भी भूभाग में सीमा-निर्धारण कभी अन्तिम नहीं होता. देशों के इतिहास में सत्ता के बदलते समीकरणों के अनुसार भूभाग इधर-उधर होते रहे हैं, होते रहते हैं, 1945 में बांटा गया जर्मनी आज एक है. लेकिन दो राष्ट्रों के सिद्धान्त पर 1947 में हिन्दुस्तान का बंटवारा ऐसा बदक़िस्मती-भरा हादसा है जिसकी मिसाल हमारे इतिहास में सदियों से नहीं मिलती. दो राष्ट्रों के इस नक़ली और जन-विरोधी सिद्धान्त पर देश को बांटने का फ़ैसला जितने ख़ून-ख़राबे और जितनी मानवीय पीड़ा की क़ीमत पर, बांटे जा रहे लोगों की इच्छा-अनिच्छा जाने और उसका ख़याल किये बग़ैर, और आगे भविष्य में विग्रह और वैमनस्य के आधार पैदा करते हुए जिस निर्णायक ढंग से किया गया वह पिछले तीन-चार हज़ार साल के इतिहास में अभूतपूर्व है. इस फ़ैसले को रूप देने वाले तो हिन्दुस्तान की जनता के तईं गुनहगार हैं ही, इसे तस्लीम करने वाले नेता भी उतने ही गुनहगार हैं. ऐसी हालत में यह सवाल उतना सीधा नहीं रह जाता कि कश्मीर (या देश का कोई भी हिस्सा) हिन्दुस्तान का अभिन्न और अखण्ड अंग है या नहीं, था या नहीं, और रहना चाहिए या नहीं और अगर नहीं रहना चाहिए तो फिर उसके अस्तित्व का क्या स्वरूप होना चाहिए.
इसमें कोई शक नहीं है कि हिन्दुस्तान की सरकार ने एक लम्बे समय तक कश्मीर को विशेष दर्जा देते हुए कुछ खास क़िस्म के "पैकेज" देने का बन्दोबस्त किया हुआ है. लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं है कि वहां के आम लोगों के हालात बद-से-बदतर होते चले गये हैं और वहां अरसे से असन्तोष पनपता रहा है जिसका कोई मुकम्मल समाधान नहीं किया गया. इससे भी कोई मुकर नहीं सकता कि एक बहुत लम्बे अरसे से केन्द्रीय सरकार ने कश्मीर में सेना तैनात कर रखी है और "सैन्य बल विशॆष अधिकार क़ानून" वहां लागू कर रखा है. 1989 से अब तक लगभग बीस बरसों में हज़ारों कश्मीरी लोग मार दिये गये हैं या फ़ौजों और अन्य सुरक्षा बलों द्वारा लापता कर दिये गये हैं. ख़ुद भारत सरकार ने माना है कि अब तक 47,000 लोग जानें गंवा बैठे हैं जिनमें फ़ौजियों और सुरक्षाकर्मियों की संख्या 7,000 है और इनमें लापता लोगों की तादाद शामिल नहीं है. अन्य सूत्रों का कहना है कि मारे गये और लापता लोगों की संख्या 1,00,000 से ऊपर है. चूंकि फ़ौजियों और सुरक्षाकर्मियों के बारे में आंकड़े ग़लत नहीं हो सकते, इसलिए हैरत होती है कि वहां किस पैमाने पर और किस क़िस्म की कार्रवाई हो रही है. यह कैसा समाधान है जो लोगों को नेस्त-नाबूद करके किया जा रहा है और क्यों इसे जनसंहार नहीं कहा जाना चाहिए ?
कश्मीर में हिन्दुस्तानी फ़ौज का रिकार्ड बहुत ख़राब रहा है. ऐसा कोई अमानवीय कृत्य नहीं है जो उसने वहां न किया हो -- हत्या से ले कर बलात्कार तक. ज़ाहिर है कि केन्द्रीय सरकार ने ख़ुद प्रकारान्तर से यह मान लिया है कि कश्मीर में उसकी फ़ौज हमलावर फ़ौज की तरह उपस्थित है. यहां तक कि आम हिन्दुस्तानियों को भी महसूस होने लगा है कि तीस से भी अधिक वर्षों तक देश के किसी हिस्से और उसके वासियों को केवल फ़ौज के बल पर क़ाबू में रखना एक तरह से उस हिस्से और उसके वासियों पर युद्ध थोपने के बराबर है. कभी अंग्रेज़ों की तो कभी पकिस्तान की साज़िशों का हवाला दे कर सरकार ने कश्मीर के स्थायी राजनैतिक समाधान को टाले रखा है. शायद ऐसी ही चालें पकिस्तान के जन-विरोधी, अलोकप्रिय हुक्मरान भी अपनी जनता के प्रति अपने वादों को निभा न पाने के कारण असली मुद्दों से ध्यान बंटाने की ख़ातिर करते आ रहे हैं. सच तो यह है कि दोनों देशों की सरकारें अपने बाशिन्दों के तईं समान रूप से गुनहगार हैं और हिन्दुस्तान की सरकार लोकतन्त्र का जितना राग अलापे, लोकतन्त्र और जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने की दृष्टि से उसका रिकार्ड अनन्त दाग़ों और धब्बों से भरा है.
