Friday, September 24, 2010

रिसती हुई क्रान्ति

रिसती हुई क्रान्ति

जो चुराता है बत्तख पंचायती ज़मीन से,
क़ानून रियायत नहीं करता उस अभागे कमीन से;
पर छुट्टा छोड़ देता है बड्डे कमीन को,
जो छीनता है बत्तख से पंचायती ज़मीन को.
--अज्ञात, इंग्लैण्ड, १८२१


२ जुलाई २०१० की भोर के समय, सुदूर आदिलाबाद के जंगलों में, आन्ध्र प्रदेश राज्य पुलिस ने चेरुकुरि राजकुमार नाम के एक आदमी के सीने में गोली मार दी जो अपने साथियों के बीच आज़ाद के नाम से जाना जाता था. आज़ाद भारत सरकार द्वारा प्रतिबन्धित भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) का सदस्य था और उसे उसकी पार्टी ने भारत सरकार के साथ प्रस्तावित शान्ति-वार्ताओं में अपने प्रमुख वार्ताकार की भूमिका निभाने की ज़िम्मेदारी सौंपी थी. पुलिस ने बिलकुल क़रीब से गोली दाग़ कर इसकी चुग़ली खाने वाले जलने के निशान क्यों छोड़े, जबकि वह बहुत आसानी से अपने किये की लीपा-पोती कर सकती थी ? क्या यह एक भूल थी या एक सन्देश ?

पुलिस ने उस सुबह एक और आदमी को भी मारा -- हेमचन्द्र पाण्डेय -- एक युवा पत्रकार जो आज़ाद के साथ यात्रा कर रहा था जब आज़ाद को गिरफ़्तार किया गया. पुलिस ने उसे क्यों मारा ? क्या इस बात को पक्का करने के लिए कि क़िस्से को बयान करने के लिए कोई गवाह ज़िन्दा न बचे ? या यह महज़ पुलिस की सनक थी ?

किसी युद्ध के दौरान अगर शान्ति-वार्ताओं के आरम्भिक चरण में एक पक्ष दूसरे पक्ष के दूत को मार देता है तो यह मानना तर्कसंगत है कि जिस पक्ष ने हत्या की है वह शान्ति नहीं चाहता. बहुत हद तक यह लगता है किम आज़ाद की हत्या इसलिए की गयी क्योंकि किसी ने फ़ैसला किया कि दांव इतने बड़े थे कि उसे ज़िन्दा नहीं रहने दिया जा सकता था. यह फ़ैसला स्थितियों के मूल्यांकन में एक गम्भीर भूल साबित हो सकता है. न सिर्फ़ इसलिए कि आज़ाद कौन था, बल्कि आज हिन्दुस्तान की जो राजनैतिक फ़िज़ा है उसकी वजह से भी.


कामरेडों से विदा लेने और दण्डकारण्य के जंगल से बाहर आने के कई दिन बाद मैंने ख़ुद को नयी दिल्ली के संसद मार्ग पर जन्तर मन्तर की तरफ़ एक थकाऊ और चिर-परिचित रास्ते को तय करते हुए पाया. जन्तर मन्तर एक पुरानी वेधशाला है जिसे जयपुर के महराजा सवाई जय सिंह ने १७१० में बनवाया था. उस ज़माने में यह विज्ञान का एक करिश्मा था जो समय बताने, मौसम की अग्रिम जानकारी देने और ग्रह-नक्षत्रों की गति और स्थिति का पता लगाने के काम आता था. आज यह एक औसत पर्यटकीय आकर्षण है जिसका दूसरा मक़सद है दिल्ली मे लोकतन्त्र के छोटे-से शो-रूम की भूमिका अदा करना.

इधर कुछ बरसों से विरोध-प्रदर्शनों पर -- अगर वे राजनैतिक दलों या धार्मिक संगठनों की सरपरस्ती में न हो रहे हों तो -- दिल्ली में पाबन्दी लगा दी गयी है. राजपथ पर बोट क्लब, जो गुज़रे हुए दिनों में कई-कई रोज़ तक चलने वाली विशाल, ऐतिहासिक रैलियों का साक्षी रहा है, अब राजनैतिक गतिविधि के लिए निषिद्ध क्षेत्र है और सिर्फ़ सैर-तफ़रीह, ग़ुब्बारे बेचने वालों और नौका विहारियों के लिए उपलब्ध है. रहा इण्डिया गेट तो वहां मोमबत्ती जुलूसों और मध्यमवर्गीय उद्देश्यों से किये गये नुमायशी विरोध-प्रदर्शनों की इजाज़त है -- मिसाल के लिए "जस्टिस फ़ौर जेसिका" (जेसिका के लिए इन्साफ़) जो उस मौडल के लिए किया गया जिसकी हत्या दिल्ली के एक शराबख़ाने में राजनैतिक सम्पर्क-सूत्रों वाले एक ठग ने कर दी थी -- मगर इससे ज़्यादा और कुछ नहीं. शहर पर धारा १४४ लगा दी गयी है, वह पुराने उन्नीसवीं सदी के क़ानून की धारा सार्वजनिक स्थल पर पांच से ज़्यादा लोगों के इकट्ठे होने पर पाबन्दी लगाती है जिनका "कोई समान उद्देश्य हो जो ग़ैर-क़ानूनी हो." यह क़ानून अंग्रेज़ों ने १८५७ के विद्रोह के दोहराये जाने को रोकने के इरादे से १८६१ में पारित किया था. उसे आपातकालीन क़दम के तौर पर लागू किया जाना था, पर अब यह हिन्दुस्तान के कई हिस्सों में स्थाई रूप से लागू कर दिया गया है.शायद ऐसे ही क़ानूनों के लिए अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए हमारे प्रधान मन्त्री ने औक्सफ़ोर्ड से मानद उपाधि ग्रहण करते हुए अंग्रेज़ों का शुक्रिया अदा किया कि उन्होंने हमारे लिए इतनी समृद्ध विरासत छोड़ी : "हमारी न्यायपालिका, हमारी क़ानून व्यवस्था, हमारी नौकरशाही और हमारी पुलिस -- सभी महान संस्थाएं हैं जो हमें बर्तानवी-हिन्दुस्तानी प्रशासन से प्राप्त हुई हैं और वे हमारे अच्छे काम आयी हैं."

.............जारी...........अगले अंक में देखें -- कल

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