Friday, October 28, 2011

युवा कविता पर कुछ नोटनुमा टीपें

निवेदन
नीचे दी गयी टिप्पणी मैंने दिल्ली के सत्यवती कालेज में हिन्दी कविता पर केन्द्रित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी बीज-वक्तव्य के रूप में पढ़ी थी और अब यह युवा कवि मुकेश मानस के सम्पादन में नयी पत्रिका "मगहर" के प्रवेशांक में आ रही है जो जल्द ही प्रकाशित हो रह है.आपकी प्रतिक्रिया का मैं इन्तज़ार करूंगा.


सारे दृश्य बदल रहे हैं

युवा कविता पर कुछ नोटनुमा टीपें


अभी समय लगेगा इसका स्वाद पहचानने में
अभी तो आलाप है पहला पहला
आने को है सातों सुरों में रचा गया राग
अभी समय लगेगा असली आनन्द पाने में
धैर्य से सुनें आप
कवि का नहीं, कविता का नहीं,
प्रयत्न का करें सम्मान, श्रीमान!

"नये कवि की कविता" शीर्षक से लिखी गयी अपनी यह कविता मुझे आज बेसाख़्ता याद आ रही है, जब मैं ख़ुद युवा कवियों और उनकी कविता का एक जायज़ा लेने की कोशिश कर रहा हूं. इस प्रयास में शायद मेरा भी निवेदन यही है कि मेरे प्रयत्न ही को ख़ातिर में रखियेगा. कारण यह कि वैसे तो किसी एक कवि या रचनाकार का मूल्यांकन भी, अगर ईमानदारी से किया जाय तो, ख़ासा संकटपूर्ण काम साबित हो सकता है, लेकिन एक समूचे दौर की और वह भी ख़ास यौर पर युवा रचनाशीलता का जायज़ा, मूल्यांकन या समीक्षा निर्विवाद रूप से अजाने जोखिमों से भरा और नाशुक्रा काम होता है, जिसमें दोनों ही पक्षों के असन्तुष्ट रह जाने की गुंजाइशें रहती हैं. कवियों को शिकायत होती है कि उन्हें या तो ठीक से समझा नहीं गया या फिर सही वज़न नहीं मिला. जायज़ा लेने वाले को यह आपत्ति होती है कि उससे गागर में सागर भरने की उम्मीद क्यों रखी गयी, जो बुनियादी तौर पर रचना का काम है, समीक्षा या जायज़े का नहीं. चुनांचे, मैं यह बात एकदम शुरू ही में साफ़ कर देना चाहता हूं कि एक तो मैं कोई पेशेवर आलोचक नहीं, आज के युवा कवियों का सहकर्मी हूं, थोड़ा उम्रदराज़ ही सही. ऐन सम्भव है कि मैं साथी कवियों की अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाऊं. इसे मेरी कमज़ोरी ही मानियेगा, इरादतन किया गया कृत्य नहीं.
मेरी कोशिश आज की युवा कविता के बदलते परिदृश्य तो कुछ इस तरह अंकित करने की है, जैसे तेज़ रफ़्तार से चल रही कार से किसी विराट और पैनोरैमिक दृश्यावली की विडियो तस्वीर पेश करना. ज़ाहिरा तौर पर रेखाएं मोटी होंगी और वही ब्योरे दर्ज होंगे जो नुमायां हैं. कुछ ध्वनियां छूट जायेंगी. बारीक़बीनी की गुंजाइश इस काम में शायद नहीं है.अस्तु.
सबसे पहले तो यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि युवा कविता य युवा कवियों से मेरी मुराद क्या है. अपनी हिन्दी में तो आजकल भारतीय राजनीति का-सा हाल है. जैसे 50-50 साल के नेता राजनैतिक दल की युवा इकाई में बने रहते हैं, वैसे ही बहुत-से कवि भी लगभग अधेड़ावस्था तक "युवा" बने रहते हैं. लेकिन मेरा यह जायज़ा उन कवियों को ध्यान में रख कर किया गया है जिनका जन्म १९७० के बाद हुआ है. कुछ तो ऐसे भी कवि हैं जिन्का जन्म १९८० या उसके बाद हुआ है. दूसरे इनमें भी जिनकी पर्याप्त चर्चा हो चुकी है, जैसे व्योमेश शुक्ल या निर्मला पुतुल, उनकी बजाय मैंने ऐसे कवियों पर नज़र डालने की कोशिश की है जो अभी चर्चा में नहीं आये हैं मगर जिनमें मुझे सम्भावनाएं दिखायी दी हैं. इनमें से कुछ के तो संग्रह भी नहीं आये हैं.
वैसे, मेरे एक साथी ने यह सुझाया था कि युवा कवि भी पुरानी बात कर सकता है और किसी प्रौढ़ कवि की कविता से भी युवा ख़ुशबू आ सकती है. सिद्धान्तत: इस बात से इनकार न होते हुए भी यह मसला एक बिलकुल ही भिन्न आलेख की मांग करता है. यहां मेरा वह अभीष्ट नहीं है. मैंने तो नये बिरवों को ही निरखा-परखा है और उनके पातों पर निगाह डाल कर उनके होनहार होने का अनुमान लगाने का प्रयास किया है.न तो मैं सर्वज्ञ हूं, न कोई नजूमी. बल्कि मैं तो ख़ुद को इन सभी युवा साथियों का सहकर्मी मानता हूं और मेरा मक़सद न तो नसीहत देने का है न इस्लाह करने का, बल्कि इन साथियों की कुछ ख़ूबियों की तरफ़ इशारा करने और अगर मुझे लगा है कि उनकी राह में कुछ गड्ढे आने की आशंका है तो उनके प्रति सावधान कर देने का.

२.

जब मैं इस दौर पर निगाह दौड़ाता हूं, जिसमें ज़िन्दगी ख़ासी कठिन हो गयी है और हिन्दी के कथा साहित्य और कथेतर गद्य ने पिछले डेढ़-पौने दो सौ साल में काफ़ी मंज़िलें तय कर ली हैं, तो एक सवाल मेरे मन में बार-बार उठता है. क्या कारण है - कविता आज पहले से कहीं ज़्यादा तादाद में लिखी जा रही है ? कविता से शुरू करके कथा साहित्य में चले आने वाले राजेन्द्र यादव हालांकि कई बार कविता की मृत्यु की घोषणाएं कर चुके हैं तो भी कोई वजह तो होगी कि कविता लोगों को आज भी अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने का एक कारगर साधन जान पड़ती है.
युवा कवि रविकान्त ने कविता की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए अपनी कविता "लिखना ज़रूरी लगा मुझे" में इस सवाल का तसल्ली-बख़्श जवाब देने की कोशिश की है --

मैं लिखता हूं
इसलिए नहीं कि मैं लिखना चाहता हूं
मैं न लिखता
यदि लिखने से
मुझे मेरे प्रश्नों के हल न मिले होते
लिखना ज़रूरी लगा मुझे
एक बड़े जीवन को
उसके छोटेपन से मुक्त करने ले लिए
मैं जानता हूं कि मैं असुरक्षित हूं यहां
पर सुरक्षा की क़िलेदारी भी नहीं चाहिये मुझे
कुछ खिड़कियां और उनके बाहर का पूरा आसमान
ज़रूरी है मेरे जीने के लिए
चूंकि स्वतन्त्रता पल-पल का उद्देश्य है
इसलिए कोई हथियार उठा कर चलना
ज़रूरी लगा मुझे

मेरे निकट यह कविता लिखने की या कहा जाय कि लिखने की ही बहुत वाजिब वजह है. प्रसिद्ध जर्मन कवि-नाटककार बर्टोल्ट ब्रेख़्ट की एक उक्ति है -- सच लिखने में पांच कठिनाइयां :
१. सच को लिखने का साहस भले ही उसे हर जगह दबाया जा रहा हो;
२. सच को पहचानने की चतुराई;
३. उसे हथियार की शक्ल में उपलब्ध कराने की कला;
४. उसे फैलाने की होशियारी;
५. और उन लोगों को चुनने का विवेक जिनके हाथों में वह सबसे ज़्यादा असरदार साबित होगा.

युवा कवियों में से बहुत-से कवि ऐसे हैं जो इस उक्ति को जाने बग़ैर कमो-बेश इस पर खरे उतरते हैं, लेकिन यह भी सही है कि अनेक कवि इर्द-गिर्द के साहित्यिक माहौल के दबावों के चलते कविता तो लिखते हैं जनता के लिए, मगर उसे सुना आते हैं आई.आई.सी या हैबिटैट सेंटर के सभागारों में -- सच को लिखने की आख़िरी कठिनाई पर ध्यान दिये बिना. यह एक ख़तरा आज की युवा ही नहीं सारी कविता के सामने तो है ही.

बहरहाल, सभ्यता के विकास-क्रम में कविता और नाटक से शुरू कर के साहित्य की कई विधाएं जन्मीं और विलीन हुईं. यह सब ज़रूरत के तहत हुआ. अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने के लिए ही विधाओं का विकास हुआ और जो विधाएं बहुत दूर तलक रचनाकारों का साथ नहीं दे पायीं, वे छूटती चली गयीं. मिसाल के लिए चम्पू ही को ले लीजिये. एक समय में चम्पू अभिव्यक्ति की एक लोकप्रिय विधा थी. अब नहीं है. लेकिन अगर तमाम दोष-दर्शन के बाद भी कविता क़ायम है, तो यह विधा के रूप में उसकी शक्ति का सबूत तो है ही.
अल्बत्ता, इसमें एक ख़तरा भी छुपा हुआ है, जिस पर हम कवियों की नज़र अमूमन नहीं जाती और जिसके बारे में अर्सा पहले मैंने ध्यान दिलाया था. ख़तरा यह कि कई बार हम कविता से ऐसी उम्मीदें करने लगते हैं जो हमें अन्य विधाओं से करनी चाहिएं. अगर हाल के दौर पर नज़र डालें तो कुछ विधाएं उपेक्षा का शिकार हुई हैं. इसलिए नहीं कि बज़ाते-ख़ुद उनमें कोई ख़ामी या कमी है, बल्कि इसलिए कि साहित्य का जो सत्ता पक्ष है, मसलन आलोचना, पत्र-पत्रिकाएं, पुरस्कार देने वाली संस्थाएं, आदि, उन्होंने कुछ विधाओं पर अनावश्यक रूप से अधिक बल देना शुरू कर दिया है, जिसकी वजह से रचनाकारों ने भी उन विधाओं से हाथ खींच लिये हैं. ललित निबन्ध, व्यक्ति-चित्र, रिपोर्ताज, हास्य-व्यंग्य, यात्रा-विवरण, रेखा-चित्र, संस्मरण - ऐसी अनेक विधाएं हैं जिनकी ओर लेखकों का ध्यान कम-से-कमतर जाने लगा है. नतीजा यह कि कई बार वह कथ्य जो किसी और विधा का विषय है, जबरन कहानी या कविता में पिरोया जाने लगता है. मैं जानता हूं कि यह कहना उस बहस को आमन्त्रित करना है कि कविता फिर क्या है आख़िर ? मेरा अपना ख़याल है कि इस बहस को भी इस नये दौर में एक बार फिर से कर ही लेना चाहिये, यहां इसका मौक़ा तो नहीं है, पर मैं एक प्रस्थान बिन्दु सुझा रहा हूं. हमारे एक साथी कवि राजेश जोशि की एक कविता है "अहद होटल" जिसमें उन्होंने अपने शहर के एक होटल के अत्तेत और वर्तमान को याद करने के बहाने बदलते समय और समाज का एक चित्र पेश किया है. राजेन्द्र यादव ने अपनी कहानी "तलवार पंचहज़ारी" में भी कुछ-कुछ ऐसा ही किया था. अगर हम "अहद होटल" शीर्षक कविता को कहानी में ढालना चाहें तो बहुत मौश्किल नहीं पेश आयेगी, वैसे ही जैसे राजेश जोशी की तकनीक से "तलवार पंच हज़ारी" को एक कविता में ढाला जा सकता है. राजेश यों भी आख्यानमूलक कविता के समर्थक हैं. लेकिन मुक्तिब्ध की कविता "अंधेरे में" हमारे समय का एक बड़ा आख्यान होते हुए भी कहानी के रूपाकार में पेश नहीं की जा सकती.
एक आरोप जो हाल के वर्षों में कविता पर लगता रहा है वह यह कि आज कविता लिखना बहुत आसान हो गया है. छ्न्द की बन्दिश रही नहीं, रूप की दूसरी बन्दिशें, मसलन रस, अलंकार, आदि महत्व खो बैठी हैं, सो कुछ भी लिख दीजिये कविता हो जाता है. मगर क्या सचमुच ऐसा है ? अगर नहीं तो कविता ने आज अपने लिए कौन-सी कसौटियों की ईजाद की है ? कहीं इसी वजह से तो शायद पाठक कविता के सिलसिले में यह सवाल नहीं उठाते कि वह समझ में नहीं आती, या वह कविता जैसी नहीं लगती. मैं जानता हूं कि कई बार ये सवाल नाजानकारी में उठाये जाते हैं. पाठक एक विशेष प्रकार की कविता के अभ्यस्त होते हैं और नयी रचनाशीलता धैर्य और समझदारी की मांग करती है. और फिर ऐसे एतराज़ हमें उसी पुरानी बहस की ओर ले जाते हैं जिसका ज़िक्र मैंने अभी किया - कि कविता क्या है, जिसकी आज यहां बहुत गुंजाइश नहीं है. इसलिए मैं यहां बस आपका ध्यान इस पहलू की तरफ़ दिला कर एक और नुक़्ते की तरफ़ इशारा करूंगा जो मुझे कभी-कभी खटकता है.
सामाजिक विषमता की बात करते हुए क्या हमारा ध्यान इस ओर जाता है कि सामाजिक विषमता सिर्फ़ समाज तक ही महदूद नहीं है, वह सामाजिक गतिविधियों में भी नज़र आती है. मसलन रोज़मर्रा के काम-काज में. या फिर अगर साहित्य भी एक सामाजिक कार्रवाई है तो उस विषमता का अक्स साहित्य में भी दिखाई देता है क्या ? क्या कुछ विधाएं उच्चवर्गीय हैं, कुछ निम्न और कुछ बीच की. कुछ सवर्ण विधाएं हैं, कुछ दलित और कुछ बीच की जातियों की. अब यही देखिए कि नाटक एक उपेक्षित विधा है, भले ही कभी-कभी वह शाही ताम-झाम के साथ नज़र आती हो. आज तक किसी नाटककार को ज्ञानपीठ पुरस्कार नहीं मिला, कम-से-कम हिन्दी में; और साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी आज तक किसी नाटककार को नहीं दिया गया है. इसी तरह व्यंग्य पर अकेले परसाई को और कहानी की विधा पर निर्मल वर्मा और उदय प्रकाश को सहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया गया है. सब से दिलचस्प बात यह है कि सुरेन्द्र वर्मा को जो नाटककार के रूप में जाने जाते हैं नाटक पर नहीं उपन्यास पर पुरस्कृत किया गया. कविताओं में नाटकीय लम्हे नज़र आते हैं पर नाटक बज़ाते-ख़ुद अछूत बना हुआ है.
एक ज़माना था कि कविता - या कहा जाय छ्न्द - ही सहित्यिक अभिव्यक्ति का एकमात्र साधन था. लेकिन जैसे-जैसे समाज विकसित हुआ कविता और नाटक के साथ अन्य विधाएं भी ईजाद की गयीं क्योंकि यह महसूस किया गया कि ऐसा बहुत कुछ है जो कविता की पहुंच से बाहर है, भले ही किसी काव्यात्मक कृति का कलेवर कितना ही विराट क्यों न कर दिया जाये. इसी ज़रूरत के चलते कहानी, उपन्यास, व्यंग्य, यात्रा विवरण, ललित निबन्ध, आलोचना, आदि अनेक विधाएं सामने आयीं और अच्छे-ख़ासे समय तक फलती-फूलती रहीं. फिर धीरे-धीरे पहिया उलटी तरफ़ चलने लगा. ले-दे कर कविता, कहानी और उपन्यास -- इन्हीं तीन विधाओं का वर्चस्व साहित्य की वसुन्धरा पर दिखायी देने लगा. और बीच-बीच में इनके बीच में भी ऊंच-नीच की होड़ नज़र आने लगी. इसके सामाजिक कारणों की खोज ज़रूरी है. कहीं ऐसा तो नहीं है कि सामाजिक समता की लड़ाई जैसे-जैसे हाल के वर्षों में कमज़ोर हुई है, वैसे-वैसे सामन्ती मूल्यों की वापसी के साथ जातीय कट्टरता बढ़ी है, और इससे हुआ यह कि साहित्य में भी एक श्रेणी विभाजन हो गया है. वरना क्या कारण है कि बीसवीं सदी के शुरुआती पांच-छै दशकों तक अनेक साहित्यकार अनेक विधाओं में लिखते थे. कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने एक या दो विधाओं में ही रचनाएं कीं मगर वे अन्य विधाओं के प्रति असहिष्णु नहीं थे. यह तो हाल के वर्षों में हुआ है कि विधाओं और उनके अलमबर्दारों के बीच खींचातानी शुरू हुई है. राजेन्द्र यादव ने अगर कविता का फ़ातिहा पढ़ दिया तो अशोक वाजपेयी ने कविता के बाहर न झांकने की क़सम खा ली. मेरे निकट यह रवैया न तो कविता के लिए श्रेयस्कर है, न गद्य के लिए.


