Monday, June 20, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की चालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४०



मित्रता की सदानीरा - १९


तभी एक दिन कैलाश ने मुझे बुला कर कहा कि ओंकार हिन्दुस्तान जा रहे हैं, कुछ और लोग भी छुट्टी पर हैं, क्या मेरे लिए एक महीना और रूकना सम्भव होगा। मुझे बड़ा मजा आया। कैलाश बहुत कुशल प्रशासक थे और उनका दावा था कि वे एक कार्यक्रम सहायक के साथ पूरा सेक्शन चला सकते हैं और अगर कोई कल वापस जाना चाहता है तो वह चाहे तो आज ही चला जाये। यह बी.बी.सी. के चार वर्षों में मेरी अन्तिम सफलता थी। मैंने कैलाश से कहा, ठीक है, आप कहते हैं तो मैं रूक जाता हूं, लेकिन फिर आप ऐसा करें कि मुझे हफ्ते भर की छुट्टी अभी दे दें, ओंकार के हिन्दुस्तान जाने से पहले मैं अपनी एक मित्र से मिलने जर्मनी जाना चाहता हूं। कैलाश राजी हो गये और मैं कारीन ज्वेकर से मिलने वीसबाडन चला गया।

कारीन से मेरा परिचय कुछ साल पहले गालिबन 1977-78 में हुआ था। उन दिनों मेरे मित्र विजय सोनी जो चित्रकार थे और ग्रोटोवस्की के सिद्धान्तों पर नाटक खेलते थे, मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का एक नाट्य रूपान्तर ले कर इलाहाबाद आये हुए थे। हमने दौड़-भाग करके उत्तरी रेलवे के मनोरंजन क्लब के हाल में प्रदर्शन का इंतज़ाम कर दिया था। मंगलेश और वीरेन उन दिनों इलाहाबाद ही में थे। तभी जिस रोज नाटक का पहला प्रदर्शन था अचानक एक खूबसूरत-सी लम्बी-तगड़ी विदेशी लड़की मेरे दफ्तर में दाखिल हुई। उसने लहंगा पहन रखा था और काफी कुछ जिप्सियों जैसी धज बना रखी थी। उसने अपना नाम बताया और कहा कि वह अश्क जी के नाटकों पर जर्मनी में शोध कर रही है और उनसे मिलना चाहती है। यह कारीन ज्वेकर थी। मैं उसे घर ले गया। जब वह मेरे पिता से बातचीत कर चुकी तो मैंने उससे पूछा कि क्या वह ‘अंधेरे में’ का नाट्य-रूपान्तर देखना चाहेगी? वह तैयार हो गयी। मैं उसे फिर दफ्तर ले आया जहां मंगलेश और वीरेन आनेवाले थे। शाम को हमने नाटक देखा और फिर स्टेशन पर एक ढाबे में खाना खाया। दो-एक दिन ठहर कर कारीन वापस जर्मनी चली गयी।
फिर उसकी चिट्ठी-पत्री आती रही और जब मैं लन्दन गया तो मैंने उसे पत्र लिख कर सूचना दी। फिर उसका पत्र आया और गाहे-बगाहे फोन पर बात होती रही। उसने कई बार वीसबाडेन आने का न्यौता भी दिया, पर जि़न्दगी कुछ ऐसी रही कि मैं चाह कर भी उससे मिलने जा नहीं पाया।

अब जब यह एक हफ्ता अचानक मेरी झोली में आ गिरा तो मैं झटपट कारीन को फोन किया, सारे इन्तजामात किये और वीसबाडन के लिए रवाना हो गया। जर्मनी के उस प्रवास की बड़ी सुखद स्मृतियां मेरे मन में हैं।

कारीन का मकान शायद उसके नाना का था, जिसके पांच कमरे उसने किराये पर चढ़ा रखे थे और बाकी में अपने एक पुरुष मित्र के साथ रहती थी। लन्दन की बनिस्बत वीसबाडन बहुत व्यवस्थित, खुला-खुला और सम्पन्न था। व्यवस्थाप्रियता एक जर्मन विशेषता है शायद, क्योंकि वह हर जगह नजर आती थी। अंग्रेजों के विपरीत जर्मन लोग कुछ खुले और मुखर स्वभाव के थे, लेकिन व्यवस्था-प्रेमी। जिस तरह की फक्कड़ बेतरतीबी मैंने आपने कुछ अंग्रेज परिचितों में, खास कर युवक-युवतियों में और कारीन जैसी ही परिस्थितियों में रहने वालों में, देखी थी, वह यहाँ नदारद थी।

