Monday, April 20, 2015

जैज़ पर लम्बा आलेख


चट्टानी जीवन का संगीत 

छब्बीसवीं कड़ी

30.


1958 में जैज़ संगीत का एक ऐल्बम आया जिसमें सिर्फ़ सैक्सोफ़ोन, बेस और ड्रम -- तीन वाद्य इस्तेमाल किये गये थे. न पियानो था, न ट्रम्पेट और न और कोई वाद्य. ऐल्बम के आवरण पर लिखा था -- "कैसी विडम्बना है कि नीग्रो के साथ, जो और किसी भी समुदाय से ज़्यादा अमरीकी संस्कृति को अपना कह सकता है, इतना बुरा सलूक हो रहा है; उसे दबाया और कुचला जा रहा है; कि नीग्रो, जिसने अपने अस्तित्व में ही मनुष्यता का सबूत दिया है, ऐसी अमानवीयता का शिकार बनाया जा रहा है." इस ऐल्बम की शीर्षक धुन लगभग बीस मिनट लम्बा और तात्कालिक प्रेरणा से रचा गया एक टुकड़ा था जो सुनने वाले को काल और युगों के फ़ासले लंघा कर उस मन:स्थिति में ले जाता था जो जैज़ संगीत के शुरुआती दौर की ख़ासियत थी -- एक नाराज़, उदासी-भरी कैफ़ियत. रिकौर्ड के कुछ हिस्से बेहद तनाव से रचे-बसे थे और आने वाले दिनों में उभरने वाले अफ़्रीकी-अमरीकी अश्वेत समुदाय के आक्रोश की पूर्व-सूचना देते थे. ऐल्बम का नाम था ’फ़्रीडम सुइट"  और इसके रचयिता थे सनी रौलिन्स जिन्होंने इसमें सैक्सोफ़ोन बजाया था. 

https://youtu.be/CERGVEqPoT0 (सनी रौलिन्स - फ़्रीडम सुइट)