३.

इस हालत में जब हम कविता के मौजूदा परिदृश्य पर निगाह डालते हैं तो कविता की वसुन्धरा बहुत हरी-भरी नज़र आती है. केदारनाथ सिंह और कुंवर नारायण जैसे वयो-वृद्ध कवियों से ले कर अनुज लुगुन, मुकेश मानस, मुकुल सरल और रजनी अनुरागी तक -- कवियों की तीन-चार पीढ़ियां इस समय सक्रिय हैं. सिर्फ़ सक्रिय ही नहीं हैं, बल्कि उनमें आश्चर्यजनक विविधता भी दिखायी देती है और कहना न होगा कि सबसे ज़्यादा विविधता हमारे युवतर साथियों में है. युवा कवियों में अगर हम गिरिराज किराडू और अशोक पाण्डेय से ले कर पूनम तुषामड़, आस्तीक वाजपेयी और महेश वर्मा की कविताओं को देखें तो विषय, कथ्य और अन्दाज़-ए-बयां के लिहाज़ से -- उसी वसुन्धरा वाले रूपक को अगर और आगे बढ़ा कर कहूं तो -- एक विशाल उपवन हमें फलता-फूलता नज़र आता है. एक ओर अगर वह सीधी-सपाट शैली है जो साठ और सत्तर के दशक की कविता की शक्ति थी तो दूसरी ओर वह वक्रता है जो बीसवीं सदी के अन्तिम दशक की कविता ने अपने समय की जटिलता को अभिव्यक्त करने के लिए अपनायी. इसके साथ-साथ एक खिलन्दड़ापन भी है -- भाषा को नये ढंग से बरतने के सिलसिले में -- जो श्रीकान्त वर्मा और विनोद कुमार शुक्ल जैसा न होते हुए भी उनके प्रयोगों की याद कराता है. मिसाल के लिए महेश वर्मा की कविता "पानी" में उनका ख़ास रंग --

पानी
अब वही काम तो ठीक से करता , वहाँ भी / पिछड़ ही गया वाक्य सफ़ेद कुर्ते में पान खाकर / तर्जनी से चूना चाटने की तरह कहा जाता
जहाँ उसी आसपास साईकिल अब कौन चढता है / प्रश्न के उत्तर की तरह चलता हुआ ब्रेक इसलिए / नहीं लगा पा रहा था कि रुकते ही प्यास
लगेगी. बिना अपमान के सादा पानी छूंछे / पीकर निकल जाना मुश्किल होते जाने के शहर / में या तो मंत्री हो गए सहपाठी का किस्सा सुनाते
परचूनिए से उधार ले लूं या पत्रकार बन जाऊं के विकल्प / को छोड़ कर कविता लिखना तो ट्यूशन पढ़ाने से भी
कमज़ोर काम कि पीटने के लिए छात्र और दांत / दिखाने के लिए विद्यार्थी की महिला रिश्तेदार भी
नहीं . धूप में साइकिल कहीं रोकने में पुराने पंक्चर / के खुलने का डर तो इस दोगलेपन का क्या / कि जो दरवाजा जीवन से कविता की ओर खुलता
वही दरवाजा कविता से जीवन में लौटने का नहीं.

इसी के बरक्स गिरिराज किराडू का अपना अन्दाज़-ए-बयां है --

रूपकों पर घिर आयी है एक बेरहम अजनबी छाया
कभी सपने जैसी भाषा में वे तैरते थे आँखों के आगे आपकी कविता की तरह
कितना निकट आना होता है आपकी कविता के
उसके जैसा न होने के लिए विनोदजी
एक उम्र गुजर रही है उस निकटता को पाने में
आप अपने नगर में आदिवास करते हुए मगन होंगे
जब सबसे छूट कर आपसे भी छूट जाऊंगा
हर तरफ हर बोली में लोग लाउडस्पीकर पर एक झूठा छत्तीसगढ़ बना रहे होंगे
आप मेरा आख़िरी रूपक हैं कह कर देखता हूं मीर को दस महीने के बच्चे को
मीर कहना उसे उस ख़ाली जगह रखना है जो
भविष्य के नमस्कार हो जाने से बनी है
सदा ख़ुश रहिये यूं ही लिखते रहिये मेरा आशीर्वाद है आपको

लेकिन इस सब का स्वागत करते हुए हमें उन ख़तरों के प्रति जागरूक रहना चाहिए जो बहुत अधिक कला से पैदा होते हैं. इस सिलसिले में रघुवीर सहाय की एक पंक्ति मुझे हमेशा याद आती रहती है और एक कसौटी का-सा काम करती है कि "जहां बहुत अधिक कला होगी वहां परिवर्तन नहीं होगा." सो, हमें कला का दामन वहीं तक थामे रहना है जहां तक वह परिवर्तन से हमें विमुख न करे.
गिरिराज किराडू की एक और विशेषता है. अक्सर उनकी कविता पहले के साहित्य से वस्तु या विषय या ख़याल या सन्दर्भ ग्रहण करती है, यों कहें कि उड़ान भरती है. इस प्रवृत्ति के बारे में अशोक वाजपेयी ने बहुत लिखा है और उसकी ताईद की है. लेकिन जब वह एक कवि का मुहावरा बनने लगे तो ? या फिर पाठक से यह अपेक्षा रखने लगे कि उसे भी उतना सुपठित-बहुपठित होना होगा जितना कि कवि तो ? ऊपर की कविता को लीजिये. ज़ाहिर है कि जो हिन्दी कविता से परिचित हैं वे तो जान जायेंगे कि इसमें कवि विनोद कुमार शुक्ल की बात हो रही है जो रायपुर में रहते हैं और जिनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ रचा-बसा है. मगर जो इस बात को नहीं जानते उनका क्या होगा ? वैसे जहां तक ख़ुद विनोद जी का ताल्लुक़ है, उनकी कविता में ऐसे लटके-झटके नहीं हैं. मिसाल के लिए उनकी कविता की एक बानगी पेश है -- "हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था मैं उस व्यक्ति को नहीं जानता था पर मैं हताशा को जानता था मैं ने उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाया वह मुझे नहीं जानता था पर हाथ बढ़ाने को जानता था हम कुछ दूर साथ साथ चले हम एक दूसरे को नहीं जनते थे पर साथ साथ चलने को जानते थे."
इस सन्दर्भ में मुझे अक्सर एज़रा पाउण्ड की चुनी हुई कविताओं पर लिखी गयी टी.एस.एलियट की भूमिका के उस अंश की याद हो आती है जहां वे मौलिकता की चर्चा करते हुए कहते हैं कि "सच्ची मौलिकता महज़ विकास है; और अगर वह सही विकास है तो अन्त में वह इतना अनिवार्य महसूस हो सकता है कि हम लगभग उस नज़रिये तक पहुंच जायें कि हम कवि को "मौलिकता" के गुण से पूरी तरह रहित ठहरा बैठें...एक सतही-सी कसौटी है जिसके अनुसार मौलिक कवि सीधा जीवन की ओर जाता है और ’डेरिवेटिव’ यानी उद्भूत कवि ’साहित्य’ की ओर. जब हम इस मामले को परखते हैं तो हम पाते हैं कि जो कवि सचमुच "उद्भूत" है वह साहित्य को जीवन समझने की भूल कर रहा है और अक्सर इस भूल का कारण यह होता है कि उसने काफ़ी कुछ पढ़ा नहीं होता."
ज़ाहिर है कि गिरिराज के सिलसिले में यह मानने की भूल नहीं की जा सकती कि वे जीवन और साहित्य में अन्तर न कर पाते होंगे या उन्होंने काफ़ी कुछ पढ़ा न होगा, तो भी यह सवाल रह ही जाता है कि इस हद तक साहित्य को कविता का उपजीव्य बनाने की ज़रूरत क्यों महसूस की जाती है ? जिन पाठकों को उन सन्दर्भों का पता नहीं है, वे ऐसी कविताओं को कैसे समझ पायेंगे, समझने शब्द से अगर एतराज़ हो तो उसकी जगह आप बेखटके आनन्द रख दीजिये? यह प्रवृत्ति महेश वर्मा की कविता "रेमेदिओस" और प्रत्यक्षा सिन्हा की कविताओं में भी दिखायी देती है. "रेमेदिओस" लातीनी अमरीका के प्रसिद्ध उपन्यासकार गेब्रियेल गार्सिया मार्केज़ के उपन्यास "एकाकीपन के सौ वर्ष" की एक पात्र है. जिन्होंने मार्केज़ का उपन्यास नहीं पढ़ा है, वे इस सन्दर्भ को कैसे समझ पायेंगे ? निराला जब "सरोज-स्मृति" में कहते हैं "ऐसे शिव से गिरिजा विवाह करने की मुझको नहीं चाह" तो उन्हें कविता के नीचे फ़ुटनोट लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती.
इसके साथ ही युवा कविता में यह प्रवृत्ति भी दिखायी देती है कि कवि अपनी अलग राह खोजने के कठिन काम से बचने के लिए पहले की आज़मायी हुई हिकमतों से काम लेते हैं. यह प्रवृत्ति ख़ास तौर पर उन कवियों में दिखायी देती है जिनके पास चुस्त-दुरुस्त भाषा है. वे एक मुहावरा पकड़ते हैं और जल्दी से स्वीकृत कवियों की सफ़ में आने की जुगुत बैठाने लगते हैं. इसीलिए कई बार उनकी कविताओं में पहले के किसी प्रतिष्ठित कवि की झाईं नज़र आती है. पिछली पीढी के एक कवि की सलाह - "चालाक फ़िकरों से बच कर लिखो एक छोटा-सा सच और देखो कि वह कितना कारगर होता है" - उन्हें बेमानी लगती है. यक़ीनन कविता इर्द-गिर्द की दुनिया पर ही लिखी जायेगी, देखना तो यह है कि कवि उस दुनिया को कैसे पेश कर रहा है. क्या वह इस देखी गयी दुनिया के अनदेखे पहलू उजागर कर रहा है ? चीज़ों को नये कोण से देख और दिखा कर हमें उन्हें बदलने की लड़ाई में और होशमन्द बना रहा है या नहीं. इसलिए एक सवाल जो नये कवियों को अपने से पूछना होगा - और यह एक कसौटी का काम भी कर सकता है - कि कवियों ने अपने विषयों का चुनाव करने के साथ-साथ उन्हें अभिव्यक्त करने के कितने तरीक़े इस्तेमाल किये हैं. हमेशा से अभिव्यक्ति के चार तरीक़े होते हैं -- पुरानी बात को पुराने ढंग से कहना, बात पुरानी हो मगर नये ढंग से कही जाय, नयी बात पुराने ढंग से कही जाय और नयी बात नये ढंग से कही जाय. कविता की आज़मायी हुई कसौटियों में "उपज" को काफ़ी अहमियत दी गयी है. यही वह गुण है चीज़ों को नये पहलू से देखने का जिसके बल पर कविता अपनी परम्परा से जुड़ती है. प्रेम एक पुराना विषय है और जब से कविता कही-लिखी जाती रही है अपनी जगह पर मौजूद रहा है. देखना यह होगा कि उसके साथ कवि ने क्या सुलूक़ किया है और कविता प्रेम के साथ-साथ इर्द-गिर्द के जीवन के कौन-से नये पहलू खोलती है.