ऐसी हालत में अगर कश्मीरी जनता इस अन्तहीन सैनिक शासन से तंग आ कर आज़ादी की मांग करने लगी है तो इसमें हैरत कैसी ?
अब तक के मानव इतिहास में आत्म-निर्णय का अधिकार देशों का बुनियादी अधिकार होता है. इसी अधिकार के चलते अतीत में किसी मोड़ पर महाराष्ट्र और सौराष्ट्र जैसी राष्ट्रिकताओं ने हिन्दुस्तान में रहने का फ़ैसला किया था. इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि हिन्दुस्तान अनेक राष्ट्रिकताओं, भाषाओं, धर्मों, जातियों, विश्वासों और रहन-सहन की शैलियों का देश है. यह उसकी ख़ासियत है. ऐसी स्थिति में कश्मीर हो या पूर्वोत्तर के प्रान्त, उनमें पनपने वाले असन्तोष का निराकरण फ़ौज के बल पर नहीं किया जा सकता और नहीं किया जाना चाहिए. यहां तक कि पुराने नाम से पुकारूं तो जम्बू द्वीप के किसी भी हिस्से के स्वरूप और उसकी क़िस्मत का फ़ैसला इतिहास की गवाही के आधार पर और राजनैतिक ढंग से, जनता के आत्म-निर्णय के अधिकार को तस्लीम करके ही किया जाना चाहिए. 1947 में हमारे नेताओं ने अंग्रेज़ों के प्रति अपनी ग़ुलामाना ज़ेहनियत के चलते (जो, प्रधान मन्त्री के औक्सफ़ोर्ड भाषण को देखें तो, आज तक बरक़रार है) इस बुनियादी सिद्धान्त को ताक पर धर दिया जिसका ख़मियाज़ा हम आज तक भुगत रहे हैं.
जहां तक कश्मीर के मसले को उलझाने में बाहरी (कथित रूप से पाकिस्तानी) साज़िश वाली मान्यता का सवाल है, एक बुनियादी सत्य यह है कि जब तक आन्तरिक भेद-भाव और विभाजन न हो तब तक कोई बाहरी ताक़त हावी नहीं हो सकती. इसलिए पाकिस्तान को पूरी तरह दोषी ठहराने की बजाय या फिर संघ परिवार और उन जैसे हिंसक मनुष्य-विरोधी कट्टरपन्थियों की चीख़-पुकार के आगे झुकने की बजाय और अपनी ख़ामियों का दोष कभी अंग्रेज़ों के, कभी पाकिस्तान के और कभी अमरीका के मत्थे मढ़्ने से बेहतर होगा कि हम और हमारी सरकार अपने गरेबान में झांके और हर मतभेद को फ़ौजी कार्रवाई द्वारा सुलझाने से गुरेज़ करे. राजनैतिक समस्याओं का राजनैतिक हल ही खोजना और लागू करना चाहिए. ऐसा न करने पर ही यह हुआ है कि आज कश्मीरी जनता आज़ादी की मांग करने लगी है. हिन्दुस्तान से भी और पाकिस्तान से भी क्योंकि जहां तक कश्मीरियों का सवाल है ये दोनों देश एक ही सिक्के के दो पहलू साबित हुए हैं.
अगर हम अन्धे नहीं हैं तो दीवार पर लिखी इबारत साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती है. कश्मीर को कभी "फ़िरदौस बर रुए ज़मीन" कहा गया था -- धरती पर स्वर्ग -- ज़मीन पर जन्नत. ज़रा देखिए कि हमने किस ख़ूबी से उस जन्नत को जहन्नुम में, फ़िरदौस को दोज़ख़ में तब्दील कर दिया है और इस गुनाह में हमारे हाथ भी उतने ही मुब्तिला हैं जितने पकिस्तान के.
