अन्तरा
( एम. के लिए )
१.
कहां थीं तुम जब मैं खोजता रहा तुम्हें, ग्रीष्म की निचाट दुपहरी में
बवण्डर की तरह झकझोरता रहा पेड़ों को बदहवासी में,
पूछता पत्तियों से तुम्हारा पता ?
कहां थीं तुम जब भटकता रहा मैं शहर के पुराने खंडहरों में,
इस नाशुक्रे नगर के प्राचीन स्मारकों में,
अपनी विक्षुब्ध हूह से गुंजाता उनकी पथरीली चुप्पी,
सदियों से तलब करता जवाब उनकी ख़ामोशी का ?
कहां थीं तुम जब मैं पटकता रहा अपना उद्विग्न मस्तक
सागर की उन्मत्त लहरों पर, रौंदता रहा तट का सिकता विस्तार,
बार-बार, हार-हार, तुम्हारी तलाश में ?
२.
मैं अकेला था किसी उक़ाब की तरह तरारे भरता नभ के
खुले विस्तार में, हवा से होड़ करता, अपने डैनों में समेटता
नक्षत्रों से भरा ब्रह्माण्ड,
नीहारिकाओं और मन्दाकिनियों में कौंधता हुआ,
छोड़ता हुआ अपनी उपस्थिति के निशान सुदूर ग्रहों से घिरे तारामण्डलों में,
मैं अकेला था आकाशगंगा के छोर पर चमकते अन्तरतारकीय
प्रकाश की तरह, भोर के आकाश की तरह, उत्तरी ध्रुव के उजास की तरह,
मैं अकेला था अजानी यात्राओं पर निकले नाविक की तरह,
पतवार थामे, सितारों से करता दिशा का सन्धान,
हेरता अमानचित्रित द्वीप, नक्शे में दर्ज करने से छूट गये तट,
वनराजियां, पर्वत और निर्झर,
लौटता फिर उन्हीं उन्मत्त लहरों बीच, उन्हीं रक्तिम सन्ध्याओं में,
अगोरता तुम्हें प्रलयंकर झंझाओं में, दिशाओं की वल्गाएं थामे
बढा़ जाता सितारों के मद्धम प्रकाश में, अडिग, अक्लान्त.....
३.
क्यों लिये फिर रहा था मैं बीते हुए वर्षों के घाव और अभाव,
क्यों भयभीत था, लपेटे अपने अकेलेपन को कफ़न की तरह
अपने गिर्द, अभिमान में पूछने से हिचकता
गुज़रती हुई चिड़िया से उसका नाम,
चाहता सिर्फ़ गुमनाम-सी सीधी-सरल ज़िन्दगी,
अन्तहीन आपाधापी से मुक्त,
शून्य निगाहों के निःसंग प्रहार झेलता हुआ,
वारुणी के अंक को सौंपता हुआ अपने सभी गत-आगत वर्ष,
अपना सारा आहत दर्प,
खे रहे थे मदहोश नाविक नाव मेरी, थी क्षितिज पर
किस अदेखी भूमि की छवि ? आह, रात आती थी
समेटे सभी दुख अपने, व्यथाएं अनकही,
दबाये पांव, आहिस्ता, कि जैसे हृदय में मेरे
बिना आयास आते थे सभी भूले हुए ग़म मेरे.......
४.
तभी जब वक़्त की रेत चूर-चूर हो कर बिखर रही थी ब्रहमाण्ड में,
झर रही थी सुदूर आकाशगंगा के निर्जन मरुस्थल में
तारिकाधूलि,
जब तुम्हारी स्मृति रह गयी थी कण्ठ में अटकी हुई
सांस की तरह, फांस की तरह
चुभ रही थी जाने कौन-सी अनकही बात दिल में,
तब आयीं तुम आहिस्ता-आहिस्ता अपने केश बिखराये,
अपनी चमकतीं शफ़्फ़ाफ़ आंखों में प्रलय की झंझाएं समेटे,
तुम आयीं , अकेली, रहःरहस्य में लिपटी हुई वन की
कुज्झटिका सरीखी, भीड़-भरे सेतु पर मौन को शाल की तरह लपेटे;
तुम्हारी आंखों में अनगिनत वर्षाओं की परछाइयां थीं
तुम अकेली थीं, जैसे ख़ामोशी अकेली होती है, आवाज़ों के कोहराम में
सच्चाई अकेली होती है जब कोई सबूत नहीं होता,
जैसे अकेली होती है स्त्री धोखा दिये जाने के बाद
५.
