Friday, June 24, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की चवालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४४



मित्रता की सदानीरा - २३


दिल्ली को अगर न गिनूं तो लन्दन से लौटने के बाद पहला सफर भोपाल बरास्ता जबलपुर और इटारसी था और यहीं से ज्ञानरंजन के साथ सम्पर्क का तार फिर से जुड़ गया था। यूं मेरे लन्दन प्रवास के दौरान ज्ञान के दो-एक पत्र आये थे और मैंने भी उसे लिखे थे, लेकिन इतनी दूर से खतो-किताबत कायम रखना थोड़ा मुश्किल था। वापस आ कर जब मुझे पता चला था कि मेरे इलाहाबाद पहुंचने की तारीख़ों में ज्ञान इलाहाबाद ही में था तो मुझे थोड़ा अजीब लगा था और मैंने उसे पत्र लिख कर शिकायत भी की थी। यह गालिबन इलाहाबाद की फौरी मुसीबतों से निपटने की योजना बनाने और सिविल लाइन्ज़ वाला दफ्तर खोलने के बाद मई-जून की बात है।

ज्ञान ने चिट्ठी का फौरन जवाब दिया था और जबलपुर आने का न्योता भी। उस तरफ जाने का इरादा मैंने पहले से बना रखा था, क्योंकि लन्दन से रवाना होने से कुछ महीने पहले मुझे इटारसी से एक महिला का व्यक्तिगत पत्र मिला था जो उन्होंने मेरे प्रसारण सुन कर लिखा था। डा. ज्योत्सना जेकब - कि यही उनका नाम था - पेशे से डाक्टर थीं और जैसा कि नाम से ज़ाहिर होता था, धर्मान्तरित ईसाई थीं। उनके पत्र से जहानत और सुरुचि झलकती थी और यह भी अन्दाजा होता था कि वे साहित्य में अच्छी पैठ रखती होंगी। मैंने उस पत्र का जवाब दे दिया था और हमारे बीच चिट्ठी-पत्री का एक सिलसिला शुरू हो गया था। चूंकि उस समय तक सीधी भोपाल जाने वाली रेलगाडि़यां अभी शुरू नहीं हुई थीं, इसलिए इलाहाबाद से भोपाल का रास्ता इटारसी हो कर ही जाता था। लिहाज़ा मैंने सोचा कि ज्ञान से मिल कर इटारसी होता हुआ भोपाल जाऊंगा, रास्ते में डा. ज्योत्सना जेकब से भी मिल लूंगा।

अब इतने बरस बाद मुझे महीना तो याद नहीं, पर ज्ञान के 28 अक्तूबर के पत्र से यह अनुमान होता है कि सितम्बर या अक्तूबर 1984 का महीना रहा होगा। जबलपुर पहुंच कर ज्ञान से मिलने पर यह एहसास बिलकुल नहीं हुआ कि मैं उससे चार-पांच साल के वक्फे के बाद मिल रहा था। उसकी वही पुरानी स्वभाविक गर्मजोशी थी और मुहब्बत जो अक्सर दोस्तियों में सिमेंट का काम करती है। बातें भी तकरीबन वैसी ही हुईं जो काफी दिनों बाद मिल रहे मित्रों में होती हैं। अलबत्ता, इस बार ज्ञान ने मुझसे कहा कि अब जब मैं आ गया हूं तो पहले की तरह ‘पहल’ की छपाई वगैरा का काम मैं संभाल लूं। उन दिनों शिवकुमार सहाय उसकी व्यवस्था करते थे और अकेले होने की वजह से खुद अपने प्रकाशन के काम से उन्हें मुनासिब वक्त और मोहलत नहीं मिलती थी।

ठीक-ठीक यह तो याद नहीं कि किस अंक से मैंने दूसरी बार पहल की छपाई का काम संभाला था, लेकिन फाइल में रखे ‘पहल-25’ के आवरण चित्र की डमी से अन्दाजा होता है कि गालिबन इसी अंक से सिलसिला दोबारा शुरू हुआ था। इस यात्रा की एक याद रखने वाली बात ज्ञान के साथ सदर जा कर कोसा की साडि़यां खरीदना था। मैंने एक दिन सुनयना को कोसा की साड़ी पहने देखा था और उसकी तारीफ की थी, तब ज्ञान ने मुझसे कहा था कि वहाँ कोसा की बहुत अच्छी साडि़यां मिलती हैं और मैं सुलक्षणा के लिए ले जाऊं। एक शाम हम सदर गये थे और चूंकि मैं सफर में था इसलिए साडि़यों के पैसे ज्ञान ही ने दिये थे और कहा था कि हिसाब बाद में हो जायेगा।

