tag:blogger.com,1999:blog-52096067897394647122024-02-20T05:32:07.565-08:00नीलाभ का मोर्चा neelabh ka morchaNeelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.comBlogger171125tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-40138558565573851592015-09-19T18:55:00.000-07:002015-09-19T18:56:34.437-07:00तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाओं का क़िस्सा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #cc0000; font-size: large;">क़िस्त सोम</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हमारे बीबीसी पहुंचने के कुछ ही समय बाद रमा पाण्डे और नरेश कौशिक भी वहां आ शामिल हुए थे. दोनों आख़िरी दौर तक बीबीसी के उम्मीदवारों की सफ़ में हमारे साथ-साथ थे. संयोग की बात कि मनोज भटनागर (जो अब इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह कर हमारा साथ छोड़ गये हैं) और मैं पहले चुन लिये गये. ख़ैर, रमा पाण्डे के मिज़ाज का अन्दाज़ा मुझे आवाज़ के टेस्ट और आख़िरी जी.के. के पर्चे के समय ही हो गया था, जब उसने बाहर आ कर हंसते हुए बताया था कि वो जी.के. में कुछ का कुछ लिख आयी है.</div>
<div style="text-align: justify;">
रमा प्रसिद्ध गायिका और अभिनेत्री इला अरुण की बहन है, हालांकि ये बात उसने हमें सरे-राहे यों बतायी मानो कह रही हो "नो बिग डील."</div>
<div style="text-align: justify;">
(इसी तरह उसने एक बार हंसते हुए बताया कि मंझली बहन होने की वजह से उसे इला से बहुत हसद होती थी और उसने एक बार इला के बहुत-से तमग़े नाली में फेंक दिये थे. तीन चार साल पहले जयपुर साहित्यिक उत्सव में जब रमा और इला से मेरी और रानी की मुलाक़ात हुई तो दोनों बहनों के आपसी लगाव को देख कर मुझे बेसाख़्ता वो क़िस्सा याद आ गया. रमा ने बड़े तपाक से इला से हमारा परिचय कराया था और हमें तो इला भी बिन्दास लगी थी.)</div>
<div style="text-align: justify;">
चूंकि हम ख़ुद नामी रिश्तेदारों से ख़ुद को जोड़ने के क़ायल नहीं चुनांचे: हमें रमा की यह फ़ितरत अच्छी लगी थी.. अलावा इसके रमा बहुत बहिर्मुखी है, आगे -आगे रहने की शौक़ीन, हंसने-हंसाने वाली, मन में कीना न रखने वाली, बातूनी, दोस्त-नवाज़ और उस विनोद-वृत्ति से कूट-कूट कर भरी हुई, हिन्दीवालों में जिसका अज़हद अभाव रहता है. चुनांचे: हमारी उस से पट गयी और आज तक पटती है, हालांकि अब मिलने-जुलने के मौक़े बहुत कम हो गये हैं. इला अरुण तो अपने लोकगीतों की अदायगी के लिए मशहूर हैं ही, रमा ने भी इनमें काफ़ी महारत हासिल कर रखी है, गो वह गाती नहीं है. सो, एक दिन बातों-बातों में रमा ने हमें एक दिलचस्प गीत नुमा चीज़ सुनायी --</div>
<div style="text-align: justify;">
"सांझ भयी दिन अथवन लागा </div>
<div style="text-align: justify;">
राजा हमका बुलावें पुचकार-पुचकार, </div>
<div style="text-align: justify;">
रात भयी चन्दा चमकानो, </div>
<div style="text-align: justify;">
राजा छतियां लगावें चुमकार-चुमकार, </div>
<div style="text-align: justify;">
भोर भयी चिड़ियां चहचानीं, </div>
<div style="text-align: justify;">
राजा हमका भगावें दुत्कार-दुत्कार"</div>
<div style="text-align: justify;">
बहुत बाद में चल कर हमने अपने एक और दोस्त ज्ञानरंजन के बारे में लिखते हुए अपनी किताब में उसका इस्तेमाल किया. बहरहाल, इससे आप रमा के मिज़ाज का अन्दाज़ा लगा लीजिये.</div>
<div style="text-align: justify;">
इसी तरह एक दिन रमा कंजी आंखों वाली एक सुन्दर गुजराती युवती को ले कर हमारे कमरे में आ धमकी और उससे हमारे सामने ही बोली, "देखो, यह आदमी तो बहुत दिलफेंक और गड़बड़ है, पर पूरे हिन्दी सेक्शन में अगर कोई तुम्हें काम सिखा सकता है तो यही वो आदमी है." हमारे लिए हमारी ये तारीफ़ साहित्य अकादेमी पुरस्कार से रत्ती भर कम न थी. वैसे, उन दिनों ख़ुद रमा हमारे एक पाकिस्तानी दोस्त शफ़ी नक़ी जामी को (जो संयोग से छै-सात साल बाद पाकिस्तान जाने पर पता चला कि हमारे मित्र कथाकार-आलोचक आसिफ़ अस्लम फ़र्रुखी का कज़न था) हिन्दी सिखा रही थी. उसने शफ़ी को इतना ताक़ कर दिया कि लौटने के बाद एक दिन नौस्टैल्जिया के मूड़ में जब हमने "खेल और खिलाड़ी" प्रोग्राम लगाया, जो कभी हम किया करते थे, तो शफ़ी के प्रसारण को सुन कर दिल बाग़-बाग़ हो गया था.</div>
<div style="text-align: justify;">
अचला तो थोड़ी नहीं, ख़ासी इन्टलेक्चुअल मिज़ाज थी, और है, और हमारी ही तरह "हिसाब-ए-दोस्तां दर दिल" के उसूल पर पर चलने वाली, मगर रमा पाण्डे की ख़सलत बिलकुल अलग क़िस्म की थी. ऐन मुमकिन था कि आप से शदीद झगड़ा हो जाने के घण्टे भर बाद वो आये और खिली-खिली मुस्कान फेंकते और गालों के गड्ढे खिलाते हुए सीधे ही किसी जुमले से लड़ाई को दफ़्न कर दे, जो शायद न मेरे बस की बात है, न अचला के. हिन्दुस्तान लौट आने के बाद रमा से बहुत दिन तक मुलाक़ात नहीं हुई, पर फिर राबिता क़ायम हो गया और अब कभू-कभार मुलाक़ात हो जाती है और देख कर अच्छा लगता है कि सरापा बदल जाने के बावजूद रमा की सीरत नहीं बदली.</div>
<div style="text-align: justify;">
तेज़ी से बदलती इस दुनिया में यह क्या कोई कम बात है.</div>
<div style="text-align: justify;">
मज़े की बात देखिये, अभी कुछ महीने घर-बदर कर दिये जाने के बाद एक रोज़ जब हम अपने काग़ज़ात उलट-पलट रहे थे तो हमें वो रुक़्क़ा हाथ लगा जिस पर रमा ने अपने डील-डौल से मेल खाते बड़े-बड़े अक्षरों में ऊपर वाला गीत लिख कर दिया था. हमने अचला के कार्ड की तरह उसे भी संभाल कर रखा हुआ है और इसे अपनी ख़ुशनसीबी मानते हैं कि घर-बदर होते हुए तमामतर चीज़ों में से, जो दुनियावी नज़रों में क़ीमती मानी जायेंगी और हमें अज़ीज़ भी थीं, हम इस क़िस्म की अनमोल दौलत बचा लाने में कामयाब रहे.<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #cc0000;">(जारी इस गुज़ारिश के साथ कि कोई राय क़ायम करने से पहले पूरा क़िस्सा सुन लें.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #cc0000;">आखिरी क़िस्त अब कल सुबह की सभा में प्रसारित होगी क्योंकि एक दिन में ऐसे क़िस्से की तीन क़िस्तें ही ज़ायद हैं, चार तो यक़ीनन हाज़्मे के लिए नामुनासिब होंगी.)</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-19296643487710232262015-09-15T18:21:00.006-07:002015-09-15T18:23:24.726-07:00तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाओं का क़िस्सा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px;">
<span style="color: #cc0000; font-size: large;">क़िस्त दोयम</span><br />
<span style="color: #141823; font-size: 14px;"></span><br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #141823; line-height: 19.32px;">अगर हम वाक़फ़ियत के लिहाज़ से चलें तो सबसे पहले हमारी जान-पहचान अचला शर्मा से हुई, जो हमारे बीबीसी से चले आने के बरसों बाद वहां की कामयाब प्रोग्राम और्गनाइज़र यानी प्रमुख बनीं और काफ़ी मक़बूल साबित हुईं.</span></div>
<br />
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
अचला को हम पहले से जानते थे, उनका पहला कहानी संग्रह "बर्दाश्त बाहर" शाया करने का शर्फ़ हमें हासिल हुआ था. ये तो महज़ इत्तेफ़ाक़ था कि वे आकाशवाणी से डेप्युटेशन पर बीबीस<span class="text_exposed_show" style="display: inline;">ी तब पहुंचीं, जब हम वहां साल भर गुज़ार चुके थे. हिन्दुस्तान में छूटा हुआ धागा वहां फिर जुड़ गया.</span></div>
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.32px;">
<div style="color: #141823; margin-bottom: 6px; text-align: justify;">
अचला की पहली शादी हमारे दोस्त और अग्रज रमेश बक्षी से हुई थी, जो बहुत अच्छे कथाकार और नाटककार थे और जिनके नाटक "देवयानी का कहना है" को हम एक शानदार नाटक मानते हैं. अचला की उनसे पटी नहीं और वो आकाशवाणी में चली गयी. अचला बेहद ज़हीन थी, ख़ुद भी अच्छी कहानीकार है और माहिर ब्रौडकास्टर, ऊपर से इण्टलेक्चुअल, जो साहित्य और राजनीति पर यकसां दख़ल रखती है. चुटीली फब्तियां कसने में उसका कोई जवाब नहीं और काफ़ी प्रबुद्ध महिला है, जो बिना ढोल-नगाड़े पीटे स्त्री-मुक्ति में यक़ीन रखती है. हमारी-उसकी चपकलश के सैकड़ों क़िस्से हैं, दोस्तो, जिन्हें हम बयान करने बैठें तो रात बीत जाये और क़िस्से का उन्वान बदल कर एक मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिला करना पड़े.यह हम भी नहीं चाहते और यक़ीनन आप भी नहीं चाहते होंगे.तो हम बस एक अदद मद का ज़िक्र करके आगे बढ़ते हैं.</div>
<div style="color: #141823; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
एक दिन हमने अपने पसन्दीद: शाइर मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब का शेर पढ़ा "छेड़ ख़ूबां से चली जाये असद / गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही." अचला ने फ़ौरन टोका,"नीलाभ, सही शेर है - यार से छेड़ चली जाये असद." हम अड़ गये. ये वाक़या उस होली का है, जिसकी पार्टी हमारे सीनियर सहकर्मी ओंकार नाथ श्रीवास्तव ने अपने उत्तरी लन्दन वाले आशियाने में दी थी.</div>
<div style="color: #141823; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
अचला ने वही किया जो ऐसे में लोग करते हैं -- दीवान ला कर हमारे मुंह पर दे मारा. हम भी कहां हार मानने वाले थे, बोले -- हम अहल-ए-दीवान नहीं, अहल-ए-ज़बान हैं, हमने इस शेर को इस रूप में भी सुना है, हो सकता है, ग़ालिब के काग़ज़ात में ये वाला दूसरा प्रारूप छुपा हुआ हो, वरना लोग इसे इस रूप में क्यों याद रखते." मुक़ाबला बराबरी पे छूटा, जिसमें दोनों फ़रीक अपनी-अपनी टेक पर अड़े हुए थे.</div>
<div style="color: #141823; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
फिर समय बीता, ख़ाकसार ने बीबीसी से इस्तीफ़ा दे दिया. चलते वक़्त अचला ने विदाई का एक कार्ड दिया, जिसमें लिखा था "यार से छेड़ चली जाये असद...नीलाभ, हम तो इसे ऐसे ही पढ़ेंगे."</div>
<div style="color: #141823; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
बीबीसी से आये 31 बरस बीत चुके हैं, अचला बीबीसी हिन्दी सर्विस की प्रमुख बनने के बाद एक कामयाब पारी खेल कर रिटायर हो चुकी है, पर वो कार्ड आज तक मेरे पास है, और वो सतर, "हम तो इसे ऐसे ही पढ़ेंगे."<br />