४.

इसी सन्दर्भ में एक और पंक्ति का ज़िक्र करना चाहता हूं जो मुक्तिबोध अक्सर नये-से-नये मिलने वाले से पूछ बैठते थे -- पार्टनर, तुम्हारी पालिटिक्स क्या है ? यह लट्ठमार-सा प्रश्न उनकी ज़िन्दगी और कला का तो मूलमन्त्र बना ही रहा, आगे आने वालों के लिए भी एक ज़रूरी सवाल बन गया. यहां आप सब के सामने, जो कविता में ख़ूब रसे-पगे हैं, इस बात पर बल देने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि आप सब जानते हैं कि दुनिया की श्रेष्ठतम कविता राजनीति से किनारा करके नहीं, बल्कि राजनीति से जुड़ कर लिखी गयी है. और यह भी हम जानते हैं कि अगर कविता जनोन्मुखी नहीं है तो वह अपना फ़र्ज़ नहीं अदा कर सकती. मुझे याद आता है कि आपातकाल के दौरान और उसके बाद जब "कविता की वापसी" के दौर में कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने वाम राजनीति से जुड़े लोगों पर चोट करते हुए कविता में "फूल-पत्ती-बच्चे-प्रेम" की गुहार लगायी थी तो हमारे मित्र ज्ञानरंजन ने "पहल" के एक सम्पादकीय में नेरूदा या नाज़िम हिकमत के हवाले से लिखा था कि घोषित राजनीति कला को चमकाती है. इसमें कोई शक नहीं है कि राजनैतिक कविता का अर्थ सिर्फ़ गोली-बन्दूक पर लिखी कविता नहीं है, एक प्रेम कविता भी राजनैतिक कविता हो सकती है, होती है. और यह भी छिपी हुई बात नहीं है कि जो कहते हैं कि उनकी कोई राजनीति नहीं है, उनकी भी एक राजनीति होती है.सवाल तो पक्ष का है. यह तय करने का है कि किस ओर हो तुम.

यह छोटा-सा नोट लिखने का ख़याल मुझे तब आया जब युवा कविता पर सोच-विचार करते हुए मैंने हिन्दी "आउटलुक" में पत्रकार और प्रतिभाशाली कवि-कहानीकार आकांक्षा पारे की दो कविताएं पढ़ीं --"घर" और "कैसे हो सकता है ऐसा." पहली कविता में आकांक्षा ने सड़क किनारे कच्चे घरों और उन में रहने वालों की तस्वीर खींची है --

सड़क किनारे तनी हैं / सैकड़ों नीली, पीली पन्नियां / ठिठुरती रात / झुलसते दिन / गीली ज़मीन / टपकती छत के बावजूद / गर्व से वे उन्हें कहते हैं घर.
कल की फ़िक्र किये बिना / वे जीते हैं आज / कभी अतिक्रमण / कभी सौन्दर्यीकरण / कभी बिना कारण / उजाड़ दिये जाते हैं वे
बिना शिकन बांधते हैं वे / अपनी ज़मीन / अपना आसमान / निकल पड़ते हैं / सड़क के नये किनारे की तलाश में

ज़ाहिर है कि सड़क किनारे रहने वालों की दुनिया हमारे आधुनिक शहरी जीवन की एक हक़ीक़त है, जिसे हम कई बार देख कर भी अनदेखा कर देते हैं. पर इस कविता में औपरेटिव शब्द है "घर" - जो आकांक्षा की कविता के अनुसार "चूल्हे की राख, पेट की आग, सपनों की खाट, हौसले का बक्सा, उम्मीदों का कनस्तर" अपने भीतर समोये हुए है. और घर इन्हीं चीज़ों से तो बनता है. क्या आम तौर पर घर कहते समय इन चीज़ों का बिम्ब हमारे सामने उभरता है ? शायद नहीं, इसीलिए यह कविता अपनी सादगी में भी मानीख़ेज़ बन जाती है.
लेकिन जब मैंने आकांक्षा की दूसरी कविता "कैसे हो सकता है ऐसा" पढ़ी तो लगा कि कवित जितना उजागर कर रही है, उस से ज़्यादा छिपा रही है --

कैसे हो सकता है ऐसा जंगल में जब हार रही हो ख़ाकी वर्दी
उजड़ रहे हों सैनिकों के घर तब दो खिलाड़ियों के घर बसाने की चिन्ता में चर्चा करते रहें तमाम दिग्गज
विधवाओं के विलाप करते चेहरों पर ध्यान दिये बिना
चमकते रहें दो खिलाड़ियों के चेहरे टीवी पर दिन भर

इस कविता के साथ एक नोट भी आकांक्षा पारे ने दिया है -- "छत्तीसगढ़ में 72 सैनिकों की शहादत के बजाय सानिया की शादी और आईपीएल को टीवी पर ज़्यादा तवज्जो दिये जाने पर."

पहली बात तो यह है कि छत्तीसगढ़ में मारे गये सैनिकों से सम्बन्धित समाचार और इस घटना पर चर्चा किसी मानी में टीवी पर कम नहीं हुई थी. इसलिए अगर सानिया मिर्ज़ा या आईपीएल की चर्चा को ज़्यादा तवज्जो दी गयी तो यह कोई नयी बात नहीं. मेरा सवाल यह है कि मीडिया ही की तरह कवयित्री को छत्तीसगढ़ में पुलिस और तमाम तरह के सशस्त्र बलों के शिकार आदिवासी नज़र नहीं आये, उनकी बलत्कृत औरतें और बेटियां दिखायी नहीं दीं, पुलिस द्वारा हेमचन्द्र पाण्डे जैसे सहकर्मी पत्रकार की निर्मम हत्या ने उद्वेलित नहीं किया, आज़ाद और दसियों लोगों के झूठे एन्काउण्टरों ने संवेदित नहीं किया, उनकी नज़र गयी तो वहां जहां हमारी हत्यारी सरकार और गृह मन्त्रालय चाहता है कि जाये. वे अगर मात्र कवयित्री होतीं तो शायद यह चूक राजनैतिक समझ की कमी कही जा सकती थी, पर वे उस पत्रिका से जुड़ी हैं जिसने आदिवासियों की हालत के बारे में अरुन्धती राय के दिल दहलाने वाले लेख प्रकाशित किये हैं. ऐसी हालत में जब इसी वसुन्धरा पर आकांक्षा पारे के यह कविता और अनुज लुगुन और निर्मला पुतुल की कविताएं एक साथ मौजूद हों तो जांच-परख का पैमाना क्या होगा ? क्या हम मुक्तिबोध के सवाल से बच कर चलने का खतरा मोल ले सकते हैं ?

वैसे तो कविता की कसौटियां समय-समय पर बदलती रहती हैं, लेकिन कविता को जांचने के कुछ तरीक़े अब भी कारआमद साबित होते हैं. मसलन, जब हम कविता का, एक पुराना शब्द इस्तेमाल करूं तो, रसास्वादन करने से आगे बढ़ कर उसकी परख करने के काम की तरफ़ बढ़ते हैं तो हमें अनिवार्य रूप से कविता के बाहर आना पड़ता है, वैसे ही जैसे वास्तु-शिल्प के किसी नमूने का अन्दाज़ा हम अन्दर से कभी पूरी तरह नहीं लगा सकते. अगर हमारी आंखें बन्द करके हमें उस भवन में छोड़ दिया जाये तो हम कभी उसके रूपाकार के बारे में नहीं जान सकते चाहे हम उसके भीतर कितने ही दिन क्यों न बितायें. कविता को, या कहें कि साहित्य को, परखने के लिए हमें उसके बाहर आना ही पड़ेगा/पड़ता है भले ही कविता की जांच कविता के भीतर से करने की जितनी भी वकालत की जाये. और कविता के बाहर क्या है ? ज़ाहिर है, वह समय और उस समय का समाज जिसमें कविता लिखी जा रही है. इसीलिए कविता के बारे में कोई राय व्यक्त करते समय हम सबसे पहले यह देखते हैं कि जिस समय की कविता है, क्या उस समय की झाईं कविता में नज़र आ रही है या नहीं. यह सवाल उस समय और भी ज़रूरी हो उठता है जब चारों तरफ़ का समय और समाज तेज़ी से बदल रहा हो. युवा कवि मुकुल सरल ने अपनी एक कविता में इसी हक़ीक़त की तरफ़ इशारा किया है और एक वाजिब सवाल उठाया है -

सारे दृश्य बदल रहे हैं / कौन हो तुम? / साथ मेरे / हाथ थामे / जा रहे हैं हम कहां...

लेकिन कविता के अन्त तक पहुंचते-पहुंचते यह सवाल बदल जाता है --

सारे दृश्य बदल रहे हैं / कौन हो तुम / साथ उनके! / जा रहे हो / तुम कहां...?

लेकिन दृश्य तो हमेशा बदलते रहते हैं. ऐसा कोई समाज नहीं जो किसी विशाल चट्टान की तरह स्थिर और परिवर्तन की प्रक्रिया से अछूता रहा हो. सवाल तो यह है कि तब्दीली का स्वरूप क्या है और कारण कौन-से हैं. मुकुल इस तब्दीली के कारण कविता के उस अंश में स्पष्ट करते हैं जो इन दो उद्धरणों के बीच है. पृथ्वी की सुन्दरता की तरफ़ इशारा करते और इसी जगह घर बनाने की हसरत दर्ज करते हुए वे उस ओर भी नज़र डालते हैं, जहां आज लोग "कर रहे एक और विश्वयुद्ध की तैयारी." मुकुल को इस बात का पूरा एहसास है कि पागलपन दोनों ओर है, उनमें भी जो हथियार बना रहे हैं और उनमें भी जो हथियार जमा कर रहे हैं --

कर लिये कितने जमा हथियार घातक
एक हम-तुम दीखते पागल-दीवाने
घात में बैठे हैं ले कर बम विनाशक
जाने कब संहार कर दें इस जहां का

जिस बदलती हुई दुनिया के चित्र मुकुल अपनी कविताओं में दर्ज करते हैं वह हमारे समय ही की उत्तरोत्तर क्रूर और ख़ूंख़ार होती दुनिया है, जिस की छवियां हमें आज की युवा कविता में बराबर मिलती हैं. मिसाल के लिए मृत्युंजय की कविता में छत्तीसगढ़ के हवाले से --

"बस्तरिया मैना के कण्ठ में उग आये कांटे...
अबकी बसन्त में टेसू के लाल फूल
सुर्ख़-सुर्ख़ रक्त चटख झन-झन कर बज उट्ठे
ख़ून की होली जो खेली सरकार बेक़रार ने."

या फिर अशोक पाण्डेय की कविता "अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार" में --

"यह पहला दशक है इक्कीसवीं सदी का
एक सलोने राजकुमार की स्वप्नसदी का पहला दशक
इतिहासग्रस्त धर्मध्वजाधारियों की स्वप्न सदी का पहला दशक
पहला दशक एक भूमण्डलीय धुरी पर घूमते गांव का
सबके पास हैं अपने अपने हिस्से के स्वप्न
स्वप्नों के प्राणान्तक बोझ से कराहती सदी का पहला दशक.

"स्वप्नों के प्राणान्तक बोझ से कराहती सदी " के इस पहले दशक में कुछ और भी स्वप्न हैं जिनकी शिनाख़्त हमें अनुज लुगुन और निर्मला पुतुल की कविताओं में होती है. अनुज लुगुन की कविता "हमारी अर्थी शाही नहीं हो सकती तो शुरू ही सपनों के ज़िक्र से होती है :

हमारे सपनों में रहा है
एक जोड़ी बैल से हल जोतते हुए
खेतों के सम्मान को बनाए रखना
हमारे सपनों में रहा है
कोइल नदी के किनारे एक घर
जहाँ हमसे ज्यादा हमारे सपने हों

और इन्हीं सपनों में है एक चाहत :

कि जंगल बचा रहे
अपने कुल-गोत्र के साथ
पृथ्वी को हम पृथ्वी की तरह ही देखें
पेड़ की जगह पेड़ ही देखें
नदी की जगह नदी
समुद्र की जगह समुद्र और
पहाड़ की जगह पहाड़

लेकिन यह कोई थोथी स्वप्नदर्शिता नहीं है, क्योंकि अनुज लुगुन को मालूम है कि -

हमारी चाह और उसके होने के बीच एक खाई है
उतनी ही गहरी
उतनी ही लम्बी
जितनी गहरी खाई दिल्ली और सारण्डा जंगल के बीच है
जितनी दूरी राँची और जलडेगा के बीच है


और है इसके बीच "खड़े होने की जि़द" और इस ज़िद पर टिके रहने का संघर्ष.

