Tuesday, June 7, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की अट्ठाईसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - २८


मित्रता की सदानीरा - ७


चूंकि मैं पहली बार मध्यप्रदेश जा रहा था और मेरे परिचय का दायरा जबलपुर से आगे तक नहीं जाता था, इसलिए ज्ञान ने मुझे भोपाल, इन्दौर और उज्जैन के कुछ मित्रों के नाम-पते लिखवा दिये थे और उन्हें मेरे आने की खबर देते हुए कार्ड भी लिख दिये थे। जबलपुर से मुझे सागर जाना था और वहाँ एक रोज रूक कर उसी शाम भोपाल। मुझे याद है गाड़ी रात के वक्त सागर पहुंची थी। अचानक गाड़ी के बाहर दूर तक फैले रात के अंधेरे में सैकड़ों टिमटिमाती रोशनियां दिखायी दी थीं। ऐसा लगा था कि किसी अन्तरिक्ष यात्रा में हमारा यान अन्तरतारकीय अन्धकार से हो कर किसी तारामण्डल में जा पहुंचा हो। मुझे सागर के भूगोल की जानकारी नहीं थी। यह तो अगली सुबह पता चला कि वह नीम-पहाड़ी जगह है। बहरहाल, वह दृश्य -- एक विशाल कटोरे में जड़ी हुई टिमटिमाती बत्तियां -- मैं आज तक नहीं भूला।

सागर में मैं सिर्फ श्री केदार साथी को जानता था, जो ‘साथी बुक डिपो’ के मालिक थे और अक्सर किताबें खरीदने के सिलसिले में इलाहाबाद आया करते थे। सागर में नन्द दुलारे जी के पहुंचने के बाद से सागर विश्वविद्यालय में एक अच्छा-खासा साहित्यिक माहौल बन गया था और केदार साथी साहित्यिक अभिरुचियों के पुस्तक-विक्रेता थे, सागर की साहित्यिक बिरादरी की ‘गासिपिंग’ की नियमित सूचनाएं अश्क जी को देते थे और हाशिये की सारी गतिविधि में, खास तौर पर जो चटपटे किस्म की होती, बड़ा रस लेते थे। आज तो वैसे माहौल की कल्पना करना भी दुष्कर है, लेकिन तब साहित्यिक बिरादरी में सारे कलह-क्लेश-द्वेष के बाद भी एक रिश्ता बना रहता था। केदार साथी नन्ददुलारे जी के दरबार में उपस्थित रहते और चूंकि वे पुस्तक व्यवसाय के सिलसिले में अक्सर हमारी तरफ़ दौरे पर भी आते तो इलाहाबाद-बनारस-पटना की ख़बरें वहां ले जाते और वहां की प्रतिक्रिया से इलाहाबाद-बनारस-पटना वालों का मनोरंजन-ज्ञानरंजन-मानभंजन (जैसा मौक़े-मुहाल का तक़ाज़ा हो) किया करते. मध्यप्रदेश वैसा घना-घना नहीं बसा था, जैसे उत्तर प्रदेश या बिहार। शहर दूर-दूर थे और उनकी प्रकृतियां और तेवर भी अलग-अलग थे।

बहरहाल, रात मैंने स्टेशन पर काटी और सुबह-सवेरे तैयार हो कर अपना सामान अमानती सामान घर में रखने के बाद मैं सागर देखने निकला। छोटा-सा कस्बा था, विश्वविद्यालय की वजह से वहाँ थोड़ी गहमा-गहमी बढ़ गयी थी। बुन्देलखण्डी मिज़ाज हावी था। मुझे याद है पूरा बाजार घूमने पर सुबह का कलेऊ करने के लिए मुझे पोहे और जलेबी के अलावा और कुछ नहीं मिल पाया था और मुझे उन्हीं से काम चलाना पड़ा था। साथी जी के साथ या उनके निर्देश पर मैं विश्वविद्यालय गया था और कान्तिकुमार जैन, प्रेमशंकर और एकाध और अध्यापकों से मिला था। फिर लौट कर मैं ‘साथी बुक डिपो’ आ गया था, जहां केदार साथी अपनी व्यंग्य-भरी बंकिम मुस्कान होंटों पर सजाये, दायें हाथ की तर्जनी से बायीं हथेली पर रखी खैनी में चूने को मलते हुए आसीन थे।

