Saturday, September 13, 2014

हिचकी

किस्त : 16-17

सोलह

शुरू-शुरू में तो ऐसा लगा मानो तूफ़ान से पहले हवा के निस्बतन तेज़ होते झँकोरे हों जिनके बीच में निर्वात के द्वीप हों या जैसे नल में पानी के आने से पहले गड़गड़ाहट और सों-सों की आवाज़ होती है और झटके से पानी आता है। फिर बन्द हो जाता है। फिर शुरू होता है। फिर बन्द हो जाता है। और फिर धड़धड़ा कर जब शुरू होता है तो रुकने का नाम नहीं लेता। कुछ ऐसी ही कैफ़ियत नन्दू जी की हिचकियों की थी।
पहले तो नन्दू जी ने हिचकियों पर बहुत ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। उनका ख़याल था कि देर से चाय पीने और वह भी एक साथ दो प्याले, पेट अफरा गया है और कुछ मिनट बाद अपने आप ठीक हो जायेगा। लेकिन जब पन्द्रह मिनट गुज़र गये और हिचकियों ने एक सधी हुई रफ़्तार पकड़ ली तो नन्दू जी को लगा कि इन हिचकियों का कुछ करना पड़ेगा। उन्होंने उठ कर एक गिलास में पानी ले कर उसके कुछ घूँट भरे थे और लम्बी-लम्बी साँसें ली थीं, लेकिन हिचकियाँ पहले ही की तरह जारी रहीं।
इस बीच बिन्दु रोटियाँ बना कर, दाल को बघार, हाथ पोंछती आ गयी थी। उसे भी चिन्ता की कोई बात नहीं लगी थी।
‘तुमने पानी पिया?’ उसने पूछा था।
नन्दू जी ने सिर हिला कर बताया था कि वे पानी पी चुके हैं।
‘ठहरो, मैं हाज़मोला की गोली देती हूँ। अभी आराम आ जायेगा।’
लेकिन जब हाज़मोला की गोली भी बेकार साबित हुई और हिचकियाँ बराबर आती रहीं और समय भी दस से ऊपर का होने लगा तो पहली बार बिन्दु  को चिन्ता हुई थी। नन्दू जी इस बीच बेहाल हो चले थे। तब बिन्दु भाग कर नीचे गयी थी और उसने बंसल साहब के घर की घण्टी बजायी थी। 
बंसल जी तब तक अपनी दुकान से लौट कर, सन्ध्या-वन्दन करके भोजन आदि से निपट कर सास-बहू वाला कोई घटिया-सा धारावाहिक देखने के बाद सोने की तैयारी कर रहे थे। बिन्दु को बाहर बदहवास खड़े देख कर वे उसके साथ ही ऊपर चले आये थे और उन्होंने नन्दू जी से हिचकियों के बारे में कुछ इस तरह तफ़सील तलब की थी मानो वे फ़ौजदारी के मुक़दमे में किसी गवाह से जिरह कर रहे हों।
बहरहाल, सारा हाल-चाल लेने के बाद बंसल जी ने अपने ख़ास उपदेशक वाले अन्दाज़ में कहा था, ‘बदहज़मी है जी, बदहज़मी,’ और उन्होंने यूं सिर हिलाया था जैसे नालायक़ बच्चों के बाप निराशा में सिर हिलाया करते हैं। 
