Saturday, September 6, 2014

हिचकी

हिचकी

किस्त - 5

पाँच

वैसे महीने के उस आख़िरी शनिवार का दिन नन्दू जी के लिए भी कुछ अच्छा नहीं गुज़रा था। 
दरअसल, हफ़्ते की शुरूआत ही बड़े अजीबो-ग़रीब ढंग से हुई थी। चूँकि पुस्तक मेला अभी ख़त्म ही हुआ था, पुस्तकों का नया सेट आने में कुछ समय बाक़ी था और काम कुछ हल्का था, इसलिए नन्दू जी ने पुस्तक मेले की भाग-दौड़ के कारण मुल्तवी रखे गये एक ज़रूरी काम को निपटा लेने की योजना बना रखी थी। 
     बात यह थी कि जब से बिन्दु हफ़्ते में तीन-चार दिन रिकॉर्डिंग वग़ैरह के लिए आकाशवाणी जाने लगी थी, कपड़े धोने की समस्या एक स्थायी सिरदर्द बन कर सामने आयी थी । बंसल साहब पानी के सिलसिले में कोई रू-रियायत करने को तैयार न थे और जब कभी बिन्दु को आकाशवाणी से लौटने में देर हो जाती, कपड़े धोना टल जाता। कुछ दिन तक नन्दू जी ने पड़ोस के लॉण्ड्री वाले से कह कर धोबी का प्रबन्ध किया था। मगर वह कभी समय से कपड़े धो कर न लाता। नन्दू जी को शक था कि वह और उसके घरवाले इस बीच उनके कपड़े ख़ुद भी इस्तेमाल करते थे। ख़ास तौर पर चादरें और बिन्दु की साडि़याँ। 
     एक बार जब उन्होंने कड़ाई से उसे टोका था तो अगली बार वह कपड़े तो समय से ले आया था, लेकिन उनकी कमीज़ों के कई बटन टूटे हुए थे। हार कर उन्होंने फ़ैसला किया था कि अपने परिचित दुकानदार से किस्तों पर एक वॉशिंग मशीन ले आयेंगे और बिन्दु की आमदनी से उसकी किस्तें चुका देंगे। वे एक दिन दफ़्तर से लौटते समय उससे बात भी कर आये थे और उन्होंने सोच रखा था कि मंगलवार को दफ़्तर से कुछ पहले निकल कर वे वॉशिंग मशीन ख़रीदते हुए घर जायेंगे ताकि अगर रेडियो में बिन्दु की ड्यूटी लगी हो तो वे उसे अपनी निगरानी में ऊपर चढ़वा सकें।
इसके अलावा उसी हफ़्ते शुक्रवार को पार्टी के आह्नान पर दिल्ली में एक बड़ी रैली होने वाली थी, जिसमें बिहार, उत्तर प्रदेश और पंजाब से बड़ी तादाद में पार्टी के कार्यकर्ता भाग लेने आ रहे थे। 
     जब तक नन्दू जी अख़बार में काम करते थे, पार्टी से उनका सम्बन्ध बना हुआ था। पार्टी का दफ़्तर शकरपुर में था और हफ़्ते में दो-तीन बार ज़फ़र मार्ग से - जहाँ समाचार-पत्र का कार्यालय था - कुसुम विहार लौटते हुए, नन्दू जी पार्टी दफ़्तर में चले जाया करते। यह सिलसिला तब भी बना रहा था, जब समाचार-पत्र नॉएडा में नये बने अपने भवन में चला गया था। लेकिन जब से नन्दू जी अख़बार छोड़ कर प्रकाशन संस्थान में आये थे, धीरे-धीरे पार्टी ऑफ़िस में उनका जाना कम हो गया था, हालाँकि लक्ष्मी नगर वाले फ़्लैट में आने के बाद शकरपुर एक तरह से पड़ोस कहा जा सकता था। 
     पार्टी के कुछ वरिष्ठ साथियों ने दबी ज़बान में और युवा कॉमरेडों ने खुल्लम-खुल्ला नन्दू जी को उलाहने दिये थे, जिनका नतीजा कुल मिला कर उलटा ही हुआ था और नन्दू जी का पार्टी ऑफ़िस जाना और भी कम हो गया था। एक लम्बे समय तक भूमिगत रहने और संसदीय राजनीति का बहिष्कार करने के बाद लगभग दस साल पहले पार्टी खुले तौर पर बाहर आ गयी थी और आरम्भिक हिचकिचाहट के बाद चुनावों में हिस्सा लेने का फ़ैसला भी कर चुकी थी। ताज़ा रैली इसी फ़ैसले का सार्वजनिक प्रदर्शन था जो ‘दाम बाँधो, काम दो’ के नारे के साथ अपनी ताक़त जताने का भी प्रयास था।