ज़ाहिर है कि यह उत्तरोत्तर जटिल होती दुनिया के बिम्ब हैं, उस दुनिया के जिस में मनुष्यविरोधी ताक़तें प्रतिरोध के बावजूद बार-बार उभरती हैं. मृत्युंजय ने अपनी कविता "कीमोथेरेपी" में बड़ी दक्षता से इस लड़ाई को मनुष्य के शरीर में होने वाले कैंसर और कीमोथेरेपी से उसके इलाज के रूपक द्वारा व्यक्त किया है. वे बड़ी खूबी से शरीर के कैंसर से परत-दर-परत पूंजीवाद का रूपक गढ़ते हुए इस संघर्ष को एक नयी नज़र से देख कर अंकित करते हैं. शरीर में कैंसर की मौजूदगी को संकेतित करते हुए जब वे लिखते हैं कि "यह एक समरभूमि है यहां लाख नियम एक साथ चलते हैं व्यूह भेद की लाख कलाएं लाखों मोर्चे एक ही वक़्त में एक ही जगह पर खुले रहते हैं" तो यह अन्दाज़ा नहीं होता कि वे उस विराट प्रक्रिया का ज़िक्र कर रहे हैं जो शरीर के अन्दर नहीं बाहर चल रही है और कविता की अन्तिम पंक्तियों में जब यह साफ़ होता है कि "कीमोथेरेपी की इस समरगाथा में कटे-फटे टुकड़े मनुष्यता के / पूंजी की भव्य-निर्जल चट्टानों पर यही कथा रोज़-रोज़ दुहराई जाती है" तो कविता एक सर्वथा नया अर्थ ग्रहण कर लेती है.

जिन कवियों ने राजनीति से परहेज़ किये बिना कविता का सफ़र तय करने की कोशिश की है उन में अच्युतानन्द मिश्र और सन्तोष चतुर्वेदी के नाम लिये जा सकते हैं. हालांकि अच्युतानन्द की कविता में कहीं-कहीं अवसाद की हल्की सी अन्तर्धारा महसूस होती है, उनकी कविता "इस बेहद संकरे समय में" मिसाल की तरह पेश की जा सकती है :


वहाँ रास्ते खत्म हो रहे थे और
हमारे पास बचे हुए थे कुछ शब्द
एक फल काटने वाला चाकू
घिसी हुई चप्पलें
कुछ दोस्त

हमारे सिर पर आसमान था
और हमारे पाँवों को जमीन की आदत थी
और हमारी आँखें रोशनी में भी
ढूँढ़ लेती थीं धुंधलापन

हम अपने समय में जरूरी नहीं थे
यही कहा जाता था
गोकि हम धूल या पुराने अखबार
या बासी फूल या संतरे के छिलके
या इस्तेमाल के बाद टूटे हुए
कलम भी नहीं थे,
हम थे
और हम बस होने की हद तक थे

लेकिन तिस पर भी वे अगर आत्म-दया में नहीं डूबते तो इसका श्रेय उनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता ही को दिया जा सकता है, जो अचानक नहीं, बल्कि एक सचेत रूप से किया गया फ़ैसला है. इसीलिए कविता के अन्त में हताशा नहीं, बल्कि उम्मीद का स्वर ही उभरता है :

हमारी आँखों में
चमक रहे थे सूरज
और पैरों में दर्ज होने लगे थे
कुछ गुमनाम नदियों के रास्ते
खुद के होने की बेचैनी
और रास्तों की तरह बिछने का हौसला भी था।

सभ्यता की शिलाओं पर
बहती नदी की लकीरों की तरह
हम तलाश रहे थे रास्ते
एक बेहद सँकरे समय में!

और जहां अच्युतानन्द सीधे-सीधे राजनैतिक वस्तु को उठाते हैं, मसलन "म्यांमार की सड़कों पर ख़ून नहीं था" तो उनकी कविता में वैसी ही धार आ जाती है, जैसी मृत्युंजय जैसे उनके अन्य साथियों में. हां, यह ज़रूर ख़याल उन्हें रखना होगा कि वे भाषा के साथ चाहे जो सुलूक़ करें, व्याकरण को सही रखें. "कि" की जगह "की" का प्रयोग खटकता है और कई बार लिंग-प्रयोग में भी वे डगमगाते हैं.

युवा कवियों में सन्तोष चतुर्वेदी शायद उन गिने-चुने कवियों में हैं जिनकी कविताओं की लम्बाई पहले के दौर की याद कराती हैं, भले ही वे मौजूदा दौर की तस्वीरें उकेर रहे हों. "पेनड्राइव समय" हो या "मोछू नेटुआ" या "मां का घर" -- सन्तोष चतुर्वेदी की कविताओं का कलेवर आज की औसत कविताओं से ज़्यादा लम्बा है. इसके अलावा एक ओर नेटुआ और दूसरी ओर पेनड्राइव और दशमलव जैसे विषय चुनना भी सन्तोष की ख़ासियत है. "मोछू नेटुआ" इसलिए भी ध्यान आकर्षित करती है क्योंकि उसमें सन्तोष चतुर्वेदी ने उस बिरादरी के एक फ़र्द पर निगाह डाली है जो अंग्रेज़ों के ज़माने ही से अभिशप्त ज़िन्दगी जीने को विवश है और अभी तक उसका कोई निस्तार नहीं. कविता में मोछू नेटुआ, जो सांप पकड़ने का काम करता है, कहता है :

हां मालिक यह ससुरी सरकार तो
कभी हमें आतंकवादी बताती है
तो कभी घोषित कर देती है नक्सलवादी
.............
अब आपे बताइए मालिक
कि कैसे धोयें हम
अपने माथे पर जबरिया लादा गया
बेमतलब का कलंक
दिक्कत की बात तो यह कि
कभी कोई समझ ही नहीं पाया हमें
अब देखिए न आपे हमारी नियति
कि पुराने जमाने का अछूत मैं
इस जमाने का अपराधी हो गया हूॅ
होता रहा हमारे साथ
हमेषा बदतर सलूक
उठती रही बराबर मन में
एक अजीब सी हूक

कविता लम्बी है और आख्यान का अन्दाज़ उसमें नुमायां है. लेकिन जब एक पूरा समुदाय साम्राज्यवादी शक्ति द्वारा जन्मना अपराधी क़रार दिया जाये और कथित आज़ादी के बाद भी उसका कोई पुर्सांहाल न हो तो ऐसी कविता एक ज़रूरी दस्तावेज़ बन जाती है, जिसमें महज़ एक समाज-शास्त्रीय कोण ही नहीं है, बल्कि जो हमारे समय को उसकी सारी जटिलता में परखती है, जिसमें सांपों को चीन्ह लेने वाले मोछू नेटुआ के लिए "आदमी को आदमी की भीड़ से बीन कर / ज़हरीले तौर पर अलगा पाना""एकदमे से असंभव" होता जा रहा है. "और सबसे दिक्कत तलब यह कि / अभी तक के सारे तन्त्र-मन्त्रों को धता बताता / कांइयां किस्म का आदमी ऊपर से कुछ और / अन्दर से कुछ और हुआ जा रहा है ....बदलती हुई परिस्थितियों में / उसकी समस्या अब यह है कि/ लगातार जहरीली होती जा रही इस दुनिया में से / कुछ बेजहर लोगों को वह कैसे सामने लाये.....कैसे वह अपनी चाहत का कुछ रंग जुटा कर / अपने समय की / एक सुखद तस्वीर बनाये."

हिन्दी में व्यक्ति-केन्द्रित कविताओं की एक सुदीर्घ परम्परा रही है. त्रिलोचन की "नगई मेहरा" हो या लीलाधर जगूड़ी की "बलदेव खटिक" -- कवियों ने परिवर्तन की कामना से वंचित, दलित लोगों को हमेशा बीच मंच पर लाने का काम किया है. सन्तोष की कविता "मोछू नेटुआ" उसी परम्परा की अगली कड़ी है. "तद्भव" २० में प्रकाशित उनकी दोनों कविताएं - भभकना और पानी का रंग - बड़ी कुशलता से प्रतीकों और बिम्बों का इस्तेमाल करके जनता की पक्षधरता और परिवर्तनकामी राजनीति की अन्तर्ध्वनियों को व्यक्त करती हैं. ख़ास तौर पर "पानी का रंग," जिसमें पानी के बेरंगपन को सन्तोष चतुर्वेदी उन तमाम बेनाम लोगों से जोड़ देते हैं जो बेनामी में जीते हुए दुनिया को हरा-भरा बनाये रखते हैं. अल्बत्ता, लम्बी कविताओं के साथ जो ख़तरा जुड़ा होता है -- शब्द स्फीति में बह जाने का -- उसके प्रति संतोष को सदा सजग रहना होगा.
६.
लेकिन कोई सवाल कर सकता है कि आज के समय का यथार्थ इतना भर ही नहीं है, उसके और भी पहलू हैं. स्त्रियों की आधी दुनिया है, बच्चे हैं, घर-परिवार है, प्रेम है. ये सारे पहलू आज के युवा कवियों की कविताओं की वसुधा में मौजूद हैं. सारे-के-सारे भले ही एक कवि में न पाये जायें, लेकिन उनकी छवियां आज की युवा कविता में छिटकी हुई हैं. अलबत्ता यह ज़रूर चिह्नित किया जा सकता है कि प्रेम पहले ही की तरह आज भी एक सदाबहार विषय बना हुआ है और एक कसौटी का भी काम करता है. सन्ध्या नवोदिता अपनी एक कविता में साफ़-साफ़ अपने समय में प्रेम का एजेण्डा तय करते हुए लिखती हैं :

सारी कविताएँ
न तो युद्ध की होंगी
न प्रेम की
पर बिना प्रेम के
कैसे होगी कविता?

और इसी ज़रूरी सवाल का उत्तर देने के क्रम में हमें आज की कविता में प्रेम के अलग-अलग अक्स दिखायी देते हैं.

७.

वैसे तो, स्त्रियों की स्थिति पहले भी कुछ अच्छी न थी, पर हाल के दिनों में तो उनकी तमामतर कोशिशों के बावजूद आम लोगों का रवैया सख़्त होता दिखायी देता है. बड़ी मुश्किलों से दहेज हत्याओं के आंकड़े कुछ कम होने की ओर बढ़े थे कि ’इज़्ज़त के नाम पर और उसकी ख़ातिर’ लड़कियों की बलि दी जाने लगी है. लेकिन युवा कविता में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध पहले की तुलना में अधिक मुखर, खुले और एक जुझारू तेवर के साथ चित्रित दिखायी देते हैं. पहली शिकायत तो वही है जो सन्ध्या की एक कविता में व्यक्त हुई है और जो अमूमन पहले भी स्त्रियों को रही है चाहे वे इस रूप में उसे व्यक्त न करती रही हों कि ’बड़ी उम्मीदों से / मैं तुममें तलाशती हूँ एक साथी /और / नाउम्मीद हो जाती हूँ / हर बार / एक पुरूष को पा कर.
यों, ऐसा नहीं है कि इस का एह्सास औरों को नहीं है. अरुण देव की कविता "छल" बड़ी ख़ूबी से इस "डिलेमा" इस उलझन को, इस द्वन्द्व को सामने रखती है जब वे लिखते हैं -

"अगर मैं कहता हूँ किसी स्त्री से
तुम सुंदर हो

क्या वह पलट कर कहेगी
बहुत हो चुका तुम्हारा यह छल
तुम्हारी नज़र मेरी देह पर है
सिर्फ देह नहीं हूँ मैं"

और इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए वे स्त्री-पुरुष अनुकूलता के अन्य पहलुओं की अपर्याप्तता की ओर इशारा करते हुए वहां पहुंचते हैं जहां स्त्री को सुन्दर कहने से बढ़ कर बात उससे प्रेम व्यक्त करने तक पहुंचती है.

सोचा कि कह दूँ कि मुझे तुमसे प्यार है
पर कई बार यह इतना सहज नहीं रहता
बाज़ार और जीवन-शैली से जुडकर इसके मानक मुश्किल हो गए हैं
और अब यह सहजीवन की तैयारी जैसा लगता है
जो अंततः एक घेराबंदी ही होगी किसी स्त्री के लिए

इस स्थिति में यह एक ख़ुशी की बात है और एक स्वस्थ संकेत भी कि युवा कविता में अंकित स्त्री अपनी स्वतन्त्र राह खोजने और बनाने की, ख़ुदमुख़्तारी की वकालत करती नज़र आती है, जैसे रेणु हुसैन की कविता "सफ़र" में जो शुरू ही स्त्री के इस अहद के साथ होती है कि सफ़र भले ही बहुत मुश्किल है "मगर निकल पड़ी हूं जब इस राह पर तो खोज ही लूंगी कोई मंज़िल अपनी मैं तुमसे सहारा क्यों मांगूं." इस क्रम में सपनों के खो जाने और उम्मीदों के बिखर जाने के ख़तरे को और गहरे अंधेरे की हक़ीक़त को तस्लीम करते हुए यह स्त्री कहती है कि "मैं हूं आसमान और अपना सितारा ख़ुद ही, मैं तुमसे चिराग़ क्यों मांगूं." रेणु ही कविता "उड़ान" की स्त्री के ख़्वाहिश यह है कि "उड़ जाने दो मुझे किसी तितली की तरह एक पंछी की तरह खुली हवा में." यह आकस्मिक नहीं है कि उड़ान का बिम्ब सन्ध्या नवोदिता की भी एक कविता में आता है.

