Saturday, February 13, 2010

बधाई हो

बधाई हो
बधाई हो, सब की मुराद बर आयी, मेरा नाम है ख़ान, सौरी माई नेम इज़ ख़ान, लगातार कामयाबी की मंज़िलों की तरफ़ बढ़ रही है, दर्शक अंधेरी से ले कर औस्ट्रेलिया तक फ़िल्म देखने के लिये बेक़रारी से लाइनें लगा कर शाहरुख़ से अपनी प्रतिबद्धता का इज़हार कर रहे हैं.
चूंकि शाहरुख़ विदेश में हैं इसलिए उनकी पत्नी गौरी फ़िल्म थिएटरों में घूम-घूम कर दर्शकों का हौसला बढ़ा रही हैं, उनका शुक्रिया अदा कर रही हैं, औस्ट्रेलिया में एक जगह लड़कियां शाहरुख़ की फ़िल्मों के गाने एक के बाद एक गा कर अपनी अक़ीदत का सबूत पेश कर रही हैं और इसी क़िस्म की दीवानगी दूसरी जगहों पर भी पेशे-नज़र होगी, इस का मुझे पूरा यक़ीन है.
करन थापर ख़ुश हैं कि पैसा वसूल हुआ, गौरी ख़ुश हैं कि उन्होंने अर्धांगिनी का फ़र्ज़ निभाया, दर्शक ख़ुश हैं कि फ़िल्म देख्ने को मिली, महाराष्ट्र सरकार ख़ुश है कि क़ानून और व्यवस्था ने उनके प्रति फ़र्ज़ अदा किया जिनके लिए वह बनायी गयी है यानी समाज के ऊंचे लोग जैसे शाहरुख़ ख़ान और करन थापर और वो सभी वितरक आदि जिनके हित इस फ़िल्म से जुड़े हैं, शाहरुख़ ख़ान ख़ुश हैं कि ज़िन्दगी में पहली बार राजनैतिक वक्तव्य देना इतना रास आया और कहना न होगा शिव सेना भी ख़ुश है कि एक बार फिर उसने साबित कर दिया कि २०वीं सदी में भले ही संघ या भाजपा के लोग श्रेष्ठ उपद्रवकारी माने जाते थे, २१वीं सदी में उसका कोई जोड़ नहीं है.
हमारे इलाहाबाद में इसी को कहते हैं नूरा कुश्ती, यानी सदे-बदे की लड़ाई. अगर यह खेला न हुआ होता तो ज़रा सोचिए, नज़ारा क्या मोड़ लेता. शाहरुख़ ख़ान आईपीएल पर बयान न देते तो कोई और शोशा उछालते, फ़िल्म की सफलता पर उनका दांव लगा हुआ था, लेकिन वो इतना कारगर शायद न होता क्योंकि ऐन मुमकिन है उसमें साम्प्रदायिकता और राजनीति का वो बघार न होता जो इस बार के बयानों में था और तब सिर्फ़ उनका अभिनय कसौटी पर होता और आप जानते ही हैं किसी इतर बल पर फ़िल्म की कामयाबी बहुत कुछ इत्तेफ़ाक़ की बात होती है.
उधर, अगर शिव सेना महज़ अपनी नाख़ुशी ज़हिर करती तो इम्कानात यही थे कि उसे भी अपनी असलियत का पता चल जाता. दीवाने तो फ़िल्म देखने जाते ही, पर लोग यह भी कहते कि शिव सेना का प्रतीक चिन्ह बाघ असली नहीं काग़ज़ का है. सो, पुट्ठे और बल्ले तो दिखाने ही थे.
आज सब कुछ वैसा ही है जैसा हमारी बम्बइया ( भाई, यहां मुम्बइया कहना अच्छा न लगेगा) फ़िल्मों में होता है -- हैप्पी एन्डिंग. अब मुन्ने को संभालिये, मुन्नी क हाथ थामिये और पत्नी के साथ फिर घाटकोपर या मुलुण्ड या गोरेगांव का रस्ता पकड़िए, कल ड्यूटी पर न जाना है.
रही वो बाक़ी की दुनिया, जिसका दर्द ऐसा शाहरुख़ और बाल ठाकरे ने बताया कि उनके जिगर में है, अब भी उसी अंधेरे में है, मल्टिप्ले़क्सों की चकाचौंध से बहुत दूर नन्दीग्राम, कलिंगनगर, सिंगुर, लालगढ़, झारखण्ड और बस्तर के नरक में, दसियों तरह के सुरक्षा बलों से घिरा, निहत्था, न्याय वंचित, असहाय, लेकिन धीरे धीरे असलियत को पहचानता हुआ, अन्दर की आग को धीरे धीरे शोलों में भड़क उठने के लिए तैयार करता हुआ. लेकिन जब वो बयान देगा तो ‍"काख़े-उमरा के दर-ओ-दीवार"* हिल उठेंगे और जब वो सड़क पर उतरेगा तो आम लोगों को धमकाने वाले शिव सैनिकों का कहीं अता-पता न होगा.

* सन्दर्भ : इक़बाल कि नज़्म " उट्ठो मेरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो, काख़े-उमरा के दर-ओ-दीवार हिला दो, जिस खेत से दहक़ां को मयस्सर नहीं रोटी, उस खेत के हर ख़ोश:-ए-गन्दुम को जला दो, सुल्तानिये-जम्हूर का आता है ज़माना, जो नक़्श-ए-कुहन तुम को नज़र आये मिटा दो.

2 comments:

  1. सही कहा नीलाभ जी
    दो बांके' कहानी याद आयी…

    पर इस 'जंग' में विजेता है बाज़ार…ठाकरे हों या शाहरुख सेवा तो दोनों को उन्हीं की करनी है!

    ReplyDelete
  2. ब्लॉग की दुनिया मैं आपका स्वागत है.

    ReplyDelete