Thursday, June 16, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की छत्तीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ३६



मित्रता की सदानीरा - १५


इस बीच मुझे कई बार दिल्ली जाना पड़ा। वजह यह थी कि अर्सा पहले मेरे पिता ने दिल्ली के बाहरी इलाके में ज़मीन के दो टुकड़े खरीदे थे। सस्ती का जमाना था और कुछ हजार में वे टुकड़े हमें मिल गये थे। आगे चल कर जब दिल्ली विकास प्राधिकरण बना तो उसने विस्तार के लिए जमीन का अधिग्रहण शुरू किया और फिर जैसा कि होता है सभी लोगों ने मिल कर मुकदमा लड़ा और मुनासिब मुआवजा ले लिया। इसी के साथ एक प्रावधान यह भी था कि ज़मीन का स्वामी यदि चाहे तो विकास प्राधिकरण की दरों पर किसी अधिकृत कालोनी में जमीन लेने का हकदार माना जायेगा। पर तब हमारे यहां किसी को इस प्रावधान का लाभ उठाने की सूझी नहीं; इलाहाबाद में बड़ा-सा बंगला था और वहीं मजे में काम चल रहा था। तभी 1971 में जब अश्क जी कर्नाटक के राज्यपाल और अपने पुराने शुभचिन्तक धर्मवीर जी के यहाँ राजभवन में पांच महीने रहे तो एक दिन उन्होंने इस घटना का जिक्र धर्मवीर जी से किया। धर्मवीर जी ने मेरे पिता से कहा कि जमीन न ले कर वे बड़ी नासमझी का काम कर रहे हैं। उन्होंने जोर दे कर इलाहाबाद से कागजात मंगाये और अगली दिल्ली यात्रा में उन पर अमल कराके विवेक विहार में ढाई सौ गज का एक टुकड़ा महज 7000.00 में आबंटित करा लाये।

यह बात आयी गयी हो गयी। लेकिन उस आबंटन की शर्त के मुताबिक हमें सात वर्ष के भीतर उस जमीन पर चारदीवारी और एक छोटी-सी ही सही, इमारत खड़ी कर लेनी थी, वरना हमें जमीन छोड़नी पड़ती। तब जैसा कि होता है अफरा-तफरी में यह मुहिम शुरू की गयी। पहले विचार बना कि चारदीवारी और एक कमरा डाल लिया जाय। फिर खयाल आया कि नक्शा तो पूरे घर का ही बनवा लिया जाय ताकि आगे का झंझट ही मुक जाये। मेरे स्कूली दिनों का एक दोस्त परवेज नसीर वास्तु-शिल्पी था। उसने न सिर्फ बहुत अच्छा नक्शा तैयार कर दिया, बल्कि मुझे विस्तार से इमारतसाजी के सिलसिले में सारी हिदायतें लिखवा दीं। तब तक जैसा अमूमन श्री उपेन्द्र नाथ इरादा एक कमरे से बढ़ कर एक शयनकक्ष, एक बैठक और खाने का कमरा, रसोई-घर, बाथरूम, आगे-पीछे का बरामदा -- यानी एक छोटे-से मकान का रूप ले चुका था।

लेकिन असली चीज यानी पैसे तो थे ही नहीं। सो, यह सोचा गया कि कर्ज ले कर मकान बनवाया जाय, लेकिन चूंकि माता-पिता को कर्ज मिल नहीं सकता था, चुनांचे दिल्ली विकास प्राधिकरण में अर्जी दे कर विशेष अनुमति के जरिये ज़मीन हम दोनों भाइयों के नाम करायी गयी; मेरी एक जीवन बीमा पालिसी बहुत पहले से थी, बड़े भाई ने एक जीवन बीमा पालिसी ली और कर्ज ले कर मकान बनवाना शुरू किया। मकान कैसे बना, कितनी भाग-दौड़, मेहनत, अश्क जी का रूसूख लगा, कैसे उन्हें कई महीने अपने बड़े भाई के यहाँ रहना पड़ा और कैसे तमाम किस्म की पेचीदगियां पैदा हुईं यह एक लम्बी और तकलीफ़देह कहानी है।

अभी मैं दिल्ली के लिए चला नहीं था कि बी.बी.सी. से एक फार्म आ गया कि उसे भर कर भेज दिया जाय। मैं फार्म भेज कर दिल्ली चला गया। अभी मैं वहीं था कि अनुवाद के लिए कुछ नमूना अंश और भाषा-शैली जांचने के लिए कुछ विषय वहाँ से आये। एक तरफ मकान बनवाने की भाग-दौड़ चलती रही, दूसरी तरफ बी.बी.सी. का पत्र-व्यवहार। हमारी जमीन दिल्ली विकास प्राधिकरण की झिलमिल-ताहिरपुर स्कीम में विवेक विहार कालोनी में थी। आज तो न शाहदरा पहचाना जाता है, न विवेक विहार, मगर उन दिनों सिर्फ एक 225 नं. की बस सब्जी मण्डी से, जहां आज से लगभग 30-32 साल पहले मेरे ताऊ की क्लिनिक और रिहाइश थी, विवेक विहार जाती थी और उसकी सेवा का अल्लाह ही मालिक था। शाहदरे से ट्राली पर सामान लदवा कर लाइनें पार करके विवेक विहार पहुंचाना पड़ता। जान-पहचान वालों में सिर्फ उर्दू के आलोचक प्रो. कमर रईस वहाँ रहते थे, आबादी घनी नहीं थी और ढेरों प्लाट खाली पड़े थे। तो भी देखते-ही-देखते 1979 की दीवाली से पहले ज़मीन के सिलसिले में सारी कानूनी कार्रवाई पूरी हो चुकी थी, कर्ज के लिए अर्जी दे दी गयी और अब सिर्फ इंतज़ार था कि पैसों का इंतज़ाम हो जाय तो हम चल कर मकान बनवाना शुरू करें।