मेरे पास चिडि़या है
चिडि़या के पास हैं पंख
पंखों के पास है परवाज़
और परवाज के पास है
पूरा आसमान

पंख, चिडि़या, परवाज़ आसमान और में
यह रिश्ता बहुत पुराना है।
८.


हिन्दी कविता में तीन ऐसे विषय हैं जो उसकी शुरूआत ही से कवियों की चिन्ता का केन्द्र रहे है - जातिवाद, साम्प्रदायिकता और स्त्रियों की स्थिति. आज की कविता में, ख़ासकर युवा कविता में यह देखने की बात है कि ये किस तरह और किस रूप में मौजूद हैं. इस लिहाज़ से देखने पर हम पाते हैं कि वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद के ख़िलाफ़ युवा स्वर कहीं अधिक मुखर हुआ है. बल्कि कहा जाये कि बहुत-से युवा कवियों ने इन मसलों को जिस तरह अभिव्यक्त किया है वैसे वह पिछले दौर की कविता में नहीं नज़र आता. मुकेश मानस हों या मुकुल सरल, पूनम तुषामड़ हों या रजनी अनुरागी या और बहुत-से युवा कवि जिन्होंने समाज के दबे-कुचले तबक़ों की ओर से आवाज़ बुलन्द की है, इस तबक़े की बेगिनती छवियां हमें मिलती हैं.

मुकेश मानस की एक शुरुआती कविता ही में जात-पांत में बंटे समाज पर चोट है. इसी तरह पूनम तुषामड़ की कविता "दो शख़्स" में बड़े मुखर ढंग से इस सच्चाई को उजागर किया गया है कि उन दो शख़्सों में जिनकी "रहन-सहन वेश-भूषा भी मिली-जुली है" और जो दोनों ही ग़रीब हैं और "बंटवारे का शिकार" हुए हैं, अपने-अपने घरों से जुदा हुए हैं और सबसे बड़ी बात कि दोनों ही सफ़ाईकर्मी हैं, भेद पैदा करने वाला, उन्हें अलग करने वाला घटक धर्म है. यह कविता इसलिए भी ध्यान खींचती है, क्योंकि यह आदमी-आदमी के बीच दरार पैदा करने वाले तीनों तत्वों -- वर्ग, धर्म और वर्ण -- की प्रचालन शक्ति की दुरभिसन्धि को खोल कर सामने रख देती है, जहां साम्प्रदायिकता और जातिवाद के कुलाबे एक-दूसरे से मिलते नज़र आते हैं और ऐसा तफ़रका पैदा करते हैं जिसे वर्ग और पेशे की एकता भी मिटा नहीं पा रही है. ऐसी ही तीखी चोट पूनम की कविता "वह आती थी" में की गयी है. एक स्त्री जो झाड़ू-पोंछा बर्तन-सफ़ाई का काम करती थी, अपने घर के पास बसे भंगियों को बर्दाश्त नहीं कर पाती और कहती है - "उनकी हमसे क्या बराबरी है ? वे जन्मना नीच हैं हमारी ऊंची बिरादरी है." और पूनम की कविताओं में दलित-उत्पीड़ित समाज की अनेकानेक छवियां अंकित की गयी हैं, कभी मोटी रेखाओं में तो कभी वक्रता और व्यंग से लेकिन प्रतिरोध और संघर्ष का स्वर बराबर मौजूद है, वे साफ़-साफ़ ऐलान करती हैं

मुझे नहीं चाहिये मुट्ठी भर आसमां
मुझे चाहिये मेरे हिस्से की पूरी ज़मीं
जिस पर सदी-दर-सदी
पसीना बहाया मैंने
और फ़सल रही तुम्हारी

इस प्रयत्न में अगर ये कविताएं पारम्परिक साहित्यिक प्रतिमानों पर खरी न भी उतरें तो पूनम को इसकी चिन्ता नहीं है.
रजनी अनुरागी की अनेक कविताओं का उत्स भी दलितों की स्थिति है, लेकिन वे वहीं नहीं रुकती, बल्कि मुकेश मानस की तरह उनकी निगाह उन संघर्षों की ओर भी जाती है जो सिर्फ़ जाति के दायरे तक ही महदूद नहीं हैं. "जब भी योग्यता की बात हुई" या "नाम में क्या रखा है" जैसी कविताओं में अगर वे हिन्दुस्तानी समाज की वर्ण-व्यवस्था पर सवाल खड़े करती हैं तो "जनज्वार," "मज़दूरों की बस्ती" और "नये ज़माने का बाज़ार" जैसी कविताओं में उन परिवर्तनों की छवियां दर्ज करती हैं जो मिस्र और मध्य पूर्व में जनता को एक कर रहे हैं या फिर हमारे यहां नयी आर्थिक सोच और नीतियों के तहत विषमता बढ़ा रहे हैं. मिस्र के जन सैलाब को दर्जन करते हुए भी रजनी अनुरागी को पूरा एहसास है कि -

कितने ही हुस्नी मुबारक बैठे हैं
अल्जीरिया, सीरिया और लीबिया में
और हमारे आस-पास भी
हमारे दिलो-दिमाग़ पर क़ब्ज़ा किये
हमारे सब्र का इम्तहान लेते

इन्हीं परिवर्तनों के बीच रजनी ने स्त्रियों की स्थिति को भी उकेरा है और उनकी प्रेम की आकांक्षा को भी. "हमारी कविता" में बहुत मार्मिक ढंग से वे कहती हैं -

तुम कल्पना के घोड़े पर सवार
लिखते हो कविता और हमारी कविता
रोटी बनाते समय जल जाती है अक्सर
कपड़े धोते हुए पानी में बह जाती कितनी ही बार

यहां से शुरू हो कर यह कविता आम कवि-पत्नियों के अन्दर-बाहर को सूक्ष्मता से चित्रित करते हुए अन्त में एक सीधी-सी मांग करती है -

अगर पढ़ सको तो पढ़ो हमको ही
हमारी कविता की तरह
हम औरतें भी एक कविता ही तो हैं

मुकेश मानस इन सभी युवा कवियों में निस्बतन तपे हुए हैं और उनकी कविताएं कुछ ज़्यादा अवकाश तलब करती हैं. यह चिह्नित करने की बात है कि मुकेश की कविता का दायरा पहले दौर में दलितों की स्थिति के अक्स उतारने से ले कर उससे टकराने के बाद अगले दौर में और फैल कर समस्त उत्पीड़ित जनों को अपने में समेट लेता है. वे सिर्फ़ वर्ण की विषमता पर बस नहीं करते, बल्कि उसे वर्गों की विषमता से भी जोड़ कर देखते हैं और यहां यक़ीनन उनकी सोच का दख़ल है जो सिर्फ़ अम्बेडकर और फुले के विचारों ही से नहीं, बल्कि मार्क्सवाद से भी पुष्ट हुई है. जब मैं उनकी "पतंग और चरखड़ी" शृंखला की कविताएं पढ़ रहा था तो अनायास ही मुझे आलोकधन्वा की कविता "पतंग" की याद हो आयी. इसमें कोई शक नहीं है कि आलोक की कविता में "पतंग" का एक अपना स्थान है और वे उन बच्चों का चित्रण करते हुए "जिनके रक्त से ही फूटते हैं पतंग के धागे," आगे बढ़ कर उस दुनिया पर भी चोट करते हैं जिस में तानाशाह लगातार जनता के ख़िलाफ़ साज़िशें करते रहते हैं, लेकिन जहां आलोक की कविता में उन बच्चों का ज़िक्र है जिनके पास पतंग और धागा तो है और पतंग उड़ाने के लिए जिन्हें एक अदद छत भी मुयस्सर है, वहीं मुकेश ने उन बच्चों के चित्र उकेरे हैं जिन के पास कभी पतंग होती है तो चरखड़ी नहीं होती, कभी चरखड़ी होती है तो पतंग नहीं होती और अकसरहा इनमें से एक भी चीज़ नहीं होती. उस हालत में ये बच्चे कभी तो ख़ुद चरखड़ी बन जाते हैं कभी कवि की कविता मे आ कर अपनी हसरतें पूरी कर लेते हैं.
जैसे-जैसे मुकेश मानस की कविता में प्रौढ़ता आयी है, उनकी कविताओं में विषमता के स्वरों के बीच से प्रतिरोध के स्वर भी सुने जा सकते हैं. मसलन, "नये युग के स्पार्टाकस," "हमारा इनकार," "हत्यारा," "वर्तमान हैं हम" और "आने वाले वक़्त में." "नये युग के स्पार्टाकस" में मनुवाद को जातीय और वर्गीय उत्पीड़न से जोड़ते हुए कहते हैं -

लो, हम फिर से जी उठे हैं
अब हम हैं सर्व-व्यापी
अब हम हैं हवा में, सुगन्ध में, उजाले में, पानी में,
किताबों में, विचारों में, सांसों की रवानी में
संघर्ष की कहानी में अब हम हैं ज़िन्दगानी में
हम हैं नये युग के स्पार्टाकस
अब कैसे चढ़ा पाओगे हम को किसी भी सूली पर

मुकेश मानस की यह समझ इतिहास की समझ से पैदा हुई है और यह समझ उन्हें इस घोषणा की ओर ले जाती है कि -

जहां वेदों और स्मृतियों की भेड़िया धसान है
जहां जात ही इन्सान की एकमात्र पहचान है
और ऊंची जात का हैवान भी महान है
हम ऐसे देश के वारिस नहीं हैं.

इस कविता के अगले बन्द पूंजी के नंगे नाच और अन्याय के एक हिंसक साम्राज्य के साथ लोकतन्त्र के भेड़ियों का ज़िक्र करते हुए ऐसे देश के वारिस होने से इनकार की टेक बरक़रार रखते हैं. इनमें सबसे सुथरी कविताएं हैं - "वर्तमान हैं हम" और "आने वाले वक़्त में." "वर्तमान हैं हम" में कविता अतीत में झांकते हुए आग्रह करती है कि -

इतिहास वहां से शुरू करो
जहां हम थे अपने समूचे जिस्म और पूरे व्यक्तित्व के साथ
जिन्हें हर लिया था तुमने अपनी कुटिलताओं से

और इस आग्रह से शुरू करके वह इस इतिहास का जायज़ा लेती है जहां गर्दनों से सिर उतारे गये थे, "काट लिये गये थे हाथ उंगलियां और अंगूठे." और फिर साफ़-साफ़ कहती है कि "हम इस इतिहास से निकाले गये नायक हैं, मगर हम भुला चुके इतिहास, बीत गये इतिहास से कब कुछ नहीं हासिल" और अन्त में घोषित करती है - "अब वर्तमान हैं हम, इतिहास नहीं / शक्तिमान हैं हम, उपहास नहीं."

यह सिर्फ़ दलित-उत्पीड़ित जनों का दुखद लेखा-जोखा ही नहीं है, उनकी आकांक्षाओं का चिट्ठा भी है जिन्हें हासिल करने के लिए वे सन्नद्ध हैं. लेकिन कविता सिर्फ़ संघर्ष का अह्वान नहीं होती, वह स्वप्नों की भूमि भी होती है. यही वजह है कि "आने वाले वक़्त में’ शीर्षक कविता में भय से रहित लेकिन वाहनों से भरी सड़क, तोड़े जाने के दर से मुक्त फूलों से भरे बाग़, अध्यापक-विहीन मगर बच्चों से भरे स्कूल और अधिकारियों से नहीं सेवकों से चलने वाली सरकार की कामना करते हुए मुकेश मानस ऐसी दुनिया का स्वप्न देखते हैं "जिसमें सिर्फ़ नागरिक हों और राष्ट्र कोई न हो."
जातिवाद पर चोट करने वाली कविताओं का ज़िक्र करते हुए जहां यह निशानदही करने की ज़रूरत है कि जिस तरह हिन्दी कविता का यह पहलू हाल की युवा कविता का एक केन्द्रीय स्वर बना है और ऐसे रूप में बना है जैसा वह पिछले दौर की कविता में नज़र नहीं आता, वहीं उस ख़तरे की तरफ़ इशारा करना ज़रूरी है जहां कविता अपनी कविताई छोड़ कर प्रचार की तरफ़ बढ़ने लगती है. कबीर से ज़्यादा मुखर होने का दावा कम ही लोग कर सकते हैं, लेकिन अपने मुखरतम रूप में भी कबीर की कविता अपनी कविताई से किनाराकशी नहीं करती. वे सामाजिक प्रतिरोध के अलमबरदार तो हैं पर कविता को हाथ से छूटने नहीं देते. इस सिलसिले में जब मैं युवा कवि राज वाल्मीकि की कविताएं पढ़ रहा था तो मुझे बार-बार एहसास हुआ कि वे कविता की हदों को लांघ कर प्रचार की हदें छू रही हैं. चाहे वह "मैं इसलिए आता हूं" जैसी कविता हो या "कब होगा" जैसी कविता या फिर "युद्धरत हूं मैं" जैसी कविता -- राज वाल्मीकि बेज़रूरत ही अम्बेडकर, फुले, बुद्ध और कबीर के नामों का उल्लेख करते हैं. दलित चेतना को व्यक्त करने या फिर उसे जगाने के लिए इस तरह की प्रचारपरक अभिव्यक्तियां कविता की शक्ति को कम करती हैं. इस में कोई शक नहीं है कि सारी कला प्रचार होती है लेकिन जैसा कि सुप्रसिद्ध जर्मन फ़िल्मकार फ़ासबिण्डर ने कहा था कि उनकी सबसे बड़ी कोशिश यह है कि उनका प्रचार कला बन जाये. इस सन्दर्भ में मैं पूनम तुषामड़ की कविता "यह नीला रंग" का ज़िक्र करना चाहता हूं. कविता पाठक को यह एहसास तो कराती है कि जिस आदमक़द मूर्ति का उल्लेख कविता में हो रहा है, वह अम्बेडकर की है, मगर वह कविता स्थूल व्यक्ति-चित्रण नहीं है. इसके विपरीत वह उस व्यक्ति के मुक्तिदायक विचारों के असर को रेखांकित करती है और यह भी कि कैसे विचार चेतना में जज़्ब हो कर उसके दायरे को विस्तृत करते हैं.
इसके साथ ही मेरा एक ज़रूरी सवाल यह भी है कि क्या जातिवाद पर अन्य कवि भी कुछ कह रहे हैं या यह पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की तरह सिर्फ़ दलित कविता की झोली ही में डाल दिया गया है ?

