Wednesday, June 15, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की पैंतीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ३५



मित्रता की सदानीरा - १४





ऐसा ही एक और आगमन कवि मित्र पंकज सिंह का हुआ, जो इस बीच फ्रान्स का एक चक्कर लगा आया था और अपनी फ्रान्सीसी महिला-मित्र के साथ भारत-दर्शन पर निकला हुआ था।
पंकज से, अलबत्ता, इलाहाबाद और इलाहाबाद वालों का पुराना परिचय था। पकंज से मेरी पहली मुलाकात मुजफ्फरपुर में हुई थी, जब मैं अपने विवाह से पहले अपने भाई के साथ वहाँ गया था। उसी प्रवास में डा. शुकदेव सिंह से भी मेरा परिचय हुआ था, जो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में आने से पहले उन दिनों लंगट सिंह कालेज में पढ़ा रहे थे।

शुकदेव सिंह आम हिन्दी अध्यापकों से अलग साहित्य-रसिक जीव थे, बल्कि यह कहना ज़्यादा सही होगा कि वे ‘रसिक जीव’ थे; हर तरह का रस उन्हें पसन्द था -- बतरस और कनरस से ले कर सुरा, सुन्दरी और परनिन्दा रस तक। सांवले, गोल-से चेहरे वाले व्यक्ति थे, चेहरे पर माता के दाग़ थे, पर बुरे न लगते; चुभती टिप्पणियां करने में माहिर थे जिस सिफत के बल पर आगे चल कर उन्होंने बहुत-से बनारिसयों को उन्हीं के सिक्कों में भरपूर भुगतान किया। रसिक जीव थे, इसलिए पंकज से परिचित थे, जो दिन भर तंग मोहरी के सफेद पाजामे और अद्धी के नफीस कुर्ते में छैला बना कल्याणी चौक पर घूमता नजर आता।

पंकज से मेरी पट गयी और उस जमाने की एक फोटो मेरे पास अब भी है, जिसमें जाने कौन-सा स्टूडियो था, उसमें पंकज, मैं, दीनेन्दु भारती और सुरेश सुमन फोटो ’हिंचवाने’ की मुद्रा में बैठे नजर आते हैं। बाद में पंकज एक बार अपने मित्र धीरेन्द्र के साथ भी इलाहाबाद आया था। वीरेन और रमेन्द्र इस नाते पंकज से परिचित थे, क्योंकि एक इलाहाबाद-प्रवास में वह उनके होस्टल में उनके बेहद बेतरतीब कमरे की बेतरतीबी में और इजाफा करता हुआ अपनी मेहमानी से उन्हें कृतार्थ कर चुका था। उन्हें ही क्या, कृतार्थ तो उसने समूचे होस्टल को कर दिया था।

यह उन दिनों की बात है जब वीरेन और रमेन्द्र परम फकीराना जि़न्दगी जी रहे थे। वीरेन एम.ए. करने के बाद प्रशासनिक परीक्षाओं में न बैठने की तैयारी कर रहा था। रमेन्द्र एम.ए. पूरा करने की फिराक में था। दिन भर उनके कमरे में धमा-चौकड़ी मची रहती। गांजे का जमाना था, दारू की अपेक्षा वह सस्ता भी था, सो साधु-संगत जमी रहती। ऐसे में मंजन, साबुन और रेज़र या कंघे जैसी रोजमर्राह की दुनियावी जरूरतों की फिक्र किसे थी। लेकिन पंकज हमेशा ही से साफ-सुथरेपन और सलीके का कायल रहा है। चूंकि वह भी उन दिनों फक्कड़ई के दौर से गुजर रहा था, इसलिए दैनन्दिन आवश्यकताओं के जुगाड़ में रहता। अक्सर वह बेहिचक किसी छात्र के कमरे में घुस जाता और कहता ‘तेल होगा’ या ‘रेज़र होगा’। कई बार वह ब्रश हाथ में लिये पेस्ट की फरमाइश कर बैठता। यों वह उस सफर में पूरे गंगानाथ झा छात्रावास का ’पाहुन’ बन गया था।

