Thursday, September 4, 2014

हिचकी

क़िस्त - 3



तीन

ऊपर बिन्दु टीवी पर कोई चालू-सा धारावाहिक देख रही थी, जिसे किसी भी समय, कहीं से भी देखना शुरू किया जा सकता था और किसी भी समय, कहीं भी बन्द किया जा सकता था। यह टीवी नन्दू जी ने, मीडियम साइज़ के अपने फ्रिज के साथ, शादी करने के साल भर बाद ख़रीदा था, जब एक ओर दिल्ली के जानलेवा ख़र्चों ने उन्हें यह स्वीकार करने पर विवश कर दिया था कि घर-गिरस्ती को ठीक ढंग से चलाने के लिए पति के साथ पत्नी का भी काम करना बहुत ज़रूरी है। और दूसरी ओर, दिल्ली के भाग-दौड़-भरे जीवन और सीमित आय में घर की चूलें बैठाने के लिए सब्ज़ी ख़रीदने से ले कर खाना बनाने की पुरानी पद्धति बहुत काम नहीं आने वाली। 
     गर्मियों में तीन दिन तक लगातार दूध ख़राब होता रहा था और खाना तो अक्सर ताज़ा ही बनाना पड़ता था और केवल उतना, जितना एक बार में पूरे-का-पूरा ख़त्म किया जा सके। इसलिए जब पत्रकारों की माँग पर बैठाये गये आयोग ने आश्चर्यजनक रूप से वेतन वृद्धि की सिफ़ारिश की थी और उसे पूर्व प्रभावी ढंग से लागू किया था तो नन्दू जी ने इकट्ठा हाथ आयी राशि से सबसे पहले फ़्रिज लेने का फ़ैसला किया था। लेकिन जब वे और बिन्दु उनके एक पत्रकार-मित्र को साथ ले कर मित्र की परिचित दुकान पर पहुँचे थे तो नन्दू जी की नज़र सामने रखे टीवी सेटों की क़तार पर पड़ी थी, जिनमें हर सेट पर उन्हीं दिनों खेला जा रहा भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच आ रहा था। 
मैच में खिलाडि़यों को बल्लेबाज़ी करते देख कर अचानक उनके अन्त:स्तल के किसी गहरे कोने में छिपा हुआ क्रिकेट-प्रेम, पुराने विस्मृत प्रेम की तरह एकबारगी सतह पर आ गया था। उन्हें याद आया था कि पार्टी के क़रीब आने से पहले वे क्रिकेट को ले कर कितने पागल रहा करते थे। यह ठीक है कि उनके मध्यवर्गीय ग्रामीण परिवेश में उन्हें क़ायदे से क्रिकेट खेलने का मौक़ा कभी नहीं मिला था। न तो मँहगा बल्ला ख़रीदने के पैसे जुटे थे और न उनके इण्टर कॉलेज में खेलों की इतनी सुविधा ही थी। अलबत्ता, दिल की हसरत को वे और उनके साथी-संगी कैनवस बॉल क्रिकेट खेल कर पूरा कर लिया करते थे, जिसमें न मँहगे गेंद-बल्ले की दरकार थी, न पैड और विकेटों की और जिसके लिए ग्यारह-ग्यारह खिलाडि़यों का होना भी ज़रूरी नहीं था। 
हाँ, जब वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाख़िल हुए थे तो बी.ए. के पहले साल में उन्होंने क्रिकेट के इस पुराने शौक़ को पूरा करने की ठानी थी, मगर वहाँ पहले से कुछ ऐसे ख़ुर्रांट बन्दे जमे हुए थे, जो या तो पैसों से इतने मज़बूत थे कि क्रिकेट के कोच को उँगली पर नचा सकें या फिर इण्टर तक ऐसी महारत हासिल कर चुके थे, जो उन्हें टीम में जगह दिलाने के लिए काफ़ी थी, और जैसी महारत जसरा के महामना मदन मोहन मालवीय इण्टर कॉलेज में नन्दू जी या उनके साथियों को कभी हासिल नहीं हो सकती थी। 
     नन्दू जी ने अन्य ढेर सारी ख़्वाहिशों के साथ इसे भी दिल के किसी कोने में दफ़्न कर लिया था और धीरे-धीरे यह भी सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के उस इरादे की खाद बन गयी, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के माहौल में विषमता के अनगिनत पहलुओं से साबक़ा पड़ने पर नन्दू जी के मन-मस्तिष्क में कुलबुलाने लगी थी और जो उन्हें अन्ततः पार्टी के छात्र संगठन की ओर खींच ले गयी। 
यह भी दिलचस्प है कि जब शुरू-शुरू में उनके वामपन्थी छात्र साथियों ने क्रिकेट को उपनिवेशवादी खेल और साम्राज्यवादी उपभोक्तावाद का वाहक क़रार दिया था और नन्दू जी के क्रिकेट-प्रेम का मज़ाक उड़ाया था तो नन्दू जी ने, जिन्होंने उन्हीं दिनों एक भारी-भरकम लघु पत्रिका में डॉ0 राम विलास शर्मा का लम्बा साक्षात्कार पढ़ा था, अपने साथियों को फ़ौरन यह कहते हुए चुप करा दिया था कि, ‘कॉमरेड, क्रिकेट तो डॉ0 राम विलास शर्मा का पसन्दीदा खेल है। क्या उनके मार्क्सवादी होने में आप सबको शक है ?’
 