‘बात ये है जी,’ बंसल साहब ने अपने मख़सूस अन्दाज़ में प्रवचन शुरू कर दिया था, ‘कि आजकल के नौजवान खान-पान का ध्यान तो बरतते नहीं हैं। बाहर का खाना कभी शरीर को माफ़क आया है भला ? हम तो बाहर का इसीलिए कभी न ख़ुद खात्ते हैं जी, न घर वालों को खाने देत्ते हैं। ख़ैर, मेरे पास एक बड़ा अच्छा चूरन है; हमारे बैद जी ने ख़ास हमारे लिए बनवाया है। मैं थोड़ा-सा देता हूं। चौथाई चम्मच कुनकुने पानी से लीजिए। परभू ने चाहा तो फ़ौरन आराम आ जायेगा। ना आये तो सोते बखत चौथाई चम्मच और ले लेना जी। सुबह तक तन चंगा हो जायेगा और हाँ, रात को उपवास ही कर लेना अच्छा होगा।’
नन्दू जी अगर इतने बेहाल न होते तो यक़ीनन बिन्दु पर बरस पड़ते कि वह इस सर्वज्ञ क़िस्म के मालिक मकान को क्यों बुला लायी है। 
इस हालत में कोई खा कैसे सकता है?--वे बंसल साहब से पूछना चाहते थे लेकिन बंसल साहब तो अपना प्रवचन दे कर चलते बने थे। थोड़ी देर में बिन्दु नीचे से एक पुडि़या में लगभग डेढ़ चम्मच चूरन ले कर आयी थी जो चूरन कम और पिसी हुई चूहे की लेंड़ी ज़्यादा लगता था। नन्दू जी को लगा था कि अर्से से रखे हुए इस चूरन में कुछ भी अला-बला मिल गयी हो तो हैरत की बात नहीं। उनके मन में एक तल्ख़ ख़याल आया था कि अगर बंसल साहब खान-पान में इतना परहेज़ रखते हैं तो फिर उन्हें वैद से ख़ास तौर पर अपने लिए चूरन बनवाने की ज़रूरत क्यों पड़ी भला? 
इन्हीं ख़यालों के साथ नन्दू जी को एक अदद फ़ोन की भी कमी बुरी तरह महसूस हुई थी। फ़ोन होता तो वे किसी-न-किसी मित्र-परिचित को फ़ोन करके सलाह कर सकते थे या फिर अपने भाई को पूछ सकते थे कि ऐसी हालत में वे क्या करें। अब सुबह तक इन्तज़ार करने के सिवा कोई चारा नहीं था। लेकिन सवाल यही था कि इस बीच वे बंसल साहब का चूरन आज़मायें या नहीं। 
हालाँकि नन्दू जी ने पहले यही फ़ैसला किया था कि वे बंसल साहब का यह ज़लील चूरन नहीं खायेंगे, लेकिन बारह बजते-न-बजते उनकी तबियत इतनी झल्ला गयी थी कि उन्होंने उसके चौथाई चम्मच की फंकी लगायी थी और कुनकुना पानी पी लिया था। 
चूंकि शादी-शुदा ज़िन्दगी में यह पहली बार था कि बिन्दु को इस तरह की स्थिति से दो-चार होना पड़ा था जब सलाह-मशविरे या हौसला बँधाने और सहायता देने के लिए कोई न हो, इसलिए वह अन्दर से काफ़ी घबरा गयी थी, गो बाहर से उसने अपनी घबराहट ज़ाहिर नहीं होने दी थी। यहाँ तक कि उसने नन्दूजी के एक ही बार कहने पर जा कर खाना भी खा लिया था। लेकिन उसने फ़ैसला कर लिया था कि सुबह-सबेरे ही जा कर वह नन्दू जी के भाई को फ़ोन करके बुला लेगी। 
इसके बाद बंसल साहब के चूरन का कमाल था या दिन भर की भाग-दौड़ और तनाव का असर, नन्दू जी को बारह बजे के क़रीब झपकी आ गयी थी। लेकिन जब सुबह के पाँच बजे अचानक नन्दू जी की नींद खुली थी तो हिचकी बदस्तूर जारी थी। कुछ घण्टे सो लेने की वजह से उन्हें अपनी तबियत उतनी गिरी हुई नहीं लग रही थी जितनी रात को। 