मैं तुम्हारी आंखों की गहराई में बहती व्यथा में उतरा हूं, उतरा हूं तुम में
जैसे उतरता है कोई मछुआरा नदी में,
महसूस की है मैं ने वो आंच जिस में झुलसी हो तुम,
लिये फिरती हो अब भी अपने अन्दर जिसे धुंधुआते अंगारों की तरह,
हरहराते तूफ़ान की तरह,
सागर की गहराइयों में डूबे ध्वंसावशेष की तरह,
निराशा के श्लेष की तरह, ज़लज़लों की धमक की तरह,
स्त्री के आंसुओं की चमक की तरह
सुख सबके एक-से होते हैं मनु, दुख ही अलग-अलग रूप
धारे आते हैं और हमें हैरान छोड़ जाते हैं,
तोड़ भी जाते हैं कभी-कभी कमज़ोर क्षणों में,
यही कहा था मेरे साईं ने
तुम्हारा ही ज़िक्र करते हुए पिछ्ली से पिछली सदी में......
६.
मैंने तुम्हें प्यार किया जैसे किसी को किसी ने पहले कभी
प्यार नहीं किया, मैं ने तुम्हें प्यार किया जैसे कोई किसी को
प्यार कर सकता है, लेकिन मैं तुम से कभी
यह स्वीकार नहीं करूंगा, क़रा कूज़, मैं ने तुम्हें ऐसे प्यार किया है
जैसे तुम इस दुनिया में क़दम रखने वाली
पहली औरत हो,
मैं ने तुम्हें गढ़ा मौत से अपना प्रतिशोध लेने के लिए,
तुम सदानीरा हो मेरी, मेरे अन्तस्तल में
सृष्टि के आरम्भ से बहती हुई,
सहती हुई मेरी सारी उछृंखलताएं,
मिटाती हुईं मेरे तमाम गुनाहों को,
सहज सौंपतीं मुझे अपना विश्वास औत अपनी व्यथाएं,
७.
मैं ने बेवफ़ाई की है तुम से ठीक उसी तरह जैसे करते हैं
प्रेमी एक दूसरे के साथ,
तुम्हारा आहत चेहरा कचोटता है मुझे नींद के निरापद लोक में,
आत्म-ग्लानि के आत्म-हन्ता शोक में,
क्योंकि पराजय तो है ही, मनु, एक-दूसरे को नष्ट करना....
मैं किसी अशुभ अमंगल धूमकेतु की तरह उदित हुआ था
तुम्हारे नभ में, जलता और जलाता, अपनी अग्नियों में डूबता-उतराता,
भरता आशंकाएं और भय प्रियजनों के मन में,
जाने किस परिक्रमा-पथ पर बढ़ा जाता अपनी बेलगाम
गति में, छोड़्ता हुआ अपने पीछे
चिनगारियां और ज्वालाएं.....
८.