<br /></div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
<span style="color: #cc0000;">(जारी इस गुज़ारिश के साथ कि कोई राय क़ायम करने से पहले पूरा क़िस्सा सुन लें)</span></div>
</div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-83791552610737877292015-09-13T19:14:00.003-07:002015-09-13T19:16:37.056-07:00तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाओं का क़िस्सा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div>
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</div>
<br />
<div class="_1dwg" style="padding: 12px 12px 0px;">
<div class="_5pbx userContent" data-ft="{"tn":"K"}" style="font-weight: normal; line-height: 1.38; overflow: hidden;">
<div class="text_exposed_root text_exposed" id="id_55f62c2fa7e188730294295" style="display: inline;">
<div style="display: block; margin: 0px 0px 6px;">
<span style="color: #cc0000;"><span style="font-size: x-large;"> </span><span style="font-size: large;">क़िस्त अव्वल</span></span><br />
<span style="color: #cc0000;"><span style="font-size: large;"><br /></span></span></div>
<div style="display: block; margin: 6px 0px; text-align: justify;">
साहबो,</div>
<div class="text_exposed_show" style="display: inline;">
<div style="margin: 0px 0px 6px; text-align: justify;">
जब-जब हम फ़ेसबुक पर आते हैं, हमें अपनी अज़ीज़ा गीताश्री का ख़याल हो आता है. ये क़िस्सा उन्हीं के मुतल्लिक़ है. और उनके हवाले से हमारी दो और दोस्तों से.</div>
<div style="margin: 6px 0px; text-align: justify;">
जिन क़द्रदानों ने हमारे क़िस्सों पर नज़रसानी की है, वे इस बात से बख़ूबी वाक़िफ़ हो गये होंगे कि हमें बात चाहे ज़री-सी कहनी हो, मगर हमारी कोशिश यही रहती है कि वह मुन्नी-सी बात भी एक अदा से कही जाये जिससे हमारे सामयीन का दिल भी बहले और हमें भी कुछ तस्कीन हो कि हमने वक़्त ज़ाया नहीं किया. ये बात दीगर है कि बहुत-से लोग तो यही कहते पाये गये हैं कि हम वक़्त ज़ाया करने के अलावा कुछ करते ही नहीं, कि हमारे पास वक़्त के सिवा और बचा ही क्या है जिसे ज़ाया करें. ख़ैर, जैसा कि देवभाषा में कहते हैं -- "मुण्डे-मुण्डॆ मतिर्भिन्ना." यों बाज़ लोगों का कहना है कि अच्छा क़िस्सागो वही हो सकता है, जो बातूनी हो, लफ़्ज़ और फ़िक़रे जिसकी ज़बान पर रस छोड़ते हों. हमें भी इस बात से पूरा इत्तेफ़ाक़ है. चुनांचे: हमने इन दोनों कलाओं -- क़िस्सागोई और जिसे अंग्रेज़ी में कौन्वरसेशन या स्मौल टौक भी कहते हैं, बड़ी काविश से महारत हासिल की है. गो इसके चलते हमने एकाधिक मित्र खोये हैं, क्योंकि आजकल का मिज़ाज फ़ास्ट का है, ख़्वाह वो फ़ूड हो या फ़न (दोनों हिन्दी-अंग्रेज़ी मानी में).</div>
<div style="margin: 6px 0px; text-align: justify;">
बहरकैफ़, बात आज के क़िस्से की चल रही थी, जो तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाओं (ज़रा अनुप्रास की छब और छटा पर ग़ौर करें, मेहरबान) के बारे में है.</div>
<div style="margin: 6px 0px;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="line-height: 1.38;">अब आप सोच रहे होंगे कि ये किन ख़वातीन का ज़िक्र हुआ चाहता है. तो हम ससपेन्स में कटौती करते हुए आपको शुरू ही में बता दें कि ये तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाएं हैं....दिल थाम कर बैठिये हुज़ूर .... गीता श्री, अचला शर्मा और रमा पाण्डे, जिनमें से दो आख़िरी शख़्सियतें बीबीसी में हमारी सहकर्मी रहीं और पहली मोहतरमा से हमारा परिचय बीबीसी से लौटने के काफ़ी बाद यहां इस शहर शाहजहानाबाद उर्फ़ दिल्ली में हुआ. यह पोस्ट दरअसल गीताश्री के बारे मॆं है, जिनकी याद, जैसा मैंने पहले ही अर्ज़ किया, मुझे फ़ेसबुक पर आते ही हर बार हो आती है.</span><br />
<span style="line-height: 1.38;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="line-height: 1.38;"><span style="color: #cc0000;">(जारी इस गुज़ारिश के साथ कि कोई राय क़ायम करने से पहले पूरा क़िस्सा सुन लें)</span></span></div>
</div>
</div>
<div class="" style="font-size: 14px;">
</div>
</div>
<div>
<div data-ft="{"tn":"H"}">
</div>
</div>
</div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-15584190045214406812015-09-08T07:43:00.003-07:002015-09-08T07:43:39.707-07:00एक औलिया की ज़बानदानी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<b>दोस्तो,</b><br />
<b>इधर कुछ दिनों से हमें ये ख़दशा बुरी तरह सताने लगा है कि रफ़्त:-रफ़्त: हम औलियों की कोटि में पहुंचनेे वाले हैं. बात यों है कि जब लोग हम जैसे सीधे-सादे (अपनी तरफ़ के गांव-जवार की बोली में कहें तो "सोधे") शख़्स से उस के ग़लत गुणों-अवगुणों की वजह से रश्क करने लगें तो मामला कुछ ऐसा ही होता है. यानी दिगरगूं.</b><br />
<b>अब यही देखिये कि कुछ दिन पहले हमारे एक युवा मित्र ने जो ख़ासे ज़हीन हैं मगर अपनी तमामतर ज़हानत को एक बिल्ली के प्रेम में ज़ाया कर रहे हैं और आये दिन उसकी फोटू चिपकाय-चिपकाय के हम लोगों का सुख-चैन हराम किये रहते हैं, हमें अपनी हसरत-भरी आंखों से देखते हुए ययाति के लक़ब से नवाज़ा दिया.</b><br />
<b>कल एक और युवा मित्र ने, जो ख़ासे लड़ाके मशहूर हैं और अब नौ हज़ार चूहे खाने के बाद सब त्याग कर योग की शरण चले गये हैं, हमारी उमर के ब्योरे तलब करने के बाद हमारे बुढ़ापे पर तंज़ करते हुए हमारा शुमार "जवानों" में कर डाला.. पिछले दिनों किन्हीं और वजूहात से लोग हमारे बारे में तरह-तरह की चर्चा-कुचर्चा में मुब्तिला रहे ही हैं.</b><br />
<b>और रही-सही क़सर आख़िरी तिनके की मसल पर अमल करते हुए जब आज हमारी एक सगोतिया युवा और प्रतिभाशाली कवयित्री ने हमारी कविता के नहीं, बल्कि एकाधिक भाषाओं की हमारी जानकारी के सबब हमसे ईर्ष्या का इज़हार करते हुए पूरी कर दी, तो हमको यक़ीन हो गया कि हम चाहें या न चाहें, हमारे ये शुभ-चिन्तक हमें सूली पर देख कर ही ख़ुश होंगे.</b><br />
<b>बहुत दिन पहले एक कहावत पढ़ी थी कि कुछ तो पैदाइशी औलिया होते हैं, कुछ अपने कर्मोम से औलिया बनते हैं, मगर कुछ ऐसे ख़ुश या बद नसीब होते हैं जिन पर औलियाई थोप दी जाती है.लगता है कि हम इस तीसरी कोटि में प्रवेश किया ही चाहते हैं. लगातार हमें हृत्कम्प होता रहता है कि या रब्ब, अब और क्या हमें देखना बाक़ी है.</b><br />
<b>बहरहाल यह तो उस कहानी की भूमिका मात्र है जो हम आपके सामने बयान करना चाहते हैं उस आख़िरी टीप के हवाले से जो हमारी ज़बानदानी के सिलसिले में की गयी. मगर उसे हम एक अदद चाय की चुस्की और एक सुट्टा 501 नम्बर गणेश छाप मंगलूर बीड़ी का लगा कर बयान करेंगे. तब तक जिसे रुख़सत होना है वो किसी दूसरे के लिए जगह ख़ाली करके फ़ेसबुक सर्फ़िंग का एक दौर पूरा कर ले. (क़िस्सा जारी है).</b><br />
<b><br /></b>
<b>लीजिये आपके इन्तज़ार की घड़ियां ख़त्म करते हुए क़िस्सा पेश है.</b><br />
<b><br /></b>
<b>हां तो जनाब, अब हम क़िस्से को आगे बढ़ाते हैं, मगर उससे पहले दो बातें. पहली यह कि हर माहिर क़िस्सागो जानता है कि जब तक क़िस्से में पेंच-ओ-ख़म न हों, लज़्ज़त नहीं आती. चुनांचे: हमने एक भूमिका पहले ही लगा दी और अब इस क़िस्से को जो एक बाहुनर, बावक़ार मलियाली शख़्स की सलाह से ताल्लुक़ रखता है, बयान करने से पहले कुछ पुरपेंच गलियों की सय्याही करने की इजाज़त चाहते हैं. दूसरी बात यह है कि हमने बहुत पहले संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा था जो अरसिकों से काव्य निवेदन करने से सम्बन्धित है. जाने भर्तृहरि का था या कालिदास का. कुछ यों था --</b><br />
<b><br /></b>
<b>इतरकर्मफलानि यद्दच्छ्या विलिखितानि सहे चतुरानन |</b><br />
<b>अरिसिकेषु कवित्वनिवेदनं शिरसि मालिखमालिखमालिख ||</b><br />
<b>(हे चतुरानन, मेरी ज़िन्दगी के दूसरे प्रसंगों के सिलसिले में तुम मेरे नसीब में चाहे जो लिखना चाहो या गवारा करो, मुझे स्वीकार होगा, मगर अरसिकों के सामने काव्य निवेदन करने का नसीबा मुझे मत देना, मत देना, मत देना.)</b><br />
<b><br /></b>
<b>तो जिनको इतना पढ़ने के बाद जमुहाई सताने लगे, वे बराये-मेहरबानी तशरीफ़ ले जायें. ताकि हम क़िस्से को आगे बढ़ा सकें.</b><br />
<b><br /></b>
<b>बात उस समय की है, जब हमारी उमर मुश्किल से 23 बरस की थी. शादी हुए फ़क़त पांच हफ़्ते हुए थे कि हमें अपने बड़े भाई के साथ केरल के दौरे पर जाना पड़ा. आसानी यह थी कि संयुक्त परिवार था और हमें यह फ़िक्र न थी कि हमारी नयी ब्याही बीवी को अकेलेपन का सामना करना पड़ेगा. उन दिनों आज जैसी तेज़-रौ रेलगाड़ियां नहीं थीं, न रिज़र्वेशन की ऐसी सुविधा, न सीधा कनेक्शन. इलाहाबाद से इटारसी, इटारसी से गाड़ी बदल कर मद्रास और मद्रास से फिर लम्बा सफ़र मीटर गेज की गाड़ी पर तय करते हुए तिरुवनन्तपुरम. </b><br />
<b><br /></b>
<b>ख़ैर साह्ब, इटारसी से हम जी.टी. पर सवार हो गये. भोर में कोई चार बजे हम नेल्लूर-गुण्टूर के क़रीब आन्ध्र-तमिलनाडु की सीमा पार कर रहे थे कि एक अख़बार वाला आया और बोला कि अन्नादुरै का देहान्त हो गया है. यह सुनना था कि लोगों ने फटाफट खिड़्कियां बन्द करना शुरू कर दिया. हम चकित. अभी आन्ध्र में थे और लोग भी ज़्यादातर आन्ध्रवासी थे. बोले, देखते चलिये, अभी लोग पत्थर चलाने लगेंगे. हमें और हैरत हुई. हमने कहा यह तो दुख का मौक़ा है, पत्थर चलाने की क्या ज़रूरत. और फिर अन्नादुरै का क़त्ल तो हुआ नहीं है. बोले यहां के लोग ऐसे ही पागल हैं. बहरहाल. कुछ देर बाद सचमुच खिड़कियों से कुछ पत्थर आ टकराये. </b><br />
<b><br /></b>
<b>सुबह हुई. हम मद्रास पहुंचे तो पहली बार मैंने टोटल हड़ताल का मंज़र देखा. मैं मान गया कि तमिलनाडु सार्वजनिक हड़तालों के सिलसिले में हिन्दुस्तान का सूबा-ए-सिरमौर है. कुछ नहीं चल रहा था. हम मद्रास सेण्ट्रल पर थे और हमें शाम को वह गाड़ी पकड़नी थी जो एगमोर से तिरुवनन्तपुरम जाती थी. मज़े की बात यह कि खाने को भी कुछ नहीं मिल रहा था. किसी तरह जुगाड़ करके कुछ साम्बर-भात का जुगाड़ किया गया और एक चार पहिये की ठेला गाड़ी पर सामान रखे (बैग, सूटकेस, प्रकाशन की किताबों का ट्रंक, आदि), ठेलेवाले के साथ बराबर का हाथ लगाते हुए हम एगमोर पहुंचे.</b><br />