सिवा शारीरिक बेआरामी के, हिचकी से उन्हें कोई दर्द या तकलीफ़ भी महसूस नहीं हो रही थी। उन्होंने पाया था कि चाय पीने में भी उन्हें कोई दिक़्क़त नहीं हुई थी। लेकिन तीसरी धारा की वामपन्थी पार्टी के अनुभवों ने नन्दू जी को ऐसी किसी आकस्मिक स्थिति के लिए तैयार नहीं किया था। वे अगर बिहार के जलते खेत-खलिहानों में रोग-शोक-शोषण-अभाव से ग्रस्त लोगों के बीच गये भी थे तो एक बाहरी मध्यवर्गीय कार्यकर्ता की हैसियत से ‘अन्दर के आदमी’ की तरह नहीं । 
उन सारे युवकों में जो अस्सी के दशक में अलग-अलग कारणों से तीसरी धारा की जुझारू राजनीति में शामिल हुए थे, एक बात समान रूप से दिखती भी। ज़मीनी स्तर पर शोषण और उत्पीड़न, अभाव और विषमता के ख़िलाफ़ एक बेहतर ज़िन्दगी के लिए जद्दो-जेहद कर रहे लोगों के बीच जा कर काम करते हुए भी कहीं-न-कहीं उनके अन्दर यह भाव अचेतन रूप से रहता ही था कि उनके लिए ‘बाहर का’ एक रास्ता हमेशा खुला है। जब उन्हें लगेगा कि आगे बात नहीं बन रही है तो वे फिर अपनी उसी मध्यवर्गीय ज़िन्दगी में लौट जायेंगे। और यही लगभग नब्बे फ़ीसदी मामलों में होता भी था। 
ये सभी युवक जहाँ के थे, वहीं रहते हुए लड़ने की बजाय किसी रूमानी ज़ज्बे के तहत सुदूर अंचलों के किसान-मज़दूरों के बीच जाते थे और फिर उस जीवन की अँधेरी सच्चाइयों से रू-ब-रू होने के बाद लौट आते थे और उसके बाद पुराने आदर्शों को एक किनारे करते हुए हालात से समझौता कर लेते थे। चूंकि जो युवक यह रास्ता अख़्तियार करते थे, वे औसत से अधिक मेधावी होते थे, इसलिए लौटने के बाद अक्सर उन्हें सफल होते भी देखा गया था। बाद में वे एक रूमानी अन्दाज़ में इस पुरानी ज़िन्दगी को कुछ उस तरह से याद करते जैसे लोग पहले-पहले प्यार को याद किया करते हैं। 
नन्दू जी हालाँकि पत्रकारिता से जुड़े रहने की वजह से अभी न तो अपनी पुरानी ज़िन्दगी से इस हद तक कट पाये थे, न पुराने साथियों से, मगर वे उस दिशा में धीरे-धीरे क़दम ज़रूर बढ़ा रहे थे। इसीलिए उन्हें अफ़सोस हो रहा था कि उन्होंने इलाज-उपचार जैसी बुनियादी ज़रूरत को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल करके किसी ढब के डॉक्टर से सम्पर्क क्यों नहीं साधा जो उनके घर के क़रीब और सुलभ होता। 
दिल्ली आने के बाद एकाध बार जब ज़रूरत पड़ी भी तो वे पार्टी के एक पुराने हमदर्द डॉ0 सुशील वर्मा के पास चले गये थे जो गुरु तेग़ बहादुर हस्पताल में तैनात थे और हस्पताल के परिसर में ही डॉक्टरों के आवास में रहते थे। लेकिन हस्पताल लक्ष्मी नगर से दूर था और डॉ0 सुशील वर्मा के फ़ोन का नम्बर बदल गया था। नन्दू जी को अपनी ग़फ़लत पर भी खीझ हुई कि उन्होंने डॉक्टर वर्मा का नया नम्बर पार्टी ऑफ़िस से ले कर अपनी डायरी में क्यों नहीं दर्ज कर लिया था। उन्हें ख़याल आया कि वक़्त रहते उन्हें किसी ऐसे डॉक्टर का इन्तज़ाम कर रखना चाहिए था जिसे अचानक ज़रूरत पड़ने पर दिखाया जा सकता।