     यही कारण था कि नन्दू जी ने जब फ्रिज पसन्द कर लिया था और पाया था कि उनके पास कुछ पैसे बच रहे हैं और दुकानदार उनके पत्रकार-मित्र ही से नहीं, उनसे भी प्रभावित हो चुका है तो उन्होंने कुछ रक़म की उधारी करते हुए फ़्रिज के साथ टीवी भी ख़रीद लिया था। बिन्दु को उन्होंने समझाया था कि टीवी महज़ मनोरंजन का ही नहीं, सूचना और जानकारी का भी स्रोत है और पत्रकार होने के नाते उनके लिए उत्पादन का साधन है और कलम-काग़ज़ जितना ही ज़रूरी है। यह बात अलग है कि वे दोनों पति-पत्नी जितना समय ख़बरें देखने में लगाते, उससे कई गुना क्रिकेट मैच या फिर धारावाहिक देखने में। नन्दू जी बेरोक-टोक और बिन्दु तब जब नन्दूजी घर पर न होते।
नन्दू जी के पहुँचते ही बिन्दु ने टीवी को फ़ौरन बन्द कर दिया था, क्योंकि अव्वल तो उसे नन्दू जी से धारावाहिकों के कुप्रभाव पर इतने प्रवचन सुनने पड़े थे कि वह उन्हें अब आगे कोई मौक़ा देने को तैयार नहीं थी; दूसरे, अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी के इन ढाई-तीन वर्षों के दौरान वह समझ गयी थी कि अपने तमाम मार्क्सवाद के बाद भी नन्दू जी कहीं अन्दर से अपने विवाहित जीवन में सबल पक्ष की भूमिका निभाने के क़ायल थे और उनके तईं स्त्री-स्वतन्त्रता की एक अदृश्य-सी सीमा थी, जिसे तय करने का अधिकार भी उन्हीं के पास था और जिसे पार करना शीत-युद्ध की-सी स्थिति पैदा कर सकता था। अपनी बेहतर वैचारिक समझ के चलते वे ही अक्सर तय करते कि  टीवी पर क्या देखना चाहिए, क्या नहीं।
बिन्दु ने नन्दू जी के हाथ से हेल्मेट ले कर कोने में रखी तिपाई पर टिकाया था और फिर चाय बनाने चली गयी थी। नन्दू जी ने दिन भर की थकान को कपड़ों के साथ उतार कर लुंगी-कुर्ता पहना था और आराम से बाहर के कमरे में दीवान पर पसर गये थे। यह बाहर का कमरा, जिसे नन्दू जी ड्रॉइंग-रूम कहते थे, दिल्ली के हज़ारों दो कमरे वाले फ़्लैटों की तरह एक मल्टी-पर्पज़ कमरा था, जो बैठक का भी काम देता था, खाने के कमरे का भी और कभी-कभार आये-गये को ठहराने का भी। जगह और जेब की तंगी के सबब से नन्दू जी ने सोफ़ा और डाइनिंग टेबल लाने का ख़याल छोड़ दिया था और कमरे को आधे देसी और आधे आधुनिक ढंग से सजाया था। 