मैं ने सोचा था मैं चला जाऊंगा किसी दूसरे देश को,
जहां होंगे दूसरे क्षितिज, दूसरी सीमाएं, दूसरे लोग,
मैं ने सोचा था मैं चला जाऊंगा
दूसरी सुबहों, शामों, वनस्पतियों, नदियों और कबीलों के बीच,
मैंने सोचा था मैं चला जाऊंगा सप्तर्षियों के आगे,
मृगशिरा के पार, ऐल्फ़ा सेन्टौरी और विशाखा के परे,
किसी दूसरी मन्दाकिनी के छोर पर,
किसी दूसरी नीहारिका में आकार ले रहे किसी दूसरे सौर मण्डल में
रचूंगा नयी सृष्टि,
नयी वनस्पतियां, प्रजातियां, पर्वत, नदियां, मैंने सोचा था
रच दूंगा नये दिन-रात, नयी ऋतुएं, नयी दिशाएं, पवन, नये सागर
और नये पाप, अभिशाप, नये शमन और नयी क्षमाएं
और मैंने सोचा था अन्तरिक्ष के उस छोर पर
अपनी रची हुई सृष्टि के बीच मैं
अपनी अभिशप्त घुमक्कड़ी से अवकाश ले कर
प्रतीक्षा करूंगा तुम्हारी, अन्तहीन कल्पान्तरों तक......
९.
अपने संसार से कलह, मनु , मेरा शौक़ नहीं मजबूरी थी,
मेरी वहशत और मेरे इश्क़ के बीच,
मेरे फ़र्ज़ और मेरी चाहत के बीच
नक्षत्रों जितनी दूरी थी; मैं घिरा हुआ था
श्रम के सफ़ेद्पोश तस्करों से, ताक़त के बेरहम मस्ख़रों से,
मैंने रचा था यह संसार
अपनी अनुकृति में, तुम चाहो तो इसे प्रतिसंसार कह लो,
एक दर्पण बनाया था मैं ने, जो दिखाये मुझे मेरी छवियां
हू-ब-हू जैसी वे नज़र आती हैं दूसरों को,
कलंकों और कालिमा के साथ,
नश्वर था यह संसार उतना ही जितना नश्वर था मैं
बार-बार सहता काल के प्रहार मेरा रचा संसार
सहता रहा मैं भी बार-बार प्रहार समय के,
मरता हुआ करोड़ों-अरबों मौतें
हर पत्ती जो पीली हो कर गिरी,
हर शरीर जो झुर्रियों से लद कर धराशायी हुआ
हर प्राण जो विलीन हुआ वायु में
मेरा ही प्रतिरूप था
लेता हुआ करोड़ों-अरबों बार करोड़ों-अरबों रूपों में जन्म....
१०.
कठिन थी यह डगर जिस पर वर्षों पहले मैंने
शुरू किया था सफ़र साधारण को असाधारण में
बदल देने का संकल्प ले कर
सोचा था मैंने जैसे-जैसे हम आगे बढ़ेंगे
छंटती चली जायेगी
राह पर तारिका धूलि की तरह बिख्ररी हुई धुन्ध,
सूर्य की किरणों पर तैरते धूल के कणों की तरह
हलके हो जायेंगे शब्द,
जब हम कहेंगे प्रेम, असंख्य दरवाज़े खुल जायेंगे
मैं खोलूंगा किवाड़ और उषा दाख़िल होगी सुनहरे पैरों पर
तुम्हारी तरह.....
११.
जैसे-जैसे समय बीता है रास्ता साफ़ होने की बजाय और भी दुर्गम,
और भी कांटों-भरा होता चला गया है,
वैसे लाज़िमी नहीं था उसका साफ़ होते चले जाना,
सिर्फ़ एक उम्मीद थी
धुंधलके साफ़ होंगे, समतल हो जायेगा पथ, तलवों पर
पड़ गये छाले और ज़ख़्म पुर जायेंगे
इसी उम्मीद पर बढ़ते चले आये हम इतनी दूर तक
उन शब्दों की रोशनी में
जिन्हें मशाल की तरह हमारे हाथों में सौंप कर
विलीन हो गये थे हमारे पितर
पिछले पड़ाव के अंधेरे में
और हम थामे रह गये एक ख़ंजर जिसकी मूठ पर
कसे हुए थे किसी और के हाथ और हम
लहू-लुहान होते रहते मुतवातिर
सोचते हुए हमारी हार का बदला चुकाने कोई-न-कोई आयेगा
आयेगा ग़मज़दा रातों का महरम बन कर
अधूरी जंग का परचम बन कर......