इस बीच बिन्दु ने उठ कर सुबह के सारे ज़रूरी काम निपटा लिये थे। वैसे तो उसे उम्मीद नहीं थी कि उस इतवार को उसे आकाशवाणी से बुलावा आयेगा, लेकिन वह चाहती थी कि जा कर प्रोग्राम एग्ज़ेक्यूटिव को फ़ोन कर दे और नन्दू जी की बीमारी के बारे में बता कर उससे कह दे कि वह उस रोज़ उसकी डयूटी न लगाये। ऐसा करके वह बुलाये जाने पर ना करके शिकायत का मौक़ा देने से भी बच जाती। साथ ही वह नन्दू जी के भाई को जल्द-से-जल्द आने के लिए कह देना चाहती थी।
जब वह फ़ोन करने के लिए पास के पी.सी.ओ. तक जाने के लिए तैयार हुई थी तो नन्दू जी ने उसे दो नम्बर और दिये थे। एक पार्टी के दफ़्तर का था और दूसरा, के0 विक्रम स्वामी के मकान मालिक का जो बंसल जी से बिलकुल विपरीत स्वभाव वाला भला आदमी था और बिना किसी रगड़े-झगड़े के स्वामी को बुलवा दिया करता था।
‘पार्टी ऑफ़िस में फ़ोन करके साथी रामजी यादव को बता देना और सुशील वर्मा का फ़ोन नम्बर ले लेना। फिर उन्हें फ़ोन करके पूछना क्या करें। स्वामी से कहना दोपहर को चला आये।’ यह हिदायत दे कर नन्दू जी निढाल हो कर दीवान पर पीछे को अधलेटे हो गये थे। 
उन्हें अन्दर से एक विराट झल्लाहट और विवशता का एहसास हो रहा था। थोड़ी-थोड़ी आत्मदया भी उनके अन्दर सुगबुगा रही थी। लेकिन हिचकी को न तो नन्दू जी के पिछले जीवन की जद्दो-जेहद का कुछ ख़याल था, न मौजूदा ज़िन्दगी की कशमकश से कोई वास्ता। वह बदस्तूर जारी थी। बीच-बीच में अगर उसके थोड़ा हलके पड़ने से नन्दूजी की उम्मीदें पलकें खोलतीं तो थोड़ी देर बाद वह फिर तेज़ी से एक झटका दे कर इन उम्मीदों को सुला देती। 
नन्दू जी के कानों में पिछले दिन अनिल वज्रपात की कही हुई बात गूंज रही थी--‘हमका तो ई जना रहा कॉमरेड कि ई बड़ा सहर में होता है कि जबर-से-जबर आदमी पिल्लू बन जाता है।’--और वे ख़ुद को ऐसी ही विकट परिस्थिति में फँसे आदमी जैसा पा रहे थे।
तभी बिन्दु लौट आयी थी। उसके चेहरे पर आश्वस्ति का ऐसा भाव था मानो वह नन्दू जी की हिचकियों का कोई सटीक उपाय खोज लायी हो, जबकि इस भाव के पीछे सबसे बड़ी वजह यही थी कि वह जिस काम से गयी थी उसे कर आयी थी और उसे नन्दू जी की शिकायतों से ले कर प्रवचनों तक का कोई डर नहीं था।
‘चिन्ता की कोई बात नहीं है,’ बिन्दु ने नन्दू जी को ढाढ़स बधाया था, ‘सुशील जी कहते हैं, ऐसा कभी-कभी हो जाता है। बहुत बेचैनी हो तो डाइजीन की एक गोली ले ली जाये। खाना हलका ही खाना है। उन्हें मौक़ा मिलेगा तो वे आयेंगे। अभी तो वे ग़ाज़ियाबाद जा रहे थे ज़रूरी काम से।’
