आज खुशी का दिन है. एक मंजिल हासिल की गयी है, सीमा आज़ाद और विश्वविजय को जमानत मिल गयी है, पर अभी लम्बा रास्ता तय करना बाकी है. न्याय की लड़ाई के बहुत-से मोर्चे हैं, बहुत-से मुकाम. हमारी जानी-मानी साथी और पत्रकार शीरीं ने यह लेख हमें भेजा है. इसे हम यहां दे रहे हैं इसमें अपनी आवाज भी मिलाते हुए
सीमा आज़ाद व विश्वविजय को मिली ज़मानत का निहितार्थ
आखिरकार सीमा आज़ाद और विश्वविजय को इलाहाबाद हाईकोर्ट से ज़मानत मिल गयी। सीमा और विश्वविजय के शुभचिन्तकों ने राहत की सांस ली। पिछले दो साल छः महीने उनकी जि़न्दगी में एक पीड़ादायी अध्याय के रूप में हमेशा के लिए दर्ज हो गए। पर सम्भवतः सीमा और विश्वविजय अन्याय की इस भट्टी में तप कर और इस्पाती बन गए होंगे। उम्मीद है कि आने वाले समय में वे जनता की लड़ाई में और धारदार तरीके से शरीक होंगे।
सीमा और विश्वविजय को जमानत अनायास ही नहीं मिल गयी है। इसके पीछे उस न्यायपसंद जनता की ताकत निहित है जो सीमा और विश्व के लिए उनको उम्रकैद की सज़ा सुनाए जाने के बाद से ही उनकी रिहाई के लिए लड़ रही थी। जिस दिन से निचली अदालत ने सीमा व विश्वविजय को आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी थी, उसी दिन से देश भर के तमाम प्रगतिशील बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता और ढेर सारी न्यायपसंद जनता इस फैसले के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलन्द कर रहे थे। तमाम सारे तरक्कीपसंद ब्लागांे ने उनकी रिहाई के लिए एक मुहिम छेड़ रखी थी। सीमा और विश्वविजय के पक्ष में नेट के आभासी संसार पर भी एक मुहिम सी छिड़ी हुयी थी। ऐसे में हाईकोर्ट का यह फैसला इन तमाम लोगों की जीत है। सम्भव है चिदम्बरम की गृहमन्त्रालय से विदाई भी इस रिहाई के लिए जिम्मेदार एक कारक हो।
लेकिन सीमा व विश्वविजय के ज़मानत से न्याय-अन्याय की परिभाषा नहीं बदल जाती। यह लड़ाई यहां आकर समाप्त नहीं हो जाती। लड़ाई अभी बहुत लम्बी है। अभी भी देश के तमाम जेलों में हज़ारों की संख्या में राजनीतिक बन्दी हैं। जो धारा निचली अदालत द्वारा सीमा-विश्वविजय को आजीवन कैद का फैसला सुनाए जाने के बाद से बही थी उसका रुख अब इन तमाम राजनीतिक बन्दियों को छुड़वाने की दिशा में मुड़ जाना चाहिए।
सीमा व विश्वविजय की रिहाई का एक मायने यह भी है कि अब मसला माओवादी होने या न होने का नहीं है। मसला है, सही और गलत का। आज बुद्धिजीवियों और समाज का एक तबका अपना पक्ष तय करने लगा है। सरकार को अगर लगता है कि न्याय के पक्ष में खड़ा होना माओवाद है, हर तरह के अन्याय का प्रतिकार करना माओवाद है, अगर पत्रिका निकालना माओवाद है, अगर इस देश के जल, जंगल, ज़मीन पर जनता के कब्जे की बात करना माओवाद है, अगर हक-हुकूक की बात करना माओवाद है, अगर विस्थापन के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर भूमि अधिग्रहण के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर भूमि के बंटवारे की मांग करना माओवाद है, अगर मंहगाई के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर ग़रीबी के खिलाफ संघर्ष करना माओवाद है, अगर सबको शिक्षा की मांग करना माओवाद है, अगर बेरोजगारी के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर छात्रसंघ की बहाली की मांग करना माओवाद है, अगर किसानों की आत्महत्या के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर मजदूरों के संघर्षों में शामिल होना माओवाद है, अगर कश्मीर, उत्तरपूर्व, बंगाल, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा आदि की संघर्षरत जनता का पक्ष लेना माओवाद है तो ज़रूरी है माओवाद को पब्लिक बहस का एक मुद्दा बनाया जाए और उस पर खुल कर चर्चा की जाए। अगर मसला उपरोक्त सवालों पर केन्द्रित है तो कहीं न कहीं इस देश की 80 प्रतिशत जनता माओवाद की ज़द में आ जाती है।
सरकार अपनी अक्षमता को छिपाने के लिए माओवाद को देश का नम्बर एक खतरा बताते हुए तमाम संघर्षाें ेमें शिरकत कर रहे लोगों का मुंह बन्द करने की मंशा रखती है। लेकिन इतिहास गवाह है कि जनता की आवाज़ को कभी भी कोई भी सरकार फौजी बूटों से नहीं कुचल पायी है। जनता की ताकत के सामने सरकार हमेशा गश खाती रहती है। उसे हमेशा अपने अपदस्थ होने का खतरा बना रहता है।
ऐसे में सीमा और विश्वविजय की ज़मानत का एक अर्थ यह भी है कि जिस माओवाद से सरकार इतना खौफ खाए हुए है उसे सिर्फ सरकारी नजरिए से और कारपोरेट मीडिया के नजरिए से न देखा जाए। ऐसे में इस आन्दोलन को ज्यादा से ज्यादा समझने, और उस पर चौतरफा बहस करने की ज़रूरत है। सीमा व विश्वविजय की क़ैद और उनको मिली ज़मानत का सम्भवतः यही निहितार्थ है।
शीरीं
6.8.12