ज्ञान से मिलने के बाद मैं जबलपुर से इटारसी के लिए रवाना हुआ। पांच-छै घण्टे का सफ़र था, रात ढल चुकी थी जब रिक्शा मुझे स्टेशन से ले कर मालवीय नगर में डा. ज्योत्सना जेकब के बंगले ’आनन्द भवन’ पर पहुंचा। शायद साढ़े सात-आठ का वक्त था। आनन्द भवन इलाहाबाद के हमारे बंगले जैसा ही बंगला था। चौड़े बरामदे, बड़े-बड़े कमरे और खपरैल की छत वाला -- औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों के बनवाये बंगलों का-सा स्थापत्य था उसका और चारों तरफ बड़ा-सा खुला अहाता। मैंने सामान उतरवा कर दस्तक दी तो अन्दर से एक बूढ़ी महिला ने दरवाजा खोला और बताया कि डा. जेकब टहलने गयी हैं, मैं चाहूं तो बरामदे में इन्तज़ार करूं।

उन दिनों सेलफोन वगैरा नहीं थे। ज्ञान के यहाँ टेलिफोन था और डा. जेकब के यहाँ भी, पर उसके माध्यम से सम्पर्क अनिश्चित था और समय लेने वाला। सो मैंने एकाध दिन पहले पोस्टकार्ड डाल दिया था। वैसे भी, मुझे डा. ज्योत्सना जेकब के बारे में नहीं के बराबर जानकारी थी। न मेरे पास उनका कोई फोटो था। ऊपर से या तो इटारसी की बिजली सप्लाई कम्पनी ढीली-ढाली थी या डा. जेकब की घरेलू व्यवस्था ही ऐसी थी, सारा बंगला अजीब तरीके से अन्धकार में डूबा लगता था। एक अजीब रहस्यमयता-सी पूरी फिजा पर तारी थी।

अब मुझे यह याद नहीं है कि डा. जेकब के आने से पहले या बाद में -- मेरे खयाल में पहले ही, क्योंकि बाद में तो मुझे सोने से पहले अकेला नहीं छोड़ा गया था -- एक सज्जन बरामदे में नमूदार हुए और मेरे पास आ कर बैठ गये थे और इस परिचय के साथ कि वे डा. जेकब के भाई हैं, मुझसे तरह-तरह के सवाल पूछते हुए जिरह-सी करते रहे -- मैं कौन था? कहां से आया था? दा. जेकब को कैसे जानता था ? उनसे मुझे क्या काम था ? डा. जेकब के संरक्षक-नुमा बड़े (या छोटे) भाई से अधिक वे मुझे एक सनकी किस्म के आदमी लगे।

मैंने इलाहाबाद के पुराने ऐंग्लो इण्डियन और इण्डियन क्रिश्चियन परिवारों में इसी तरह के कुछ लोग देखे थे जो 1947 के बाद खुद को चारों तरफ के बदलते माहौल में मिसफिट पा कर सनकी-से हो गये थे। उनकी जड़ें देसी धरती में थीं, जो एक बार फिर फिरंगी प्लावन से मुक्त हो कर खुली हवा में दिखायी देने लगी थी और वह निजाम जिसमें उनका प्रत्यारोपण हुआ था, सूख गया था। वे अधर में थे। कुछ अंग्रेजों के साथ इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया निकल भागे थे, बहुतों ने खुद को नयी परिस्थितियों में ढाल लिया था। कुछ ऐसे थे जो खोये-खोये, न तो पूरी तरह हिन्दुस्तानी थे, न पूरी तरह अंग्रेज। उनकी मरण थी।

