Tuesday, September 28, 2010

रिसती हुई क्रान्ति

चौथी किस्त

स्वाधीनता दिवस पर प्रधान मन्त्री का लाजवाब कल्पित भाषण अरुन्धती के क़लम से


अगर "व्यक्तिगत निष्ठा" के सिलसिले में हमारे प्रधान मन्त्री की शोहरत उनके भाषणों के शब्दों में प्रकट होती तो उन्होंने यह कहा होता --
"भाइयो और बहनो, इस रोज़ जब हम अपने महिमाशाली अतीत को याद करते हैं, आप सबका अभिवादन है. मैं जानता हूं कि चीज़ें थोड़ी मंहगी होती जा रही हैं, और आप लोग खाने की चीज़ों की क़ीमतों के बारे में हाय-तौबा करते रहते हैं. लेकिन इसे इस तरह देखिये -- आप में से ६५ करोड़ से ज़्यादा लोग किसानों या किसान-मज़दूरों की हैसियत में खेती में जुटे हुए हैं या उस से आजीविका चला रहे हैं, लेकिन आपकी कुल कोशिशों का योग हमारे सकल उत्पाद का १८ फ़ीसदी से भी कम ठहरता है. सो, क्या फ़ायदा है आपका ? हमारे सूचना तकनीक -- आई टी -- क्षेत्र को देखिये. उसमें हमारी ०.२ फ़ीसदी आबादी लगी हुई है और हमारी राष्ट्रीय आय का ५ फ़ीसदी हमें कमा कर देता है. क्या आप इसका मुक़ाबला कर सकते हैं ?.....

यह सच है कि हमारे देश में रोज़गार ने विकास की रफ़्तार का साथ नहीं दिया है, लेकिन ख़ुशक़िस्मती से हमारे काम करनेवालों का ६० फ़ीसदी हिस्सा स्व-रोज़गार में लगा हुआ है. हमारे मज़दूरों का ९० फ़ीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम कर रहा है. यह सच है कि उन्हें साल में कुछ ही महीने रोज़गार मिल पाता है, लेकिन चूंकि हमारे यहां "अल्प-रोज़गार-प्राप्त" करके कोई कोटि नहीं है, हम इस हिस्से को थोड़ा गोल-मोल ही रखते हैं. उन्हें खाते में "बेरोज़गार" के तौर पर दर्ज करना मुनासिब नहीं होगा. उन आंकड़ों पर विचार करते हुए जिनके अनुसार हमारे यहां दुनिया में सब्स ज़्यादा शिशुओं और माताओं की मृत्यु दर है, हमें एक राष्ट्र के रूप में एकजुत हो कर फ़िलहाल बुरी ख़बर को नज़रन्दाज़ कर देना चाहिये. इन समस्याओं पर हम बाद में ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं, अपनी रिसनेवाली क्रन्ति के बाद, जब स्वास्थ्य सेवाओं का पूरी तरह निजीकरण हो जायेगा. इस बीच, मुझे उम्मीद है आप सब लोग चिकित्सा सम्बन्धी बीमा खरीद रहे होंगे. रही इस तथ्य की बात कि खाने के अनाज की प्रति-व्यक्ति उपलब्धता दरअसल पिछले बीस बरसों में घट गयी है -- जो संयोग से हमारे सबसे गतिशील आर्थिक विकास का काल रहा है -- मेरा यक़ीन कीजिए, यह महज़ इत्तेफ़ाक़ है.

मेरे प्यारे नागरिको, हम एक नये हिन्दुस्तान का निर्माण कर रहे हैं जिसमें हमारे सौ सबसे अमीर लोगों की कुल सम्पत्ति हमारे सकल घरेलू उत्पाद का पच्चीस फ़ीसदी है. कम-से-कम हथों में दौलत का जमा होना हमेशा कुशलता को बढ़ाता है. आप सब ने वह कहावत सुन रखी है "जितने कपड़े उतना पाला, जितना कुनबा उतना मुकाला." हम अपने दुलारे अरबपतियों, अपने कुछ सौ करोड़पतियों, उनके भाई-भतीजों-रिश्तेदारों और उनके राजनैतिक और व्यावसायिक सहयोगियों को खुशहाल देखना चाहते हैं और चहते हैं कि वे अपनी ज़िन्दगियां शान्ति और भाईचारे के वातावरण में सम्मान और गरिमा से गुज़ारें जिसमें उनके बुनियादी अधिकार सुरक्षित रहें.

मुझे आभास है कि मेरे सपने केवल लोकतान्त्रिक उपाय इस्तेमाल करके पूरे नहीं हो सकते. सच तो यह है कि मैं यह विश्वास करने लगा हूं कि असली लोकतन्त्र बन्दूक़ की नली से निकलता है. यही वजह है कि हमने फ़ौज, पुलिस, केन्द्रीय सुरक्षा बल. सीमा सुरक्षा बल, केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल, प्रादेशिक सशस्त्र पुलिस-बल, भरत-तिब्बत सीमा सुरक्षा बल, पूर्वी सीमा राइफ़ल्ज़ के साथ-साथ स्कौर्पियन, ग्रेहाउण्ड और कोब्रा जैसे बलों को उन भटके हुए विप्लवों को कुचलने के लिए तैनात कर दिया है जो हमारे खनिज-समृद्ध इलाक़ों में फूट रहे हैं.

