दोस्तो, यह मेरी पहली चिट्ठी है, और सच कहूं तो इस पहले प्रयास में मुझे नाकों चने चबाने पड रहे हैं ! कारण यह है कि यह जो फ़ौण्ट है इसमें अपनी महारत बहुत कम है.
बहरहाल, आप सब से नमस्कार, राम-राम, नमस्ते, अस्सलाम वालेकुम,हाइ, वण्क्कम, वगैरा, वगैरा कहने के लिए पेश है, एक आत्मकथ्य :
आत्मकथ्य
मैं पैदा हुआ था छाजनों बरसती सांझ में
फट पडे थे बादल
फूट पडीं थीं तूफ़ानी हवाएं
गो पानी से घिरा हुआ था शहर बम्बई
जहां मैने लिया जन्म
तभी से समुद्री खारापन
और पावस की मिठास मेरे साथ है
कॄतग्य हूं उस सांझ का
कॄतग्य हूं उस आंधी-पानी का
जिसने भर दी हॄदय में
कभी न खत्म होने वाली हलचल
कॄतग्य हूं माता-पिता का
जिन्होंने दिया मुझे जन्म
दी मुझे यह दुनिया
जंगली शहद जैसी कटु-तिक्त
सैंतालीस में दो बरस बाकी थे अभी
आउटर पर खडी रेलगाडी की तरह
चौबीस महीने के फ़ासले पर खडी थी आज़ादी
मगर खत्म हुई थी जंग हफ़्ता भर पहले
जब मैंने कदम रख कर गर्भ के बाहर
सांस खींची भरपूर
बम्बई की भीगी हवा को भरते हुए वक्ष में
आत्मा को भी विजडित कर देने वाले धमाकों के साथ
परिणति तक पहुंचा था नवीनतम नरसंहार
घनघोर मारामारी के बाद उगने के लिए व्याकुल थी दूब
व्याकुल थीं सहमी हुई पत्तियां
हवा के झंकोरों में हाथ हिलाने के लिए
व्याकुल था जीवन मॄत्यु के तन पर
एक बार फिर खिल उठुने के लिए
यही व्याकुलता आज तक गूंजती है
रक्त का राग बन कर
मेरे हॄदय में
कॄतग्य हूं इस व्याकुलता का
जिसने नहीं करने दिया स्वीकार मुझे
सूत्रों और सूक्तियों और आर्ष-वचनों का सत्य
परखे बिना
वैसे बहुत कुछ हो रहा था -
मेरे अलावा - सन पैंतालीस में
कुछ भूचाल इन्तजार कर रहे थे
धरती के गर्भ में
बाहर आने के लिए
कुछ आंधियों ने कान लगा रखे थे
धावकों की तरह ध्वनि-संकेत पर
कुछ बादल गरज रहे थे क्षितिज पर
हमलावरों की तरह हल्ला बोलने के लिए
एक चाकू पहंटा जा रहा था
गलियां, मकान, घर, रिश्ते और चुम्बन
विभाजित करने के लिए
अपने ही पैरों पर गिरने को तैयार थी
हज़ारों वर्ष पुरानी एक सभ्यता
एक विराट संक्रमण से गुज़र रही थी पूरी पॄथ्वी
जो बदल देने वाला था अरबों लोगों का भविष्य
बहुतों के लिए तो
कोना कटे कार्ड की तरह आने वाला था सन सैंतालीस
फ़िलहाल तो यह कार्ड छप रहा था
ब्रिटिश सरकार के छापाखाने में
इस आसन्न अफ़रा-तफ़री, इस हलचल,
हादसों की इन मनहूस दस्तकों ने भी बनाये रखा
बेचैन और उतावला मुझे जीवन भर
रहने नहीं दिया मुझे दिन की तरह साफ़,
धूप की तरह पारदर्शी और रात की तरह सुकूनदेह
अपने संसार से कलह मेरा शौक नहीं मजबूरी थी
अपनी नाकामियों से लडता आया हूं अब तक
हासिल करता हुआ ताकत
किर्ती किसान पार्टी के जुझारू अग्रजों से,
वरली और तेभागा के किसानों से,
बम्बई के जहाज़ियों से,
जिन्होंने फ़िरंगी सरकार से
समझौते का नहीं संघर्ष का फ़ैसला किया था
कॄतग्य हूं उन किसान-मज़दूरों का, उन पूर्वजों का,
जिन्होंने दी मुझे एक शानदार विरासत
कथनी और करनी को जांचने के लिए
एक अनोखी कसौटी
लिये चल रहा हूं जिसे
अपने साथ
अब तक
ब्लॉग की दुनिया मैं आपका स्वागत है
ReplyDeleteस्वागत है नीलाभ भाई
ReplyDeleteनीलाभ जी आप ब्लॉग जगत में ऐसे ही डटे रहें, अच्छा लिखते हैं आप।
ReplyDeleteवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
बहुत दिनों बाद ई-दुनिया में झांका तो पाया कि आप भी आ डटे हैं। कविताएं आपकी अब जल्दी-जल्दी पढ़ने को मिलेंगी, ऐसी उम्मीद है। मेरे जैसे आपके शुभचिंतक हस्तक्षेप के इस हथियार को आपके हाथ देखकर निश्चित ही प्रसन्न हैं..होंगे...शुभकामनाएं।
ReplyDeletekya baat hai janab!
ReplyDeletekamal likha hai
maja aa gaya!
dhanyabad hai aapko!
bahut-bahut!