१२.
वे कहते हैं पांच अरब साल पहले जन्मा था हमारा सूरज
और गुल हो जायेगी हमारे सूरज की रोशनी पांच अरब साल बाद
हमेशा-हमेशा के लिए इस अन्तरतारकीय शून्य में
हवा में उड़्ते दुपट्टे की तरह
उड़ता चला जायेगा हमारी पृथ्वी का वातावरण ब्रह्माण्ड में,
हमारे पास पांच अरब साल हैं एक दूसरे के साथ
समय गुज़ारने के लिए
खोजने के लिए वे सारी चीज़ें जो छूटती रही हैं अब तक
इस अन्तहीन, अविरल आपाधापी में
करने के लिए कितनी सारी चीज़ें और समय कितना थोड़ा
सिर्फ़ पांच अरब साल, लेकिन वक़्त से पहले मरना क्या,
कौन जाने तब तक कोई नया सौरमण्डल नहीं खोज लेंगे हम
जीने और प्यार करने के लिए
वैसे ही जैसे हमने खोज लिया था यह सौरमण्डल
जीने और प्यर करने के लिए
पांच अरब साल पहले.....
१३.
आओ फ़र्ज़ करें कि तुम मेरी हो, मेरी हो अपने सारे
रहःरहस्यों के साथ, अपनी फ़ितरत के साथ, अपनी
काया और माया, अपने आलोक और छाया के साथ,
आओ फ़र्ज़ करें वह जो फ़र्ज़ी हिसाब से बाहर है,
बाहर है सभी गणनाओं और गिनतियों से,
अमूर्त संख्या एक जो इतनी अमूर्त है कि संख्या
ही नहीं जान पड़ती
आओ फ़र्ज़ करें कि अब आगे ज़िन्दगी भर
फ़र्ज़ नहीं करना है
१४.
जलावतन होना महज़ अपने देश से बाहर होना नहीं है
अपने समय से बाहर होना भी है,
और अपने लोगों से भी,
कवियों से ज़्यादा इस बात को शायद
कोई और नहीं समझ सकता
इसीलिए कवि सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं
अपने लोगों से, अपने समय से, अपने देश से,
चाहते हैं असम्भव कोशिश करते रहें कि उनका साथ न छूटे
अपने देश से, अपने समय से और अपने लोगों से तो
बिलकुल नहीं, चाहे देश अपरिचित होता चला गया हो,
समय से मिले हों सिर्फ़ बिछोह,
लोगों ने पहुंचायी हों सिर्फ़ तकलीफ़ें, जलावतन होना
महज़ अपने देश से, अपने समय से,
अपने लोगों से बाहर होना ही नहीं है, मनु,
तुम्हारे दिल से बाहर होना भी है....
१५.
हो सकता है हम ने बहुत ज़्यादा गीत गाये हों अवसाद के,
निराशा के, हो सकता है जो हम लिख रहे हैं
वह नया प्रारूप हो उस मशहूर किताब का
और इसमें निराशा के बीस गीत हों और सिर्फ़ एक
कविता हो प्रेम की
हो सकता है यह हुआ हो या न हुआ हो
हो सकता है यह मैंने देखा हो या न देखा हो
हो सकता है ऐसा फ़िकरा है हमारी हिन्दी का, मनु,
जो अनिश्चित अतीत और अनिश्चित भविष्य के लिए,
सन्दिग्ध व्यक्ति और सन्दिग्ध अभिव्यक्ति के लिए
बड़ी आसानी से इस्तेमाल होता है
हो सकता है कह कर हम मुक्त हो जाते हैं
अपने किये और अनकिये से, और अपने वर्तमान से भी.....
१६.