इससे ज़्यादा की मुझे सागर की कोई याद नहीं है, अलबत्ता यह जानकारी केदार जी ने ही मुझे दी थी कि सागर बीड़ी उद्योग के लिए मशहूर है और फ़िल्म ‘बौबी’ का हिट गीत लिखने वाले बिट्ठलभाई पटेल सागर ही के थे और बीड़ी-किंग के रूप में जाने जाते थे। सागर में खुश-खुश दिन बिता कर जब मैं भोपाल के लिए चलने को हुआ तो पता चला कि शाम को एक्सप्रेस बस मिलेगी, जो तीन घण्टे में भोपाल पहुंचा देगी। मैं जल्दी-जल्दी स्टेशन पहुंचा और अमानती सामान घर से अपना बिस्तरबन्द और अटैची ले कर बाहर आ गया। बस आयी और मैं सामान ऊपर छत पर रखवा कर सवार हो गया। बस तकरीबन एक घण्टा चल चुकी थी जब अचानक मुझे खयाल आया कि मैं वह काली डायरी, जिसमें सारे पते-ठिकाने लिखे हुए थे, हड़बड़ी में अमानती सामान घर के काउण्टर पर ही छोड़ आया था। खैर, कण्डक्टर से कह कर अगले स्टाप पर बस रुकवायी और सामान उतरवाया। फिर दूसरी बस में सामान लाद कर वापस सागर के रेलवे स्टेशन पहुंचा। अभी वही आदमी ड्यूटी पर था। डायरी भी महफूज थी। मैंने राहत की सांस ली। लेकिन इस सब में वक्त बहुत जाया हो गया था। अगली बस नौ बजे आयी और मैं रात के बारह बजे भोपाल के बस अड्डे पर पहुंचा, जो हमीदिया रोड पर था।

ज्ञान ने मुझे भोपाल में राजेश जोशी का पता दिया था और वहीं ठहरने को भी कहा था। आज की बात होती तो मुझे रात के बारह बजे राजेश के घर जा कर उसका दरवाजा खटखटाने में कोई संकोच न होता; लेकिन मैं राजेश के बारे में कुछ नहीं जानता था। मुझे यह भी अब याद नहीं कि ज्ञान ने राजेश के बारे में क्या बताया था। वह क्या करता है, किस हाल में रहता है, अकेला है या परिवार के साथ, कुछ भी तो मुझे मालूम नहीं था। सो, मैंने वहीं बस अड्डे के प्रतीक्षालय में बिस्तरबन्द बिछाया था, अटैची को टांगों के नीचे दबाया था और अधजगी-अधसोई हालत में रात काट दी थी।

आज तो भोपाल जाने कहां-कहां तक फैल गया है, लेकिन 1975 में हालांकि नये भोपाल में न्यू मार्केट, जवाहर चौक और भदभदा रोड पर दुकानें खुल गयी थीं, लेकिन आबादी प्रोफेसर्स कालोनी और चौहत्तर बंगले में ही थी। भदभदा रोड पर अणेकान्त की किताबों की दुकान बुक्स वर्ल्ड के आगे सड़क पर सन्नाटा ही था। ये अरेरा कालोनी, निराला कालोनी, आराधना नगर जैसी नयी बस्तियों का नाम-निशान नहीं था और आवा-जाही के साधन भी विरल थे।

सुबह जब मैं उठा तो छै बजे के क़रीब मैंने एक तांगा किया और उससे मारवाड़ी रोड चलने को कहा जहां 4, मारवाड़ी रोड पर "ताज स्टूडियो" के ऊपर राजेश रहता था। हमीदिया रोड से पुराने भोपाल के गझिन मुहल्लों को चीरती हुई एक लम्बी संकरी सड़क पार करते हुए और चौक के इलाके को पीछे छोड़ते हुए तांगे ने मुझे उस सड़क के छोर पर तिराहे के पास उतार दिया जहां कुछ ही कदम आगे यह मारवाड़ी रोड सुल्तानिया रोड से टकरा कर एक तिराहे की शक्ल में ख़त्म होती थी। बायें को चलें तो बुधवारिया और दायें को चलें तो सदर मंजि़ल और पुस्तक विक्रेताओं के बाजार से होकर आगे हमीदा बानो भोपाली के होटल और भोपाल ताल से होते हुए प्रोफेसर्स कालोनी और नये भोपाल को जाया जा सकता था। तांगे ने मुझे ठीक "ताज स्टूडियो" के सामने उतारा था। बाजार और रिहाइशी मकानों का खिचड़ी इलाका। "ताज स्टूडियो" पर ताला लगा था जो छै बजे सुबू के हिसाब से ऐन मुनासिब था मगर उसके गिर्द-ओ-पेश की फ़िज़ा कुछ-कुछ ऐसी थी कि कि स्टूडियो ’वो जो बेचते थे दवा-ए-दिल वो दुकान अपनी बढ़ा गये’ के अन्दाज़ में बन्द जान पड़ता था और सड़क पर भी आमतौर पर सन्नाटा-सा छाया था। ऊपर को जानेवाली सीढि़यों का दरवाजा भी बन्द था। मैं शशोपंज में सामान वहीं सीढि़यों के दरवाजे के पास रखे खड़ा रहा। ऊपर सन्नाटा छाया हुआ था। मैंने सामान वहीं छोड़ कर सड़क पर एक चक्कर लगाया। धीरे-धीरे सात बज गये। वक्त मुनासिब जान मैंने सीढि़यों के दरवाजे की सांकल खटखटायी। कुछ पल बाद ऊपर एक चेहरा दिखायी दिया। यह राजेश था। उसने पूछा, ‘नीलाभ’ और मेरे हामी भरने पर आ कर सीढि़यों का दरवाज़ा खोला और मैं ऊपर पहुंचा।
(जारी)

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