Wednesday, September 10, 2014

हिचकी

किस्त : 10-11


दस

अगले दिन नन्दू जी ठीक साढ़े दस बजे अपने परिचित दुकानदार के शो-रूम पहुँच गये थे। दुकानदार ने सारे काग़ज़ात तैयार किये हुए थे। नन्दू जी ने पहली किस्त का चेक दिया था और शेष किस्तों के पोस्ट-डेटेड चेक सोमवार को देने का वादा कर उन्होंने दुकानदार के साथ माल ढोने वाला टेम्पो मँगवा देने को कहा था। 
     बिन्दु को भी उस रोज़ रिकॉर्डिंग के लिए रेडियो स्टेशन जाना था और वे चाहते थे कि उसके घर से निकलने के पहले वे कम-से-कम वॉशिंग मशीन पहुँचा तो दें। लेकिन टेम्पो वाले आम तौर पर बारह बजे के बाद ही आते थे और दुकानदार से चालान ले कर सामान पहुँचा आते थे। दुकानदार ने कहा भी कि नन्दू जी चिन्ता न करें, वह वॉशिंग मशीन भिजवाने का प्रबन्ध कर देगा।
     लेकिन नन्दू जी अब और किसी सम्भावित विलम्ब का ख़तरा उठाने को तैयार न थे। वे बाज़ार से ढूँढ-ढाँढ कर एक तिनपहिया ट्रॉली ले आये थे। ट्रॉली वाला बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ था, क्योंकि नन्दू जी लक्ष्मी नगर के जिस ब्लॉक में रहते थे, वह थोड़ी ऊँचाई पर था और ट्रॉली वाले वहाँ जाने के कुछ ज़्यादा पैसे माँगते थे।
अन्ततः, जब नन्दू जी ने वॉशिंग मशीन को ट्रॉली पर एहतियात से लदवा दिया था तो सुख की लम्बी साँस ली थी और ख़रामा-ख़रामा स्कूटर चलाते हुए ट्रॉली वाले के साथ हो लिये थे। चढ़ाई पर उन्होंने स्कूटर ट्रॉली के क़रीब करके बायें पैर से ट्रॉली को सहारा देते हुए चढ़ाई पार करायी थी और विजय की लूट के साथ लौटते शूरवीर की तरह घर पहुँचे थे।
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बिन्दु तैयार हो रही थी। नन्दू जी ने सावधानी से वॉशिंग मशीन का डिब्बा सामने वाले कमरे में रखवाया था, ट्रॉली  वाले को पैसे दिये थे और वॉशिंग मशीन के काग़ज़ बिन्दु को थमाते हुए कहा था कि वह उन्हें सँभाल कर रख ले, वे शाम को आ कर उसका ट्रायल लेंगे। फिर वे सरपट सीढि़याँ उतरे थे और अपने तय किये गये कार्यक्रम के अनुसार बारह बजे नॉएडा पहुँच गये।
लेकिन रैली में भाग लेना नन्दू जी के नसीब में नहीं था। ढाई बजे जब वे प्रेस का सारा काम निपटा कर निकले थे तो सड़क पर आते ही उनके स्कूटर के एक्सेलेरेटर का तार टूट गया था। यह प्रेस नॉएडा में सेक्टर छै के काफ़ी अन्दर ऐसे इलाके में था, जहाँ चारों तरफ़ कारख़ाने-ही-कारख़ाने थे। दुकानों के नाम पर कुछ चाय और पान-सिगरेट के ठेले थे या फिर सड़क किनारे तसला लगा कर पंचर बनाने या साइकिल की मरम्मत करने वाले मिस्त्रियों के खोखे। 