जातिवाद के अलावा जिस सवाल से हाल के वर्षों में कवियों का सरोकार रहा है, वह साम्प्रदायिकता है. ख़ास तौर पर जैसे-जैसे हमारे समाज में कट्टरपन्थी ताक़तों ने लोगों को बांटने की मुहिम तेज़ की है. एक पीढ़ी पहले के कवि एकान्त श्रीवास्तव ने अपनी शुरुआती कविता "नागरिक व्यथा" में स्पष्ट शब्दों में इसे चिह्नित किया था -- "मैं किस कोख से जन्म लूं कि हिन्दू, न मुसलमान कहाऊं." एक तरीक़े से इस कविता ने, जो साम्प्रदायिकता के साथ-साथ पर्यावरण, जातिगत भेद-भाव और सामान्य विषमता पर सवाल खड़े करती थी, पिछली सदी के आख़िरी दशक की कविता का एजेण्डा तय कर दिया था. लेकिन कुछेक उदाहरणों को छोड़ दें तो यह मुद्दा इधर की कविता में क्षीण हुआ है. अगर सईद अयूब या फ़रीद ख़ान की कविताओं में वह नज़र आता है तो उसके कारण स्पष्ट हैं, उनके विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं. ऐसे में यह तहक़ीक़ात ज़रूरी है कि साम्प्रदायिकता -- चाहे वह सीधे-सीधे हिन्दुत्ववादी एजेन्डे के रूप में आ रही हो या फिर सत्ताधारी वर्ग के दूसरे धड़े द्वारा "आतंकवाद" के बिल्ले से एक धर्म के अनुयायियों को कटघरे में खड़ा करके उनमें असुरक्षा का बोध पैदा करके उन्हें अपने धर्म के कट्टरपन्थियों की कठ्पुतलियां बनने पर मजबूर कर रही हो -- क्यों हमारे युवा कवियों के एजेण्डे में या तो शामिल नहीं है या फिर उनकी प्रमुख चिन्ता नहीं बन पा रही. या जहां वह है भी वहां वे उसे किस नज़रिये से देख कर चित्रित कर रहे हैं ?

९.

यहां यह कहना ज़रूरी जान पड़ता है कि हाल के वर्षों में समूची दुनिया में जो परिवर्तन हुए हैं -- सोवियत संघ के प्रत्याशित पतन से ले कर दुनिया के बराबर एक-ध्रुवीय होते जाने तक, एक तरफ़ पूंजी और पूंजीवाद के संकट और दूसरी तरफ़ आवारा पूंजी के नंगे नाच तक, सारी दुनिया को एक गांव बनाने की मुहिम से ले कर सारे गांवों को एक-दूसरे से अलग-अलग कर देने की साज़िश तक, देश के भीतर दमन और शोषण और भ्रष्टाचार के साथ-साथ बढ़ते हुए जातिवाद और साम्प्रदायिकता की प्रवृत्तियों तक और आदिवासी और दलित-शोषित समाज के ख़िलाफ़ सत्ताधारी वर्ग के खुले युद्ध तक -- इस सब का एहसास युवा कवियों में कभी मुखर तो कभी खामोशी से व्यंजित होता रहता है और जहां यह सब वाचाल तरीक़े से गुरेज़ करते हुए व्यक्त होता है वहीं कविताओं की ताक़त का एहसास हमें होता है.

आज से लगभग चालीस-पैंतालीस वर्ष पहले, जब नयी कविता के घटाटोप और अकविता की विचारशून्य अराजकता से बाहर आ कर हिन्दी कविता ने अपनी पुरानी प्रतिज्ञाओं को नये सिरे से परिभाषित किया था तब से वह वादों और दायरों की गिरोहबन्दियों से निकल कर इन्हीं प्रतिज्ञाओं के बल पर अपनी परख कराती आयी है. ये प्रतिज्ञाएं क्या थीं ? दमन और उत्पीड़न के खिलाफ़ मनुष्य के अथक संघर्ष में साझेदारी, यथास्थिति से कभी समझौता न करने का संकल्प, सत्ता और उसके प्रलोभनों से किनाराकशी और वास्तविकता को पहचानने और उसे व्यक्त करने का आत्मसंघर्ष. चूंकि हिन्दी का जन्म और विकास ही वंचितों की वाणी और दीन-दलितों की आवाज़ के तौर पर हुआ है, इसलिए हिन्दी कविता की जिन प्रतिज्ञाओं का ज़िक्र ऊपर किया गया, वे अपने आप में एक कसौटी बन जाती हैं.
यह ठीक है कि जैसे-जैसे हमारे देश में और विशेष रूप से हिन्दी पट्टी में सांस्कृतिक संकट बढ़ा है, साहित्यकार सनद, पुरस्कार और सत्ता के दूसरे ताम-झाम की तरफ़ आकर्षित हो कर इन प्रतिज्ञाऒं से दूर गये हैं या इन प्रतिज्ञाओं को ही निरर्थक बता कर किन्हीं ’शाश्वत’ मूल्यों की तलाश करने लगे हैं, हिन्दी कवियों का एक बड़ा तबक़ा विपथगामी हुआ है. ऐसे में मुकुल सरल जैसे कवि हमें ढाढ़स बंधाते हैं कि साठ के दशक के अन्त में और नक्सलबाड़ी की महान उभार से जो चेतना जन्मी थी, जिसने हमें अपनी पुरानी जुझारू परम्परा से जोड़ कर हमें ऊपर बतायी गयी प्रतिज्ञाओं को फिर से अपने घोषणा-पत्र के रूप में सामने रखने की सलाहियत दी थी, वह ग़लत नहीं थी. इसलिए अन्त में यह भी कहना ज़रूरी जान पड़ता है कि इधर की कविता में दो चीज़ों का अभाव खटकता है. पहली तो है कविता से कवितापन का कम होना. बाज़ वक़्त कविता ख़राब गद्य के निकट जा पहुंचती सी लगती है. हमेशा ऐसा होता हो, या सभी कवियों के साथ ऐसा होता हो, ऐसी बात नहीं है, मगर यह ख़तरा आज के नये कवियों के सामने मौजूद है, और मेरा ख़याल है कि उन्हें निराला की हिदायत याद कराने की ज़रूरत है कि कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से मुक्त होने में है, छन्दों से मुक्त होने में नहीं और छन्द कविता की साधना के लिए आवश्यक क़वायद यू अभ्यास है. साथ ही यह भी याद रखने की ज़रूरत है कि जब मुक्तिबोध कहते हैं -

"कविता में कहने की आदत नहीं पर कह दूं
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता
पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता
स्वातन्त्र्य व्यक्ति का वादी छल नहीं सकता
मुक्ति के मन को, जन को.

या
फिलहाल तस्वीरें इस समय हम नहीं बना पायेंगे
अल्बत्ता पोस्टर हम लगा जायेंगे. हम धधकायेंगे.
मानो या मत मानो
इस नाज़ुक घड़ी में
चन्द्र है सविता है
पोस्टर ही कविता है.

तब वे अपने विचारों का प्रचार करते हुए कविता को कहीं भी हाथ से छूटने नहीं देते. इसीलिए वे भरोसे के साथ कह सकते हैं - "नहीं होती, कहीं भी ख़तम कविता नहीं होती कि वह आवेग त्वरित काल यात्री है......गहन-गम्भीर छाया आगमिष्यत की लिये, वह जन चरित्री है......तुम्हारे कारणों से जगमगाती है व मेरे कारणों से सकुच जाती है." कवि के कारणों से सकुच जाने वाली कविता और जनता के कारणों से जगमगाने वाली कविता - इन दोनों ही के उदाहरण आज की कविता में मौजूद हैं. सवाल तो वही है जो मुक्तिबोध ने "मानव-पुण्य धारा" यानी जनता की ओर से सामने रखा था - "बशर्ते तय करो किस ओर हो तुम अब / सुनहले ऊर्ध्व-आसन के निपीड़क पक्ष में अथवा कहीं उससे लुटी-टूटी अंधेरी निम्न-कक्षा में तुम्हारा मन."

इसी से जुड़ी दूसरी कमी जो खटकती है, वह है इर्द-गिर्द की दुनिया के चित्र उकेरते हुए महज़ उन्हें दर्ज भर कर लेने पर सन्तुष्ट हो जाना जबकि कविता से यह उम्मीद भी है कि वह सामाजिक परिवर्तन की कार्रवाई का एक औज़ार भी बने. उसका राजनैतिक तेवर कुछ और धारदार हो. इस नज़र से देखने पर यह सवाल बार-बार उठता है कि वे कौन-सी वजहें हैं जिन से युवा कविता में राजनैतिक स्वर क्षीण हुआ है ? क्या कारण है कि अशोक पाण्डेय जैसे समर्थ कवि की कविताएं अक्सर फ़िकरेबाज़ी की हदों को छूने लगती हैं ? या फिर गिरिराज किराडू में कला इतनी है कि कई बार असली सामाजिक परिदृश्य ही आंख से ओझल हो जाता है और कविता सिर्फ़ खिलवाड़ बन जाती है और कौतूहल उपजाने लगती है ? महज़ कुछ राजनैतिक घटनाओं या सामाजिक-आर्थिक प्रवृत्तियों का नामोल्लेख कविता को राजनैतिक नहीं बनाता. राजनीति का सवाल पक्षधरता से जुड़ा है, यह तय करने के सवाल से जुड़ा है कि किस ओर हो तुम. युवा कविता में यह उभय-सम्भव की स्थिति क्यों है. ऐसा मृत्युंजय या मुकुल सरल या मुकेश मानस या फिर निर्मला पुतुल और अनुज लुगुन की कविताओं में इसलिए नहीं है कि उनकी पक्षधरता साफ़ है.
१०.
इसी सिलसिले में थोड़ा सा विषयान्तर करते हुए मैं उन्नीसवीं सदी के दो अंग्रेज़ व्यक्तित्वों का ज़िक्र करना चाहता हूं जो दोनों के दोनों सामाजिक परिवर्तन की भावना के तहत काम कर रहे थे मगर दो भिन्न निष्कर्षों पर पहुंचे थे. पहले थे चार्ल्स बैबेज, जिन्हें कम्पयूटर का जनक कहा जाता है, हालांकि वे अपने जीवन में एक अत्यन्त कच्ची गिनती की मशीन से आगे नहीं बढ़ पाये थे. बैबेज की मूल प्रेरणा तत्कालीन सामाजिक विषमता और आम दुर्दशा से उपजी थी. मूलत: विचारक होने के नाते वे इस नतीजे पर पहुंचे कि अगर ग़रीबी और आर्थिक विपन्नता के आंकड़े क्रमबद्ध रूप में इकट्ठे किये जायं तो उनके प्रचार-प्रसार से सामाजिक परिस्थितियों में तब्दीली सम्भव हो जायेगी. जैसा कि बैबेज के एक समर्थक ने कहा, "मनुष्य की जीवन-स्थितियों की पूरी और सही जानकारी का मतलब है उन परिस्थितियों को जन्म देना जिनमें इन स्थितियों को बदला जा सकेगा." लेकिन बैबेज के ही समकालीन उपन्यासकार जार्ज गिसिंग, जो १८७१ में बैबेज की मृत्यु के समय महज़ चौदह बरस के थे, आगे चल कर बैबेज के विचारों की समीक्षा करने वाले थे एक बिलकुल ही अलग निष्कर्ष पर पहुंचे थे. उनका मानना था कि महज़ आंकड़ों के सबूत के बल पर प्राप्त जानकारी न तो जानकार बना सकती है न बोध ही पैदा कर सकती है.यह एक मध्यवर्ती अवस्था है जिसमें जानकारी हासिल करने वाला यथार्थ से एक दूरी पर रहता है और परिवर्तन का औज़ार नहीं बन सकता. उसके लिए उसे आगे बढ़ कर वास्तविकता से सीधा सम्पर्क करना होगा. गिसिंग ने भविष्य के एक ऐसे समाज की भी कल्पना की जिसमें सारी आबादी बैबेज के संगणकों यानी कम्प्यूटरों की अभ्यस्त तो होगी, मगर परिवर्तन से दूर हो जायेगी. क्या आज जब हम सूचना और जानकारी से घिरे हुए हैं कुछ वैसी ही आशंका हमें नहीं होती ? कविता में महज़ छवियां अंकित करना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि उससे एक क़दम और आगे बढ़ कर इन छवियों को उत्प्रेरकों में तब्दील करने का काम भी करना होगा. और इसके लिए जैसा कि प्रेमचन्द ने कहा था, हुस्न का एक नया मेयार -- एक नया सौन्दर्य-बोध भी विकसित करना होगा.
११.
जैसा कि मैंने शुरू ही में कहा था कि युवा कविता की हरी-भरी वसुन्धरा का पूरा जायज़ा एक लेख में सम्भव नहीं है, न एक व्यक्ति के बस की बात है. ज़ाहिर इस में कई नाम छूट गये हैं जिनकी मैं चर्चा करना चाहता थ. मसलन आस्तीक वाजपेयी की कविता ओं "ऐसा ही होता है" और "तथास्तु" की जिनमें हमारे पौराणिक प्रतीकों का इस्तेमाल ख़ूबी के साथ किया गया है. उन्की कविताओं में एक छटपटाहट है, प्रश्नाकुलता है, मगर अवसाद भी है, जो शायद दूर होने की ख़ातिर एक सही राजनीति की मांग कर रहा है. मैं अरुण आदित्य की कविता "इण्टर्व्यू" का भी उल्लेख करना चाहता था जिसमें इण्टर्व्यू में पूछा गया सवाल "आपकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा स्वप्न क्या है ?" इस सच्चाई के तरफ़ ले जाता है कि --