<b><br /></b>
<b>(बाद में मुझे राजीव गान्धी की हत्या के बाद हैदराबाद में कुछ इसी क़िस्म का नज़ारा देखने को मिला जब मैं वहां गोलकुण्डा के साउण्ड ऐण्ड लाइट शो की स्क्रिप्ट लिखने के सिलसिले में ठहरा हुआ था और मैंने किसी लोकप्रिय नेता की मौत या गिरफ़्तारी पर हड़ताल और ख़ुदकुशियों की उस प्रवृत्ति को पहचाना जो आन्ध्र और तमिलनाडु में आम है. यह बात अलग है कि तमिलनाडु इसमें अव्वल है और बाज़ी मार ले जाता है.)</b><br />
<b><br /></b>
<b>ख़ैर, इस विषयान्तर के बाद, आगे बढ़ें तो रात को हम केरल जाने वाली गाड़ी में जा सवार हुए. रात भर से ज़्यादा की सफ़र था और भीड़ नाम मात्र को थी. हमारे डिब्बे में एक और शख़्स था. उससे बातों का सिलसिला चल निकला. नाम तो उसका अब इतने बरस बाद याद नहीं, पर उसकी सूरत-शक्ल आज भी स्मृति में नक़्श है. आम मलियालियों की तरह सांवला रंग था उसका, गठा हुआ छरहरा लम्बा क़द, तीखे नख-शिख, बदन पर सफ़ेद लुंगी और सफ़ेद ही बुश्शर्ट. बोली में अनुभव के कशिश और ख़ुशबू. पता चला बहुत दिन कराची और उधर फ़्रण्टियर सूबे तक के इलाक़े में कटे हैं उसके. दिलचस्प शख़्सियत का मालिक था.</b><br />
<b><br /></b>
<b>बातों-बातों में मैंने ज़बानें सीखने के अपने शौक़ का ज़िक्र किया. तब उसने मुस्कराते हुए जो कहा वह मैं आज तक नहीं भूला. बोला, हमारे यहां एक कहावत है कि अगर कोई भाषा सीखनी हो तो उस भाषा-भाषी प्रान्त की लड़की से शादी कर लो. मैंने कहा, इससे तो बहुत मुश्किल पैदा हो जायेगी. कारण यह कि अगर कोई एक से ज़्यादा ज़बानें सीखना चाहे तो.... इस पर वह कुछ नहीं बोला. सिर्फ़ अपनी मानीख़ेज़ मुस्कान बिखेरता रहा. फिर बातें दूसरी तरफ़ मुड़ गयीं.</b><br />
<b><br /></b>
<b>आज जब रश्मि भारद्वाज ने भाषाओं की मेरी जानकारी की बात उठायी तो बेसाख़्ता मुझे 46 साल पहले की यह घटना, वह मलियाली सज्जन, और वह पहली केरल यात्रा ज़ेहन में कौंध गयी. </b><br />
<b><br /></b>
<b>(मेहरबानी करके इससे यह अन्दाज़ा मत लगा लीजियेगा कि अपने हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी, पंजाबी और बांग्ला ज्ञान के लिए मुझे कोई वैसी हिकमत-अमली आज़मानी पड़ी है, जैसी उन मलियाली सज्जन ने तजवीज़ की थी. यों हमारे कुछ टेढ़ी नज़र वाले दोस्त इस क़िस्से से ये नसीहत निकाल कर पेश कर सकते हैं कि एक पत्नीव्रत लोगों को एक से ज़्यादा भाषा नहीं सीखनी चाहिये, ज़रूरत ही क्या है.) </b><br />
<br />
<br /></div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-73332108778534931082015-08-25T21:39:00.000-07:002015-08-25T21:47:34.771-07:00मुसन्निफ़ की तलाश में<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<span style="color: #cc0000; font-size: x-large;"><span style="background-color: white; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.3199996948242px;">मुसन्निफ़ की तलाश में</span></span><br />
<span style="color: #cc0000; font-size: x-large;"><br style="background-color: white; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.3199996948242px;" /><span style="background-color: white; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.3199996948242px;">एक किताब का ख़ाका</span></span><br />
<span style="font-size: x-large;"><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.3199996948242px;"><br /></span></span>
<span style="font-size: x-large;"><span style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.3199996948242px;"><br /></span></span>
<br />
<span style="font-size: large;">बया उरीद गर ईं जा बुवद ज़बाँदाने </span><br />
<span style="font-size: large;">ग़रीबे-शहर सुख़नहा-ए-गुफ़्तनी दारद</span><br />
<span style="font-size: large;">((ज़बानें जानता हो जो बुला के लाओ उसे</span><br />
<span style="font-size: large;">शहर में एक परदेसी बताना चाहे बहुत कुछ))</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>-- ग़ालिब</span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">दोस्तो, </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">जैसे-जैसे हम साठे-तो-पाठे की मसल पर पाठे होने के बाद बाइबल के तीन कोड़ी और दस बरस की तरफ़ बढ़ते गये हैं, हम देख रहे हैं कि दिमाग़ का ख़लल और दिल का जुनून उसी रफ़्तार से बढ़ता गया है. उम्र कम होती देख कर ग़ैब ने भी, हमारे साईं ने जैसे कहा था, ख़यालों में मज़ामीन भेजने की कुछ ज़ियादा ही ठान ली है. मगर ऐसा तो हमारे साईं के साथ भी हुआ था (हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले). बहरहाल, चूंकि आजकल रात बहुत देर हो जाती है, ज़िन्दगी कुछ ठीक नहीं चल रही, चुनांचे सुबह कुछ अजीब-ओ-ग़रीब ख़याल आते हैं. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आज ग़ैब ही से आया एक नाम उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां साहब. हमने यूट्यूब खोला और अपनी पसन्दीदा दो रचनाएं सुनीं -- एक भैरवी और एक मराठी जिसके दो रूप मिले.फिर जाने क्या सूझी साहेबो, हमने विकीपीडिया पर उस्ताद साहब का पेज खोला. पढ़ने से पहले दायीं तरफ़ नज़र डाली देखा जन्म और मौत की तारीख़ों के नीचे औलाद के नाम पर लिखा था सुरेशबाबू माने. हम एकबारगी चकरा गये. ख़ान साहब की ज़िन्दगी के बारे में पढ़ा. पैदाइश सन 1872 में कैराना, मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश एक क़दीमी मूसिकारों के ख़ानदान में. तालीम अपने वालिद उस्ताद काले ख़ां साहब से और चचा अब्दुल्ला ख़ां से और कुछ रहनुमाई एक और चचा नन्हे ख़ां से. पहले सारंगी में शुरुआत, फिर वीणा, तबला और सितार को आज़माने के बाद गायन का फ़ैसला. अपने भाई अब्दुल हक़ के साथ गाने की शुरुआत और जगह-जगह राह-पैमाई. आख़िर पहुंचे बड़ौदा जहां दोनों को दरबारी संगीतकार का दर्जा मिला. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">यहीं से क़िस्मत ने अपना खेल दिखाना शुरू किया. राजमाता के भाई थे मराठा गोमान्तक सरदार मारुति राव माने, जिनकी बेटी तारा बाई को सिखाते-सिखाते कब दोनों इतने क़रीब आ गये कि पता भी न चला और दोनों शादी की ठान बैठे. ख़ूब बावेला मचा. मगर सरदार सरदार थे तो तारा बाई दुख़्तरे-सरदार. देश निकाला मिला उस्ताद को भी, उनकी नयी ब्याही बीवी को भी और भाई को भी. अब्दुल करीम ख़ां साहब बम्बई चले आये और वहां बस गये. 1902-1922 के बीच पांच बच्चे हुए -- अब्दुल रहमान, कृष्ना, चम्पा कली, गुलाब और सक़ीना. 1922 में ताराबाई ने पति से अलग होने का फ़ैसला किया और बच्चों का फिर से नामकरण किया और अब्दुल रहमान, कृष्ना, चम्पा कली, गुलाब और सक़ीना बन गये (रुकिये और दिल थाम कर बैठिये, क्योंकि यहीं से इस क़िस्से का सबसे बड़ा मोड़ आने वाला है) सुरेशबाबू माने, हीरा बाई बड़ोदकर, कृष्ण राव माने, कमला बाई बड़ोदकर और सरस्वती राणे. जी, वही हीरा बाई बड़ोदकर जिन्हें सरोजिनी नायडू ने गान कोकिला कहा था और वही सरस्वती राणे जिन्होंने अपने पार्श्व गायन से धूम मचा दी थी. इसके बाद उस्ताद का गाना भी बदल गया, उसमें ज़्यादा अवसाद आया गहराई आयी. वे और दक्षिण उतरे और संगीतकारों की स्वाभाविक जन्मभूमि कोल्हापुर, धारवाड़ और मैसूर आने-जाने के क्रम में मिरज में बस गये. इससे पहले वे 1913 में पूना में आर्य संगीत विद्यालय खोल चुके थे जहां वे अन्य उस्तादों के उलट सबको तालीम देते थे. यही सिलसिला बाद में भी चलता रहा जब उन्होंने अपने चचेरे भाई उस्ताद वहीद ख़ां के साथ किराना घराना की शाख़ वहां जमायी और करनाटकी शैली के मेल से एक क्रान्ति पैदा कर दी.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आर्य संगीत विद्यालय में उस्ताद साहब से संगीत की तालीम हासिल करने के लिए 1920 में आयी 1905 में गोआ में जन्मी सरस्वतीबाई मिरजकर नाम की शिष्या भी थी. ख़ान साहब और ताराबाई के सम्बन्ध-विच्छेद के बाद उस्ताद साहब ने सरस्वतीबाई से शादी कर ली जिन्होंने अपना नाम बानूबाई लत्कर रख लिया और दोनों मिरज जा कर बस गये और मद्रास और मिरज में समय गुज़ारने लगे. बानूबाई के पहले-पहले रिकार्ड 1937 में रिलीज़ हुए, ख़ान साहब के गुज़रने के बाद. मिरज में ख़ान साहब की दुनियावी विरासत उन्हीं को मिली और वे मिरज ही में रहीं. धीरे-धीरे उन्होंने अपने को संगीत की दुनिया से पीछे खींच लिया और एक नितान्त निजी ज़िन्दगी जीती रहीं. 1970 में मिरज में उनका इन्तेक़ाल हुआ और वहीं उस्ताद साहेब की क़ब्र के बग़ल में उन्हें दफ़्नाया गया. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">लेकिन हज़रात और ख़वातीन, हमारा मक़सद सिर्फ़ उस्ताद साहब की ज़िन्दगी का बयान करना ही नहीं था. यह तो असली तरंग-ए-ग़ैब की भूमिका थी. हमारी दिलचस्पी का सबब यह था कि वो कौन-सी बात थी जिससे ताराबाई लगभग पच्चीस साल की शादी-शुदा ज़िन्दगी को छोड़ कर अलग हो गयीं और उन्होंने बच्चों के दोबारा नामकरण भी कर डाले. ख़याल रहे कि अलहदगी के समय बड़े बेटे की उमर थी बीस और सबसे छोटी की नौ. क्या सरस्वतीबाई मिरजकर का भी कोई दख़ल इसमें था ?</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">चूंकि इस प्रसंग का हमारी ज़ाती ज़िन्दगी से भी कुछ कांटा भिड़ता है, चुनांचे: हमें इसमें एक बड़े उपन्यास की सम्भावना नज़र आयी. मज़े की बात यह है कि बेटे को तालीम बाप ने दी और बड़ी बेटी को उसके चचा उस्ताद वहीद ख़ां साह्ब ने. उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां के सबसे बड़े शिष्य थे सवाई गन्धर्व और शिष्या सुरश्री केसर बाई केरकर. यह वही किराना घराना </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">याद रहे यह वो ज़माना था, जब सामने बैठ कर सुनने की सहूलत ही थी, छोटी महफ़िलों से ले कर बड़े-मझोले सम्मेलनों तक. फिर आया गिरामोफ़ोन का युग. पहले-पहले 78 RPM (revolutions per minute) रिकार्ड बने. मीयाद 3-3.30 मिनट. अब सोचिये, पक्के राग जो रात-रात भर गाये जाते थे, 3-3.30 मिनट में पेश करने पड़े. यहीं उस्ताद अब्दुल करीम ख़ान साहब की प्रतिभा के दर्शन होते हैं. यही गुण बहुत बाद में चल कर हमें रवि शंकर और विलायत ख़ां और अमीर ख़ां साहब में नज़र आता है.