     झख मार कर नन्दू जी एक-डेढ़ किलोमीटर तक स्कूटर घसीटते हुए बाज़ार तक आये थे और फिर तब तक स्कूटर मिस्त्री की दुकान के बाहर बेंच पर बैठे रहे थे, जब तक कि उसका चेला साइकिल पर जा कर एक्सेलेरेटर की तार नहीं ले आया था। मिस्त्री को तो किसी रैली में जाना नहीं था और फिर महज़ एक तार बदलने के मेहनताने में उसे दस-पाँच रुपये से ज़्यादा मिलने न थे, इसलिए उसने दूसरे काम करते हुए परम निश्चिन्त भाव से नन्दू जी का स्कूटर ठीक किया था।
     यह सब होते-हवाते चार बज गये थे और नन्दू जी का रैली में जाने का सारा उत्साह मर चुका था। ऐसा नहीं था कि वे रैली में जाने के लिए विशेष रूप से इच्छुक थे। इधर के दिनों में उन्हें बराबर यह महसूस होता था कि खुले तौर पर बाहर आने के बाद भी पार्टी को भूमिगत संघर्ष की लीक थामे रखनी चाहिए थी और इतनी जल्दी संसदीय चुनाव के रास्ते पर चलने का फ़ैसला नहीं करना चाहिए था। इसकी बजाय अगर पार्टी ने अपने साप्ताहिक पत्र को नियमित ढंग से प्रकाशित करने और अपने मुख पत्र को आम लोगों के और क़रीब ले जाने पर ज़ोर दिया होता तो आन्दोलन को व्यापक बनाने की ज़्यादा गुंजाइश होती। 
रैलियों के बारे में भी नन्दू जी के विचार बदल गये थे। उन्हें लगता था कि दिल्ली जैसी राजधानी में झण्डे-बैनर-पताका थामे या फिर हँसिये-बल्लम-लाठियाँ उठाये, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसान मर्द-औरतें एक कौतुक-भरा दृश्य बन कर रह जाते हैं, वैसा ही जैसा एक भिन्न स्तर पर 26 जनवरी की परेड में आयी लोक-कलाकारों की टोलियाँ प्रस्तुत करती हैं। 
     इन रैलियों से सरकार के कान पर जूँ भी नहीं रेंगती और रैलियों में आये लोग भी पहला मौक़ा पाते ही लाल क़िले के सामने वाले फ़ुटपाथिया बाज़ार में जाकिट, जूते, सफ़री बैग, ट्रांसिस्टर रेडियो और ऐसा ही सस्ता और डुप्लीकेट सामान ख़रीदने निकल जाते हैं। मलगजे पाजामों-कुर्तों पर ऐक्रिलिक या नायलॉन के विंड चीटर या जर्किनें पहने कॉमरेड एक अजीब-सा दृश्य उपस्थित करते। 
     नन्दू जी को लगता था कि गाँव-देहात से आये इन साथियों के मन में दरअसल वह सब हासिल करने की ललक है, जिसे वे टी.वी. या अख़बारों के विज्ञापनों में शोषक वर्ग के लोगों को पहनते-ओढ़ते या इस्तेमाल करते देखते हैं। उनके ख़याल में पार्टी को एक सांस्कृतिक अभियान भी चलाना चाहिए ताकि संघर्ष के गर्भ से जन्म लेने वाला नया इन्सान सचमुच नये इन्सान जैसा लगे, पुराने शोषक वर्गों की भौंडी नक़ल नहीं। एक बार जब उन्होंने ऐसी ही कुछ बातें पार्टी ऑफ़िस में कही थीं तो कुछ नये साथियों ने उनकी अच्छी ख़बर ली थी।