रौलिन्स जैज़ संगीतकारों के उस समूह के एक्ज प्रमुख सदस्य थे जिसने 1960 के दशक में जैज़ को कोरे पेशेवराना संगीत और मनोरंजन के दायरों से बाहर निकालने में एक बड़ी भूमिका अदा की।
वैसे तो सनी रॉलिन्स ने काफ़ी पहले ही सैक्सोफ़ोन बजाना शुरू कर दिया था और एकल वादन के अलावा वे नाइट-क्लबों, संगीत-सभाओं और रिकॉर्ड कम्पनियों के लिए भी सैक्सोफ़ोन बजाया करते थे, मगर पचास के दशक के मध्य तक पहुँचते-पहुँचते सुनने वालों को ऐसा महसूस होने लगा था कि वे ख़ुद को दोहरा रहे हैं। एक समीक्षक ने तो यहाँ तक कह दिया था कि सनी रॉलिन्स को उन संगीतकारों में शुमार किया जा सकता है, जो अपनी निजी प्रतिभा के बल पर जैज़ की प्रथम श्रेणी के कलाकार रहते हैं, लेकिन जैज़ संगीत में सीधे कोई योगदान करने के योग्य नहीं जान पड़ते। इसी बीच तरह-तरह की अफ़वाहें भी उड़ती रहीं-कि सनी रॉलिन्स ने सैक्सोफ़ोन छोड़ कर बाँसुरी जैसा वाद्य -- ओबो -- सीखना शुरू कर दिया है; कि दोहराव से बचने के लिए उन्होंने संगीत-सभाओं में शिरकत करना बन्द कर दिया है; कि वे नयी धुनों पर काम कर रहे हैं; कि शुरू की प्रशंसा को वे सहेज नहीं पाये; कि अब वे बिना संगत के सफल सैक्सोफ़ोन-वादन करेंगे। इस आख़िरी अफ़वाह के पीछे चोट करने की एक छिपी हुई प्रवृत्ति भी थी, जैसा कि कला के क्षेत्र में अक्सर होता है, क्योंकि कुछ समय पहले ही सनी रॉलिन्स ने संगीत के कार्यक्रमों में अक्सर पियानोवादक के बिना ही सैक्सोफ़ोन बजाना शुरू कर दिया था और कई बार धुन की रचना तथा ऑकेस्ट्रा का निर्देशन भी ख़ुद ही सँभाल लिया था।
इसके पीछे एक कारण तो संगीतकार का अपना व्यक्तित्व हो सकता है। मगर व्यापक रूप से पचास के दशक के मध्य में जैज़-संगीत फिर एक नयी दिशा ले रहा था। इस दौर में कलाकारों के सामने जैज़ की बुनियादी ’भाषा’ या ’रंग’ को पहचानने या परखने की समस्या नहीं थी, बल्कि समस्या यह थी कि जैज़-संगीत के प्रचलित मुहावरे के भीतर कुछ ऐसा ताल-मेल बैठाया जाय, लय-ताल-सुर और धुन को ऐसा व्यवस्थित रूप दिया जाय, जो पहले की शैलियों के सन्दर्भ में बीस के दशक में जेली रोल मॉर्टन ने, तीस के दशक में ड्यूक एलिंग्टन ने और चालीस के दशक में चार्ली पार्कर ने दिया था। पचास के दशक में इस समस्या को कई लोग सुलझाने की कोशिश कर रहे थे। एक ओर पियानोवादक तथा कम्पोज़र थियोलोनियस मंक और उनकी मण्डली थी तो दूसरी ओर बेस वादक चार्ल्स मिंगस, सैक्सोफ़ोन वादक माइल्स डेविस और उनकी ’माइल्स डेविस सेक्स्टेट’ नामक मण्डली, और्नेट कोलमैन और उनका दल और तीसरी ओर आर्ची शेप और सनी रॉलिन्स जैसे संगीतकार, जो अकेले ही इस काम में जुटे हुए थे।
एक अर्थ में जैज़ संगीतकार अब भी उसी मूल समस्या से जूझ रहे थे, जो लुई आर्मस्ट्रौंग के ज़माने से चली आ रही थी -- संगीत को दोहराव की एकरसता से बचाते हुए किस प्रकार धुन और एकल वादन की लम्बाई को बढ़ाया जाय। भारतीय संगीत में भी किसी-न-किसी समय यह समस्या ज़रूर पैदा हुई होगी कि राग को लम्बे समय तक कैसे पेश किया जाय। ज़ाहिर है इस तरह की समस्या में वादकों के रचनात्मक कौशल का बहुत बड़ा हाथ होता है और जब मौलिक प्रतिभा के बल पर कल्पनाशील के साथ धुन पेश की जाती है तो उसका महत्व निश्चय ही बढ़ जाता है। बहुत अच्छे वादक तो निश्चय ही इससे भी आगे बढ़ कर एक तरह से नया संगीत ही रचने की कोशिश करते हैं। जैज़-संगीत में इसकी मिसाल के तौर पर चार्ली पार्कर तो पहले से ही मौजूद थे। लेकिन पार्कर के एकल वादन की विशेषता थी -- उसका सीधी रेखा में विस्तार। जैसे किसी माला में कडि़याँ जुड़ती चली जायें। सनी रॉलिन्स ने जब लम्बे-लम्बे एकल वादन किये तो उन्होंने कुछ ऐसी पद्धति अपनायी, जैसी एक वास्तु-शिल्पी भवन का नक्शा तैयार करते समय अपनाता है। संगीत की अमूर्तता को ध्वनि-बिम्बों के सहारे उन्होंने मूर्त-और वह भी कई दिशाओं में मूर्त करने की कोशिश की। शायद इसी लचीलेपन की सहायता से वे माइल्स डेविस, जॉनी कोल्ट्रेन, थियोलोनियस मंक, मैक्स रोच और जॉन ल्यूइस जैसे विविध प्रकार के उस्तादों का साथ निभा सके।
जैज़ संगीत में अक्सर गायकों और वादकों ने पहले के रचनाकारों के गाये या बजाये संगीत को दोबारा अपने ढंग से पेश करके अपनी निजी शैली साबित की है. सनी रौलिन्स इसके अपवाद नहीं हैं. उन्होंने मशहूर गायिका बिली हौलिडे के गाये गीत "गौड ब्लेस द चाइल्ड हू’ज़ गौट हिज़ ओन" कुछ इस तरह पेश किया :

https://youtu.be/_O-wMuGt63c?list=PLZS7EwPLsVu0RMpG0Xu8yAGydiWz3lXm- (सनी रौलिन्स - गौड ब्लेस द चाइल्ड हू’ज़ गौट हिज़ ओन)