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इसी मुक़ाम पर पहुंच कर इस कहानी में गौहर जान की कहानी भी जोड़ी जा सकती है जो अब्दुल करीम ख़ान साहब से एक साल बाद 1873 में पैदा हुईं और उस्ताद साहब से सात साल पहले 1930 में गुज़र गयीं. गौहर जान का जन्म पटना में ऐन्जेलीना येओवर्ड के रूप में हुआ था. पिता विलियम राबर्ट येओवर्ड आर्मीनियाई यहूदी थे जो आज़मगढ़ में बर्फ़ फ़ैच्टरी में इन्जीनियर थे जिन्होंने 1870 में एक आर्मीनियाई यहूदी लड़की ऐलन विक्टोरिया हेमिंग से शादी की थी.विक्टोरिया का जन्म और लालन-पालन हिन्दुस्तान में हुआ था और उन्हें संगीत और नृत्य की तालीम मिली थी. दुर्भाग्य से, 1879 में यह शादी नाकाम साबित हुई और मां-बेटी पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. विक्टोरिया अपनी बेटी को ले कर 1881 में एक मुस्लिम सामन्त ख़ुर्शीद के साथ, जो विक्टोरिया के संगीत को उनके पति की बनिस्बत ज़्यादा सराहते थे, बनारस चली आयीं. आगे चल कर विक्टोरिया ने इस्लाम अपना लिया और अपना नाम मलिका जान और बेटी का नाम गौहर जान रख दिया.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">1902 में हिन्दुस्तानी संगीत के इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना हुई. इसी साल "ग्रामोफ़ोन कम्पनी" ने गौहर जान को आमन्त्रित किया कि वो कम्पनी के लिए गानों की एक श्रृंखला रिकार्ड कर दें. ये रिकार्ड बरसों तक कम्पनी की शान बने रहे. गौहर जान को हर रिकार्ड के लिए 3000 रु. दिये गये थे जो उस समय के हिसाब से एक बहुत बड़ी रक़म थी. 1902-1920 तक गौहर जान ने दस भाषाओं में 600 से ज़्यादा गाने रिकार्ड कराये. वे हिन्दुस्तान की पहली "रिकार्डिंग सितारा" बनीं, जिन्होंने बहुत जल्द ही रिकार्डों की अहमियत समझ ली थी. इसे भी दर्ज किया जाना चाहिये कि गौहर जान ही ने शास्त्रीय टुकड़ों को 3-3.30 मिनट में पेश करने की हिकमत विकसित की थी, क्योंकि 78 RPM वाले तवों की बन्दिश के चलते "ग्रामोफ़ोन कम्पनी" ने इस पाबन्दी पर ज़ोर दिया था. और यह मान-दण्ड तब तक क़ायम रहा जब तक कि कई दशकों बाद एक्स्टेण्डेड प्ले और लौंग प्ले रिकार्ड नहीं बनने लगे. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">चूंकि अब्दुल करीम ख़ान साहब ख़ुद ग्रामोफ़ोन तवों की अहमियत से वाक़िफ़ थे और 78 RPM के रिकार्डों की बन्दिश के अन्दर-अन्दर शास्त्रीय राग पेश करने का एक मेआर क़ायम कर रहे थे, चुनांचे वे गौहर जान से नावाक़िफ़ तो नहीं ही होंगे. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">कौन लिखेगा यह कहानी जो खां साहब के माध्यम से किराना घराने और जयपुर अतरौली घरानों को जा कर जोड़ती है धारवाड़-कोल्हापुर-मिरज में ? जिससे सवाई गन्धर्व, केसरबाई केरकर और आगे चल कर वसवराज राजगुरु, गंगूबाई हंगल, भीमसेन जोशी, हीराबाई बड़ोदकर, बेगम अख़्तर और मुहम्मद रफ़ी जैसे गायक और रामनारायण जैसे सारंगी वादक निकले. कौन लिखेगा ख़ां साहब की अपनी व्यथा और तारा बाई की और बच्चों की. और गौहर जान और उनके योगदान की. आह ! साहबो, हमें तो उमर ने इस लायक़ नहीं रखा कि बिना अच्छी तरह पड़ताल और जानकारी के ये क़िस्सा लिख सकें. वरना क़सम अपनी देवी सरस्वती की, पच्चीस का सिन होता तो जाते, पांच बरस पता लगाने में लगाते और पांच लिखने में. मगर तब तक क्या हमारी ज़िन्दगी मे वो ज़लज़ला आ चुका होता जो खां साहब की ज़िन्दगी में पचास बरस और हमारी ज़िन्दगी में इक्यावन बरस की उमर में आया जिसने हमें इस क़िस्से की कुछ बारीक़ियां समझने की सलाहियत दी ? है कोई मर्द-ए-मैदां, कोई जीवट वाली ख़ातून जो इस काम को ख़ुश-असलूबी से करे. वैसे, जब हम ये सब लिख चुके थे तो हमें इत्तफ़ाक़ से जानकी बाखले की किताब Two Men And Music: Nationalism In The Making Of An Indian Classical Tradition का पता चला. जो थोड़ा-बहुत अंश फ़्लिपकार्ट वालों ने बतौर झलक दिखाया उससे अन्दाज़ा हुआ कि इस घराने की काफ़ी कुछ जानकारी वहां से मिल सकती है. उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां और ताराबाई वाला प्रसंग भी प्रसंगवश उसमें आया है. मगर बहुत कुछ ऐसा है जिसके लिए कैराना, बड़ोदा, बम्बई, पूना, कोल्हापुर, धारवाड़, मिरज, मैसूर और मद्रास की यात्रा करने, संगीत के प्रति दिलचस्पी होने, संगीत सीखने-सिखाने और रियाज़ करने की और उस ज़माने की रिकौर्डिंग तकनीक और माहौल की जानकारी हासिल करने और थोड़ा-सा उस ज़माने के इतिहास को जानने की दरकार पड़ेगी. काम मुश्किल ज़रूर है, पर नामुमकिन नहीं. और यह तो हमारा उस महान साझी हिन्दुस्तानी परम्परा के तईं हमारा ख़िराज होगा, बशर्ते कि हम इस महान परम्परा और उसके वुजूद को तस्लीम करें. आज तो हालात ने हमें बहुत मजबूर कर दिया है, पर अगर हमारे पास ज़राए’ होते तो आज के हिसाब से हम दो लाख रुपये इस काम के लिए वक़्फ़ कर देते. कल अगर हालात ने पलटा खाया और हम इस क़ाबिल हुए तो हम ये रक़म देने में उज्र न करेंगे. पैसे का ज़िक्र हमने इसलिए किया कि जज़्बे और मेहनत और लगन का कोई मोल नहीं दिया जा सकता, वह अनमोल है, पर जो यात्राएं हमने तजवीज़ की हैं, उनमें पैसा लगता है, मय किराये-भाड़े के, अगर सेकेण्ड क्लास भी जाया जाये. कुछ किताबें जुगाड़नी पड़ेंगी. एक सफ़री टेप रिकौर्डर और कैसेट लेने होंगे. और भी कुछ अख़राजात हो सकते हैं. हम महात्मा गान्धी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के लिए कुछ इसी क़िस्म का काम कर चुके हैं, चुनांचे तजरुबे से बोल रहे हैं. एहतियात रहे कि अगर इस पर उपन्यास न भी बन पड़े, तो कम-अज़-कम एक बेहतरीन क़िस्से का मज़ा ज़ुरूर रहे, जिसका मेआर जनाब शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने अपने तवील क़िस्से "कई चांद थे सरे-आस्मां" में क़ायम कर दिया है. है कोई मर्द-ए-मैदां, कोई जीवट वाली ख़ातून ?</span></div>
<div style="text-align: justify;">
(तमामशुद)</div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-74744330398724536362015-07-31T18:25:00.004-07:002015-07-31T18:25:50.461-07:00अपने आप से लम्बी बहुत लम्बी बातचीत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h2 style="text-align: left;">
<br /></h2>
<h3 style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></h3>
<h3 style="text-align: left;">
<span style="font-size: large;">#</span></h3>
<span style="font-size: large;">अपने आप से एक लम्बी </span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बहुत लम्बी बातचीत करने के लिए </span><br />
<span style="font-size: large;">तुम ढूँढते रहे हो</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस शहर के सम्पूर्ण विस्तार में</span><br />
<span style="font-size: large;">कोई एक निजी और बेहद अकेली जगह</span><br />
<span style="font-size: large;">जो कहीं भी तुम्हें अपने आप से अलग नहीं होने देगी</span><br />
<span style="font-size: large;">2.</span><br />
<span style="font-size: large;">सारे का सारा दिन</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एक डूबता हुआ जहाज़ है।</span><br />
<span style="font-size: large;">अर्से से डूबता हुआ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सारी शक्ति से समुद्र के गहरे अँधेरे को</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपना शरीर समर्पित करता हुआ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जहाज़। धूप में। डूबता हुआ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अर्से से डूबता हुआ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>असफल। नाकामयाब...</span><br />
<span style="font-size: large;">...और रात। रात नहीं,</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>चारों ओर फैला वहीं अटल और आदिम कारागार है -</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने अन्धकार के साथ इस धरती की उर्वरता पर छाया हुआ</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">परती पर उगा कारागार</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जिसके पार</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अब कोई आवाज़ - कोई आवाज़ नहीं आती</span><br />
<span style="font-size: large;">सच्ची बात कह देने के बाद</span><br />
<span style="font-size: large;">कोई चीख़ नहीं... कोई पुकार नहीं....</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कोई फ़रियाद नहीं... याद नहीं...</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हारा अकेलापन इस कारागार का वह यातना-गृह है,</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जहाँ अब बन्दियों के सिवा कोई नहीं।</span><br />
<span style="font-size: large;">कोई नहीं, चीख़ता हुआ और फ़रियाद करता हुआ और उदास...</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उदास और फ़तहयाब...</span><br />
<span style="font-size: large;">सच्ची बात कह देने के बाद</span><br />
<span style="font-size: large;">3.</span><br />
<span style="font-size: large;">सच्ची बात कह देने के बाद </span><br />
<span style="font-size: large;">चुप हो कर तुम सहते रहोगे इसी तरह</span><br />
<span style="font-size: large;">उस सभी ‘ज़िम्मेदार और सही’ लोगों के अपमान।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">नफ़रत करते हुए और जलते हुए और कुढ़ते हुए।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">क्योंकि तुम्हें लगता है,</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>चालू और घिसे-पिटे मुहावरों के बिना </span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जी नहीं सकता</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हारा यह दिन-दिन परिवर्तित होता हुआ देश।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सच्ची बात कह देने के बाद तुम पाते हो,</span><br />
<span style="font-size: large;">तुमने दूसरों को ही नहीं,</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपनों को भी कहीं-न-कहीं</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>ढा दिया है</span><br />
<span style="font-size: large;">और तुम चुपचाप और शान्त</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने साथियों की शंका-भरी नज़रें देखते हुए टूट जाते हो।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इसी तरह टूटता रहता है हर आदमी निरन्तर</span><br />