‘कॉमरेड, हमें शोषक वर्गों के पहनावे-ओढ़ावे से नहीं, उनके उत्पीड़न और दमन से नफ़रत है,’ शहनवाज़ नामक एक युवा साथी ने कहा था, जो साल भर से नेहरू प्लेस की झुग्गी-झोंपड़ी कॉलोनी में रहते हुए वहीं पार्टी का काम कर रहा था। ‘किसान-मज़दूरों के हक़ छीनने वाला चाहे कुर्ता-धोती पहने या जीन्स-जैकेट, हमारे लिए बराबर है। हमारे लिए मोटर साइकिल एक वाहन है, टी.वी. एक यन्त्र और उनके लिए पद-प्रतिष्ठा का साधन। ट्रांसिस्टर हो या घड़ी या मोटर साइकिल, ये सब अगर हमारी ज़रूरतों में शामिल हैं तो इन्हें हासिल करने में कोई बुराई नहीं। बुराई कर्महीन उपभोग में है।’
     ‘यह भी देखिए कॉमरेड,’ देवाशीष ने कहा था, ‘कि हमारी तो लड़ाई ही इस बात के लिए है कि जीवन की सारी अच्छी चीज़ें सबको मिलें। हमारे किसान-मज़दूर भाई अगर मँहगी घड़ी, रेडियो और कपड़ा नहीं ख़रीद पाते तो सस्ता सामान ही ख़रीद लेते हैं। आख़िर मार्क्स और एंगेल्स भी सूट पहनते और टाई लगाते थे। यह ठीक है कि वे उतने उम्दा नहीं होते थे, जितने विलायत के बड़े पूँजीपतियों और सामन्तों के। आरा का ठाकुर सूबेदार सिंह भी कुर्ता-धोती पहनता है और उसका हलवाहा जगदीश महतो भी। तो क्या इस हिसाब से दोनों बराबर हैं ? आप भी जानते हैं कि अगर सूबेदार सिंह के गुज़रते समय जगदीश महतो खटिया से उठ कर जुहार न करे तो उसका कुर्ता-धोती भी उसकी खाल नहीं बचा पायेगा। लड़ाई वाजिब मज़दूरी की भी है, साथी,  और वाजिब सम्मान की भी। इसे समझिए।’
     ‘दिल्ली आ कर आपका नजरिया कुछ बदली हो गया लगता है, कॉमरेड,’ नालन्दा के पुराने साथी रामेश्वर राम ने कहा था, ‘पटना में तो आप कुछ औरे बिचार रखते थे।’
     नन्दू जी को कोई जवाब नहीं सूझा था। लेकिन वे पार्टी कॉमरेडों से सहमत नहीं हो पाये थे। उनका ख़याल था कि साथी लोग चीज़ों का अनावश्यक सरलीकरण कर रहे हैं। धीरे-धीरे उनका पार्टी ऑफ़िस जाना कम हो गया था। तो भी, पुराने सम्बन्धों की वजह से उन्होंने रैली में भाग लेने का निश्चय किया था। मगर स्कूटर ने ही धोखा दे दिया था और तब तक तो रैली जाने कहाँ-की-कहाँ पहुँच चुकी होगी। इसी उधेड़-बुन में नन्दू जी घर पहुँचे थे और बाहर के कमरे में दीवान पर ढेर हो गये थे। उनकी नींद तब खुली थी, जब बिन्दु ने रेडियो स्टेशन से लौट कर साढ़े छै बजे उन्हें जगाया था।

ग्यारह

तुम रैली में गये थे ?’