‘भैया से बात हुई?’ नन्दू जी ने पूछा।
‘बता रही हूं,’ बिन्दु ने अपने बटुए से डाइजीन का पत्ता निकालते हुए कहा। ‘भैया ग्यारह बजे तक आयेंगे। अभी तो उन्हें सेठ बद्री प्रसाद के यहाँ जाना था।’

सत्रह

नन्दू जी के बड़े भाई चन्द्र किशोर तिवारी, जिन्हें जसरा ब्लॉक का हर आदमी चन्दू गुरु के नाम से जानता था और हाल के वर्षों में पैर छू कर प्रणाम करता था, उमर में नन्दू जी से केवल पाँच साल बड़े थे, लेकिन जो समय नन्दू जी ने बिहार के जलते खेत-खलिहानों में बिताया था, वही समय उनके भाई ने ‘चन्दू गुरु’ से ‘तिवारी जी’ और ‘तिवारी जी’ से ‘पण्डित जी’ बनने में। 
इण्टर पास करते ही वे दिल्ली चले आये थे और ओखला की एक फ़ैक्टरी में स्टोर कीपर की नौकरी करने लगे थे जिसमें स्टोर कीपरी का काम कम और चौकीदारी का पहलू ज़्यादा था। अच्छे, सुदर्शन आदमी थे और जब उन्होंने पहले ही महीने में घटतौली के दो मामले पकड़ लिये थे तो सेठ बद्री प्रसाद के पिता ने, जो उन दिनों फ़ैक्टरी का सारा काम-काज देखा करते थे, चन्दू गुरु को फ़ैक्टरी के अहाते में ही एक क्वार्टर दे दिया था। 
नन्दू जी भले ही वैज्ञानिक समाजवाद के चक्कर में ‘प्रबुद्ध’ हो गये थे, चन्दू जी ने पुश्तैनी धन्धे को उतनी ही वैज्ञानिक निष्ठा से अपनाये रखा था। फ़ैक्टरी में क्वार्टर पाते ही जो पहला काम उन्होंने किया था, वह था फ़ैक्टरी के गेट के भीतर घुसते ही दायीं तरफ़ एक मन्दिर की स्थापना। सेठ हरि प्रसाद को भला क्या एतराज़ होता। उन्हें तो स्टोर कीपर के साथ मुफ़्त में एक ‘पंडत’ भी मिल रहा था। 
चन्दू ने सबसे पहले अपनी धज सँवारी थी। चुटिया वे रखते ही थे, अब उन्होंने उसे और बढ़ा लिया था। पतलून-बुशशर्ट छोड़ कर वे धोती-कुर्ता पहनने लगे और माथे पर हर रोज़ वार के हिसाब से त्रिपुण्ड और चन्दन लगाने लगे। धीरे-धीरे वे बाबू चन्द्र किशोर और चन्दू गुरु की जगह ‘पण्डित जी’ के रूप में मशहूर हो गये। 
ज्ञान भले ही उनका सीमित था, लेकिन कण्ठ बहुत मधुर और उच्चारण शुद्ध था, ख़ास तौर पर जब वे अपने खाँटी सुल्तानपुरी लबों-लहजे को प्रयत्न पूर्वक क़ाबू में रखते हुए संस्कृत के श्लोकों का पाठ करते थे। चार-छै अवसरानुकूल भजन और इतने ही मन्त्र उन्होंने घर जा कर अपने पुरोहित पिता की मदद से कण्ठस्थ कर लिये थे। मन्दिर में आरती से लेकर छोटे-मोटे कर्मकाण्ड कराते हुए वे अब कथा बाँचने और अनुष्ठान बगैरा भी कराने लगे थे। धीरे-धीरे जब उनकी शोहरत बढ़ी तो उन्होंने लोगों के घर जा कर पूजा-पाठ करना भी शुरू कर दिया।
० 