बहरहाल, अपनी ‘जिज्ञासाएं’ शान्त करके वे तो चले गये, मैं लगातार एक अस्वस्ति का अनुभव करता हुआ बरामदे में बैठा रहा। मुझे एकाध बार यह भी लगा कि यह मैं किस चक्कर में पड़ गया हूं, क्योंकि ज्योत्सना जेकब के पत्रों से किसी किस्म की रहस्यमयता, या असामान्यता नहीं झलकती थी। दिन का वक़्त होता तो सम्भव है मैं ने अपना सामान उठाया होता और वहां से भग खड़ा होता। पर अब आठ से ऊपर हो चले थे और न तो मुझे रास्तों का कुछ अता-पता था, न गाड़ियों का। डा. जेकब के भाई ने एक पत्र-मित्र से सम्भावित मुलाकात को जान के वबाल में तब्दील कर दिया था। बहरहाल।

थोड़ी देर बाद किसी के आने की पदचाप सुनायी दी। बरामदे के बाहर घिरे अंधेरे से सूती साड़ी में मलबूस, सांवले रंग और देसी नख-शिख की एक नारी आकृति धीरे-धीरे रोशनी में नमूदार हुई। बरामदे की सीढि़यां चढ़ कर वह महिला, जो ग़ालिबन 35-36 बरस की रही होगी, मेरे पास आ पहुंची। मैं तब तक उठ कर खड़ा हो गया था। मैंने अपना परिचय दिया तो उस महिला ने कहा कि डा. जेकब तो बाहर गयी हैं, वे उनकी बहन हैं। उनके चेहरे पर कुछ ऐसा भाव था कि मुझे लगा कि वे मेरे साथ खिलवाड़ कर रही हैं। मैंने क्या जवाब दिया, मुझे याद नहीं, पर इतना तय है कि उस सारी रहस्यमयता, जिरह और चुहलबाजी से मेरे चेहरे पर खीझ जरूर झलकी होगी, क्योंकि जल्दी ही उन्होंने मुझे आश्वस्त करते हुए यह जाहिर कर दिया कि वे ही डा. जेकब हैं। फिर वे मुझे अन्दर के कमरे में ले गयीं, जहां उन्होंने मेरे ठहरने का इन्तज़ाम कर रखा था।

मैं थोड़ा सहज जरूर हो गया था, लेकिन भीतर मुझे वह निश्चिन्तता और सुकून नहीं था, जिसकी मैं उम्मीद करता था। यह तो मुझे अन्दाजा था कि डा. जेकब अविवाहित हैं और पास ही के शायद ईसाई मिशनरियों के ‘निर्मला हस्पताल’ में डाक्टर हैं; उनका बंगला भी उनके पुरखों के ईसाई सम्पर्कों की देन था। पर उनके घर में कुछ अजीब-सा अघरेलूपन था। एक भुतहापन-सा। मुक्तिबोधियन।

बहरहाल, उन्होंने बाथरूम दिखाया जो बंगले के दूसरे खण्ड में पीछे को था, हाथ-मुँह धोने की व्यवस्था की और फिर मेज़ पर खाना लगवाने से पहले मुझे बियर भी पेश की। लेकिन बातें उखड़ी-उखड़ी-सी ही होती रहीं, उनके पत्रों में जो गर्मजोशी झलकती थी, वह कहीं नहीं थी। इसके उलट वह एक पीडि़त, अकेली, उन्मन नारी का वार्तालाप था। बाद की किसी मुलाकात में शायद इतना अजीब और तबियत को उचटाने वाला न लगता, पर पहली ही भेंट में मुझे बेचैन और बेकल कर गया था। अगर साधन और सुविधा होती तो मैं खाना खाने के बाद ही भाग निकलता। ज्योत्सना ने अपने भाई के बारे में भी शिकायत की थी। ऐसा मुझे आभास हुआ था कि वह कुछ करता-धरता नहीं था और घर ज्योत्सना ही चलाती थी। तिस पर भी उस घर में घर जैसी कोई बात नहीं थी। कुछ द्वीप थे जो अपने अकेलेपन में उस बड़े-से बंगले की नीम-अंधेरी रहस्यमयता में खोये हुए थे। पूरा अंधेरा होता तो भी कुछ बचत थी, इस नीम-अंधेरे ने तो उस अमंगल-से, सिनिस्टर तिलिस्म को और गहरा कर दिया था।