     जितनी देर में नन्दू जी मुँह-हाथ धो कर चैतन्य हुए थे, बिन्दु चाय बना लायी थी और उसने चाय का मग उन्हें देते हुए पूछा था।
     ‘कहाँ जा पाया ? प्रेस से निकलते ही स्कूटर धोखा दे गया। आस-पास कोई मिस्त्री नहीं था। बाज़ार तक घसीट कर लाना पड़ा। बनवाते-बनवाते चार-सवा चार बज गये थे,’ उन्होंने बिन्दु को बताया था। फिर सिर झटक कर मानो उस प्रसंग को किनारे करते हुए वे उठे थे। ‘ड्रम में पानी तो भरा ही है,’ उन्होंने कहा था, ‘तुम कपड़े निकालो, मैं पैकिंग खोल कर वॉशिंग मशीन लगाता हूँ, इसे चला कर तो देखें।’
नन्दू जी ने पतलून उतार कर लुंगी पहनी थी, वॉशिंग मशीन की पैकिंग खोल कर उसे नीचे लगे पहियों पर लुढ़का कर बाथरूम के बाहर रखा था और ड्रम से बाल्टी भर-भर कर वॉशिंग मशीन में पानी डाला था। बिन्दु इस बीच मैले कपड़े इकट्ठा कर लायी थी। नन्दू जी ने वॉशिंग मशीन के साथ मिली हिदायतों की पुस्तिका पढ़-पढ़ कर कपड़े धोये थे। 
     कपड़े धोने के साथ-साथ वे बिन्दु को हर चीज़ बड़े विस्तार से समझाते रहे थे ताकि आगे से वह भी वॉशिंग मशीन चला सके। उन्हें अफ़सोस हुआ था कि वॉशिंग मशीन लाते समय वे तीन-चार मीटर रबर की पाइप भी क्यों नहीं ख़रीद लाये। बार-बार बाल्टी से वॉशिंग मशीन भरने में कष्ट तो न होता। वैसे भी उन्होंने तय कर रखा था कि वे वॉशिंग मशीन तभी इस्तेमाल किया करेंगे जब मकान मालिक बंसल जी मोटर चालू करते थे। 
आध घण्टे बाद, जब कपड़े धुल गये थे और बिन्दु उन्हें अलगनी पर डाल रही थी, नन्दू जी ने वॉशिंग मशीन को सूखे कपड़े से पोंछ कर प्लास्टिक के कवर से ढँक दिया था। उन्हें उपलब्धि का कुछ वैसा ही एहसास हुआ था जैसा समकालीन लोकमत में बिहार के किसी गाँव से भेजी गयी टिप्पणी को लिख कर होता था। प्रसन्न वदन वे दीवान पर जा बैठे थे और उन्होंने टीवी चालू कर दिया था। 
     प्रसन्नता का यह भाव सुबह उठ कर दफ़्तर के लिए रवाना होने तक बना रहा था।
लेकिन अगले दिन की घटनाओं ने प्रसन्नता के इस भाव को एकदम तिरोहित कर दिया था। दफ़्तर पहुँचते ही उन्हें पता चला था कि रमा जी पिछले दिन आयी ही नहीं थीं। उनके घर फ़ोन करने पर मालूम हुआ था कि वे कांग्रेस के महिला संगठन की मंगोलपुरी शाखा के कार्यक्रम में गयी हुई हैं और कब आयेंगी, यह बता कर नहीं गयीं। यह ख़बर पाते ही नन्दू जी का माथा ठनका था। उन्हें लगा था कि अभी रमा जी से उनका पीछा नहीं छूटने वाला। और उनका यह अनुमान सही निकला था।
     अभी उन्होंने व्यवस्थित हो कर मुश्किल से एक नयी पाण्डुलिपि के पहले अध्याय की प्रेस कॉपी तैयार की थी कि रागिनी ने इंटरकॉम पर उन्हें कहा था कि हरीश अग्रवाल अभी-अभी दफ़्तर आया है और उसने उन्हें अपने कैबिन में बुलाया है। 