जो हम अब भी न चेते तो फिर इस देश को खण्डित होने से हम बचा नहीं पायेंगे और शायद कश्मीर ही वह पहला हिस्सा होगा जो किसी अंग्रेज़ी हुकूमत की साज़िश के कारण नहीं, बल्कि विशुद्ध रूप से हमारे निर्मम, क्रूर, अमानवीय, अन्यायपूर्ण और हिंसक व्यवहार के कारण अलग होगा और कोई भी ताक़त या तर्क इसे रोक नहीं पायेगा.
जहां तक अयोध्या का मसला है, उस पर हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने जो फ़ैसला दिया है, उसने आस्था को आधार बना कर तथ्य और तर्क को परे रखते हुए, होशमन्द-से-होशमन्द आदमी को चकरा दिया है. इस फ़ैसले की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि न्यायाधीश तो जानते ही थे कि इस फ़ैसले को चुनौती दी जायेगी, अब आम लोग भी जानने लगे हैं कि इस फ़ैसले से सवाल सुलझेगा कम, उलझ अलबत्ता और भी जायेगा. खुश हैं तो सिर्फ़ संघ परिवार के लोग जिनकी पिटी हुई नौटंकी को इस फ़ैसले से नयी ज़िन्दगी और नयी मीयाद मिल गयी है. उनके दोनों हाथों में लड्डू हैं. वे बाबरी मस्जिद की विवाद-ग्रस्त ज़मीन के दो-तिहाई हिस्से पर (निर्मोही अखाड़े के साथ) मन्दिर बना सकते हैं, अदालत के बाहर सुन्नी वक्फ़ बोर्ड पर दबाव बना कर उसे मस्जिद बनाने से उपराम कर सकते हैं या उस ज़मीन को मन्दिर हेतु देने के लिए राज़ी करने की कोशिश कर सकते हैं, या फिर सर्वोच्च न्यायालय में जा सकते हैं. इस फ़ैसले के बल पर वे हिन्दुओं में अपनी गिरी हुई पैठ को फिर दुरुस्त करने की कोशिश तो करेंगे ही. सुन्नी वक्फ़ बोर्ड ज़रूर सांसत में है, क्योंकि उसकी स्थिति दांतों के बीच जीभ जैसी है. जगह का जैसे बंटवारा करने की जुगुत न्यायाधीशों ने बैठायी है, उसके हिसाब से मस्जिद तो बनेगी नहीं और ऐसी कोई भी कोशिश अप्रियता ही पैदा करेगी और उसे छोड़ देना जैसा कि दबाव हिन्दू कट्टरपन्थियों और उदार धर्म-निरपेक्षतावादियों द्वारा डाला जा रहा है, उसे मान लेना अपनी सारी टेक छोड़ देने के बराबर होगा और वह भी किसी लज़्ज़त के बग़ैर और मसले के किसी मुस्तक़िल हल तक पहुंचे बिना. सो, सर्वोच्च न्यायालय जाना ही एकमात्र उपाय बचता है. यों, अब तक के सारे घटनाक्रम के बाद न्यायालय पर कितना भरोसा मुसलमानों को रह गया होगा, यह सोचने की बात है.
रहा सवाल कश्मीर का, तो यह मसला भी अपने ताज़ा दौर में लगभग उतना ही पुराना है जितना अयोध्या का मसला. कश्मीर में क़बाइलियों का हमला 1948 में हुआ था तो बाबरी मस्जिद के सिलसिले में मुक़द्दमा भी 1948 में ही दायर हुआ और अयोध्या में षड्यंत्रपूर्वक रामलला की मूर्ति न्यायालय में विचाराधीन वाद को प्रभावित करने की ख़ातिर 1949 में रखी गयी जिसका हवाला सब-इन्सपेक्टर की रिपोर्ट में है और जिसका संज्ञान तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले में नहीं लिया गया है. सच तो यह है कि ये दोनों ही मसले आधुनिक हिन्दुस्तान की तारीख़ में सीधे-सीधे उस विराट अनर्थकारी घटना के परिणाम हैं जिसे हिन्दुस्तान का बंटवारा कहते हैं.
