Sunday, July 25, 2010

बोलना हो तो तुम्हारे हाथ की दो चोट बोले

प्रिय अजय और अन्य साथियो,
जनज्वार पर कई दिनों से राहुल फ़ाउण्डेशन, परिकल्पना प्रकाशन और सी एल आई की एक शाख से जुड़े शशि प्रकाश, कात्यायनी, सत्यम और उनके कुछ और साथियों के ख़िलाफ़ उनके ही अनेक पुराने साथियों के आरोप पढ़ता आ रहा हुं. किसी हद तक हतप्रभ हुं और किसी क़दर उदास भी. कारण पहला यह है कि मैं सांगठनिक तौर पर तो नहीं लेकिन लिखाड़ियों के नाते से शशि प्रकाश, कात्यायनी, सत्यम को जानता रहा हुं. शशि प्रकाश को बहुत दूर से, लेकिन बाक़ी दोनों को नज़दीक से.परिकल्पना प्रकाशन से मेरा ताज़ा कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ है. मैं उनकी राजनीति क कभी समर्थक नहीं रहा और राहुल फ़ाउण्डेशन को ले कर भी मेरे मन म्रं सवाल रहे हैं. कारण यह कि न्यास वग़ैरा बनाना रजनैतिक दलों का काम नहीं होता और पुस्तकों का प्रकाशन भी राजनैतिक काम काज को बढ़ाने का साधन होता है, जब वह साध्य बन जाये या राजनैतिक काम काज की तुलना में प्राथमिकता ग्रहण कर ले तो समझ लेना चाहिए कि दल अब क़दम ताल ही कर रहा है. लेकिन चूंकि मैं सी एल आई से नहीं जुड़ा था, इसलिये यह मेरा सिर दर्द नहीं था.
मैं १९७० से ही भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी मा.ले. (लिबरेशन) से जुड़ा था -- बतौर सदस्य नहीं, पर उससे कम भी नहीं. अपने दिवंगत साथी गोरख पांडेय की तरह पार्टी का सदस्य न होते हुए भी मैं लगभग सात साल तक पार्टी के सांस्कृतिक संगठन जन संस्कृति मंच का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहा और पार्टी और जसम के साथ अनेक सैद्धांतिक और व्यवहार सम्बन्धी अनसुलझे मतभेदों के चलते मैं अन्ततः जसम से और पार्टी की गतिविधियों से अलग हो गया. पर इसका ज़िक्र आगे या फिर कभी.
इस समय मैं यह कहना चाहता हुं कि इस सारे मुद्दे को सिर्फ़ एक ही संगठन की आलोचनात्मक चीड़-फाड़ के सहारे समझ्ने-समझाने की मुहिम अन्त में व्यक्ति केन्द्रित हो कर असली विषय से भटक जायेगी और यह विषय है वामपन्थी राजनैतिक दलों में भटकाव की समस्या -- उसके कारण और उपचार. ज़ाहिर है सी एल आई का यह भटकाव बहुत पुराना है और पार्टी तथा उसके तहत काम करने वाले संगठनों को टूटने, बंटने, विपथगामी होने की ओर ले गया है. जब विचारधारा में खोट होती है तो वह राजनैतिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी प्रकट होती है. उस दल और संगठन से जुड़े व्यक्तियों का व्यवहार भी पूर्वाग्रहों, नफ़रतों, अमानवीयता और अतार्किकता का शिकार हो जाता है. दल में कौकस बन जाते हैं, सम्विधानेतर शक्ति केन्द्र विकसित हो जाते हैं (यह परिघटना सिर्फ़ कांग्रेस तक सीमित नहीं है, वामपन्थी दल भी इस संक्रमण से अछूते नहीं रह पाये हैं).
पुराने मार्क्सवादी सिद्धांत में दो लाइनों के संघर्ष का बड़ा महत्व रहा है. जब-जब इस सिद्धांत को ताक पर रख कर काम किया गया है, विकृतियां पैदा हुई हैं. इन विकृतियों की क़िस्म अलग-अलग हो सकती है -- सी एल आई में एक क़िस्म की तो माले में दूसरे क़िस्म की -- लेकिन इनका उत्स विचारधारात्मक भटकाव में ही है और इस भटकाव का सबसे पहला लक्षण पार्टियों और उनके संगठनों के सांस्कृतिक व्यवहार में लक्षित होता है. अनेक वामपन्थी राजनैतिक दलों के सांस्कृतिक संगठन तो दूर रहे, उनकी कोई स्पष्ट सांस्कृतिक नीति भी नहीं है. जिन वामपन्थी दलों के सांस्कृतिक संगठन हैं भी, ज़रा उनका मुलाहिज़ा फ़र्माइए. क्या उनमें आज के राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संकट का सामना करने का माद्दा है ? मत भूलिए कि राजनीति का एक अंश नीति भी है जिस से नैतिक शब्द बना है. नैतिकता के बिना न राजनीति सफल होगी, न नीति और न ही सांस्कृतिक पहलक़दमी.
अगर सचमुच साथी लोग कात्यायनी, शशिप्रकाश और सी एल आई से इतने ही नालां थे और हैं तो उन पर और भी दायित्व बनता है कि इस मुद्दे तो सिर्फ़ कुछ व्यक्तियों तक सीमित न करके व्यापक बनायें. इसका यह मतलब नहीं है कि अगर शशिप्रकाश और उनके साथी दोषी हैं तो उनासे जवाब न मांगा जाये या उन्हें कटघरे में न खड़ा किया जाये. लेकिन अन्त में सही विचारधारा, सही काम काज और सही राजनैतिक-सांस्कृतिक दिशा और पहलक़दमी ही आपका जवाब होना चाहिए. कम्यूनिस्ट जब पतित होता है तो वह उतना ही पतित होता है जितना कोई और पर चूंकि वह सबसे ज़्यादा नैतिकता का राग अलापता है इसलिये हमें आघात पहुंचता है. क्या कम्यूनिस्टों के पतन की भर्त्सना करते हुए हम औरों के पतन का औचित्य ठहरा सकते हैं ? हम बच्चन जी को तो हम भुला चुके हैं पर उनकी दो पंक्तियां मुझे अच्छी लगती हैं -- बोलना हो तो
तुम्हारे हाथ की दो चोट बोले

फ़िलहाल इतना ही लिख रहा हुं. आगे फिर......

नीलाभ

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