क़िस्त दोयम
अगर हम वाक़फ़ियत के लिहाज़ से चलें तो सबसे पहले हमारी जान-पहचान अचला शर्मा से हुई, जो हमारे बीबीसी से चले आने के बरसों बाद वहां की कामयाब प्रोग्राम और्गनाइज़र यानी प्रमुख बनीं और काफ़ी मक़बूल साबित हुईं.
अचला को हम पहले से जानते थे, उनका पहला कहानी संग्रह "बर्दाश्त बाहर" शाया करने का शर्फ़ हमें हासिल हुआ था. ये तो महज़ इत्तेफ़ाक़ था कि वे आकाशवाणी से डेप्युटेशन पर बीबीसी तब पहुंचीं, जब हम वहां साल भर गुज़ार चुके थे. हिन्दुस्तान में छूटा हुआ धागा वहां फिर जुड़ गया.
अचला की पहली शादी हमारे दोस्त और अग्रज रमेश बक्षी से हुई थी, जो बहुत अच्छे कथाकार और नाटककार थे और जिनके नाटक "देवयानी का कहना है" को हम एक शानदार नाटक मानते हैं. अचला की उनसे पटी नहीं और वो आकाशवाणी में चली गयी. अचला बेहद ज़हीन थी, ख़ुद भी अच्छी कहानीकार है और माहिर ब्रौडकास्टर, ऊपर से इण्टलेक्चुअल, जो साहित्य और राजनीति पर यकसां दख़ल रखती है. चुटीली फब्तियां कसने में उसका कोई जवाब नहीं और काफ़ी प्रबुद्ध महिला है, जो बिना ढोल-नगाड़े पीटे स्त्री-मुक्ति में यक़ीन रखती है. हमारी-उसकी चपकलश के सैकड़ों क़िस्से हैं, दोस्तो, जिन्हें हम बयान करने बैठें तो रात बीत जाये और क़िस्से का उन्वान बदल कर एक मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिला करना पड़े.यह हम भी नहीं चाहते और यक़ीनन आप भी नहीं चाहते होंगे.तो हम बस एक अदद मद का ज़िक्र करके आगे बढ़ते हैं.
एक दिन हमने अपने पसन्दीद: शाइर मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब का शेर पढ़ा "छेड़ ख़ूबां से चली जाये असद / गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही." अचला ने फ़ौरन टोका,"नीलाभ, सही शेर है - यार से छेड़ चली जाये असद." हम अड़ गये. ये वाक़या उस होली का है, जिसकी पार्टी हमारे सीनियर सहकर्मी ओंकार नाथ श्रीवास्तव ने अपने उत्तरी लन्दन वाले आशियाने में दी थी.
अचला ने वही किया जो ऐसे में लोग करते हैं -- दीवान ला कर हमारे मुंह पर दे मारा. हम भी कहां हार मानने वाले थे, बोले -- हम अहल-ए-दीवान नहीं, अहल-ए-ज़बान हैं, हमने इस शेर को इस रूप में भी सुना है, हो सकता है, ग़ालिब के काग़ज़ात में ये वाला दूसरा प्रारूप छुपा हुआ हो, वरना लोग इसे इस रूप में क्यों याद रखते." मुक़ाबला बराबरी पे छूटा, जिसमें दोनों फ़रीक अपनी-अपनी टेक पर अड़े हुए थे.
फिर समय बीता, ख़ाकसार ने बीबीसी से इस्तीफ़ा दे दिया. चलते वक़्त अचला ने विदाई का एक कार्ड दिया, जिसमें लिखा था "यार से छेड़ चली जाये असद...नीलाभ, हम तो इसे ऐसे ही पढ़ेंगे."
बीबीसी से आये 31 बरस बीत चुके हैं, अचला बीबीसी हिन्दी सर्विस की प्रमुख बनने के बाद एक कामयाब पारी खेल कर रिटायर हो चुकी है, पर वो कार्ड आज तक मेरे पास है, और वो सतर, "हम तो इसे ऐसे ही पढ़ेंगे."
(जारी इस गुज़ारिश के साथ कि कोई राय क़ायम करने से पहले पूरा क़िस्सा सुन लें)
कुछ रिश्ते स्प्रिंग की तरह होते हैं जितना दूर करो उतने पास आते हैं
ReplyDeleteजो दिल में जगह बना लेते हैं वे कभी भूले न भुलाये जाते है.