इस देश में हैं ऐसे मार तमाम लोग
दूसरों के सपनों को चमकाते हुए
जिन्हें मौका ही नहीं मिलता
कि सोच सकें अपने लिए कोई सपना

इसी तरह मैं और भी बहुत से युवा कवियों का ज़िक्र करना चाहता था जिनमें अपार सम्भावनाएं हैं जैसे मंजरी श्रीवास्तव, ओमलता शाक्य, मनोज कुमार झा, हरप्रीत, सन्दीप गौड़ या विपिन चौधरी, पर इस लेख की एक सीमा है और मेरी क़ूवत की भी. उम्मीद करता हूं कि आगे चल कर इसकी भरपाई करने का मौक़ा मुझे मिलेगा. बतौर नमूना भरपाई मैं यहां चित्रकार-कवि शिवकुमार गांधी की एक कविता पूरी-की-पूरी उद्धृत कर रहा हूं, गो उनकी निस्बतन लम्बी कविता "महाविद्यालय" में उनकी चाक्षुष ख़ूबियां ज़्यादा उजागर हुई हैं. इस कविता का कोई शीर्षक नहीं है --

उसने कहा मुझसे ले चलो अपने शहर
जो कहोगे वही करूगां
फिर पकडायी चाय जो गैस के
चूल्हे पर बनी थी
मैंने कहा मजाक में-
जगह बदल लेते हैं हम
और फिर वैसे भी शहर खुद ही तो आ रहा है
तुम तक

उसने कहा वहां छत पर बैठना शाम में
अच्छा लगता है रोशनियों के बीच और फिर हवा तो आती ही है
एक कारखाने में काम करता था उसका भतीजा
जिसके साथ किसी छत पर बैठा था वह एक दिन
इस शहर में रोशनियों के बीच
और उस दिन भी हवा तो आयी ही थी

तालाब किनारे चांद को देखता लेटा हुआ
शाम में मैं खुद कितने दिन काट लूगां यहां
तालाब अभी भरा है फिर खाली होगा
और फिर भरेगा व खाली होगा
अगली बार
पता नहीं भरे कि नहीं

और मैं कहूंगा किसी से ले चलो अब तो मुझे
अपने साथ
जो कहोगे वह कर ही लूंगा.

अन्त में इतना ज़रूर कहना चाहता हूं कि युवा कविता में अभी कुछ अनगढ़ता भी नज़र आ सकती है. इतना ही नहीं, सभी नये लिखने वालों की तरह हमारे युवा कवि भी अभी कई तरह के सुरों को आज़मा कर अपना ख़ास अन्दाज़ हासिल करने की कोशिश में जुटे हुए हैं. हमें उम्मीद करनी चाहिए कि वे अपनी ’करत’ से इस सुर को साधने में सफल होंगे और उनकी पहली-पहली कविताओं से जो आशाएं बंधती हैं उन्हें अगले मुक़ाम तक पहुंचायेंगे. अन्त में प्रसिद्ध लातीनी अमरीकी कवि निकानोर पार्रा की एक कविता उद्धृत कर रहा हूं जो उन्होंने युवा कवियों को सम्बोधित की है --

चाहे जैसा लिखो,
जो भी शैली तुम्हें पसन्द हो, अपना लो
बहुत ज़्यादा ख़ून बह चुका है
पुल के नीचे से
यह मानते रहने के लिए
कि सिर्फ़ एक ही रास्ता सही है
कविता में हर बात की इजाज़त है
शर्त बस यही है
तुम्हें बेहतर बनाना है कोरे पन्ने को
हम उम्मीद करते हैं कि युवा कवि ऐसा ही करेंगे

आमीन.

२९ अक्तूबर२०११ - १० जनवरी २०१२

















Tuesday, October 4, 2011

लन्दन डायरी



दोस्तो,
लन्दन डायरी की तीसरी और अन्तिम क़िस्त पेश है । पूरी कविता के बाद फ़ुटनोट ज़रूर देख लीजियेगा। इसके बाद एक नयी पेशकश।


लन्दन डायरी


8
मैं जानता हूँ
अब गाने के लिए
स्वर साधते ही
मेरा कण्ठ भरभरा आता है
ख़ामोशी रेंगती है दिमाग़ पर
जैसे निर्जन प्राचीरों पर जहरीली बेल
मैं अपनी ही छाया से कतराता हुआ
अँधेरे गलियारों में
बीते हुए सूर्यों के बारे में
सोचता हुआ
दुबका फिरता हूँ

गर्मियाँ फिर बीत रही हैं
जा रही हैं। धीरे-धीरे

गर्मियाँ फिर बीत रही हैं
फिर से बादल घिरने लगे हैं

रंगों को खुले हाथ छितराते हुए
आकाश फूट पड़ता है
संगीत में
यहाँ एक अजनबी देश में
दूसरे शहर में
अनजान या उदासीन लोगों के बीच
सिर्फ़ उदासी बच रहती है
किसी राग की तरह
ख़ामोशी पर तिरती हुई
अनन्त इकाई की तरह
गीत की धुन में
सदा उपस्थित सुर की तरह
आह, मेरे जीवन के ग्रीष्म
तुम भी तो गुज़रते जा रहे हो
नष्ट होते आवेगों के पागलपन में
थके हुए एहसासों के शून्य में
साथी-संगियों की विफल तलाश में

ज़ाया होते हुए एक अनजाने देश में
जिसके तरीक़े अलग हैं
जिसके लोग अलग हैं
9
घूरता है
कोरा पन्ना
कोरे दिमाग़ को

10
स्मृति के आकाश पर
अब भी
एकाध भटका हुआ बवण्डर
मँडराता है

याद के पेड़ पर
कुछ पत्तियाँ
अब भी मौजूद हैं
जिन्हें तेज-से-तेज आँधी भी
झकझोर कर उड़ा नहीं पायी
11
यहाँ, इस सर्द शहर की
अनजान सड़कों पर भटकता हुआ
याद करता हूँ मैं
उन रातों को,
दूसरे शहर की,
जब तुम्हारी आँखों में
मैं देखता था ब्रह्माण्ड

इस विदेशी आकाश के नीचे
भटकता हुआ
मैं याद करता हूँ
वह समय
जो तुम्हारे पहलू में बिताया मैंने

तुम्हारी देह पर
अपनी उपस्थिति अंकित करते हुए
तुम्हें एक औज़ार की तरह
गढ़ते हुए
एक खिड़की की तरह
खोलते हुए
अपने हाथों में महसूस करते हुए
तुम्हारे हाथों की गर्मी
और अपनी आँखों में
तुम्हारी पुतलियों से छन कर आता हुआ
विश्वास

12
मैं जानता हूँ मैं तुम्हारा विश्वास खो चुका हूँ,
तुम अब मुझे प्यार नहीं करतीं, तुम,
जो मुझे प्यार करती थीं, जैसे कभी
किसी और ने नहीं किया था,

हम एक पथरीले तूफ़ानी किनारे पर
मिले थे, टकराने को बढ़े आते दो
सितारों की तरह, सुख की ऊर्जा में
फूटते हुए, झुलसाते हुए एक-दूसरे
को प्यार की विभोरता के विस्फोट से,

लेकिन अब वह सब बीत चुका है
और मैं लन्दन शहर की इस
भूल-भूलैयाँ में भटकता हूँ
अन्तरिक्ष के अनन्त शून्य में
उड़ते-फिरते किसी नक्षत्र की तरह

13
हमारा रिश्ता वह सड़क है
जिसका नक्शे में कोई निशान नहीं
हमारा प्यार वह मैदान है
जहाँ से कोई रास्ता नहीं फूटता
हमारे एहसास चुभते हैं हमें
कीलों की तरह
हम कौन है ? मशीनी इन्सान
या बीसवीं सदी के आख़िरी दशक के लोग ?

14
हवाओं में नश्तर-सी धार है
आदमी-आदमी के बीच वही दरार है

15
मैं, जो अपने शहर से दूर, अपने लोगों से दूर
यहाँ एक अनजानी ज़मीन पर चला आया हूँ
मगर ज़िन्दगी खुलती है
हर रोज़
मेरे सामने
पंखुडि़यों की तरह खुलते हैं दिन

आह! ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है
पत्तियों को थरथराती हुई हवा
आकाश पर तनी नीली मख़मल की चादर
पेड़ों की फुनगियों पर
पतंग की तरह अटकी हुई धूप
ज़िन्दा होने का एहसास
कितना ख़ूबसूरत है यह सब कुछ
यहाँ के लोग नहीं तो न सही
यह सारी दुनिया तो मेरी परिचित है
यह हवा, यह घास, यह पेड़
ये हाथों की तरह हिलती हुई पत्तियाँ

16
जितनी बार
वे उठाते हैं दीवार
उतनी बार
दीवारें गिराने वाले
पैदा हो जाते हैं

दीवारें खड़ी करने वालों से
कहीं ज़्यादा हैं
दीवारें गिराने वाले

17.
आओ, मेरे पास आओ, मेरे दोस्तो
ताक़त और गर्मी से भरे अपने हाथ
मेरे हाथों में दे दो
तुम कोई भी हो
किसी भी रंग के
काले, भूरे, पीले, गोरे
कोई फ़र्क नहीं पड़ता
हमारी लड़ाई गोरे रंग से नहीं
गोरे साम्राज्यवाद से है दोस्तो
जिसके लिए
वेल्स की कोयला खदान में काम करता है पैडी
स्वराज पाल से ज़्यादा ख़तरनाक है
आओ, मेरे पास आओ, मेरे दोस्तो
चमकते हुए फ़िकरों का सरमाया नहीं है
मेरे पास
सुबह की ओस की तरह
ताज़े हैं मेरे शब्द

18
आशा चमकती है
जैसे माँओं की आँखों में
झिलमिलाते आँसुओं की रोशनी

19
बढ़ाते जा रहे हैं हाथ अपने ज़ुल्म के साये
मिटाते जा रहे हैं ज़िन्दगी को ज़ुल्म के साये
लगी है चोट दिल पर और भी चोटें
लगाते जा रहे हैं ज़ुल्म के साये
जिस्म बिखरे हैं सड़क पर
बम बरसते हैं सड़क पर
ख़ून खिलता है सड़क पर
यह सड़क बेरूत से फैली हुई है
दूर सल्वादोर तक
ज़िन्दगी औ’ मौत की जो कशमकश है
उस लड़ाई के कठिनतम छोर तक

20
झर झर झर
झर रहे हैं पत्ते
सुनहरी फुहार में
शरत का अभिषेक करते हुए
गिन्नियों की तरह झरते हुए
उतर रहे हैं वृक्षों के वस्त्र, पल-पल
स्ट्रिपटीज़ करती हुई नर्तकी की तरह
अनावृत हो रही है पृथ्वी
शर्म से पीली और फिर सुर्ख़ होती हुई
उजागर हो रही है एक नयी सुन्दरता
प्रकट हो रही है वृक्षों की वस्त्रहीन देह
हेमन्त के अभिसार के लिए
वसन्त की सम्भावनाओं को
अपने भीतर छिपाये

21.
चाँदनी में भीगी हुई सड़क की तरह
फैली है आकाश-गंगा मेरे सामने

22.
पता नहीं
मेरे हाथ
और होंट
क्या जानकारी
देते हैं तुम्हें
और मेरा हृदय
तुम देख नहीं सकतीं

23.
अपने मकान का छत्तीसवाँ दरवाज़ा खोल कर
मैं उतर आया हूँ शरीर के उत्सव में
नफ़रत और प्यार के फूलों से सजा हुआ
विश्वासघात - आती है आवाज़
अन्दर से नशे की धुन्ध को चीर कर

24.
हवा में एक नयी लहर आयी है
वह धुन जो स्टीवी वण्डर ने गायी है
ढोल की थाप पर
गीत के आलाप पर
थिरकता है इस काले गायक का तनावर जिस्म
थिरकता है एक समूचे महाद्वीप का अँधेरा
रोशनी में फूट पड़ने के लिए