जानती हो मैंने प्यार किया है, प्यार में बेवफ़ाइयां की हैं,
बेवफ़ाइयां सही हैं, प्यार न करने की क़समें
खायी हैं, क़समें खाने के बाद
उन्हें तोड़ दिया है, बार-बार,
मैं प्यार करके पछताया हूं, पछताया हूं बेवफ़ाइयां करके,
बेवफ़ाइयां सह कर, प्यार न करने की क़समें खा कर
और अब मैं ने अपने आप को अपनी क़िस्मत के
हवाले कर दिया है,
क्योंकि बेवफ़ाइयां करने से हमेशा बेहतर है बेवफ़ाइयां सहना,
प्यार न करने की क़समें खाने से
बेहतर है प्यार न करने की क़समें तोड़ना,
प्यार न करने से बेहतर है
प्यार करना....
१७.
क्या तुम्हें मालूम है मैंने बचपन से मौसमों को इस तरह जाना है
जैसे मैं अपनी देह को जानता हूं
जानता हूं अपनी आत्मा को
झंझा तूफ़ान की फ़िज़ा थी जब मैं दाख़िल हुआ
धूम-धड़ाके से इस दुनिया में,
और तब से आंधी-पानी से मेरा सगोत्रीय
सम्बन्ध रहा है, मौसम की आंधियों से ले कर
जीवन की आंधियों तक,
जाने कितनी बार मैं भटकता हुआ भीगा हूं
धारासार वर्षा में याद करता हुआ
पुराने चेहरे, बीती हुई देहें,
ग्रीष्म की हू-हू करती हुई लू और शिशिर की
हड्डियां चीरती हवा
मेरे लिए एक सी रही है
हर नयी मुलाका़त एक नयी आंधी ले कर आती रही है
हर नया बिछोह एक नया प्रभंजन
न आंधियां थकी हैं, न मैं ने अपनी तेक छोड़ी है
अब भी तलाश है मुझे उस मौसम की
जिसमें किया जा सके प्रेम...
१८.
यह दुनिया जीतने वालों की दुनिया है, मनु;
जीतने वालों का इतिहास, जीतने वालों की गाथाएं,
हारने वालों का कोई निशान बाक़ी नहीं रहता,
रहे आये हैं वे सिर्फ़ कवियों की स्म्रृतियों में जो उन्हें
जीवित करते रहते हैं बार-बार कभी किसी पहाड़ खोदने वाले
की शक्ल में, किसी मिर्ज़ा, किसी रांझे, किसी
पुन्नू की नाकाम कहानी को कामयाबी की मंज़िलों
पर बैठाते हुए, किसी स्पार्टाकस, किसी विरसा,
किसी लक्ष्मी या झलकारी बाई को
सिकन्दरों और चंगेज़ों से बड़ा दर्जा देते हुए,
भील, कोल, किरात, ओंगी, हो, जारवा और सेन्टिनल जैसी
विस्मृत, विलुप्तप्राय जातियों को अक्षुण्ण रखते हुए जातीय स्मृति में,
मैं ने भी अब जीतने का ख़याल छोड़ दिया है, मनु,
हार गया हूं तुम्हारे हठ और अपनी कामना के हाथों,
कि हो सकूं दर्ज किसी वृत्तांत, किसी गाथा, किसी आख्यान में शायद.......
१९.
आओ चल दें सब कुछ छोड़ कर ऐसे का ऐसा
तुम अपनी ख़बरों की दुनिया, मैं अपना शब्दों का संसार
इन्तज़ार किस बात का है
क्या अब भी शब्दों और ख़बरों की ज़रूरत
रह गयी है हमें ?
क्या ज़रूरत रह गयी है हमें अब
शब्दों और ख़बरों की ?
