Thursday, July 15, 2010

डायर से बात करने की वकालत
आज अविनाश ने अपने मोहल्ला ब्लोग पर हंस की ओर से जवाब देने क ज़िम्मा उठाया है और वही तर्क दिया है जिसके बारे में मैंने अपनी टिप्पणी में शंका प्रकट की थी. जिस तरह के कार्यक्रम की झांकी अविनश ने अपनी टिप्पणी में दी है वह हम सब जानते हैं कि कपोल कल्पना के सिवा और कुछ नहीं है.
हंस के सम्पादक राजेंद्र यादव ने भले ही गोष्ठी का शीर्षक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाटक वैदिक हिंसा हिंसा न भवति के शीर्षक से ले कर दिया हो और भले ही उनकी मंशा सत्ता की हिंसा पर बहस चलाने की हो लेकिन इस बहस के लिये सत्ता पक्ष की ओर से क्या विश्वरंजन ही रह गये थे जो न तो नीति निर्धारकों मॆं हैं न मौजूदा सरकार के प्रवक्ताओं में. वे सत्ता के एक ऐसे अधिकारी हैं जिनका काम सत्ता के फ़ैसलों को लागू करना है और उन्हें सही साबित करना है जो वे अख़बारों के माध्यम से कर रहे हैं. लेकिन चूंकि मीडिया अब अपनी विश्वसनीयता खो चुका है इसलिये हंस जैसी पत्रिका ज़्यादा कारगर साबित हो सकती है, इसलिये बहस चलाने की तो कोई सम्भावना ही नहीं थी. यह भ्रम पैदा करने की कोशिश की गयी थी कि हंस की गोष्ठी के माध्यम से एक संवाद की भूमि तैयार करने की कोशिश की जा रही है,
अरुन्धती के साथ तीन चार माओवाद समर्थकों को मंच पर लाने और विश्वरंजन को घेरने और नारे लगाती भीड़ द्वारा उनका पर्दा फ़ाश करने का जो सिनैरियो अविनाश ने तैयार किया है वह हमारी फ़िल्मों जैसा है और सच्चाई आम तौर पर इससे बहुत अलग होती है.
रहा सवाल राजेंद्र जी की उदास मुख मुद्रा का जिसका उल्लेख अविनाश ने किया है और उनका हवाला देते हुए उनका स्पष्टीकरण पेश किया है तो क्या वे बतायेंगे कि यही सब राजेंद्र जी ने मुझसे क्यों नहीं कहा था. उन से जो बात हुई थी उससे यह साफ़ था कि सब तै हो चुका है. बल्कि वे मुतमईन थे कि सब फ़ाइनल है. दूसरी बात मेरी टिप्पणी से पहले जनज्वार और हाशिया पर दो टिप्पणियां आ चुकी थीं -- अजय प्रकाश और विश्वदीपक की. राजेन्द्र जी का स्पष्टीकरण आने में इतनी देर क्यों लगी. क्या इसलिये कि अब तुरुप क पत्ता ही पिट गया.
अभी अभी अविनाश ने किन्हीं समरेंद्र सिंह की टिप्पणी मुझे भेजी है जिसमें मेरी खूब ख़बर ली गयी है. ख़ैर, मुझे जो कहना था मैं ने खुल्लम खुल्ला कहा है, अगर हंस को या राजेंद्र यादव को कटघरे में खड़ा करने से मेरी दुकान चलती है तो समरेंद्र को मेरी तरफ़ से छूट है कि वे मुझे गरिया कर अपनी दुकान जमा लें.
चूंकि हंस के साथ प्रेमचन्द का नाम भी जुड़ा है इसलिये एक प्रश्न उन सब से पूछ्ना चाहता हूं जो संवाद संवाद की गुहार लगाये हुए हैं -- क्या प्रेमचन्द अगर अंग्रेज़ी राज और उसकी हिंसा पर कोई गोष्ठी करते तो क्या वे डायर को मंच पर बुलाते ?

--नीलाभ

1 comment:

  1. हां नीलाभ भाई, प्रेमचंद को अगर मजमेबाजी का शौक होता तो जरूर वो डायर को बुलाकर बहस कराते..अच्छा हुआ कि उन्हें तमाम बीमारियां हुईं, पर ये न हुई। वैसे, आपका दिल्ली आना बेहतर कदम साबित हो रहा है। आप अपने अंदाज में दिल्ली के ठहरे पानी में ऐसे ही पत्थर फेंकते रहेंगे, यही उम्मीद है। आपने कभी लिखा था कि चुप्पी सबसे बड़ा खतरा है जिंदा आदमी के लिए, पर दिल्ली में चुप्पी एक अदा भी है और साजिश भी...ये तो जानते ही होंगे। आपसे बहुत सी असहमतियां हैं, पर हैं आदमी आप गुर्दे वाले, इसमें क्या शक।

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