वैसे तो किसी भी भूभाग में सीमा-निर्धारण कभी अन्तिम नहीं होता. देशों के इतिहास में सत्ता के बदलते समीकरणों के अनुसार भूभाग इधर-उधर होते रहे हैं, होते रहते हैं, 1945 में बांटा गया जर्मनी आज एक है. लेकिन दो राष्ट्रों के सिद्धान्त पर 1947 में हिन्दुस्तान का बंटवारा ऐसा बदक़िस्मती-भरा हादसा है जिसकी मिसाल हमारे इतिहास में सदियों से नहीं मिलती. दो राष्ट्रों के इस नक़ली और जन-विरोधी सिद्धान्त पर देश को बांटने का फ़ैसला जितने ख़ून-ख़राबे और जितनी मानवीय पीड़ा की क़ीमत पर, बांटे जा रहे लोगों की इच्छा-अनिच्छा जाने और उसका ख़याल किये बग़ैर, और आगे भविष्य में विग्रह और वैमनस्य के आधार पैदा करते हुए जिस निर्णायक ढंग से किया गया वह पिछले तीन-चार हज़ार साल के इतिहास में अभूतपूर्व है. इस फ़ैसले को रूप देने वाले तो हिन्दुस्तान की जनता के तईं गुनहगार हैं ही, इसे तस्लीम करने वाले नेता भी उतने ही गुनहगार हैं. ऐसी हालत में यह सवाल उतना सीधा नहीं रह जाता कि कश्मीर (या देश का कोई भी हिस्सा) हिन्दुस्तान का अभिन्न और अखण्ड अंग है या नहीं, था या नहीं, और रहना चाहिए या नहीं और अगर नहीं रहना चाहिए तो फिर उसके अस्तित्व का क्या स्वरूप होना चाहिए.
इसमें कोई शक नहीं है कि हिन्दुस्तान की सरकार ने एक लम्बे समय तक कश्मीर को विशेष दर्जा देते हुए कुछ खास क़िस्म के "पैकेज" देने का बन्दोबस्त किया हुआ है. लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं है कि वहां के आम लोगों के हालात बद-से-बदतर होते चले गये हैं और वहां अरसे से असन्तोष पनपता रहा है जिसका कोई मुकम्मल समाधान नहीं किया गया. इससे भी कोई मुकर नहीं सकता कि एक बहुत लम्बे अरसे से केन्द्रीय सरकार ने कश्मीर में सेना तैनात कर रखी है और "सैन्य बल विशॆष अधिकार क़ानून" वहां लागू कर रखा है. 1989 से अब तक लगभग बीस बरसों में हज़ारों कश्मीरी लोग मार दिये गये हैं या फ़ौजों और अन्य सुरक्षा बलों द्वारा लापता कर दिये गये हैं. ख़ुद भारत सरकार ने माना है कि अब तक 47,000 लोग जानें गंवा बैठे हैं जिनमें फ़ौजियों और सुरक्षाकर्मियों की संख्या 7,000 है और इनमें लापता लोगों की तादाद शामिल नहीं है. अन्य सूत्रों का कहना है कि मारे गये और लापता लोगों की संख्या 1,00,000 से ऊपर है. चूंकि फ़ौजियों और सुरक्षाकर्मियों के बारे में आंकड़े ग़लत नहीं हो सकते, इसलिए हैरत होती है कि वहां किस पैमाने पर और किस क़िस्म की कार्रवाई हो रही है. यह कैसा समाधान है जो लोगों को नेस्त-नाबूद करके किया जा रहा है और क्यों इसे जनसंहार नहीं कहा जाना चाहिए ?
कश्मीर में हिन्दुस्तानी फ़ौज का रिकार्ड बहुत ख़राब रहा है. ऐसा कोई अमानवीय कृत्य नहीं है जो उसने वहां न किया हो -- हत्या से ले कर बलात्कार तक. ज़ाहिर है कि केन्द्रीय सरकार ने ख़ुद प्रकारान्तर से यह मान लिया है कि कश्मीर में उसकी फ़ौज हमलावर फ़ौज की तरह उपस्थित है. यहां तक कि आम हिन्दुस्तानियों को भी महसूस होने लगा है कि तीस से भी अधिक वर्षों तक देश के किसी हिस्से और उसके वासियों को केवल फ़ौज के बल पर क़ाबू में रखना एक तरह से उस हिस्से और उसके वासियों पर युद्ध थोपने के बराबर है. कभी अंग्रेज़ों की तो कभी पकिस्तान की साज़िशों का हवाला दे कर सरकार ने कश्मीर के स्थायी राजनैतिक समाधान को टाले रखा है. शायद ऐसी ही चालें पकिस्तान के जन-विरोधी, अलोकप्रिय हुक्मरान भी अपनी जनता के प्रति अपने वादों को निभा न पाने के कारण असली मुद्दों से ध्यान बंटाने की ख़ातिर करते आ रहे हैं. सच तो यह है कि दोनों देशों की सरकारें अपने बाशिन्दों के तईं समान रूप से गुनहगार हैं और हिन्दुस्तान की सरकार लोकतन्त्र का जितना राग अलापे, लोकतन्त्र और जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने की दृष्टि से उसका रिकार्ड अनन्त दाग़ों और धब्बों से भरा है.