तभी मुझे बी.बी.सी. से चिट्ठी आयी कि हिन्दी प्रसारण सेवा के कार्यक्रम संचालक कैलाश बुधवार नये उम्मीदवारों के साक्षात्कार के लिए हिन्दुस्तान आ रहे हैं और मुझे लखनऊ जा कर उनसे मिलना है। कैलाश बुधवार कानपुर के थे, पर बहुत पहले इलाहाबाद ही में उन्होंने पढ़ाई-लिखाई की थी, नाटक और रंगमंच में हिस्सा लिया था और फिर पृथ्वीराज कपूर के साथ उनके ’पृथ्वी थिएटर्स’ से भी सम्बद्ध रहे थे। घूम-फिर कर बी.बी.सी. पहुंचे थे और हालांकि वे आले हसन, हिमांशु कुमार भादुड़ी और रत्नाकर भारती या ओंकारनाथ श्रीवास्तव जैसे तपे हुए प्रसारकों से बहुत बाद में वहाँ गये थे, लेकिन अपनी संगठन क्षमता और प्रशासनिक कुशलता के बल पर सबको पीदे छोड़ते हुए कार्यक्रम सहायक से कार्यक्रम संचालक बन गये थे। पहले हिन्दुस्तानी थे जो हिन्दी विभाग के सर्वे सर्वा बने थे।

लखनऊ में वे बड़े खुले मन से मिले और उन्होंने अनेक प्रकार के सवाल पूछे जिनमें दो सवाल महतवपूर्ण थे -- पहला यह कि दस-बारह साल प्रकाशन में बिताने के बाद पूरी तरह पेशे की यह तब्दीली मैं निभा पाऊंगा या नहीं। दूसरा यह कि संस्था में अन्य लोगों के साथ मिल कर काम करना मुझसे सम्भव हो पायेगा या नहीं। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि उनकी शंकाएं तो मेरे काम करने से ही दूर हो पायेंगी, पर मैं यही आश्वासन दे सकता हूं कि वे निराश नहीं होंगे। इधर कैलाश लखनऊ से दिल्ली के लिए रवाना हुए, उधर मैं इलाहाबाद के लिए। जहां तक मुझे याद पड़ता है अक्तूबर महीने की कोई तारीख़ थी, जब मैं लखनऊ से लौटा। यहाँ इलाहाबाद में जैसे एक उत्सवी वातावरण था। मंगलेश और वीरेन तो यों उत्तेजित थे जैसे मैं नहीं, वे बी.बी.सी. जा रहे हों। फिर बडोला जी थे और हर तरह के रस रंजन की महफिल। ज्ञान भी आ गया और मुझे याद है पूरा एक महीना हर रोज महफिल जमती और तीन पत्ती की फड़। अश्क जी को तो नहीं, पर मेरी मां को तीन पत्ती खेलना पसन्द था, मेरे भाई भी आ जुटते और कई बार तो रात-रात भर बैठकी होती। अचानक मुझे ऐसा एहसास हुआ कि वहीं पुराने 1966-67 के दिन लौट आये हैं।

पहल-13 वाला कवितांक प्रकाशित हो कर वितरित हो चुका था और उसकी बड़ी धूम थी। यों कहा जाये कि सभी लोगों पर एक अजीब मस्ती तारी थी। ज्ञान के साथ भी पहले के सारे गिले-शिकवे हवा हो चुके थे। लेकिन यह सिलसिला महीना-डेढ़ महीना ही चला, क्योंकि दीवाली के बाद मुझे, मेरे भाई और अश्क जी को दिल्लीवाला मकान बनवाने के लिए बारी-बारी से दिल्ली रहना पड़ा। तो भी बीच-बीच में इलाहाबाद आने पर वही फुरसत के रात-दिन लौट आते, महफिलें गुलजार होतीं और हमारे आपसी मुहावरों के मुताबिक ‘पवित्र विचार’ के दौरान ‘आर्ट लिटरेचर कल्चर पालिटिक्स’ पर बहसों का बाजार गर्म होता। दिसंबर का महीना रहा होगा, जब मुझे बी.बी.सी. से आखिरी टेस्ट के लिए बुलावा आया। एक लिखित परीक्षा थी और एक स्वर का परीक्षण होना था। परीक्षा शायद ब्रिटिश काउन्सिल में हो रही थी। वहाँ पहुंचा तो कई युवकों और युवतियों से भेंट हुई। चौंतीस साल की उमर में शायद मैं उन सबसे बड़ा था। और लोगों के अलावा वहाँ मेरा परिचय साप्ताहिक हिन्दुस्तान के भूतपूर्व सम्पादक बांके बिहारी भटनागर के बेटे मनोज से हुई, जिसने अपनी सहज स्वभाविक गर्मजोशी के चलते मुझसे राब्ता कायम कर लिया। फिर वहाँ नरेश कौशिक था, जो ‘दिनमान’ में काम करता था, रमा पाण्डे थी, इला अरूण की बहन, जो शासन का उच्चारण साशन करती थी। पता नहीं गौतम सचदेव और विजय राणा उस खेप के उम्मीदवारों में थे या नहीं। याद मुझे सिर्फ मनोज, नरेश और रमा की है।
(जारी)

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