फिर तो पंकज कई बार इलाहाबाद आया और अक्सर वह मेरे ही घर पर ठहरता। मगर उस यात्रा में वह एलिजाबेथ के साथ वीरेन के यहाँ रुका। शायद उसे खयाल रहा हो कि मेरे परिवार के सब लोग जो उसकी पहली पत्नी पद्माशा से वाकिफ थे और उसे पसंद करते थे और उसे और पंकज को साथ-साथ अपने घर ठहरा चुके थे, अब, जबकि वह पद्माशा से अलग हो गया था, एलिजाबेथ के साथ उसे उसी पुराने भाव से कुबूल न करें। खैर, वह वीरेन के यहाँ ठहरा और चूंकि हम लोग उन दिनों पहल के तेरहवें अंक की तैयारी कर रहे थे, जो कवितांक होना था और जिसकी जिम्मेदारी ज्ञान ने मुझे और वीरेन और मंगलेश को दी थी, सो पूरा वातावरण कवितामय था।

लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि शरारतें नहीं होती थीं। सबसे पहले तो पंकज के विदेश और वह भी फ्रांस से आने को सेलिब्रेट किया गया। फिर कभी वीरेन तो कभी मंगलेश, पंकज से कहता यार, यह सूट तो बहुत बढि़या है और पंकज जब बताता कि उसका कपड़ा नौ सौ रुपए मीटर है तो फट से उन दोनों में से कोई कहना, यह तुम हमें दे दो। सूट और टाई ही नहीं, कलम और दूसरे सामान के साथ भी ऐसा ही हुआ। तभी एक दिन मैं अपनी छत पर था और वीरेन, मंगलेश, पंकज बालकनी में तो पंकज ने एक कविता सुनायी -- फिर सताने आ गये हैं शरद के बादल। आगे एक पंक्ति कुछ ऐसी थी कि हाड़ में हड़कम्प भरने। बस, जब वह यहाँ तक पहुंचा तो टीप लगी -- ‘साइकिलों में पम्प भरने’ -- और हम सब जोरों से हंस दिये और लगे उन्हीं पंक्तियों को दोहराने। पंकज बुरी तरह खीझ गया था और उसने हम सबकी ‘क्लास’ ले डाली। ऊपर से उसने वीरेन और मंगलेश की विदेशी वस्तु-आसक्ति पर भी कुछ जली-कटी सुनायी। लेकिन एक तो पंकज उन दिनों बहुत देर तक रुष्ट और नाराज नहीं रह पाता था, दूसरे उसे एहसास था कि हल्के-फुल्के मज़ाक पर जितना ही वह बिगड़ेगा, उतना ही वह हास्यास्पद लगेगा और उतना ही हम मजा लेंगे, सो जल्दी ही वह फिर नार्मल हो गया था।
खैर साहब, बिहार के ये दो सरस्वती-पुत्र भी आये और चले गये।

ज्ञान उस दौरान कुछ-कुछ वक्फे दे कर इलाहाबाद आता रहा और उसकी हर यात्रा एक उत्सव-सरीखी होती। कभी मेरे, तो कभी वीरेन-मंगलेश के तो कभी बडोला जी के यहाँ महफिलें जमतीं। जैसा मैंने कहा, ज्ञान ने पहल-13 को कविता-विशेषांक घोषित करके उसकी जिम्मेदारी हम तीनों को सौंप दी थी और हम लोगों ने कुछ अहम फैसले किये थे। पहला यह कि यह इधर की रचनात्मकता पर केन्द्रित होगा। दूसरे कविता विशेषांकों की तरह नहीं, जो एकदम बूढ़-पुरनियों से शुरू करके नयों तक आते थे; इसमें नये लोगों को खास जगह दी जायेगी और वह अंक गवाह है कि उदय प्रकाश और अरुण कमल की शुरूआती कविताएं हमने विशेष महत्व दे कर छापी भीं।