     नन्दू जी थोड़ा झल्लाये थे, क्योंकि शुरू के दिनों के विपरीत, जब हरीश अग्रवाल अक्सर उनकी मेज़ पर चला आता, हाल के दिनों में उसने नन्दू जी को अपने कैबिन में बुलाना शुरू कर दिया था और उनकी मेज़ पर तभी आता था, जब उसे टोह लेनी होती कि वे काम कर रहे हैं या नहीं। 
     एक दिन जब वह ऐसे ही अचानक चला आया था, वे फ़ोन पर फ़रहान अख़्तर से बात कर रहे थे। साल-डेढ़ साल के बाद भी उन्हें अपने अख़बार की तरफ़ अपनी बक़ाया रकम का भुगतान नहीं मिला था और वे फ़रहान से उस सिलसिले में कुछ करने के लिए ज़ोर दे रहे थे। 
     उस समय तो हरीश अग्रवाल ने कुछ नहीं कहा था, लेकिन दो दिन बाद उसने रागिनी शर्मा को अपने कैबिन में बुला कर एक रजिस्टर देते हुए कहा था कि वह इस रजिस्टर में दफ़्तर से किये जा रहे सभी फ़ोन नम्बर लिख लिया करे। नन्दू जी उस समय हरीश अग्रवाल के कैबिन ही में बैठे हुए थे।
     ‘दरअसल, दफ़्तर से बहुत सारे प्राइवेट फ़ोन भी किये जाते हैं,’ हरीश अग्रवाल ने नन्दू जी की सवालिया नज़रों के जवाब में सफ़ाई देने के अन्दाज़ में कहा था, ‘पिछले महीने टेलिफ़ोन का बहुत ज़्यादा बिल आ गया था। इस तरह हिसाब रहेगा कि टेलिफ़ोन वालों ने सही बिल दिया है या नहीं।’
     नन्दू जी इशारा समझ गये थे, लेकिन उन्हें हरीश अग्रवाल के छोटेपन पर बड़ा क्रोध आया था, क्योंकि जिन कर्मचारियों से हरीश अग्रवाल को काम रहता था, मसलन सेल्स मैनेजर सतीश कुमार, वे चाहे जितनी बार निजी काम से फ़ोन करते, वह कुछ न कहता।
नन्दू जी ने पाण्डुलिपि एक किनारे की थी और हरीश अग्रवाल के कैबिन की ओर चल दिये थे। हरीश अग्रवाल फ़ोन पर काग़ज़ वाले से बात कर रहा था। नन्दू जी को देख कर उसने फ़ोन पर ‘एक मिनट’ कहा, फिर नन्दू जी की ओर मुड़ कर बोला, ‘कुछ देर पहले रमा जी का फ़ोन आया था। वे बहुत बिज़ी हैं और उन्हें आज ही लौटना भी है। उन्होंने कहा है कि डिज़ाइन तैयार हो गया है। पहले उनका इरादा इधर आने का था, मगर अब वे नहीं आ पा रही हैं। किसी को उनके घर भेज दिया जाय, वे डिज़ाइन के बारे में समझा देंगी। आप चले जाइए। ऑटो कर लीजिएगा। उन्होंने कहा है, ऑटो का किराया वे दे देंगी।’
     इतना कह कर हरीश अग्रवाल फिर काग़ज़ वाले से बात करने लगा था। नन्दू जी ने अपनी मेज़ पर आ कर बिखरे हुए सामान को ठीक-ठिकाने रखा था और रमा जी के घर जाने के इरादे से बाहर निकले थे। 
बाहर गली में चहल-पहल बढ़ गयी थी। आम तौर पर मोटर मरम्मत करने वाले मिस्त्री नौ बजे तक आ जाते थे, लेकिन कारों-स्कूटरों की रँगाई और कम्प्यूटरों या फ़ोटोकॉपी की मशीनों के मेकैनिक ग्यारह बजे तक दुकानें खोलते थे और देखते-देखते गली तरह-तरह की आवाज़ों से गूँजने लगती थी, जिनमें मिस्त्रियों के हँसी-मज़ाक और गालियों की ध्वनियाँ अलग सुनायी देतीं। 