खैर, खाना-वाना निपटा और आखिरकार मैं सोने चला गया। सोते वक्त ही मैंने तय कर लिया था कि सुबह होते ही मैं वहाँ से चल दूंगा। सुबह हुई तो मैं सामान बांध कर तैयार हो गया। जाहिर है डा. जेकब को यह उम्मीद नहीं थी कि मैं इस तरह तत्काल वहाँ से रवाना होने पर आमादा हो जाऊंगा। उन्होंने बहुत इसरार किया कि मैं दो-एक दिन ठहर कर जाऊं, वे मुझे आस-पास के इलाके में घुमाने ले चलेंगी, कि उनके पास कार है कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन मैं हठ बांधे था। तब एक और अचरज प्रकट हुआ। डा. जेकब ने दो-तीन कमीजों और दो-तीन पतलूनों के कपड़े मुझे ला कर दिये कि उन्हें वे मेरे लिए लायी थीं। मैंने उनसे कहा कि अभी तो मैं तुरन्त भोपाल जाना चाहूंगा, इन कपड़ों को वे रखें, अगली बार मैं आऊंगा तो ले लूंगा।
हारे हुए स्वर में उन्होंने कहा कि ठीक है, मैं हड़बड़ी न करूं, वे मुझे कार पर भोपाल छोड़ आयेंगी, लेकिन वे कपड़े वे बड़े प्रेम से भेंट-स्वरूप लायी थीं, उन्हें मैं रख लूं। तब इसे समझौते का एक रास्ता बूझ कर मैंने कपड़े अपने बक्से में रख लिये।

नाश्ता करके तकरीबन दस बजे डा. जेकब ने कार निकाली और मुझे बिठा कर भोपाल की लिए चलीं। सफर एक-डेढ़ घण्टे का था और सारा रास्ता वे मुझे उलाहने देती आयीं कि उन्होंने क्या कुछ सोच रखा था, मैंने उनके सारे कार्यक्रम को उलट-पलट दियाजाहिर है डा. जेकब को यह उम्मीद नहीं थी कि मैं इस तरह तत्काल वहाँ से रवाना होने पर आमादा हो जाऊंगा। उन्होंने बहुत इसरार किया कि मैं दो-एक दिन ठहर कर जाऊं, वे मुझे आस-पास के इलाके में घुमाने ले चलेंगी, कि उनके पास कार है कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन मैं हठ बांधे था। बीच-बीच में वे रोती भी रहीं।

आज सोचता हूं कि अगर मैं दिन के वक्त इटारसी पहुंचा होता और मैंने कुछ और समय डा. जेकब के साथ बिताया होता तो शायद ऐसी अप्रिय स्थिति न पैदा हुई होती। लेकिन तब ऐसी विचित्र परिस्थितियों से निपटने की सलाहियत मुझमें नहीं थी। बाद में एक बार जब वे इलाहाबाद आयीं और मुझसे मिलने मेरे घर आयीं तो हम बेहतर ढंग से मिले थे। तब परिवार संयुक्त था, मेरे माता-पिता जीवित थे, सुलक्षणा भी वहीं थी और सबने उनका स्वागत किया था। इसी तरह एक बार मेरे हैदराबाद जाते समय वे मुझसे स्टेशन पर मिलने आयी थीं और साथ में सैंडविच और काफी लायी थीं। गाड़ी कुछ देर इटारसी पर रूकती थी और हमने वहीं बेंच पर बैठ कर बातें की थीं। लेकिन उनसे पहली मुलाकात की स्मृति इतनी गहरी थी कि बाद की सहजता भी उसे धूमिल नहीं कर पायी थी। धीरे-धीरे पत्रों का आना-जाना बन्द हो गया था और बाद में ख़ुद मेरी ज़िन्दगी जिस तरह के तूफ़ानों में घिर गयी थी और मुझे किसी तरह अपने औसान क़ायम करने के लिए जो तगो-दौ करनी पड़ी थी, उसमें ज्योत्सना की खोज-खबर लेना सम्भव ही नहीं रहा था। वे भी यक़ीनन मुझ जैसे अनगढ़ मित्र से निराश ही हुई होंगी, इस में मुझे कोई शक नहीं है। किसी बहिया में बहे जा रहे दो तिनकों की तरह हम अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि लहरों के निर्णय से एक-दूसरे के करीब आये थे और लहरों के ही चलते अलग-अलग हो कर जाने कहां से कहां जा निकले थे।
(जारी)

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