Thursday, June 30, 2011

देशान्तर

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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की उनचासवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४९



मित्रता की सदानीरा - २८


खैर, अब जबकि मैंने पहल की छपाई वगैरा से खुद को अलग करने का फैसला कर लिया था तो रकम का देर से आना भी कोई मानी नहीं रखता था। जब मित्रता ही में बाल आ गया तो रकम की क्या हैसियत। उसके बाद ज्ञान ने फिर शायद शिव कुमार सहाय से कोई बन्दोबस्त कर लिया था, क्योंकि पहल 30 और 31 के अंक सहाय जी के परिचित प्रेस से छपे थे और पहल 31 में तो प्रकाशन सहयोग के तौर पर बालकृष्ण पाण्डे, शिवकुमार सहाय और अशोक त्रिपाठी के नाम गये थे।
मन उन दिनों इतना खट्टा हो गया था कि अगले दो साल तक ज्ञान से पत्र-व्यवहार बिलकुल बन्द रहा। अलबत्ता ज्ञान का दूसरा पत्र आने के बाद मैंने वास्तविक स्थिति जानने के लिए एक दिन अपने दफ्तर में अशोक भौमिक और विनोद कुमार शुक्ल को एक-दूसरे के सामने करा दिया था। गरमा-गरमी इतनी बढ़ गयी थी कि लगा हाथापाई न हो जाये। इससे मुझे एक बात पता चल गयी थी कि इयागो की भूमिका विनोद कुमार शुक्ल ही ने निभायी थी। अशोक बस इतने भर के गुनहगार थे कि जब वे विवेचना वाले कार्यक्रम में जबलपुर या जाने कहां गये थे और मैंने उनसे यह ताकीद की थी कि वे ज्ञान से दो टूक बात करके आयें तो वे महज लीपा-पोती करके चले आये थे, जो उनकी फ़ितरत थी और आज भी है।

चूंकि मन उचट गया था इसलिए मैंने उसे दूसरी तरफ लगाना शुरू किया। बहुत देर अवसाद में ऊभ-चूभ करते रहना मेरी फितरत में वैसे ही नहीं था। सितम्बर अन्त 1986 में जसम का पहला राज्य सम्मेलन इलाहाबाद में होने वाला था और उसकी तैयारी का काम शुरू हो चुका था। मैंने ज्ञान वाले प्रसंग को पीछे धकेल कर आगे की तरफ देखना शुरू किया।

इसके बाद लिखने को बहुत नहीं है। अगले दो वर्ष तक ज्ञान से सम्पर्क लगभग टूटा रहा। बीच-बीच में उसके पत्र आते, जिनमें कवियों द्वारा एक-दूसरे के संग्रहों पर लिखने और साथ में कवियों की दो-दो कविताओं को प्रकाशित करने की बातें होतीं। लेकिन यही वह दौर था जब हिन्दी प्रयोजनमूलक युग में प्रवेश कर रही थी, कविगण आत्म-विभोर, यश लोलुप और उच्चाकांक्षी हो रहे थे। उस विद्वेष के बीज बोये जा रहे थे, जो आज हिन्दी के साहित्यिक क्षेत्र में जगह-जगह व्याप्त है। ज्ञान की इन योजनाओं का कुछ बना हो, इसका मुझे कोई इल्म नहीं है। मुझे इतना मालूम है कि ‘पहल’ के समूचे दौर में जो 1973 से लेकर 2009-10 तक फैला हुआ है, मेरे किसी संग्रह की चर्चा नहीं हुई। कविताएं भी मेरी शायद कविता विशेषांकों ही में छपीं।

फिर पहले कवितांक के दस वर्ष बाद ‘पहल’ के दूसरे कवितांक की योजना बनी। अब तक ‘पहल’ के चार संयुक्त प्रकाशन सहयोगी हो चुके थे। बालकृष्ण उपाध्याय, सहायजी, अशोक त्रिपाठी के साथ राधारमण अग्रवाल का नाम भी जुड़ गया था। जब ज्ञान का पत्र कविताओं के लिए आया तो पहले मेरा मन ही नहीं हुआ कविता भेजने के लिए। लेकिन फिर यह सोच कर कि व्यर्थ के विवाद से क्या फायदा, मैंने कविताएं भेज दी थीं। दिलचस्प बात यह है कि मुझसे छपाई और प्रूफ की अशुद्धियों की शिकायत करने वाले ज्ञानरंजन की नजर इस कवितांक की छपाई और प्रूफ की भयंकर अशुद्धियों पर नहीं पड़ी थी। खैर, इसके बाद पत्र-व्यवहार का क्रम बहुत विरल हो गया था। सन् 1989 से 2006 के बीच ज्ञान के सिर्फ पांच-छह पत्र हैं और शायद इतनी ही मुलाकातें। याद रहने लायक सिर्फ तीन हैं। पहली तो जब अचानक 1996 के पुस्तक मेले में ज्ञान से भेंट हो गयी। यह अकेले-अकेले वाली मुलाकात नहीं थी। बहुत-से लोग थे। मुझे हरजीत की याद है और घास के मैदान में सबके साथ गोला बना कर बैठना भी। उस मुलाकात में भी कुछ पर्देदारी रही होगी, क्योंकि उसके बाद ज्ञान का एक बहुत अच्छा पत्र आया था, जिसमें पहले का-सा खुलूस था।

दूसरी मुलाकात गालिबन 2001 में हुई थी जब मैं अपने सहयोगी इरफान के साथ महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की एक परियोजना के सिलसिले में लेखकों के इण्टरव्यू रिकार्ड करता हुआ उत्तर भारत के अन्य शहरों के साथ-साथ जबलपुर भी गया था। काम-काजी दौरा था और मुलाकात मुख्तसर थी।

लेकिन तीसरी मुलाकात दिलचस्प ही नहीं थी, बल्कि उसमें हास्य से ले कर विद्रूप तक नाना प्रकार के रस और भाव थे.
(अगली किस्त में समाप्य)

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