कारीन ने पहले ही दिन मुझे उस रिहाइशगाह का ढंग-ढर्रा समझा दिया था। फोन पर समय बताने का यन्त्र लगा था और पास ही में कापी रखी थी। जो भी फोन करता वह अपना नाम और समय लिख देता। बाद में बिल आने पर सब अपने-अपने उपयोग के हिसाब से पैसे दे देते। यही हाल बिजली-पानी का था। नहाने का क्रम बंधा हुआ था। रसोई घर में सबका सामान अलग रखा रहता। सब कुछ मेरी मां की कहावत -- हिसाब मां-बेटी का बक्शीश लाख टके की -- सरीखा था। मैं कारीन के लिए कुछ उपहारों के साथ शिवाज रीगल ह्विस्की की एक लीटर की बोतल ले गया था। वह उसने सबके साथ बांट कर पी। बल्कि उसी दौरान उसके कुछ मित्र मिलने आये तो उन्हें भी पिलायी।

मुझे अब ठीक-ठीक याद नहीं कि मैं कारीन के साथ कितने दिन रहा था। शायद एक हफ्ता, जिस दौरान वह मुझे अपने माता-पिता से मिलाने लिम्बुर्ग भी ले गयी थी और एक पूरा दिन हमने फ्रैंकफर्ट में हिन्दी विद्वान इन्दु प्रकाश पाण्डे और उनकी पत्नी हाइडी के साथ भी बिताया था। बाकी वक्त कारीन मुझे वीसबाडन घुमाती रही थी।

वीसबाडन पुराना शहर था। ऐसा शहर जिसे ‘स्पा’ कहा जाता था -- अपनी आबे-हवा के सबब से सेहत के लिए मुफीद। बहुत-से रूसी, फ्रान्सीसी लेखक यहाँ आ कर रहे थे और ‘स्पा’ होने के नाते यहाँ जुए के अड्डे और मनोरंजन और सांस्कृतिक दिलचस्पी के साधन भी विकसित हो गये थे। कारीन ने मुझे शहर के बीचों-बीच एक पुराना थिएटर हाल भी दिखाया था, जो दूसरे महायुद्ध के दौरान बहुत क्षतिग्रस्त हो गया था। नगर पालिका ने हर ईंट पर नम्बर लिख कर पुराने नक्शे के मुताबिक उसे हू-ब-हू पहले जैसा बना दिया था।

हिटलर के शासन और उसके बाद दूसरी महायुद्ध में हुई तबाही के बाद ध्वस्त इलाकों को फिर पहले जैसा बनाने का खयाल सिर्फ प्रसिद्ध इमारतों तक सीमित नहीं था। कारीन ने मुझे बीसबाडन में जस्टिशिया चौक भी दिखाया था -- छोटा-सा चौक जिसके चारों तरफ रिहाइशी मकान थे। उसने बताया था कि यह चौक भी पूरी तरह नष्ट हो गया था, लेकिन इसे भी फिर पहले जैसा ही बना कर खड़ा कर दिया गया था।

कुछ दिन बाद फ्रैंकफर्ट में इन्दु प्रकाश पाण्डे के साथ टहलते हुए मैंने इस बात का जिक्र करते हुए उन्हें बताया कि हमारे घर के पास जी.टी. रोड पर शहर की पुरानी फसील पर बने दो मुगलकालीन दरवाजों में से एक जब ढह गया था तो किसी ने उसे दोबारा बनाने की नहीं सोची थी, बल्कि लोग उसके पत्थर उठा ले गये थे, जबकि जर्मनी में इसका उलट देखने को आया था। तब पाण्डे जी ने इसका जो कारण बताया उसने आगे चल कर मुझे इतिहास के बारे में अपना दृष्टिकोण निर्मित करने में बड़ी मदद दी। उन्होंने कहा था कि हिन्दुस्तान में समय की अवधारणा चक्राकार रही है, घटनाएं बार-बार होती हैं, युगों का क्रम बार-बार सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग के फेरे लगाता है। इसलिए संरक्षण पर बल नहीं है। पश्चिम में समय रेखीय है, इसलिए जो घटित हुआ है, उसका अभिलेख महत्वपूर्ण है, उसे संजोया जाना चाहिए।