दिल्ली में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो अपने ज़्यादातर सामाजिक काम-काज के लिए दूसरों पर आश्रित थे। दक्षिण में भले ही आपको हर घर में एक न एक सदस्य संगीत या नृत्य या कला के और किसी रूप में कमोबेश संलग्न मिल जाय, उत्तर भारत में यह सब दूसरों के हवाले था। सो, जिस तरह ऐसे लोग, जिन्होंने कभी सितार के दर्शन भी नहीं किये थे, उस्ताद विलायत ख़ाँ के कैसेट और सी0 डी0 ला कर घर में बजाते हुए संगीत-प्रेमी बने रहते थे, उसी तरह ख़ुद एक भी श्लोक न जानते हुए किसी पण्डित को हर रोज़ बुला कर घर के किसी छोटे या बड़े कमरे में बने मन्दिर में पूजा पाठ करा लिया करते थे। 
चन्द्र किशोर ने इस प्रवृत्ति को भाँप लिया था और उन्होंने धीरे-धीरे अपनी यजमानी बनानी शुरू कर दी थी। साथ-साथ वे थोड़ा-बहुत झाड़-फूंक और तन्त्र-तावीज़ का काम भी करने लगे थे। वे जानते थे कि छोटे शहर का भी कुशल कम्पाउण्डर यह जानता है कि गले में आला लटकाना और मरीज़ देखना ही डॉक्टर कहाने के लिए काफ़ी होता है। बाक़ी डिग्री-फिग्री तो बकवास है। क्योंकि अगर मरीज़ ठीक हो रहे हों तो फिर कोई डॉक्टर की डिग्री नहीं देखता। और अस्सी फीसदी मरीज़ों को ठीक करने के लिए कुशल कम्पाउण्डर होना ही काफ़ी है। बाक़ी के लिए विशेषज्ञ तो हैं ही, जिनके पास कठिन मरीज़ों को भेजा जा सकता है। इसी तरह ‘पण्डित’ बनने के लिए वेद-उपनिषद पढ़ने की ज़रूरत नहीं। निन्यानबे फ़ीसदी लोगों की ज़रूरत ज्ञान नहीं, सान्त्वना है। वह अन्तःकरण की हो या मन की। 
यही मूल-मन्त्र अपने पल्ले बाँध कर चन्दू गुरु ने पँडिताई का काम शुरू किया था और धीरे-धीरे अब वे इस स्थिति में आ गये थे कि फ़ैक्टरी के क्वार्टर की बजाय अपना निजी मकान ले लें। ईस्ट ऑफ़ कैलाश के पास गढ़ी में एक बुढि़या का बड़ा-सा पुराना मकान उन्होंने देख भी रखा था जहाँ वे साल में तीन-चार बार कथा बाँचने या ऐसा ही और कोई खटकरम करने जाते थे। लेकिन यह सब करते हुए उन्होंने दो-तीन बातों का पूरा ख़याल रखा था। 
पहली तो यह कि अपनी स्टोर कीपरी पर वे बदस्तूर बने रहे थे। हालाँकि कारख़ाने का काम बढ़ने के साथ, अब इस काम का ज़्यादातर हिस्सा सँभालने के लिए सेठ हरिप्रसाद की ओर से उन्हें एक सहायक मिला हुआ था तो भी वे अपनी ‘ड्यूटी’ मुस्तैदी से निभाते। सेठ हरिप्रसाद और उनके बेटे सेठ बद्रीप्रसाद के बारे में उन्हें कोई मुग़ालता नहीं था। वे जानते थे कि सेठ ने नौकरी उन्हें पँडिताई करने के लिए नहीं, बल्कि स्टोर कीपरी करने के लिए दी थी और उसमें कोताही करने पर उनका सारा धरम-करम और पूजा-पाठ उनके सहायक को उनकी गद्दी पर जा बैठने से रोक नहीं पायेगा। 