आओ सुनें पत्तियों पर झींसी की ख़बरें,
सीढ़ियों पर गिरती धूप की बातें
पंक्तियों के बीच हरहराता सन्नाटा
आओ चल दें बनजारों की तरह, सदियों पुराने
सहरानवर्दों की तरह, अमानचित्रित रास्तों के यात्रियों की तरह
खोजते हुए सरे-कूए-नाशनासां अपने उस घर का पता
जो शायद कभी था ही नहीं
आओ चल दें गुनगुनाते हुए शायर की पंक्तियां
"मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर हुआ फिर से हुक्म सादिर
कि वतन बदर हों हम तुम दें गली-गली सदाएं"
आओ चल दें खोजते हुए
किसी यारे-नामाबर का ठिकाना
जो पहुंचा सके हमारा पयाम
उस घर तक जिसका पता हम दफ़्न कर आये हैं
कहीं यादों के रेगज़ारों में
आओ चल दें बे-दर-ओ-दीवार का इक घर बनाते हुए
जहां छत हो खुला आसमान,
न खिड़कियां हों, न दरवाज़े, न ताले,
एक उत्सव हो मुसलसल चलता-फिरता
आओ चल दें फिर से लौटने के लिए नये जिस्मों में,
नये पतों के साथ, नयी मंज़िलों की तलाश में,
नयी हसरतों, दोस्तियों, और हां, नयी अदावतों के लिए......
२०.
कभी-कभी मुझे लगता है तुम
मेरी निजी प्रतिशोध की देवी हो.....
२१.
अब भी बाक़ी है ग़मज़दा रात का ग़म,
तेरी चाहत का भरम अब भी बाक़ी है,
मैं तरसता हूं तेरी क़ुर्बत को अबस,
अब भी बाक़ी है तेरी सोहबत का करम,
है कहां अपना मक़ामे-जन्नत ये बता,
तल्ख़ रातों का सितम अब भी बाक़ी है
बढ़े आते हैं अंधेरी रात के साये,
निज़ामे-ज़ुल्मो-सितम का ख़म अब भी बाक़ी है
इस ज़ुल्मतकदे में किस तरह कटेंगी घड़ियां
अब भी शिद्दते-ग़म में बाक़ी है, बाक़ी है दम
२२.
तेरी आवाज़ की परछाईं भी अब नहीं बाक़ी
अब नहीं बाक़ी तेरे थरथराते जिस्म का लम्स
वो जज़्बा-ए-जुर्रत दिल का अब नहीं बाक़ी
अब नहीं बाक़ी उसकी लज़्ज़ते-क़ुर्बत भी कहीं
ढूंढते हैं इस वीराने में उस के नक़्शे-पा यारब
सुकूने-हयात की कोई सूरत अब नहीं बाक़ी
दिल तड़पे है उस रफ़ीक़े-कार से मिलने को
मगर वो रस्मो-राह पुरानी अब नहीं बाक़ी
२३.
जानती हो, जैसे-जैसे उम्र बढ़ने लगती है ज़िन्दगी
और भी ज़्यादा हसीन लगने लगती है
मंज़िल उतनी ही दूर
की गयी अच्छाइयों से ज़्यादा याद आते हैं अनकिये गुनाह
हसरतें हर रोज़ नया काजल लगाये चली आती हैं
फ़्लाई ओवर पर औटो से उतरती तन्वी की तरह,
छली जाती हैं छीजते तन से, बुझे हुए मन से,
जो देख चुका होता है पर्दे के पीछे की सच्चाइयां,
छली जाती हैं झूठ बोलने-बुलवाने वाले कायर से
ऐसे में सिर्फ़ एक ही ख़याल आता है मन में
जिसे पूरा करने पर रहेगी नहीं सम्भावना
कभी किसी ख़याल के आने की मन में....
२४.
झुठला देता है प्रेम गणित के सारे नियमों को,
उस में कोई सीधी रेखा नहीं होती दो बिन्दुओं को जोड़ने वाली,
न तिकोन या चतुष्कोण जिनके पात, अनुपात
ग्यात हों, या हो सकते हों,
प्रेम एक व्रित्त है जो नापा जाता है सिर्फ़ पाई से,
पूर्णतः अविभाज्य संख्या एक, जो स्वयं एक सीमा के बाद
ख़ुद को दोहराती चली जाती है अनन्त तक,
चाहे दांव पर वृत्त का व्यास लगा हो, या त्रिज्या या परिधि,
हर बार लौटते हैं हम, बार-बार लौटेंगे हम
परिधि से केन्द्र और केन्द्र से परिधि की ओर, इस या उस
रूप में, एक दूसरे के पास, हू-हू करती लू में,
धारासार वर्षा में,आंधी-तूफ़ान में, सर्दियों की
गुनगुनी सुनहरी धूप में, इस या उस बहाने से अगर
एक दूजे से प्रेम करने का बहाना अहमियत खो बैठेगा तो,
जब तक जीवन है तब तक है प्रेम, प्रेम और ज़िन्दगी के दुख,
मरना, लड़ना, लौटना,
छुटकारा कहां....