दूसरा फैसला यह था कि यथासम्भव इसमें हम अन्य भाषाओं की कविताओं के भी अनुवाद छापेंगे -- खास तौर पर पंजाबी और बांग्ला के। फिर कविताओं के साथ-साथ हम कविता पर वैचारिक टिप्पणियां और उद्धरण भी शामिल करेंगे। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि पहल-13 के पहले भी अनेक कविता-विशेषांक निकले और बाद में भी वर्तमान साहित्य और उद्भावना ने कविता-विशेषांक प्रकाशित किये। खुद ‘पहल’ ने गालिबन 1990 में दूसरा -- और बड़ा कवितांक निकाला, लेकिन पहल-13 आज भी अपनी सामग्री और प्रस्तुति दोनों के लिहाज से एक मिसाल है, महज कविताओं का जमावड़ा नहीं।

मैं उन दिनों एक अजीब-सी दिमागी कशमकश से गुजर रहा था। मैंने एम.ए. करने के बाद साल भर तक ज्ञान की संगत में भरपूर आवारागर्दी की थी, फिर 1967 से प्रकाशन का काम-धाम संभाल लिया था। लेकिन अब लगभग 10-11 वर्ष प्रकाशन में बिताने के बाद मेरा मन उचटने लगा था। वीरेन और मंगलेश के आने से इलाहाबाद में रहना तो मेरे लिए सुखद हो गया था और ज्ञान के जबलपुर जाने से जो भांय-भांय हवा में बस गयी थी, वह कम हो गयी थी, लेकिन अख़बार में लिखने और दूसरी गतिविधियों में हिस्सा लेने के मज़े की तुलना में प्रकाशन का काम बोझ सरीखा जान पड़ता। इसी फेर में मैंने ‘अमृत प्रभात’ के सम्पादकीय विभाग में नौकरी के लिए अर्जी भी दी, लेकिन कोई रास्ता नहीं निकला, क्योंकि या तो वे बहुत सस्ते में आदमी चाहते थे या उनका इरादा मुझे रखने का था ही नहीं। तभी एक दिन मंगलेश ने किसी अख़बार के एक पुराने अंक में छपे विज्ञापन को दिखा कर कहा, ‘तुम बी.बी.सी. में क्यों नहीं आवेदन भेजते।’

मैंने विज्ञापन पढ़ा। बी.बी.सी. को अपने लन्दन स्थित प्रसारण केन्द्र के लिए कार्यक्रम-सहायकों का आवश्यकता थी और उन्होंने अर्जियां मंगायी थीं।

मैं बी.बी.सी. से पहले ही से परिचित था। हमारे ही शहर के ओंकारनाथ श्रीवास्तव बी.बी.सी. में थे और जब हिन्दुस्तान आते, इलाहाबाद जरूर आते। रहने वाले तो वे रायबरेली के थे, लेकिन नाम भर के। उनकी शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई थी और यही एक तरह से उनका शहर था। फिर 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान हम सब बी.बी.सी. लन्दन से रत्नाकार भारती की अद्भुत शैली में उनके चामत्कारिक प्रसारण सुनते रहे थे और जब वे इलाहाबाद आये थे तो हमारे घर भी आये थे। लेकिन जब मैंने ध्यान से विज्ञापन पढ़ा तो वह कुछ हफ्ते पुराना था और अर्जियां भेजने की तारीख़ बीत चुकी थी। जब मैंने मंगलेश का ध्यान इस बात की तरफ दिलाया तो वह बोला, ‘अर्जी भेजने में क्या हर्ज है, क्या पता अभी समय हो।’

लिहाजा मैंने अपने जीवन-परिचय के साथ अर्जी भेज दी कि मुझे मालूम है तारीख़ निकल चुकी है, पर अगर अब भी गुंजाइश हो तो मेरी अर्जी पर विचार कर लिया जाय, वरना इसे किसी भावी अवसर के लिए रिकार्ड में रख लिया जाय।
(जारी)

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