दूसरी सावधानी उन्होंने यह बरती थी कि ‘बामन का छोरा, देस बेगाना नींवे चलना’ की मसल पर अमल करते हुए उन्होंने अपना रहन-सहन पहले की तरह सादा रखा हुआ था; साथ ही उन्होंने फैक्टरी के क्वार्टर पर अपना क़ब्ज़ा बनाये रखने का फ़ैसला कर रखा था; और तुरुप की चाल यह कि फ़ैक्टरी में मन्दिर बनाते ही उन्होंने हर इतवार को नियमित रूप से ग्रेटर कैलाश में सेठ जी की कोठी पर जाना, वहाँ पूजा-पाठ करना और ‘बहू जी’ यानी सेठ हरिप्रसाद के बेटे सेठ बद्रीप्रसाद की पत्नी, को भजन सुनाते हुए प्रसाद देना (जिसमें ‘देने’ से अधिक ‘लेना’ ही शामिल था क्योंकि आधा किलो देसी घी के लड्डुओं का अधिकांश तो वे सीधे के नाम पर अपने साथ बाँध लाते) शुरू कर दिया था। 
हाल के दिनों में, जब से टी.वी. के, एक चैनल पर कोई-न-कोई ‘महात्मा’ नज़र आने लगा था, पण्डित चन्द्र किशोर तिवारी के मन में कई सुषुप्त आकांक्षाएं कुलबुलाने लगी थीं।
ऐसी हालत में, पण्डित चन्द्र किशोर तिवारी को जब पता चला था कि उनके छोटे भाई को हिचकियाँ आ रही हैं और उन्हें तलब किया जा रहा है तो उन्हें थोड़ी उलझन हुई थी। अपनी सधी-सधायी ज़िन्दगी में इस तरह के प्रसंग उन्हें स्पीड-ब्रेकरों जैसे लगते थे जो -- हिन्दुस्तान में कम-से-कम -- रफ़्तार कम करने से ज़्यादा गाडि़यों के अंजर-पंजर ढीले करने के काम आते थे। 
इसके अलावा उन्हें अपने छोटे भाई के रंग-ढंग पर कई ऐतराज़ भी थे। पुश्तैनी काम-काज छोड़ना तो किसी हद तक ज़माने के साथ चलने की शर्त का हिस्सा था, लेकिन यह क्या कि आदमी धरम-करम से एकदम किनारा कर ले, गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियों और शिवलिंग-शालिग्राम की जगह जाने कौन-कौन से विदेशी विधर्मियों की तस्वीरें टाँगे रहे और सारा आचार-विचार भुला कर, जिसमें ब्राह्मण के लिए जनेऊ और शिखा-त्रिपुण्ड अनिवार्य थे, कुमार्ग पर चलने लगे। लेकिन कुछ भी हो, नन्दू उनका छोटा भाई था, इसलिए बिन्दु का घबराया हुआ फ़ोन आने के बाद उन्होंने गहरी साँस लेते हुए पिता से सुनी पुरानी उक्ति दोहरायी थी -- स्वधर्मे निधनं श्रेयः पराधर्मो भयावहः -- और तय किया था कि उस रोज़ वे सेठ बद्री प्रसाद के यहाँ थोड़ा जल्दी चले जायेंगे और वहाँ की साप्ताहिक पूजा थोड़ी संक्षिप्त कर देंगे।
संयोग से उस दिन सेठ बद्रीप्रसाद के यहाँ उनके साले का लड़का आया हुआ था जो साल डेढ़ साल पहले ही अमरीका के किसी विश्वविद्यालय से एम.बी.ए. करके लौटा था और मोटी तनख़्वाह पर एक विदेशी कम्पनी में मार्केटिंग एक्ज़ेक्टिव लगा हुआ था। सेठ बद्रीप्रसाद के साले फ़ाइबर की चादरों के सबसे बड़े व्यापारी थे और उन्होंने विकी को - कि यही उनके बेटे का नाम था - अमरीका भेजते समय यह साध पाल ली थी कि जब वह लौट कर आयेगा तो वे ख़ुद फ़ाइबर की चादरों का एक कारख़ाना खोलेंगे। लेकिन विकी ने लौटने के बाद इस ‘मल्टीनैशनल कम्पनी’ की चाकरी करके उनके मंसूबों पर मानो पानी फेरने की ठान ली थी। 