२५.
मैं तुम्हें गाऊंगा, मुझे रोको मत, शब्द, ध्वनियां, वाक्य, संरचनाएं
यति, गति और सारे नियम छन्दशास्त्र के ताक पर धर कर
मैं गाऊंगा तुम्हें. मैं गाऊंगा तुम्हें सुर-ताल-तार और
सरगम की पाबन्दियों और बन्धनों को भंग
करता हुआ, रचता हुआ नये सप्तक,
नयी बन्दिशें, मैं तुम्हें गाऊंगा
तुम मेरे अन्दर बह रही हो राग की तरह
भैरवी की आंख के काजल की तरह, मारवा के मस्तक के
तिलक की तरह, तुम मेरे अन्दर बह रही हो
आग की तरह, दावाग्नि की तरह, बाहर आने को व्याकुल,
मैं तुम्हें गाऊंगा जैसे मैं गाता हूं ब्रह्माण्ड
और नक्षत्र और राशियां और मन्दाकिनियां और
आकाशगंगाएं, जैसे मैं गाता हूं किसान की नयी
बहुएं और उनकी आंखें, और होरी की पत्थर जैसी छाती
और धनिया की हसरतें
और सिलिया की देह का ज्वार, उसके आकुल
मन की पुकार, लगातार, लगातार.....
२६.
मैं फिर कहता हूं मैंने प्यार किया है तुमसे जैसे हिरन
करता है मरीचिका से प्यार, कितने ही चेहरों में
अचानक देखता हुआ तुम्हारा चेहरा,
या चेहरे की कोई झलक, सुनता हुआ तुम्हारा स्वर
जाने कितने कण्ठों से, महसूस करता तुम्हारा स्पर्श अजाने
हाथों से. तुम उतनी ही ज़रूरी थीं मेरे लिए
जितना मरुथल के बीचोंबीच ताड़ के पेड़ों से घिरा
नीले शफ़्फ़ाफ़ जल का कोई शाद्वल किसी निहालदे के
सुल्तान या रेगज़ारों में भटकते रेशमा के
कबीले के लिए
मैं तृप्त हुआ हूं तुम में डूब कर,
तुम्हारी आंच को महसूस करके अपनी त्वचा पर
लेकिन शाद्वल कितना ही मोहक क्यों न हो
साथ अन्ततः छूटता ही है उससे
यह प्रस्थान का समय है,
कठिन वेला विदा की, जब चलना है अगले
सफ़र पर अगले कारवां के साथ अगली मंज़िल की ओर
अपनी स्मृति में संजोये तुम्हारे होंटों की मन्द स्मिति
तुम्हारी नाचती हुई कली पुतलियों की चमक,
तुम्हारी देह का स्पर्श, स्वर तुम्हारे कण्ठ का
अलविदा अनिवार्य है, चाहे कोई कहे आना, फिर आना
और दूसरा, आऊंगा, फिर आऊंगा.....
२७.