लोकतन्त्र के साथ हमारा प्रयोग नगालैण्ड, मणिपुर और कश्मीर में शुरू हुआ. कश्मीर, मुझे दोहराने की ज़रूरत नहीं, हिन्दुस्तान का अखण्ड हिस्सा है. हमने वहां लोगों को लोकतन्त्र की सौग़ात देने के लिए ५ लाख से ज़्यादा फ़ौजी तैनात किये हैं. वे कश्मीरी युवक जो जो पिछले दो महीनों से कर्फ़्यू का उल्लंघन करके और पुलिसवालों पर पथराव करके अपनी जन जोखिम में डालते रहे हैं, लश्कर-ए-तैयबा के मरजीवड़े हैं जो दरअसल आज़ादी नहीं रोज़गार चाहते हैं. अफ़सोस, इस से पहले कि हम नौकरियों के लिए उनकी अर्ज़ियां पढ़ पाते उन में से सौ अपनी जानें गवां बैठे हैं. मैं ने अब से पुलिस को हिदायत दे दी है कि इन भटके हुए नौजवानों को मारने के लिए नहीं घायल करने के लिए गोलियां चलायें. "


अपने सात साल के कर्यकाल में मनमोहन सिंह ने ख़ुद को सोनिया गांधी के अस्थायी, नरम-मिज़ाज वाले पिट्ठू के रूप में ढल जाने दिया है. यह उस आदमी के लिए सबसे मुफ़ीद भेस है जिसने पिछले बीस बरसों के दौरान पहले वित्त मन्त्री के रूप में और फिर प्रधान मन्त्री की हैसियत से नयी आर्थिक नीतियों के ऐसे निज़ाम को बलपूर्वक आगे बढ़ाया है जो हिन्दुस्तान को उस परिस्थिति में ले आया है जिसमें वह ख़ुद को अब पा रहा है. इस का अभिप्राय यह नहीं है कि मन्मोहन सिंह पिट्ठू नहीं हैं. महज़ यह कि उनके सारे आदेश सोनिया गांधी से नहीं आते. अपनी आत्मकथा -- एक प्रलापी का क़िस्सा -- में पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मन्त्री, अशोक मित्र ने मनमोहन सिंह के सत्ता में आने की अपनी कहानी बयान की है. १९९१ में, जब हिन्दुस्तान का विदेशी मुद्रा भण्डार ख़तरनाक ढंग से घट गया था तो नरसिंह राव सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से आपातकालीन क़र्ज़ की दर्ख़्वास्त की थी. मुद्रा कोष दो शर्तों पर राज़ी हुआ था. पहली थी ढांचागत फेर-बदल और आर्थिक सुधार. और दूसरी थी ऐसा वित्त मन्त्री जिसे मुद्रा कोष ने चुना हो. यह आदमी, अशोक मित्र के अनुसार, मनमोहन सिंह थे.

इन वर्षों के दौरान उनहों ने अपने मन्त्रि-मण्डल और नौकरशाही को ऐसे लोगों से भर लिया है जो धार्मिक निष्ठा से हर चीज़ को बड़े पूंजीपतियों के कब्ज़े में देने के लिए कटिबद्ध हैं -- चाहे वह पानी हो या बिजली, खनिज, खेती, ज़मीन, दूरसंचार, शिक्षा, या स्वास्थ्य -- फिर इसके नतीजे भले जो भी हों.

सोनिया गांधी और उनका बेटा, दोनों, इस सब में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. उनका काम करुणा और करिश्मे का विभाग चलाना और चुनाव जीतना है. उन्हें ऐसे निर्णय करने ( और श्रेय भी लेने ) की छूट है जो प्रगतिशील जान पड़ते हैं पर असल में प्रतीकात्मक और रणनीतिक हैं, जिनका उद्देश्य जन-साधारण के आक्रोश की धार को गोठिल करना और सरकार के बड़े जहाज़ को चालू रखना है.

(इसका सब से ताज़ा तरीन नमूना उस रैली में देखने को मिला जिसे राहुल गांधी के लिए आयोजित किया गया था ताकि वह वेदान्त द्वारा नियमगिरि की पहाड़ियों में बौक्साइट के खनन की इजज़ात के रद्द किये जाने का विजय समारोह मना सके. यह वही लड़ाई है जिसे डोंगरिया कोंड आदिवासी और स्थानीय और अन्तर्राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं का समूह बर्सों से लड़ रहा है. रैली में राहुल गांधी ने ऐलान किया कि वह "आदिवासी लोगों का एक सिपाही" है. उसने इस बात का ज़िक्र नहीं किया कि उसकी पार्टी की आर्थिक नीतियां आदिवासी समुदाय के सामूहिक विस्थापन का प्रतिपादन ही नहीं करतीं, उस पर टिकी भी हुई हैं. या फिर यह कि पास-पड़ोस के हर दूसरे बौक्साइट-समृद्ध गिरि (पर्वत) को खनन करके खोखला किया जा रहा है, जिस बीच यह "आदिवासियों का सिपाही" अपनी नज़रें किसी दूसरी तरफ़ फेरे हुए है.

राहुल गांधी शरीफ़ आदमी हो सकता है, लेकिन उसके लिए "दो हिन्दुस्तानों" -- "अमीरों का हिन्दुस्तान" और "ग़रीबों का हिन्दुस्तान" का आलाप करते घूमते रहना, मानो जिस पार्टी का वह प्रतिनिधित्व करता है उसका इस में कोई हाथ नहीं है, सब की बुद्धि का अपमान करना है, अपनी बुद्धि का भी.


अगली किस्त में पूंजी और पावर के पैंतरेबाज़ पी. चिदम्बरम क क़िस्सा

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