<span style="font-size: large;">शंका और भय और अपमान से घिरा हुआ -</span><br />
<span style="font-size: large;">सच्ची बात कह देने के बाद</span><br />
<span style="font-size: large;">लोगों से अपमानित होते रहने की विवशता</span><br />
<span style="font-size: large;">नफ़रत करते, जलते और कुढ़ते रहने की आग से</span><br />
<span style="font-size: large;">गुज़रते रहने के बावजूद - सहता हुआ।</span><br />
<span style="font-size: large;">4.</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं एक अर्से के बाद अपने शहर वापस आया हूँ</span><br />
<span style="font-size: large;">और मुझे नहीं लगता, इस बीच </span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कहीं भी कोई अन्तर आया है</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">कोई अन्तर नहीं:</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मोमजामे की तरह सिर पर छाये आकाश में,</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जाल की तरह बिछी हुई सड़कों, अँधेरी उदास गलियों </span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>और मीलों से आती हुई,</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>गन्दे नालों और अगरबत्ती की मिली-जुली बास में</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">कोई अन्तर नहीं:</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>लोगों के निर्विकार भावहीन चेहरों में</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उनकी घृणा में, द्वेष में</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">कोई अन्तर नहीं:</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>शहर के दमघोंटू, </span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>नफ़रत और पराजय-भरे परिवेश में</span><br />
<span style="font-size: large;">सिर्फ़ शहर में जगह-जगह उग आये हैं</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कुकुरमुत्तों की तरह</span><br />
<span style="font-size: large;">कुछ खोखले, रहस्यमय और खँडहरों जैसे टूटते हुए मकान</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">क्या इस अन्तर में उतनी ही सच्चाई है</span><br />
<span style="font-size: large;">जितनी नींद से सहसा जागने पर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>स्वप्न की सच्चाई होती है ? </span><br />
<span style="font-size: large;">नहीं। यह स्वप्न नहीं है।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एक लम्बे अर्से से टूटता हुआ ताल-मेल है।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिसके अन्दर ज़हरीली लपटें छोड़ते </span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वही सदियों पुराने विषधर हैं</span><br />
<span style="font-size: large;">वही दलदल है</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अन्दर और बाहर फैलता हुआ लगातार</span><br />
<span style="font-size: large;">वही दलदल। वही रेत। वही अँधेरी गलियाँ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बाँझ विष-भरी बेल</span><br />
<span style="font-size: large;">विरासत में मिला हुआ वही घातक खेल</span><br />
<span style="font-size: large;">जिसमें हारे जा कर भी लोग</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपना भविष्य</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>ख़ाली आसमान की तरह ढोते हैं</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">स्वप्न नहीं है यह। ताल-मेल है।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>टूटता हुआ। लम्बे अर्से से।</span><br />
<span style="font-size: large;">5.</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम पूछते हो, मैं क्यों हूँ ?</span><br />
<span style="font-size: large;">इस भ्रष्ट और टूटते हुए माहौल में रहने के लिए</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>घृणा और द्वेष सहने के लिए</span><br />
<span style="font-size: large;">मुझे किसने विवश किया है ?</span><br />
<span style="font-size: large;">क्यों मैं इस विषधर-हवा में रह कर लगातार</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अन्दर और बाहर कटुता सँजोता हूँ ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">किसी भी चीज़ पर इलज़ाम लगाना बहुत आसान है</span><br />
<span style="font-size: large;">सहना - बहुत मुश्किल</span><br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"><span style="font-size: large;"> </span></span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>भाषा पर नाकाफ़ी होने का इलज़ाम</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>दोस्त पर ग़द्दार होने का इलज़ाम</span><br />
<span style="font-size: large;">सबसे आसान है: चीज़ों के, हालात के</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपने ख़िलाफ़ होने का इल्ज़ाम </span><br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"><span style="font-size: large;"> </span></span><br />
<span style="font-size: large;">जबकि मैं जानता हूँ: एक सही इल्ज़ाम भी होता है</span><br />
<span style="font-size: large;">अकर्मण्यता का</span><br />
<span style="font-size: large;">जिसका दाग़ तुम्हारे माथे पर हो सकता है</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सुन पाते हो तुम अब अपनी ही आवाज़</span><br />
<span style="font-size: large;">देख पाते हो अब तुम</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सिर्फ़ अपना ही सूखा और उमर-खाया चेहरा </span><br />
<span style="font-size: large;">पढ़ते हो अब सिर्फ़ अपनी शादी पर लिखा गया सेहरा</span><br />
<span style="font-size: large;">(जिसमें कुछ भी सच नहीं, सिवाय नामों के)</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तुम भूल गये हो बाक़ी नाम</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>भूल गये हो बाक़ी चेहरे</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने हमशक्ल गिरोह में खो गये हो</span><br />
<span style="font-size: large;">ज़िन्दगी के लम्बे मैदान को बेचैनी से पार करते हुए</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">नहीं। अब हम एक-दूसरे की चीख़ों में से</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>नहीं गुज़र सकते - लावे की तरह</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अब सह नहीं सकते हम</span><br />
<span style="font-size: large;">वह भय और आतंक और घृणा</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>और शंका और अपमान। सब कुछ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">क्योंकि नफ़रत आख़िर क्या है ?</span><br />
<span style="font-size: large;">क्या वह धीरे-धीरे अपने अन्दर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>निरन्तर नष्ट होते रहना नहीं है ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>नष्ट होते रहना। लगातार।</span><br />
<span style="font-size: large;">6.</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं जानता हूँ,</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने संसार से कलह</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>तुम्हारा शौक़ नहीं मजबूरी है</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हारी ज़बान पर रखी गयी भाषा</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>और तुम्हारे मन्तव्य के बीच</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> एक अलंघ्य दूरी है</span><br />
<span style="font-size: large;">जिससे भाषा अपने अर्थ को खो कर भी</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> जीवित रहती है</span><br />
<span style="font-size: large;">और रोज़ नये तानाशाहों के कील-जड़े बूट</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपने सीने पर सहती है</span><br />
<span style="font-size: large;">और तुम अपनी ओर तनी पाते हो</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपने साथियों की आरोप-भरी उँगलियाँ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">टूटे हुए हाथों में थामे हुए, </span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपना जलता और सुलगता दिमाग़</span><br />
<span style="font-size: large;">अब कहो</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>क्या तुम कोई नया और कारगर झूठ रच सकते हो ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस दलदल में डूबने से कैसे बच सकते हो ?</span><br />
<span style="font-size: large;">7.</span><br />
<span style="font-size: large;">इसीलिए मैंने अपने रंग-बिरंगे वस्त्रों को</span><br />
<span style="font-size: large;">अजानी यात्राओं पर निकले हुए</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>काफ़िलों के हाथ बेच दिया</span><br />
<span style="font-size: large;">और इस अन्धे कुएँ में चला आया।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यहाँ इतना सन्नाटा है कि सुनाई देता है</span><br />
<span style="font-size: large;">और गहराती साँझ में चमकता हुआ शुक्र</span><br />
<span style="font-size: large;">कभी-कभी आँखों में</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बर्छी की चमकती हुई नोक-सा धँसता चला जाता है।</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम मुझे इस अन्धे कुएँ के</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बाहर निकालने के लिए हाथ बढ़ाते हो</span><br />
<span style="font-size: large;">जब कि मैं जानता हूँ,</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस कुएँ से बाहर निकलना</span><br />