दीवान के साथ वे चार मूढ़े और एक सेंटर टेबल ले आये थे। दीवान उनके और उनके मेहमानों के बैठने के काम भी आता था और कभी-कभार जब उनका बड़ा भाई, जो ओखला की एक फ़ैक्टरी की सुपरवाइज़री के साथ-साथ  फ़ैक्टरी में ही बने एक मन्दिर में पुजारी बन कर परम्परागत पुरोहिताई के साथ-साथ थोड़ी-बहुत झाड़-फूंक का काम भी करता था, उनसे मिलने आता और रात को रुक जाता तो पलँग की ज़रूरत भी पूरी करता। सेंटर टेबल खाने की मेज़ का भी काम करती और मेहमानों को चाय वग़ैरह पिलाने का भी। एक कोने में उन्होंने छोटी-सी मेज़ पर टीवी रख दिया था और दीवार में बनी खुली अलमारी में किताबें और पत्रिकाएँ सजा दी थीं। 
पत्रिकाओं में ज़्यादातर पार्टी के मुखपत्र और उसके सांस्कृतिक संगठन से यदा-कदा निकलने वाली पत्रिका के अंक थे और किताबों में पार्टी के ज़माने का मार्क्सवादी साहित्य, हालाँकि अब धीरे-धीरे इनमें दिल्ली और भोपाल से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिकाएँ और देशी-विदेशी लेखकों की चर्चित कृतियाँ और उनके अनुवाद बढ़ते जा रहे थे। 
इसी अलमारी में किताबों और पत्रिकाओं के बीच जगह बना कर सजावट का सामान भी रख दिया गया था, जो किताबों ही की तरह नन्दू जी की पुरानी और नयी अभिरुचियों का मेल प्रदर्शित करता था। मार्क्स के बस्ट के साथ गणेश की एक प्रतिमा भी रखी हुई थी और शिल्प मेले से ख़रीदे हुए विभिन्न भारतीय प्रान्तों के हस्तकला के नमूने भी। 
     दिल्ली आने के बाद से नन्दू जी धीरे-धीरे अपनी रुचियों को अन्य पत्रकार साथियों और साहित्यिक-सांस्कृतिक बिरादरी के लोगों के अनुरूप बनाने में जुट गये थे और जहाँ उन्हें सजावट की कोई नयी चीज़ या ढंग नज़र आता और उनके साधनों के भीतर होता, वे उसे अपने भण्डार में शामिल कर लेते। यों, उनकी बैठक भिन्न-भिन्न रुचियों के एक अजायबघर सरीखी हो गयी थी। ग़नीमत यही थी कि जगह की कमी ने उसके अजायबघरू चरित्र को बहुत नुमायाँ नहीं होने दिया था। 
अब घर के साज़-सामान की सूची में नन्दू जी ने प्राथमिकता पर डाइनिंग टेबल और सोफ़े को रखा हुआ था और वे इन्तज़ार कर रहे थे कि कब दक्षिण दिल्ली या कम-से-कम नदी की इसी तरफ़ पटपड़गंज के किसी उम्दा फ़्लैट में जायें और अपने ड्रॉइंग-रूम को वैसे सजा सकें जैसे सगुन राजगढि़या या फिर चर्चित युवा कवि-कहानीकार आदित्य प्रकाश ने अपने ड्रॉइंग-रूमों को सजा रखा था। 

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