     गली से हो कर नन्दू जी दरियागंज की मुख्य सड़क पर आये तो एक और ही क़िस्म का शोर वहाँ बरपा था। रिक्शों-स्कूटरों-कारों-बसों की अनवरत आवा-जाही का कान-फाड़ू शोर। समय बारह से ऊपर हो चुका था और शोर अपने चरम पर था। नन्दू जी ने ऑटो रिक्शा की तलाश शुरू की। 
     मगर दोपहर के वक़्त ख़ाली ऑटो रिक्शा मिलना वैसे भी मुश्किल हुआ करता है। जो दो-एक ऑटो रिक्शा वाले रुके भी, वे मालवीय नगर जाने को तैयार न हुए। आख़िरकार, नन्दू जी ने एक ऑटो वाले को तैयार कर लिया, मगर वह मीटर से जाने को राज़ी न था। अमूमन दरियागंज से मालवीय नगर तक जाने का किराया पच्चीस-तीस रुपये बैठता था, लेकिन ऑटो वाला जाने-आने की बात कहने पर भी अस्सी से नीचे नहीं उतरा था।
     ‘ठीक है,’ नन्दूजी ने कहा था और ऑटो में बैठ गये थे, ‘अब जल्दी से ले चलो।’
     ‘मुझे कौन-सा अपनी जेब से देना है,’ उन्होंने सोचा था।
     ‘वहाँ रुकना तो नहीं पड़ेगा,’ ऑटो वाले ने ऑटो स्टॉर्ट करते हुए पूछा था।
    ‘नहीं-नहीं,’ नन्दू जी ने उसे आश्वस्त किया था, ‘एक ज़रूरी काग़ज़ ले कर फ़ौरन वापस आना है। देर नहीं लगेगी।’
     लेकिन फ़ौरन लौटने की कौन कहे, नन्दू जी को रमाजी के दर्शन करने के लिए ही आध घण्टा उनके फ़्लैट के बाहर बरामदे में इन्तज़ार करना पड़ा था। 
     रमा जी का फ़्लैट मालवीय नगर के उस हिस्से में था, जो कभी काफ़ी शान्त रहा होगा, लेकिन धीरे-धीरे दिल्ली के ऐसे सभी इलाक़ों की तरह, यहाँ भी बाज़ार न केवल रिहाइशी इलाक़ों की तरफ़ बढ़ आया था, बल्कि बाज़ मामलों में तो रिहाइशी इलाक़ों के भीतर छोटे-छोटे द्वीपों सरीखी अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका था।
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रमा जी का फ़्लैट नीचे का था, लेकिन उसकी ऊपर की मंज़िल पर इनफ़ोटेक नाम की किसी कम्पनी का बोर्ड लगा था, जो मल्टी-मीडिया और सूचना-संचार की चकाचौंध-भरी दुनिया में हिन्दुस्तान को शामिल करने के विराट उद्योग पर्व में संलग्न थी। यही वजह थी कि फ़्लैट जिस इमारत में था, उसके लोहे के विशालकाय फाटक के बाहर किसिम-किसिम की मोटर साइकिलों के नये मॉडल खड़े थे और अमरीकी पॉप गायकों जैसे कपड़े पहने युवक-युवतियाँ आते-जाते नज़र आ रहे थे। 
     जीन्स और टी-शर्टों के ऊपर अजीबो-ग़रीब जैकेटें, कन्धों पर अनोखे बैग, विचित्र केश-सज्जा, आँखों पर धूप के चश्मे। एक ऐसा जुलूस, जो मल्टी मीडिया और कम्प्यूटरों की दुनिया की बजाय किसी विज्ञापन एजेंसी के मॉडलों का भ्रम देता था। अंग्रेज़ी लहजे में बोली गयी हिन्दी के बीच अमरीकी लहजे में बोली गयी अंग्रेज़ी के फ़िकरे। इन युवक-युवतियों की चाल-ढाल में एक अजीब क़िस्म का आत्म-विश्वास नज़र आता था।
काफ़ी देर तक नन्दू जी वहीं बरामदे में बैठे इन युवक-युवतियों का आना-जाना देखते रहे। उन्होंने जब रमा जी के फ़्लैट की घण्टी बजायी थी, तो अन्दर से कुण्डावासी वही रामसुचित केसरवानी निकला था।