ऐसी हालत में अगर कश्मीरी जनता इस अन्तहीन सैनिक शासन से तंग आ कर आज़ादी की मांग करने लगी है तो इसमें हैरत कैसी ?
अब तक के मानव इतिहास में आत्म-निर्णय का अधिकार देशों का बुनियादी अधिकार होता है. इसी अधिकार के चलते अतीत में किसी मोड़ पर महाराष्ट्र और सौराष्ट्र जैसी राष्ट्रिकताओं ने हिन्दुस्तान में रहने का फ़ैसला किया था. इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि हिन्दुस्तान अनेक राष्ट्रिकताओं, भाषाओं, धर्मों, जातियों, विश्वासों और रहन-सहन की शैलियों का देश है. यह उसकी ख़ासियत है. ऐसी स्थिति में कश्मीर हो या पूर्वोत्तर के प्रान्त, उनमें पनपने वाले असन्तोष का निराकरण फ़ौज के बल पर नहीं किया जा सकता और नहीं किया जाना चाहिए. यहां तक कि पुराने नाम से पुकारूं तो जम्बू द्वीप के किसी भी हिस्से के स्वरूप और उसकी क़िस्मत का फ़ैसला इतिहास की गवाही के आधार पर और राजनैतिक ढंग से, जनता के आत्म-निर्णय के अधिकार को तस्लीम करके ही किया जाना चाहिए. 1947 में हमारे नेताओं ने अंग्रेज़ों के प्रति अपनी ग़ुलामाना ज़ेहनियत के चलते (जो, प्रधान मन्त्री के औक्सफ़ोर्ड भाषण को देखें तो, आज तक बरक़रार है) इस बुनियादी सिद्धान्त को ताक पर धर दिया जिसका ख़मियाज़ा हम आज तक भुगत रहे हैं.
जहां तक कश्मीर के मसले को उलझाने में बाहरी (कथित रूप से पाकिस्तानी) साज़िश वाली मान्यता का सवाल है, एक बुनियादी सत्य यह है कि जब तक आन्तरिक भेद-भाव और विभाजन न हो तब तक कोई बाहरी ताक़त हावी नहीं हो सकती. इसलिए पाकिस्तान को पूरी तरह दोषी ठहराने की बजाय या फिर संघ परिवार और उन जैसे हिंसक मनुष्य-विरोधी कट्टरपन्थियों की चीख़-पुकार के आगे झुकने की बजाय और अपनी ख़ामियों का दोष कभी अंग्रेज़ों के, कभी पाकिस्तान के और कभी अमरीका के मत्थे मढ़्ने से बेहतर होगा कि हम और हमारी सरकार अपने गरेबान में झांके और हर मतभेद को फ़ौजी कार्रवाई द्वारा सुलझाने से गुरेज़ करे. राजनैतिक समस्याओं का राजनैतिक हल ही खोजना और लागू करना चाहिए. ऐसा न करने पर ही यह हुआ है कि आज कश्मीरी जनता आज़ादी की मांग करने लगी है. हिन्दुस्तान से भी और पाकिस्तान से भी क्योंकि जहां तक कश्मीरियों का सवाल है ये दोनों देश एक ही सिक्के के दो पहलू साबित हुए हैं.
अगर हम अन्धे नहीं हैं तो दीवार पर लिखी इबारत साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती है. कश्मीर को कभी "फ़िरदौस बर रुए ज़मीन" कहा गया था -- धरती पर स्वर्ग -- ज़मीन पर जन्नत. ज़रा देखिए कि हमने किस ख़ूबी से उस जन्नत को जहन्नुम में, फ़िरदौस को दोज़ख़ में तब्दील कर दिया है और इस गुनाह में हमारे हाथ भी उतने ही मुब्तिला हैं जितने पकिस्तान के.
जो हम अब भी न चेते तो फिर इस देश को खण्डित होने से हम बचा नहीं पायेंगे और शायद कश्मीर ही वह पहला हिस्सा होगा जो किसी अंग्रेज़ी हुकूमत की साज़िश के कारण नहीं, बल्कि विशुद्ध रूप से हमारे निर्मम, क्रूर, अमानवीय, अन्यायपूर्ण और हिंसक व्यवहार के कारण अलग होगा और कोई भी ताक़त या तर्क इसे रोक नहीं पायेगा.
Subscribe to:
Posts (Atom)