रहिए अब ऐसी जगह....
होली का दिन है और मस्ती ग़ायब है. अभी-अभी एक ब्लौग देख रहा था कि कुछ पुरानी कविता पंक्तियां याद हो आयीं :
क्या यह महज़ इत्तफ़ाक़ है कि मैं
कश्मीर में मुसलमान नहीं हुआ
औरंगाबाद में हरिजन नहीं हुआ,
जहानाबाद में भूमिहीन किसान नहीं हुआ
पंजाब में मोन्ना नहीं हुआ ?
क्या इसी इत्तफ़ाक़ के बल पर बचा हुआ हूं अब तक
बीसवीं सदी के आख़िरी हिस्से में
उमड़ती हुई ख़ून की बाढ़ में
जबकि हत्यारों के इरादे बहुत साफ़ हैं
और कोई भी जगह निरापद नहीं है
क्या यह भी इत्तफ़ाक़ का तक़ाज़ा कहा जायेगा
कि मैं मरूंगा उसी गोली से
जिस पर मेरा नाम होगा
हो सकता है इत्तफ़ाक़न
उनकी हिट लिस्ट में मेरा भी नाम हो
शहर के माफ़िआ सरग़ना से ले कर
संस्कृति के माफ़िआ सरग़ना तक
क्या इसी इत्तफ़ाक़ के बल पर बचे हुए हैं
दिल्ली और भोपाल घरानों के कवि
मारे जाते हैं पाश और सफ़दर
आत्म-हत्या की तरफ़ ध्केला जाता है गोरख पाण्डेय
कौन है नादिर शाह ? समय या संयोग?
ख़ून से भीगा पुचाड़ा फेरता हुआ समूचे देश पर
कोई उत्तर नहीं आता और यह इत्तफ़ाक़ नहीं है
ये पंक्तियां यों याद हो आयीं कि इलाहाबाद और लखनऊ से निकलने वाले अख़बार डेली न्यूज़ ऎक्टिविस्ट से जुड़े पत्रकार आवेश तिवारी ने इस बात को ले कर काफ़ी दुख भरा विषवमन किया है कि बीसवीं सदी के महानतम चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन को क़तर की नागरिकता पेश की गयी और उन्होंने स्वीकार कर ली. आवेश का कहना है कि यह हुसैन का भगोड़ापन है, कायरता है और इसके लिए उनकी जितनी भर्त्सना की जाये, उतनी कम है. अपने पक्ष मॆं आवेश ने भाजपा और कारपोरेट जगत के हाथ बिके हुए पत्रकार चन्दन मित्रा का हवाला दिया है. हवाला दिया है कि चन्दन मित्रा ने कहा था कि ‘जब तक हिंदुस्तान में न्याय जीवित रहेगा, तब तक हम हुसैन की विवादास्पद पेंटिंग का विरोध करने वालों और उनके खिलाफ न्यायालय की अनवरत और जानबूझ कर की जा रही अवमानना को ले कर की गयी कार्यवाहियों को भी गलत नहीं ठहरा सकते हैं।’ ज़रा इस हवाले का मतलब समझने की कोशिश तो करें. आप पायेंगे कि कुल मिला कर चन्दन मित्रा उसी भाजपाई और संघी एजेण्डा के पैरोकार हैं जो एक तरफ़ हमारे प्राचीन ग्रन्थों और पुरा कथाओं की बात करता है मगर नहीं जानता कि वे कितने खुले और जीवन्त थे. वह उन्हें अपनी संकीर्ण हिन्दू मध्यवर्गीय मानसिकता में फ़िट करना चाहता है. वह नहीं जानता कि जिन देवी-देवताओं की तोता रटन्त वह दिन रात करता रहता है वे ख़ुद को हिन्दू नहीं कहते थे. आर्य कहते रहे हों, देव कहते रहे हों या और कुछ भी कहते रहे हों. यही नहीं, आचार, विचार, कला, कर्म और मान्यताओं को ले कर भी उनमें ज़्यादा उदारता और खुलापन था. विश्वास न हो तो देवी दुर्गा के प्रकट होने के वर्णन को देखिये या फिर अन्य देवी देवताओं के कार्य कलाप. यह खुलापन एक लम्बे अर्से तक बना रहा. उसने बड़ी कला को जन्म दिया-- खजुराहो और दूसरे मध्यकालीन मन्दिर, अजन्ता एलोरा की गुफाएं और उनके भित्तिचित्र, कलिदास, भास, बाणभट्ट, शूद्रक और विशाखदत्त जैसे रचनाकारों की कृतियां, गिनाते चले जाइए. ऐसे में जब भर्तृहरि के शब्दों में पुच्छ-विषाणहीन पशु कला और कलाकारों के भाग्यविधाता बनने की जुर्रत करने लगें तो ऐसे माहौल से दूर हो जाना ही बेहतर है. कितनी दिलचस्प बात है कि सचिन तेन्डुलकर के लिए भारत रत्न की मांग करने वालों ने कभी किसी सहित्यकार के लिए भारत रत्न की फ़र्माइश नहीं की. तब अगर मक़बूल फ़िदा हुसैन ने आत्म-निर्वासन का रास्ता चुना तो ऐसा क्या ग़ज़ब किया? मज़ा तो तब था जब उन पर बाला साहब से ले कर संघ परिवार का अदना-से-अदना आदमी हमला कर रहा था तब हम जो अब घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं धरने पर बैठ जाते कि हम यह बेहूदगी बर्दाश्त नहीं करेंगे. इसलिए आवेश तिवारी से यही अनुरोध है कि तिवारी जी, फ़ालतू में सिद्धान्त बघारने का कोई लाभ नहीं है. हिम्मत है तो देश में ऐसे हालात पैदा कीजिये कि आवाज़ आज़ाद रह सके.