     ‘बैठिए, बैठिए,’ वह खीसें निपोरते हुए बोला था, ‘मैडम ज़रूरी मिटिन कर रही हैं। अबहिन आती हैं।’ इतना कह कर वह फिर अन्दर अन्तर्धान हो गया था।
     बरामदा अच्छा-ख़ासा था। निश्चय ही रमा जी से मिलने को आने वालों के लिए वेटिंग-रूम के काम आता होगा, क्योंकि उसमें बेंत की चार कुर्सियों और बेंत ही की तिपाई के अलावा पाँच-सात अलग-अलग प्रकार की कुर्सियाँ रखी हुई थीं, जो लगता था कि पुराना फ़र्निचर बेचने वाले के यहाँ से जुटायी गयी हैं। बरामदे की तीन सीढि़याँ उतर कर एक घिरा हुआ लॉन और छोटा-सा बाग़ीचा था। 
जब नन्दू जी को इन्तज़ार करते हुए दस मिनट हो गये थे तो ऑटो वाला आ कर बड़ी रुखाई से बोला था कि वे तो फ़ौरन लौटने की बात कह कर आये थे। नन्दू जी ने किसी तरह उसे समझाया था कि वह धीरज रखे, वे जल्दी ही चलेंगे। लेकिन जब बीस मिनट बीतने पर भी रमा जी बाहर नहीं आयीं तो ऑटो वाले ने नन्दू जी से आ कर कहा कि उन्हें वेटिंग चार्ज देना होगा। 
     नन्दू जी की दिक़्क़त यह थी कि उनकी जेब में ज़्यादा पैसे नहीं थे। उन्हें अफ़सोस हुआ था कि चलते वक़्त उन्होंने प्रकाशन संस्था के एकाउण्टेण्ट से पैसे क्यों नहीं ले लिये; वरना वे ऑटो वाले को चलता कर देते। लेकिन फिर तत्काल ही उन्हें ख़याल आया कि पैसे तो हरीश अग्रवाल ने कहा था कि रमा जी देंगी। उन्होंने ऑटो वाले से कहा था कि वह फ़िकर न करे, उसे रुकने की एवज़ में कुछ अतिरिक्त भाड़ा वे दे देंगे। 
     रमा जी आध घण्टे बाद दो लोगों से बात करते हुए तेज़-तेज़ निकली थीं और उन्होंने डिज़ाइन नन्दू जी को दिया था। डिज़ाइन लगभग वैसा ही था, जैसा शमशाद ने बनाया था, सिर्फ़ बड़थ्वाल जी का चित्र बदल दिया गया था और उसके इर्द-गिर्द की चौड़ी पट्टियों का रंग गहरे नीले की बजाय गहरा हरा कर दिया गया था।
‘हरीश जी नहीं आये ?’ रमा जी ने छूटते ही बड़ी ऊँचाई से पूछा था।
     नन्दू जी ने मिनमिनाते हुए हरीश अग्रवाल की व्यस्तता का एक लचर-सा बहाना बनाया था, जिस पर रमा जी ने, ऐसा लगा था कि, कान भी नहीं दिया था।
     ‘ख़ैर, अब यह डिज़ाइन तैयार है,’ रमा जी ने कहा था, ‘इसे ऐसा ही छापिएगा।’ फिर उन्होंने मुड़ कर रामसुचित को, जो एक आज्ञाकारी भृत्य की तरह उनके पीछे खड़ा था, ड्राइवर को बुलाने के लिए कहा था।
     ‘उससे कहिए,’ उन्होंने आदेश दिया था, ‘जल्दी से गाड़ी लगाये। अभी मुझे कांग्रेस के दफ़्तर जाना है। वहीं से मैं अलीगढ़ चली जाऊँगी, जहाँ शाम को महिला सेल की बैठक है। आप मेरे साथ चलिएगा।’
     फिर वे नन्दू जी से मुख़ातिब हुई थीं, जो ऑटो के किराये के इन्तज़ार में वहीं जमे हुए थे।
    ‘और कुछ ?’ रमा जी ने पूछा था।
    ‘जी,  वो ऑटो,’ नन्दू जी ने कहा था।
    ‘हाँ, हाँ,’ रमा जी ने कहा था, और हाथ में लिया बटुआ खोल कर उन्होंने पचास का नोट नन्दू जी की ओर बढ़ा दिया था।