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एक हफ़्ता पहले जब एक लम्बी ग़ैर-हाज़िरी के बाद नन्दू जी पार्टी ऑफ़िस में दाख़िल हुए तो वहाँ रैली के बड़े-बड़े पोस्टर लगे हुए थे और लगभग युद्ध स्तर पर रैली की तैयारियाँ चल रही थीं। एक तरफ़ पोस्टरों और पर्चों के गट्ठर रखे हुए थे जिन्हें जगह-जगह लगवाने और बँटवाने की व्यवस्था की जा रही थी। बिहार और उत्तर प्रदेश के कई कॉमरेड, जो पार्टी के केन्द्रीय समिति के सदस्य थे, वहाँ बैठे सलाह-मशविरा कर रहे थे। 
     उन्होंने नन्दू जी को उलाहने देने या शिकायत करने की बजाय एक अलग रुख़ अपनाया था। गर्मजोशी से नन्दू जी का स्वागत करते हुए उन्होंने आगामी चुनावों में भाग लेने के बारे में पार्टी के फ़ैसले की अहमियत बतायी थी और उनसे रैली में भाग लेने का अनुरोध किया था।
 ज़ाहिर है, दिल्ली के युवा साथियों के व्यवहार से आहत नन्दू जी को पार्टी के पुराने, तपे हुए कॉमरेडों का यह रवैया मरहम सरीखा जान पड़ा था। यूँ भी, पार्टी ऑफ़िस में आने पर नन्दू जी के मन में उन पुराने दिनों की स्मृतियाँ जाग उठती थीं, जब वे सब कुछ भूल कर पार्टी समर्थित साप्ताहिक में तन-मन से जुटे रहते थे। इसलिए उन्होंने वादा किया था कि जैसे भी होगा, वे दफ़्तर से कुछ घण्टों की छुट्टी ले कर रैली में ज़रूर शिरकत करेंगे।
     लेकिन सोमवार ही से घटनाओं का कुछ ऐसा सिलसिला शुरू हुआ, जिसने नन्दू जी के सावधानी से बनाये गये कार्यक्रम को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था। अभी वे दफ़्तर पहुँच कर ठीक से साँस भी नहीं ले पाये थे कि रिसेप्शनिस्ट रागिनी शर्मा ने उन्हें इण्टर-कॉम पर फ़ोन करके बताया था कि हरीश अग्रवाल दो बार उनके बारे में पूछ चुका है और वे आते ही उससे मिल लें। 
नन्दू जी फ़ौरन उठ कर जब हरीश अग्रवाल के कैबिन की तरफ़ चले थे तो उन्हें आसन्न आँधी का सान-गुमान भी नहीं था। पुस्तक मेले में प्रकाशन संस्थान के नये सेट का भरपूर स्वागत हुआ था और अब नयी पुस्तकों की छपाई का काम पुस्तक मेले से पहले के दिनों की हरारत-ज़दा तनाव-भरी त्वरा से उतर कर फिर अपनी मन्द, मन्थर गति पर आ गया था। इसलिए नन्दू जी आश्वस्त भाव से हरीश अग्रवाल के कैबिन में दाख़िल हुए थे। 
     आम तौर पर हरीश अग्रवाल उन्हें बैठने के लिए कहता था और उनके बैठ जाने के बाद ही बात शुरू करता था। मगर उस रोज़  उसने यह शिष्टाचार निभाये बग़ैर एक कवर डिज़ाइन उनकी ओर सरका दिया था। कवर डिज़ाइन राजनेताओं के व्यक्तित्वों पर केन्द्रित उसी श्रृंखला की एक पुस्तक का था, जिसे तेज़-तर्रार पत्रकार हेरम्ब त्रिपाठी सम्पादित कर रहा था और जिसके लिए हिन्दी के अनेक साहित्यकारों और पत्रकारों ने अपनी सेवाएँ अर्पित कर दी थीं।