<span style="font-size: large;">एक और भी ज़्यादा अँधेरे मैदान में</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> ख़ूँख़ार सुनसान में</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>खो जाना है</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जहाँ आदमी नहीं जानता</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कि वे राहें कहाँ जाती हैं</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जो इस तरह बिछी हुई हैं</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उसके अन्दर और बाहर</span><br />
<span style="font-size: large;">और आँखें उठाने पर पाता है</span><br />
<span style="font-size: large;">पुतलियों के सामने</span><br />
<span style="font-size: large;">गहरे रंगों से पुते हुए अन्तहीन अँधियारे क्षितिज।</span><br />
<span style="font-size: large;">और किसी भी समय अपने आपको अलग कर सकता है</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने एहसास से। दरकते विश्वास से।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>स्पर्श की माँग को झुठला कर।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इसी तरह मैंने अपने चारों ओर देखा और जाना</span><br />
<span style="font-size: large;">मैंने इसी तरह इस संसार को परखा</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>और इसके घातक सौन्दर्य को पहचाना</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यही वह पहचान है। बहुत गहरी पहचान।</span><br />
<span style="font-size: large;">आँखों की पथरायी पुतलियों से हो कर</span><br />
<span style="font-size: large;">जलते हुए दिमाग़ के स्तब्ध आकाश तक</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मैंने तुम्हारे ताल-मेल को बदलना छोड़ दिया है</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आख़िरकार।</span><br />
<span style="font-size: large;">और अब मुझे अपने गूँगेपन के इस अन्धकार में</span><br />
<span style="font-size: large;">बहुत ज़्यादा - बहुत ज़्यादा आराम है।</span><br />
<span style="font-size: large;">8.</span><br />
<span style="font-size: large;">मुझे नहीं लगता, हमारे बीच</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>किसी तरह का सम्वाद अब सम्भव है।</span><br />
<span style="font-size: large;">मेरे साथ अब तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जब से मैंने अपने लिए चुन लिया है देश</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> दमन और आतंक, घृणा और अपमान और द्वेष</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हें सिर्फ़ एक आशंका है</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं किसी भी दिन तुम्हारे कुछ भेद खोल सकता हूँ</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सरे आम।</span><br />
<span style="font-size: large;">और मुझे मालूम है,</span><br />
<span style="font-size: large;">इसे रोकने के लिए तुम कुछ भी कर सकते हो।</span><br />
<span style="font-size: large;">लेकिन मैं अभी तक निराश नहीं हुआ</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं अब भी तुम्हारे पास खड़ा रहता हूँ, शायद कभी</span><br />
<span style="font-size: large;">जब तुम याद करने की मनःस्थिति में हो या फिर उदास</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं तुम्हें उस घर की झाँकी दिखा सकूं</span><br />
<span style="font-size: large;">जिसे छोड़ कर तुम</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अन्धकार में उगे हुए इस कारागार में चले आये थे</span><br />
<span style="font-size: large;">और तुमने उसे ढूँढ लिया था आख़िरकार</span><br />
<span style="font-size: large;">वह जो तुम्हारे अन्दर बैठा हुआ</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>लगातार तुम्हें सब कुछ सहने के लिए</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>विवश करता रहता था</span><br />
<span style="font-size: large;">जो अपनी तेज़ और तीख़ी आवाज़ में</span><br />
<span style="font-size: large;">तुमसे पूछता रहता था:</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>”कौन-सा रास्ता इस नरक के बाहर जाता है ?“</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">निश्चय ही एक बहुत बड़ी आस</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मुझे तुम्हारे पास</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>खड़े रहने पर विवश करती है</span><br />
<span style="font-size: large;">और तुम्हारी ख़ामोशी की तराश को चुपचाप सहती है</span><br />
<span style="font-size: large;">एक समय था, जब तुमने निरन्तर</span><br />
<span style="font-size: large;">मेरा अपमान करने की कोशिश की थी</span><br />
<span style="font-size: large;">पर मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया है</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आख़िरकार</span><br />
<span style="font-size: large;">और मन पर पड़े धब्बों को</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आईने की तरह साफ़ कर दिया है।</span><br />
<span style="font-size: large;">9.</span><br />
<span style="font-size: large;">तुमसे कहने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है</span><br />
<span style="font-size: large;">मैंने अपने ऊपर ओढ़ लिया है आकाश</span><br />
<span style="font-size: large;">और हरी घास की इस विशाल चरागाह पर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>पाप की तरह फैल गया हूँ</span><br />
<span style="font-size: large;">मुझे ख़ुद कभी-कभी आश्चर्य होता है। बहुत आश्चर्य </span><br />
<span style="font-size: large;">मैं तुम्हारे साथ क्यों हूँ ?</span><br />
<span style="font-size: large;">जबकि तुम्हारे चारों ओर घिरा हुआ</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>तुम्हारा परिवेश है</span><br />
<span style="font-size: large;">दमन है। आतंक है। नफ़रत, अपमान और द्वेष है</span><br />
<span style="font-size: large;">क्या तुम्हें कभी इस पर विश्वास होगा</span><br />
<span style="font-size: large;">मुझे सचमुच तुमसे कोई आकांक्षा नहीं है</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>तुम अब भी लौट सकते हो</span><br />
<span style="font-size: large;">बड़े आराम से। धूप में पसरी हुई उन्हीं चरागाहों में</span><br />
<span style="font-size: large;">जहाँ तुमने एक-एक करके छोड़ दिये थे</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपने सारे आकाश।</span><br />
<span style="font-size: large;">नहीं। मुझे यह कभी नहीं महसूस हुआ -</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने और तुम्हारे सम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिए</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मुझे किसी व्याख्या की ज़रूरत है।</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं - जो तुम्हारी उस घातक सक्रियता का आखेट हूँ</span><br />
<span style="font-size: large;">आज लौट जाना चाहता हूँ। वापस</span><br />
<span style="font-size: large;">यात्रारम्भ के उसी स्थान पर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जहाँ पाँसों के खेल से नियन्त्रित होता है</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>द्रव्य के एक गाढ़े घोल में</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>पूरा-का-पूरा वंश-वृक्ष</span><br />
<span style="font-size: large;">10.</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हें इसका ज़रा भी आभास नहीं है पिता</span><br />
<span style="font-size: large;">कि तुम कभी-कभी मुझे कितना उदास कर जाते हो।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">वह जो मुझसे बार-बार उप न कर बहता रहा</span><br />
<span style="font-size: large;">वह जिसे सहा मैंने लगातार</span><br />
<span style="font-size: large;">वह जिसकी प्रखर धूप मुझे झुलसाती रही</span><br />
<span style="font-size: large;">वह जिसकी आभ मुझे निराभ कर जाती रही</span><br />
<span style="font-size: large;">वही रस। लपटों के बीच से वही रस</span><br />
<span style="font-size: large;">मुझे पुकारता है। जो मेरा शरीर है</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">रौंदी हुई घास पर पैरों के निशान</span><br />
<span style="font-size: large;">सीने पर महसूस करते हुए</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं आम पर फूटते बौर को देखता</span><br />
<span style="font-size: large;">और दहकते पलाश को याद करता</span><br />
<span style="font-size: large;">जब एक तेज़ चाकू की तरह काम करता था वसन्त</span><br />
<span style="font-size: large;">और रंग हवा के साथ मिल कर एक ऐसी साज़िश रचते</span><br />
<span style="font-size: large;">जिससे धूप ख़ून में उबलती हुई महसूस होती।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">बहुत-से दिन मैंने इसी तरह बिताये हैं।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बहुत-सी रातें</span><br />
<span style="font-size: large;">निरर्थक प्रतीक्षा की तरह लम्बे, बहुत लम्बे दिन</span><br />
<span style="font-size: large;">जिनकी सुनहली धूप मेरी याददाश्त पर पसरी हुई है</span><br />
<span style="font-size: large;">मेरे चाहने या न चाहने के बावजूद</span><br />
<span style="font-size: large;">जबकि दिमाग़ आजकल बिलकुल सुन्न हो गया है</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हें इसका ज़रा भी आभास नहीं है पिता</span><br />
<span style="font-size: large;">कि तुम कभी-कभी मुझे कितना उदास कर जाते हो</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तुमने मुझे मेरे बचपन की चित्रावलियों के काट कर</span><br />
<span style="font-size: large;">वयस्कता के कैसे घृणा-भरे नरक में धकेल दिया है</span><br />