______________________________________________

सन्दर्भ
1. शनिवार-इतवार की दो छुट्टियों के साथ जब शुक्रवार या सोमवार का अवकाश जुड़ जाता है तब उसे लम्बा वीक-एण्ड कहते हैं।
2. पब - शराबख़ाना।
3. रेग्गे - वेस्ट इंडीज से आये लोगों का संगीत।
4. केन लिविंग्स्टन - लेबर पार्टी का वामपन्थी नेता।
5. ग्रेटर लण्डन काउन्सिल - लन्दन महानगर पालिका
6. पे-पैकेट - हफ़्तावार वेतन जो शुक्रवार की शाम को बँटता है।
7. कम्मी - खेत-मजूर
8. किंग्स क्रौस - लन्दन शहर का एक मुहल्ला जो अब वेश्याओं के लिए कुख्यात है।
9. साउथॉल - लन्दन में भारतीय मूल के लोगों की बस्ती जो छोटा हिन्दुस्तान के नाम से मशहूर है।
10. ग़ालिब से साभार।
11. ट्यूब - ज़मीन के भीतर चलने वाली रेलगाड़ी
12. पैडी - आयरलैण्ड से आये मज़दूरों को अंग्रेज उपेक्षा से पैडी कहते हैं। अब यह शब्दी किसी भी आयरिश के लिए इस्तेमाल होता है।

Sunday, October 2, 2011

लन्दन डायरी - २



दोस्तो,
लन्दन डायरी की दूसरी क़िस्त पेश है । पूरी शृंखला 24 टुकड़ों की है, जिनमें कई जगह सन्दर्भ भी हैं, जो अन्त में दे दिये गये हैं। कविता आपको कैसी लगेगी, नहीं जानता। सच तो यह है कि समय के साथ मैं यह कम से कमतर मात्रा में जानने लगा हूं कि मैं क्या जानता हूं क्या नहीं। लगभग बेख़ुदी का आलम है। लेकिन पूरी कविता के बाद फ़ुटनोट ज़रूर देख लीजियेगा।


लन्दन डायरी
1
चारों ओर लम्बे वीक-एण्ड की ख़ामोशी है
ख़ामोशी और अकेलापन
जिसे बार-बार बजाये गये
नज़रुल के गीत भी
ख़त्म नहीं कर पाये हैं
पहले से ज़्यादा गझिन बना कर
मेरे गिर्द जाल की तरह
लपेट गये हैं

मैं कहाँ हूँ ? किस कगार पर ?
टूटते हुए रिश्तों की किस दरार पर ?

बाहर झाँकता हूँ मैं
105 नम्बर की बस
हीथरो हवाई अड्डे से
शेपर्ड्स बुश ग्रीन की तरफ़
जाती हुई
नुक्कड़ पर ठिठकती है

बाहर अगस्त है
चितकबरे बादलों में
झिलमिलाती है धूप की धारा
ऊँघते चिनारों के
हरे-हरे हाथ हिलते हैं
नुक्कड़ की पब से उभरते
शराबी शोर में
रेग्गे और डिस्को और
कीर्तन के स्वर
घुलते-मिलते हैं

मुझे उठ कर
इस कमरे से
बाहर जाना चाहिए

2

इस सुनहरी धूप में
पिघलता है
मेरा ख़ून
डूबते सूरज में
ढलता है
मेरा रक्त
बूँद-बूँद कर
जाते हुए ग्रीष्म की
गहरी हरियाली में
धधकती है लपटें
सुलगते हैं दिन
अपने धुएँ से
मेरी आँखों को कड़वाते हुए

मेरे गिर्द उनींदी रातों का अम्बार है
जिन्हें गिनना मेरी ताकत के पार है
ये उनींदी रातें
बेरोज़गारी के आँकड़े हैं
जिन्हें केन लिविंग्स्टन
हर महीने ग्रेटर लण्डन काउन्सिल की
इमारत पर
थैचर सरकार की सूचना के लिए
टाँग देता है

ये उनींदी रातें
वित्त मन्त्री जेफ्री हाओ के
बजट की मँडराती छायाएँ हैं
धीरे-धीरे शुक्रवार की शाम के
पे-पैकेट पर घिरती हुई

ये उनींदी रातें
फगवाड़े में
मेरा इन्तज़ार करती माँ
या जमेका में छूटी
आबनूस की वीनस के
चेहरे हैं
रात के सन्नाटे में घिरते हुए
जब दिन की तमाम हरकतें
टूटते हुए जिस्म की
तकलीफ़ में
तब्दील होती हैं
दर्द की उठती और गिरती लहरों के बीच
दिन की विजय और पराजय का
लेखा-जोखा करते हुए
मैं पलटता हूँ
वर्क-दर-वर्क
ज़िन्दगी के पन्ने
उनींदी रातों में

ये राते उतनी ही काली हैं
जितना मेरे जिस्म का रंग

यह उन्नीस सौ अस्सी का साल है
लन्दन में बेरोज़गारी डेढ़ लाख तक पहुँच गयी है
मगर अमरीका में गेहूं के व्यापारियों को
रेगन की राहत मिली है
ईरान में जंग छिड़ गयी है
लेकिन तेल पर दिनों-दिन धार चढ़ रही है
पोलैण्ड में लोग
गोश्त की लड़ाई लड़ रहे हैं
इधर ब्रिटेन में कारखाने बन्द हो रहे हैं
बेरूत में इस्राइली
अराफ़ात के लिए खेदा तैयार कर रहे हैं
और हिन्दुस्तान में श्रीमती गाँधी
’सरकार जो काम करे’ का नारा लगा कर
सत्ता में लौटी है

लेकिन मैं लौट नहीं सकता
आज ही मेरे भतीजे की चिट्ठी आयी है
जिसमें उसने विलायत आने की
फ़रियाद दुहराई है

वह साल भर से बेकार है
और हमारी ज़मीन
जिसने जाने कितने
हमलावरों के कदम सहे हैं
अब एक और कम्मी का बोझ
नहीं सह सकती

जमेका से लिखती है
मेरी आबनूस की वीनस
वह अब बहुत देर
इन्तज़ार नहीं कर सकती
उसका भाई गाँजा पीते हुए
धर लिया गया है
बाप ने कर ली है दूसरी औरत
और पुलिस उसे रण्डी बनाने पर
उतारू हैं
उसे रात को नींद नहीं आती

उनींदी रातों का संसार
सिर्फ़ मेरा नहीं
किंग्स क्रॉस से
साउथॉल तक
जमेका से जगाधरी तक
एक ही तार है
उनींदी रातों का
एक ही संसार है
जिसे नापना मेरी ताकत के पार है

’तुम्हें क्या कहूँ कि क्या है
शबे ग़म बुरी बला है।’

3
इसी तरह शुरू होता है दिन
इसी तरह ख़त्म होता है
उठें हुए बाज़ुओं की कतार
थकती है
विरोध में उठे हुए सिर
झुकते हैं
झुकते हैं लहराते हुए झण्डे
ठहरे पानी में
सड़ते हैं दिनों के झरे हुए पत्ते
अँधेरे में खामोशी से
सुलगती हैं हमारी रातें
नींद के निरापद आतंक में
शहर चीनी के डलों की तरह घुलते हैं
सड़कें आपस में उलझती हैं
सिवैयों की तरह और इमारतें
बर्फ़ी के टुकड़ों की तरह
गड्ड-मड्ड होती हैं
नींद के निरापद आतंक में
4
एक
सी
छतों
वाले मकान
5
रफ़्ता-रफ़्ता उतरती है शाम
उतरता है शहर पर एक जाल
हर चीज़ को कसता हुआ
अपनी अदृश्य गिरफ़्त में

जाल के पार दिखती है रोशनियाँ
इस्पात और कंकरीट के इस जंगल में
साथ की खोज में भटकते हुए
मैं आवाज़ दूँ तो
क्या कोई जवाब आयेगा ?


6
एक अजीब-सी नाउम्मीदी में
गुज़रते हैं दिन
इसी तरह गुज़रती है ट्यूब11
एक के बाद एक
स्टेशनों को छोड़ती हुई
दाखिल होती है सुरंग में

शाम के वक्त
घिरता है
पराजय का एहसास
ट्यूब की खिड़की से देखे गये कुछ चेहरे
गाड़ी का पीछा करते,
पीले पत्तों की तरह
अगले स्टेशन तक
पीछा करते हैं
7
कैसी अजीब बात है
बाहर की बारिश और
अन्दर के कोहरे से
भाग कर
मैं इस पब में आ बैठा हूँ
यहाँ शनिवार की शाम का शोर है
एक हंगामा है
जिसका न कोई और है, न छोर

शराब के घूँट भरता हुआ
मैं रचता हूँ
खुले हुए दिन
और पारदर्शी हवा
जब सुनहरी धूप
पके हुए सन्तरे की तरह
तुम्हारी देह की मुकम्मल गोलाइयों की तरह
हवा में तिरते हुए राग की तरह
ख़ून में लहलहाती आग की तरह
एहसास के शिखर तक चढ़ती चली जाती थी
पब में शनिवार की शाम का शोर है
बाहर बारिश! अन्दर बेपनाह कोहरा

अगर इस सबसे बचना चाहूँ
तो पता नहीं
मुझे कहाँ जाना होगा

(अगले अंक में जारी)

लन्दन डायरी


दोस्तो,
एक अर्से बाद फिर मुख़ातिब हूं। क्या करूं सिलसिला-ए-रोज़-ओ-शब कुछ ऐसा रहा कि न तो ख़लील ख़ां फ़ाख़्ताएं उड़ाने के क़ाबिल रहे, न ख़ुद उड़ने के। बहरहाल, जल्दी ही एक नायाब चीज़ पेश करने जा रहा हूं। क्या ? यह अभी नहीं बताऊंगा। थोड़ा सस्पेन्स होना चाहिए। पर तब तक एक लम्बी कविता शृंखला - लन्दन डायरी। पहली क़िस्त - ख़लील चौधरी !


ख़लील चौधरी

ब्रिटिश म्यूज़ियम में देखता है ख़लील चौधरी
ढाके की मलमल का थान
जिसे उसने कभी नहीं देखा ढाका में
सच तो यह है कि उसने ढाका भी कभी नहीं देखा
सिर्फ़ सुना है बाप-दादा से
अँगूठी से गुज़र जाने वाले
मलमल के थान का किस्सा

सिलाई मशीन पर झुके-झुके
पंजाब गार्मेंट्स के सुरिन्दर सिंह के लिए
ठेके पर कपड़े सिलते हुए
ख़लील चौधरी अब सिर्फ़
पोलिएस्टर और डेनिम पहचानता है
जिनके थान हर हफ्ते
कराची ट्रेडर्स का याहिया ख़ान
अपनी वैन पर लाता है
और ख़लील चौधरी के घर में फेंक जाता है

यह याहिया ख़ान
वह शराबी जनरल नहीं है
जिसके वफ़ादार फ़ौजी
दिन-दहाड़े
सिल्हट के बाज़ार से
ख़लील चौधरी की बहन को
उठा ले गये थे
और पाँच दिन बाद
उसकी नंगी लाश
पोखर में उतराती मिली थी
यह याहिया ख़ान तो उसके बहुत बाद
जनरल ज़िया के वफ़ादार फ़ौजियों से
बचता-बचाता
कराची से लन्दन आया था

मगर ख़लील चौधरी अब
उन बीती हुई बातों को
याद नहीं करना चाहता

वह याद नहीं करना चाहता
कैसे वह अपने माँ-बाप के साथ
दिन-दिन भर भागता हुआ
नारियल और बाँस के झुण्डों में
छुपता-छुपाता
सिल्हट से स्पिटलफ़ील्ड पहुंचा था

वह उस सिलाई की मशीन को भी
नहीं याद करना चाहता
जिस पर सिल्हट के बाज़ार में
उसका बाप
कपड़े सिया करता था

ख़लील चौधरी के लिए
इतिहास गड्ड-मड्ड हो चुका है
घटनाओं और दुर्घटनाओं का
अन्तर मिट चुका है

स्पिटलफ़ील्ड से सिल्हट तक
फैला है
पोलिएस्टर और डेनिम का साम्राज्य
लेकिन शीशे के शो केस में
धुन्ध की तरह बिखरा हुआ
मलमल का थान
धुन्ध की तरह मुलायम है
या औरत की देह की तरह

जिसे ढँकने के लिए
उसे बुना था
ख़लील चौधरी के पुरखों ने

कपास और करघे की यह पेशकश
एक कला थी
ख़लील चौधरी के पुरखों के लिए
जैसे जीवन भी एक कला थी
जैसे पद्मा की लहरों पर तैरते
भटियाली के बोल
जैसे नये अन्न की सोंधी-सोंधी गन्ध
खजूर के गुड़ की मिठास
जैसे बाउल के गीत, ताँत की साड़ी
देहरी पर रची गयी अल्पना
और मुर्शिदाबाद का ज़रीदार रेशम
रॉबर्ट क्लाइव के आने से पहले

लेकिन ख़लील चौधरी
यह सब नहीं जानता
वह सिर्फ़ ब्रिकलेन थाने के
पुलिस कौंस्टेबल क्लाइव को जानता है
जिसने सिर-मुंडे गुण्डों की पिटाई के ख़िलाफ़
ख़लील चौधरी की शिकायत
दर्ज करने से इनकार कर दिया था

वह उन शोख़ लड़कों को जानता है
जो उसे अक्सर ‘पाकी-पाकी’ कह कर बुलाते हैं
और नहीं जानते
कि ख़लील चौधरी के लिए
यह सबसे बड़ी गाली है

नोट

इंग्लिस्तान में हिन्दुस्तानी उपमहाद्वीप के लोग या तो सिख हैं या पाकिस्तानी चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, बांग्ला देशी हों या हिन्दुस्तानी