ज़्यादातर साहित्यकार और कुछ पत्रकार, जो अपनी छवि को तो बेदाग़ बनाये रखना चाहते थे, मगर जिनसे पुस्तक लिखने के एवज़ में मिलने वाली उस अच्छी-ख़ासी एकमुश्त राशि का लोभ संवरण नहीं हो रहा था जो हेरम्ब त्रिपाठी ने हरीश अग्रवाल से स्वीकृत करा रखी थी, छ्द्म नामों से इस काम में जुटे हुए थे।  केवल दो जाने-माने लेखक ऐसे थे, जो श्रृंखला में शामिल दो राजनेताओं से खुले तौर पर जुड़े रहने के कारण पर्याप्त ख्याति या कहा जाय कुख्याति अर्जित कर चुके थे, इसलिए उन्होंने छद्म नामों का सहारा लेने की ज़रूरत नहीं समझी थी। हाँ, कुछ पत्रकार ऐसे भी थे जो अपने असली नामों से इन राजनेताओं का महिमा-मण्डन करके तात्कालिक धन लाभ के साथ-साथ भावी कैरियर-लाभ भी कर लेने के इच्छुक थे। 
     चूँकि हरीश अग्रवाल के साथ-साथ हेरम्ब त्रिपाठी के राजनीतिक सरोकारों का मुख्य उद्देश्य उससे होने वाले सम्भावित लाभों से था, इसलिए पुस्तक-श्रृंखला में शामिल किये जा रहे राजनेताओं का चुनाव किसी भी वैचारिक भेद-भाव के बिना किया गया था। उसमें धुर दक्षिणपन्थी हिन्दुत्ववादी दलों के नेताओं से ले कर कट्टर समाजवादी और साम्यवादी नेताओं तक और क्षेत्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं से ले कर नये-नये उभरने वाले जातिवादी समीकरणों के महारथियों तक - सभी शामिल थे। 
     ध्यान बस इतना रखा गया था - और यह भी मानो संसदीय राजनीति के समूचे स्वरूप में आयी तब्दीलियों का प्रतिबिम्ब था - कि श्रृंखला में शामिल सभी नेताओं ने राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर अपनी वैचारिक उपलब्धियों की बजाय इस बिना पर अपनी उपस्थिति दर्ज करायी थी कि वे व्यावहारिक राजनीति - रियल पॉलिटिक - में कितनी महारत रखते थे। उनके घोषणा-पत्रों में भले ही सैद्धान्तिक अन्तर दिखते थे, लेकिन व्यवहार में सत्ता हासिल करना ही उनका असली उद्देश्य था और इसके लिए सिद्धान्तों को तोड़ने-मरोड़ने या फिर बिलकुल छोड़ने में भी उन्हें कोई हिचक नहीं होती थी। 
     इसलिए हाल के वर्षों में इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि सरकार किस या किन दलों की है। सभी दल अपनी सारी घन-गरज के बाद एक-सी नीतियों पर चलते नज़र आते। वे जानते थे कि जोड़-जुगाड़ ही सार है, बाक़ी सब भूसा। सत्ता विचारों से नहीं, वोटों से मिलती है और वोट गणित और भौतिक शास्त्र के सरलतम नियमों के हिसाब से चलते थे। यही कारण था कि हेरम्ब त्रिपाठी ने विभिन्न राजनीतिक दलों और धाराओं के उन नेताओं को सिरे से ही काट दिया था, जो उन धाराओं के सिद्धान्तकार माने जाते थे।
     अब तक इस इस श्रृंखला की पाँच पुस्तकें आ चुकी थीं और उनकी व्यावसायिक सफलता को देख कर हरीश अग्रवाल ने हेरम्ब त्रिपाठी को सात और पुस्तकें तैयार करने के लिए हरी झण्डी दे दी थी। अगले सेट के लिए तीन और पुस्तकें तैयारी में थीं और जो कवर डिज़ाइन हरीश अग्रवाल ने नन्दूजी की ओर सरकाया था, वह इन्हीं में से एक पुस्तक का था।

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