1949 में अपनी पहली रिकौर्डिंग में हिस्सा लेने के बाद सनी रौलिंस ने तरह-तरह के प्रयोग किये और हर तरह के वादकों और मण्डलियों के साथ संगत की. संगत करते समय उन्होंने बड़े और छोटे बैण्डों और संगीत की बड़ी सभाओं में कोई फ़र्क नहीं किया, जिससे सैक्सोफ़ोन पर उनकी महारत का बख़ूबी अन्दाज़ा होता है. उनके प्रयोगों का मामला सिर्फ़ पियानो को इस्तेमाल करने या न करने से ही ताल्लुक़ नहीं रखता, बल्कि उनमें यह ख़ूबी भी है कि वे बेहद मामूली धुनों और गीतों को ले कर उन्हें नया बना कर पेश कर दें. यह भी सनी रौलिन्स की ख़ूबी ही कही जायेगी कि उन्होंने जब-जब पाया कि उनका संगीत ठहराव का शिकार हो रहा है तो उन्होंने अपनी मर्ज़ी से कुछ समय तक जैज़ संगीत की दुनिया से छुट्टी भी ले ली. पहला मौका १९६० के दशक में आया जब समीक्षकों ने उनके संगीत में दोहराव की शिकायत की और ख़ुद सनी रौलिन्स को भी लगा कि वे एक मुक़ाम तक पहुंच कर ठहर-से गये थे. इस दौर का एक मज़ेदार क़िस्सा यह है कि अपने पड़ोस के घर में रहने वाली औरत के आराम और सुकून के खयाल से, जो बच्चे से थी, सनी रौलिन्स विलियम्सबर्ग सेतु पर जा कर अभ्यास करते. तीन साल के अवकाश के बाद जब उनकी "वापसी" हुई तो उन्होंने अपने नये ऐल्बम का नाम रखा "द ब्रिज" -- "सेतु". यही वह पुल था जिसने सनी रौलिन्स के पहले के दौर को नये दौर से जोड़ने का काम किया. 
अवकाश का दूसरा मौक़ा १९७० के दशक के आरम्भ में आया जब रौलिन्स ने योग, ध्यान और पूर्वी दर्शन के अध्ययन के लिए सैक्सोफ़ोन बजाने और मण्डलियों में संगत करने से छुट्टी ली. जब वे 1972 में दोबारा जैज़ संगीत की दुनिया में लौटे तो एक नये अवतार में. उन्होंने वाद्यों और वादन की पुरानी शैली से अलग हटते हुए इलेक्ट्रिक गिटार, इलेक्ट्रिक बेस और आम तौर पर पौप या फ़ंक की तर्ज़ पर ड्रम बजाने वालों की संगत करनी शुरू की. बस पुराना अगर कुछ था तो वह था उनका अपना सैक्सोफ़ोन. लेकिन सारे रिकौर्ड डिस्को क़िस्म के नहीं थे. इसी दौर में एकल वादन की इच्छा उनके अन्दर बढ़ती चली गयी और 1985 में उन्होंने "द सोलो ऐल्बम" के नाम से अपने एकल वादन का ऐल्बम रिकौर्ड कराया. 

https://youtu.be/s6bgbaVpukE (सनी रौलिन्स - एकल वादन)

रौलिन्स को 2001 में उनके रिकौर्ड "दिस इज़ वौट आई डू" के लिए ग्रैमी पुरस्कार मिला और जैज़ संगीत में उनके योगदान के लिए 2004 में उन्हें ग्रैमी लाइफ़ टाइम अवौर्ड से सम्मानित किया गया. 

https://youtu.be/xb85Y2TZTp0 (सनी रौलिन्स - दिस इज़ वौट आई डू)


मगर रौलिन्स का असली पुरस्कार सुनने वालों और समीक्षकों की तरफ़ से आया है. और इस तरह सनी रौलिन्स लगातार किसी-न-किसी शहर में दोपहर के वक्त या रात के आठ बजे की सभा में अपने सैक्सोफ़ोन के साथ सुनने वालों को मोहित करते रहते हैं मानो यह भी एक रोज़मर्रा का काम हो, जैसा कि वह लगभग डेढ़ सौ साल पहले  उन्नीसवीं सदी के अन्त में हुआ करता था.
(जारी) 



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