<span style="font-size: large;">जहाँ सहसा और अनायास।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मैं अपंग हो गया हूँ - और असहाय</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तुम्हें मालूम है, मैं किस तरह चुपचाप नगर में</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बिलकुल अकेला चला जाता</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>और अपनी देह बार-बार खो आता</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अगले दिन मेरे मित्रों को आश्चर्य होता</span><br />
<span style="font-size: large;">जब वे पाते मेरे चेहरे पर </span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अजाने वृक्षों की घनी, गहरी चितकबरी छाया।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मेरे सामने से रात के पिछले पहरों में एक जुलूस गुज़रता</span><br />
<span style="font-size: large;">असमर्थ और अशक्त हिलती हुई भुजाओं का। पैरों का।</span><br />
<span style="font-size: large;">शराबी क़हक़हे सड़क से चाँदनी पर तैरते हुए आते।</span><br />
<span style="font-size: large;">और मुझे सौंप जाते: उनींदी रातें। जलती हुई आँखें।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपने ही टूटे हुए संसार का अकेलापन।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">कभी-कभी चाँदनी मेरे कमरे में घुस आती</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>निर्विरोध और चुपचाप</span><br />
<span style="font-size: large;">और उसे पकड़ने के लिए बढ़ते हुए मेरे हाथ, मेरी बाँहें</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>लहर लेते विषधरों में बदल जातीं</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं इसी तरह निःशब्द</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने कमरे के बाहर फैले कारागार में देखता रहता</span><br />
<span style="font-size: large;">और धीरे-धीरे किसी सुनसान प्रहर में</span><br />
<span style="font-size: large;">सामने बाग़ में लगे कचनार के पेड़</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>चाँदनी में ख़ाम¨श</span><br />
<span style="font-size: large;">एक-दूसरे में</span><br />
<span style="font-size: large;">घुल-मिल जाते</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">कभी-कभी मैं भोर मैं</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>किसी लता को अपने चारों ओर लिपटी पाता</span><br />
<span style="font-size: large;">और नींद के हलके झँकोरे से अचानक जाग पड़ता</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">लेकिन वह। मेरी देह। जिसकी मुझे तलाश थी।</span><br />
<span style="font-size: large;">कहीं उस चाँदनी में। शराबी क़हक़हों में।</span><br />
<span style="font-size: large;">आपस में गुत्थम-गुत्था पेड़ों में।</span><br />
<span style="font-size: large;">भुजाओं के जुलूस में। अपने चारों ओर लिपटी लता में।</span><br />
<span style="font-size: large;">या अपने मकान के जहाज़-नुमा खँडहर में</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>खोयी रह जाती।</span><br />
<span style="font-size: large;">11.</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं समझता था -</span><br />
<span style="font-size: large;">इस खँडहर के अन्दर से </span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एक विशाल इमारत खड़ी हो जायेगी</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>रात के अन्तिम पहरों में।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>चाँदनी में निःशब्द घुलती हुई। अदृश्य</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">कभी-कभी मैं प्रतीक्षा करता रह जाता।</span><br />
<span style="font-size: large;">कुछ होगा। कुछ होगा,</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मैं सोचता,</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कुछ ऐसा होगा</span><br />
<span style="font-size: large;">जो सब कुछ बदल देगा।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जो बदल देगा उनींदी रातें। जलती हुई आँखें।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>परती पर उठे हुए अन्तहीन कारागार।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मेरी शाखों को खाते हुए धुँधुआते अन्धकार।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">ओर। दोनों शिखरों के बीच एक गहरी घाटी उग आयेगी</span><br />
<span style="font-size: large;">जिसकी सुनहरी शान्ति में</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपनी सारी शक्ति के साथ</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मैं दौड़ता हुआ निकला जाउँगा</span><br />
<span style="font-size: large;">फिर कभी इस धुँधुआते अँधेरे में वापस नहीं आऊँगा।</span><br />
<span style="font-size: large;">12.</span><br />
<span style="font-size: large;">तभी एक दिन।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एक दिन अचानक,</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अनजाने ही। पिता</span><br />
<span style="font-size: large;">तुमने मुझे खिलौनों की जगह दे दिये थे - शब्द</span><br />
<span style="font-size: large;">जलते हुए और चीख़ते हुए और उदास।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यह तुम्हारी अन्तिम और सबसे कामयाब साज़िश थी।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तुमने मुझे मेरे बचपन से</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>या मेरे बचपन को मुझसे</span><br />
<span style="font-size: large;">काट कर अलग कर दिया था</span><br />
<span style="font-size: large;">और अपनी नसों में उबलते हुए लावे को</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बरदाश्त करता हुआ</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं बहुत जल्द ही ज़िन्दगी के प्रति कटु हो गया था।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मैंने तब भी तुमसे कुछ नहीं कहा था।</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं तो एक ऐसी स्पष्टता चाहता था</span><br />
<span style="font-size: large;">जिससे अपने बचपन को अच्छी तरह देख सकूं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">क्या तुम खड़े रहोगे। इसी तरह। हमेशा-हमेशा के लिए।</span><br />
<span style="font-size: large;">घर की एक मात्र खिड़की के सामने। बाहर से आती हुई</span><br />
<span style="font-size: large;">सुनहरी रोशनी को झेलते हुए। रोकते हुए।</span><br />
<span style="font-size: large;">घर को अपनी विशाल परछाईं में</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>डूब जाने के लिए विवश करते हुए।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और वह सब जो बाहर है और मोहक है,</span><br />
<span style="font-size: large;">उसका एहसास मुझे</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हारी इस चितकबरी परछाईं पर हिलते हुए प्रकाश-धब्बों</span><br />
<span style="font-size: large;">या टूट कर विलीन होती आकृतियों ही से होगा।</span><br />
<span style="font-size: large;">13.</span><br />
<span style="font-size: large;">तभी मैंने तय कर लिया था,</span><br />
<span style="font-size: large;">दिन में अपना समय काटने के लिए</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं रात में दबे पाँव जा कर चुरा लाऊँगा</span><br />
<span style="font-size: large;">दूसरों के अन्तहीन दुःस्वप्न। उनींदी रातें।</span><br />
<span style="font-size: large;">दुरूह और उलझे हुए विचार। परेशान घातें।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मैं सोचता, मैं चुरा लाऊँगा</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>दूसरों की खिड़कियों के अन्दर आने वाला</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अवरोधहीन प्रकाश</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और इस सब में डूब कर</span><br />
<span style="font-size: large;">अपनी उस देह की तलाश करूंगा</span><br />
<span style="font-size: large;">जिसे मैं बहुत पहले</span><br />
<span style="font-size: large;">घर के बाहर लगे कचनार के</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उन गुत्थम-गुत्था पेड़ों के पास</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कहीं खो आया था।</span><br />
<span style="font-size: large;">लेकिन फ़िलहाल। फ़िलहाल तो मैं ही रह गया हूँ</span><br />
<span style="font-size: large;">अब असमाप्त। निरुद्देश्य।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बेचैनी के रंग को पहचानने के बाद।</span><br />
<span style="font-size: large;">14.</span><br />
<span style="font-size: large;">हवा के रुख़ को जानने के बाद</span><br />
<span style="font-size: large;">काले आकाश पर छाये हुए बादलों के जहाज़</span><br />
<span style="font-size: large;">अकस्मात बह निकलते हैं -</span><br />
<span style="font-size: large;">एक अन्तहीन और निरुद्देश्य यात्रा को</span><br />
<span style="font-size: large;">जहाँ हमें सभी रास्तों के अन्त में</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मिलती है वही एक निर्वासित मूर्ति</span><br />
<span style="font-size: large;">और कहीं भी वह पहचान नहीं रह जाती।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मैं पाता हूँ अपनी स्मृति इसी मूर्ति के ख़ून से रँगी हुई -</span><br />
<span style="font-size: large;">एक रक्ताभ और अविस्मरणीय यात्रा -</span><br />
<span style="font-size: large;">अस्त होते सूर्य से फीके क्षितिज की निराभ छाया में</span><br />
<span style="font-size: large;">15</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम ढूँढते रहे हो निरन्तर</span><br />
<span style="font-size: large;">इस शहर के सम्पूर्ण विस्तार में</span><br />