मैं जो बुनियादी तौर पर अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ा-लिखा और इतिहास के बारे में उसी पश्चिमी दृष्टिकोण से परिचित था, पहली बार एक नयी विचार सरणि के रू-ब-रू हुआ। फिर मैंने खोज-खोज कर इस बारे में और भी मालूमात हासिल की, कौसाम्बी और रोमिला थापर को दोबारा पढ़ा। बहरहाल, वह एक अलग ही कहानी है।

वीसबाडन ही में टहलते हुए एक दिन मुझे कारीन ने एक दुकान दिखायी, जिसमें बिकनेवाला सारा सामान फेंकी गयी चीजों को दोबारा में इस्तेमाल करके बनाया गया था। यह शायद जर्मन लोगों की एक और विशेषता थी, क्योंकि इसके लिए एक पारिभाषिक शब्द भी था -- बैसलिंग। यानी टूटी-फूटी, बेकार और फेंकनेवाली चीजों को दस्तकारी के माध्यम से, और जाहिर है रचनात्मक कौशल से, नयी चीजों में ढाल देना।

पांच-छह दिन देखते-देखते बीत गये और मैं वापस लन्दन के लिए चल दिया। इस बार मैंने रास्ते में थोड़ा परिवर्तन किया और पश्चिमी जर्मनी (जर्मनी तब तक एक नहीं हुआ था) की राजधानी बान हो कर लौटा, जहां जर्मन प्रसारण सेवा में बी.बी.सी. के मेरे पुराने सहकर्मी सुभाष वोहरा थे और कवि विष्णु नागर।

दोनों के साथ मैंने दिन भर गुजारा, डोएचे वेले में बिरादराना भाव से जर्मनी यात्रा पर एक वार्ता रिकार्ड की, कुछ खरीदारी की बान से सटे कोलोन शहर का सुप्रसिद्ध गिरजाघर देखा, जिसका एक छोटा-सा हिस्सा बमबारी में विक्षत हो गया था, पर उसे फिर से पूर्ववत बनाने की बजाय शायद युद्ध के विनाशकारी प्रभाव के स्मृति के तौर पर मामूली ईंटों और अनगढ़ ढंग से मरम्मत करके छोड़ दिया गया था। वहाँ गिरजे के पास ही सुभाष के कहने पर मैंने कोलोनेर वासर -- कोलोन का पानी -- की बोतलों का छोटा-सा डिब्बा लिया। यह वही इत्र था, जिसे हम हिन्दुस्तान में ओ डि कोलोन के नाम से जानते थे और मेरी मां इस्तेमाल किया करती थी।

कोलोन से मैं फिर समुद्र तट की ओर रेलगाड़ी में रवाना हो गया, जहां से चैनल पार कर मुझे डोवर पहुंचना था। रास्ते में इत्तेफाक से मेरी बगल की सीट पर एक जर्मन युवती आ बैठी। सफर कई घण्टों का था, इसलिए उससे बातें शुरू हो गयीं। जब मैंने वीसबाण्डन के थिएटर और जस्टिशिया चौक के पुनर्निर्माण का जिक्र करते हुए प्रशंसा-भरा विस्मय प्रकट किया तो उसकी प्रतिक्रिया बिलकुल अनोखी थी।

क्या आपको नहीं लगता -- उसने सवालिया अन्दाज़ में कहा था -- कि हम जर्मन लोग हिटलर के निजाम, नात्सीवाद, यहूदियों के नरसंहार, दूसरे महायुद्ध, इस सब को ले कर एक भयंकर अपराध-भाव से भरे हुए हैं; जिसकी वजह से हम उन सारी घटनाओं को जैसे सायास भुला देना चाहते हैं। मानो न तो कोई हिटलर हुआ था और न 1932 से 1947 तक की भयंकर घटनाएं। इससे तो अच्छा था उस सबको और अपनी भयावह भूलों को तस्लीम करके उनसे सबक लेना और यों अपने मानस को सच्चे प्रायश्चित से साफ कर लेना। अब तो यह सब पर्दा डालने के प्रयास जैसा लगता है।

कुछ ही वर्ष बाद जब मैंने फ्रांस और जर्मनी में नव नात्सीवाद के उभार और अलजीरियाई तथा दूसरे प्रवासियों के प्रति फ्रांसीसियों और जर्मन नवनात्सी युवकों की नस्ली घृणा की खबरें पढ़ीं तो मुझे बेसाख्ता उस जर्मन युवती की याद हो आयी, जिसकी वैज्ञानिक इतिहास-दृष्टि मुझे बहुत कुछ सिखा गयी थी।
(जारी)

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