जब शब्द ख़ामोशियों को जन्म दें तो अन्त में
ख़ामोशियां ही जीतती हैं, प्रेम नफ़रत में नहीं बदलता,
उसकी जगह लेती है उदासीनता, निवेदन
अनसुना रह जाता है और चुप्पी भरे इनकार की
चीख़ गूंजती है गगन में, मन में जो बाक़ी रह गया होता है
कहने को, वो बाक़ी ही रह जाता है अज़ल तक,
स्फटिक की पारदर्शिता में छुपा हुआ, न इधर से
दिखता, न उधर से
मैं शायद इन्तज़ार करूंगा कल्पान्तरों के उस छोर पर भी
इलेक्ट्रिक हवाओं पर उड़ कर आते
तुम्हारे सन्देश का, जानता हुआ कि हमारे ऐंटेना ही
घूमे हुए हैं विपरीत दिशाओं में
जानता हुआ कि शायद अन्तरिक्ष की आपा-धापी में
उनका तालमेल सम्भव हो ही न पाये...
२८.
तुम अब अपनी कक्षा में हो नीहारिकाओं के पार और मैं
धीरे-धीरे बदल रहा हूं एक काले सितारे में
अपने ही भीतर सिमटता हुआ
सब कुछ खींचता हुआ एक ब्रह्माण्डीय श्वास की तरह
अपने अन्दर और जल्द ही
मेरा प्रकाश भी नहीं पहुंचेगा तुम तक
कितनी जल्दी अजनबी होते चले जा रहे हैं हम
एक दूजे के लिए, लेकिन तुम्हारी अजनबियत में भी यह
कैसा जाना-पहचानापन है मानो हम खेल चुके हों यह नाटक
पहले भी कई बार अलग-अलग रूपों में
अलग-अलग भूमिकाओं में, अलग-अलग आकाश-गंगाओं पर
जीवन और जगत और राग और विराग के सत्य को
सच्चा साबित करते हुए, और क्या पता
दोबारा भी खेलें जब मैं फिर से जन्मूं किसी नये
सितारे कि शक्ल में, किसी नये सौर-मण्डल में और
तुम अपनी कक्षा में इस बार की तरह ही
नाचती हुई आओ फिर से मेरे पास...
see poem on neelabh ka morcha
ReplyDeleteभाई साहब
ReplyDeleteब्लाग पर आपका स्वागत
कविता पूरे मशक्कत से पढ डाली… अद्भुत शिल्प है
बधाई
बस एक सुझाव है कि इतनी लंबी कविता टुकडों में लगायेंगे तो सुविधा होगी।
भई ! आप तो खूब आये !! शब्द-शब्द सांचे में ढला हुआ,अत्यंत मनोहारी और दिलचस्प काव्यात्मक बयान के साथ ! आपकी कवितायें मन को छूती हैं, रोम में सिहरन पैदा करती हैं और मगज को झिन्झोरती हैं ! गज़ब की प्रवाहपूर्ण रचनाएँ !! आप सधी हुई कलम-स्याही के असलहों से लैस होकर मोर्चे (ब्लॉग) पर आये हैं ! स्वागत है ! आपको पढना और पढ़ते जाना प्रीतिकर होगा मुझे !!
ReplyDeleteसप्रीत--आनंद व्. ओझा.
bahut lambi hai.narayan narayan
ReplyDeleteJi, bahut lambi hai prem ki tarah zindagi ki tarah narayan narayan
ReplyDeleteआपका स्वागत है । कविता बहुत ही लंबी अतः शान्ती से पढ़ूगा । आभार
ReplyDeleteबहुत गहरे उतार चड़ाव,बहुत गहरे में डुबोती आपकी रचना बहुत बढिया लगी।बहुत बहुत बधाई सुन्दर रचना के लिए।
ReplyDeleteमुबारक मेरा भी कुबूल कीजिये..
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखते है आप .. स्वागत..
lekh thoda chota ho to achha rahta hai.
हुज़ूर आपका भी एहतिराम करता चलूं......
ReplyDeleteइधर से गुज़रा था, सोचा सलाम करता चलूं..
www.samwaadghar.blogspot.com
कविता लम्बी है इसलिये इत्मीनान से पढ़नी पड़ेगी.
ReplyDeleteखैरम कदम ! एक बार में इतनी सारी रचनायें मत दीजिए ।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखते है आप.
ReplyDeleteअद्भुत प्रस्तुति
आभार.