     ‘जी, ऑटो वाला सौ रुपया माँगता है,’ नन्दू जी ने किसी तरह साहस बटोर कर कहा था और बताया था कि वे आने-जाने का तय करके आये हैं। वे चाहें तो ऑटो वाले से पूछ लें।
     ‘सौ रुपये,’ रमा जी ने तीखे स्वर में आश्चर्य प्रकट किया था और पास खड़े व्यक्ति की ओर नज़रें घुमायी थीं। फिर वे नन्दू जी की ओर मुड़ कर बोली थीं, ‘दरियागंज से यहाँ तक के पच्चीस रुपये होते हैं। बीसियों बार लोग यहाँ से वहाँ गये-आये हैं। कभी फ़रक नहीं पड़ा। आप लोगों ने सोचा होगा, कौन-सा अपनी जेब से देना है। सो, जो ऑटो वाले ने माँगा, आपने दे दिया। आपको आने-जाने का ऑटो नहीं करना चाहिए था। और मीटर से आना चाहिए था। इसी तरह तो देश में भ्रष्टाचार फैलता है।’
     नन्दू जी अपना-सा मुँह ले कर रह गये थे। रमा जी ने और दो-चार बातें देश के चरित्र और उसको सुधारने के बारे में कही थीं, फिर वे साथ खड़े आदमी से कांग्रेस की गिरती हुई साख और उसे उठाने के क़दमों पर बातें करने लगी थीं। तभी रामसुचित ने आ कर बताया था कि गाड़ी लग गयी है। रमा जी तेज़-तेज़ उतरी थीं और कार की ओर चल दी थीं। मगर अभी नन्दू जी को छुट्टी नहीं मिल पायी थी, क्योंकि कार में बैठने से पहले रमा जी ठिठक कर उनकी ओर मुड़ी थीं।
     ‘अरे हाँ,’ उन्होंने हाथ में पकड़े काग़ज़ों में से एक काग़ज़ नन्दू जी की ओर बढ़ाया था, ‘यह डिज़ाइन ठीक करने वाले का बिल है। हरीश जी से कहिएगा कि उसे दे दें।’
नन्दू जी प्रकाशन संस्थान के कार्यालय लौटे तो काफ़ी भन्नाये हुए थे। स्कूटर वाला रास्ते भर भुनभुनाता आया था और सौ रुपये ले कर ही टला था। नन्दू जी का ख़याल था कि अकाउण्टेण्ट उन्हें ऑटो के खाते में ख़र्च किये गये पचास रुपये फ़ौरन दे देगा, लेकिन जब उन्होंने रमा जी के डिज़ाइन का बिल देते हुए अकाउण्टेण्ट से भाड़े की बाबत कहा था तो उसने बिना हरीश अग्रवाल की मंज़ूरी के, पाँच रुपये देने से भी इनकार कर दिया था। लगे हाथ उसने रमा जी के डिज़ाइन के बिल को लौटाते हुए नन्दू जी से यह भी कहा था कि वे इस बिल को हरीश अग्रवाल से दस्तख़त करवा के दें, तभी वह उसे खाते में चढ़ायेगा।
     हरीश अग्रवाल लंच पर घर जा चुका था और रागिनी शर्मा ने नन्दू जी को बताया था कि वह अब सोमवार ही को आयेगा, क्योंकि लंच के बाद उसे जे.एन.यू. जा कर एक सेमिनार में आये आलोचकों, साहित्यकारों और हिन्दी के विभागाध्यक्षों से मिलना था। 
     नन्दू जी ने डिज़ाइन और बिल हरीश अग्रवाल की मेज़ पर रखवा दिया था और अपनी मेज़ पर आ कर घर से लाये टिफ़िन बॉक्स को ले कर पास के ढाबे पर चले गये थे।
     खाना खा कर वे  ढाबे से बाहर आ ही रहे थे कि उन्हें बिहार से आये कुछ पार्टी कार्यकर्ता दिल्ली के युवा फ़िल्मकार शाहिद अन्सारी के साथ आते दिखायी दिये थे।

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