यों विकी दिल्ली के उन हज़ारों उच्चवर्गीय युवकों में से था जो आधुनिक खुलेपन और पुरानी संकीर्णता की खिचड़ी थे। वह डिस्को जाता, पूल और स्नूकर खेलता, देर रात की पार्टियों में बियर भी पी लेता और मांस-अण्डे से भी अब उसे कोई हिचक भी नहीं रह गयी थी, लेकिन वह अपनी कलाई पर हरदम उस मौली को बाँधे रहता जो पिछले किसी तीज-त्योहार पर हुई पूजा के दौरान पिछले धागे की जगह बाँधी गयी थी और अगले त्योहार पर बदले जाने तक बँधी रहने वाली थी; नियमपूर्वक हर मंगल और शनि को हनुमान मन्दिर जा कर मत्था टेकता, नवरात्र में नौ के नौ दिन व्रत रखता और साल में दो बार वैश्नो देवी की यात्रा पर जाता। सेठ बद्रीप्रसाद की पत्नी को उनके भाई ने विकी को ‘समझाने’ का काम सौंपा हुआ था और इसीलिए बहाने से विकी को बुलवाया गया था।
जब चन्दू गुरु ने पूजा समाप्त करने के बाद ‘बहू जी’ को उदास स्वर में अपने छोटे भाई की तबियत के बारे में बताया था तो उन्होंने कहा था, ‘पण्डित जी, आपको फ़ौरन जा कर उसे देखना चाहिए। ऐसे मामलों में ढील ठीक नहीं होती। मेरी मानिये तो बस-वस का चक्कर छोडि़ये, ऑटो ले कर चले जाइए।’ 
यह कह कर सेठ बद्रीप्रसाद की पत्नी ने सौ रुपये का नोट तिवारी जी को भेंट किया था। वे नोट जेब में रखने ही जा रहे थे कि विकी ने कहा था, ‘बुआ, मुझे तो उधर ही जाना है। मैं पण्डित जी को ड्रॉप कर दूंगा।’ 
तिवारी जी का हाथ वहीं-का-वहीं थम गया था; लेकिन ‘बहू जी’ ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा था, ‘कोई बात नहीं पण्डित जी, पैसे रख लीजिए। जाने वहाँ कैसी जरूरत पड़ जाये। फिर आपको लौटना भी तो होगा।’
तिवारी जी का हाथ, जो ठिठक कर उनकी जेब पर जमा हुआ था, फिर हरकत में आ गया था, मानो कोई फ़िल्म अचानक रुकने के बाद झटके से दोबारा चल पड़े। उन्होंने अपना सामान इकट्ठा किया था और विकी के साथ उसकी नयी ओपल गाड़ी में जा बैठे थे। 
सारा रास्ता विकी उनसे बड़े दिलचस्प सवाल पूछता आया था; मसलन, जनेऊ क्यों पहना जाता है, चुटिया रखना क्यों ज़रूरी है, आदि-आदि और तिवारी जी बड़ी गम्भीरता से उसे इस सारे पुराने धार्मिक कर्म-काण्ड की आधुनिक व्याख्याएँ करके चमत्कृत करते रहे थे। नतीजा यह हुआ था कि जब वे बंसल साहब के मकान के सामने विकी की कार से उतरे थे तो उन्होंने अगले इतवार को ‘बिस्तार से’ ये सारी बातें समझाने का वादा करते हुए उसे सेठ बद्री प्रसाद के घर आने के लिए कह दिया था। 

No comments:

Post a Comment