<span style="font-size: large;">अन्तर के सुलगते अन्धकार में</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने आप से एक लम्बी</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बातचीत करने के लिए</span><br />
<span style="font-size: large;">कोई एक निजी और अकेला स्थान</span><br />
<span style="font-size: large;">जो तुम्हें कहीं भी अपने आप से अलग नहीं होने देगा।</span><br />
<span style="font-size: large;">16.</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हारी आँखों से होता हुआ</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>तुम्हारे अन्तर में उग आया है</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एक उदास अनमना बियाबान</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिसे कुतरते रहते हैं बारी-बारी से</span><br />
<span style="font-size: large;">रात और दिन। निःस्तब्धता और कुहराम</span><br />
<span style="font-size: large;">नफ़रत। प्रेम। पाप। प्रतिकार। प्रतिशोध।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">एक उदास अनमना बियाबान</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हारे अन्तर में। तुम्हारी आँखों से</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सब कुछ उन्हें दे देने के बाद भी</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हारे अन्तर में झरता हुआ</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वही एक अछूता संगीत</span><br />
<span style="font-size: large;">जिसमें सारे-का-सारा दिन एक डूबता हुआ जहाज़ है</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अर्से से डूबता हुआ</span><br />
<span style="font-size: large;">जिसकी धूप से रँगे हुए मँडराते विचार</span><br />
<span style="font-size: large;">नीली नदियों की तरह</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हारे दिमाग़ के रेतीले कछार में विलीन होते रहते हैं</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और रात...</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>... रात और एक विचित्र संसार</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अन्तर्मुखी विचित्र संसार</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">दबे पाँव तुम्हारे सपनों पर</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हारे मस्तिष्क के तरल फैलाव पर</span><br />
<span style="font-size: large;">किसी डरावनी छाया की तरह उतरता हुआ</span><br />
<span style="font-size: large;">17.</span><br />
<span style="font-size: large;">तुमने क्यों सौंप दिया है अपने आप को</span><br />
<span style="font-size: large;">उनींदी रातों के इस ज़हरीले संसार के हाथों</span><br />
<span style="font-size: large;">जबकि तुम्हारे अन्तर के गहन अन्धकार में से हो कर</span><br />
<span style="font-size: large;">अब भी गुज़रता है</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आवाज़ों का वह अन्तहीन जुलूस।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">बार-बार वही-वही चेहरे बेनक़ाब </span><br />
<span style="font-size: large;">वही अजीबो-ग़रीब सूरतें</span><br />
<span style="font-size: large;">चीख़ती हुईं और फ़रियाद करती हुईं और उदास...</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>और फ़तहयाब...</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">आख़िर तुम्हें कब तक</span><br />
<span style="font-size: large;">उन्हीं चेहरों का सामना करते रहना पड़ेगा</span><br />
<span style="font-size: large;">जो रात में अपने मुखोश उतार कर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>तुम्हारी आँखों के सामने नाचने लगते हैं।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">उन्होंने मुझे सौंप दिया है</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उनींदी रातों का यह अन्तहीन अन्धकार</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बंजरता से फूट कर निकलता हुआ</span><br />
<span style="font-size: large;">नफ़रत और द्वेष और अपमान की दीवारों से बना</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वह अन्तर्मुखी निःस्तब्ध कारागार।</span><br />
<span style="font-size: large;">इतने सारे दिवंगत और तुम्हारे चारों ओर - ख़ालीपन</span><br />
<span style="font-size: large;">और अधिक - और अधिक घिरता हुआ ।</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हें क्यों महसूस होता है,</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>तुम्हारे अन्दर और बाहर</span><br />
<span style="font-size: large;">क़ब्रों का एक लगातार सिलसिला उग आया है</span><br />
<span style="font-size: large;">और तुम्हारे पीछे वही ख़ून-सनी डोलती छाया है</span><br />
<span style="font-size: large;">तुमने क्यों अपनी सारी याददाश्त को</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपने जलते हुए दिमाग़ से काट कर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अलग कर दिया है</span><br />
<span style="font-size: large;">जबकि तुम सिर्फ़ एक ऐसी स्पष्टता चाहते थे</span><br />
<span style="font-size: large;">जिससे अपने बचपन को अच्छी तरह देख सको।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">18.</span><br />
<span style="font-size: large;">अक्सर तुम इस मकान के बाहर चले आये हो</span><br />
<span style="font-size: large;">अक्सर तुम इस जलते धुँधुआते सुनसान के बाहर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>चले आये हो</span><br />
<span style="font-size: large;">जो तुम्हारा घर है या शहर या देश</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अब तुम चुपचाप घूमते रहते हो</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>शहर की नीम-अँधेरी गलियों में</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अब तुम चुपचाप और सतर्क</span><br />
<span style="font-size: large;">देखते रहते हो बाज़ारों में उमड़ती हुई</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उस जगमगाती भीड़ को</span><br />
<span style="font-size: large;">जिसे तुम बहुत पहले, बहुत पहले ही</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अस्वीकृत कर चुके हो</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">शायद तुम कहीं-न-कहीं उन लोगों से शंकित थे</span><br />
<span style="font-size: large;">जो तुम्हें इस जलते धुँधुआते अन्धकार से जुड़े हुए देख कर</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम पर छिड़क देते अपने अन्दर का</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वही कलुष-भरा मटमैला रंग।</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने अन्तर की सारी नफ़रत से, भय से, शंका से</span><br />
<span style="font-size: large;">तुमने अपने आप को इस भीड़ से अलग कर दिया है</span><br />
<span style="font-size: large;">अलग कर लिया है तुमने आपने आप को</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उन सभी दमकते हुए चेहरों से</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और अब अगर सचमुच तुम अपनी स्मृति को</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>किराये पर उठाना चाहो</span><br />
<span style="font-size: large;">तो कौन देगा तुम्हें इस यन्त्रणा के बदले में</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सुविधाओं से भरा हुआ, शान्त और सुखी,</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>(और ऊब-भरा) अनुर्वर जीवन</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">क्या सचमुच तुम उस जलते हुए नरक में लौट जाओगे ?</span><br />
<span style="font-size: large;">क्या सचमुच तुम फिर कभी वापस नहीं आओगे ?</span><br />
<span style="font-size: large;">19.</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम समझ गये थे, यह सब तुम्हें गूँगा बनाने की</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वही घृणा-भरी साज़िश है</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम समझ गये थे,</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस सब के बावजूद</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उस कोहरे के पार कहीं एक रास्ता निकलता है</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">लेकिन तुम एक लम्बे अर्से से नफ़रत करते रहे हो</span><br />
<span style="font-size: large;">नफ़रत करते रहे हो। और प्यार।</span><br />
<span style="font-size: large;">और इसीलिए तुम इतने दिनों तक ख़ामोश रह कर</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने ही तरीक़े से उन्हें पराजित करते रहे हो</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तब तुम्हारे लिए बहुत ज़रूरी था कुछ-न-कुछ करना</span><br />
<span style="font-size: large;">बहुत ज़रूरी था अपने आप को लगातार</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इसी तरह - इसी तरह छलना</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मुझे याद है। तुमने मुझसे कहा था:</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>‘वक़्त बीत चुका है कहने का</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>चुपचाप नफ़रत और शंका और अपमान</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सहने का वक़्त बीत चुका है।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आओ, हम इस मौन में शामिल हो जायँ</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आओ, अब हम इस लगातार और निष्फल मौन में डूब जायँ</span><br />
<span style="font-size: large;">यह हमें कहीं-न-कहीं तो ले ही जायेगा -</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अन्दर या बाहर - अब कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।’</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और अब तुम्हें कितनी मोहक लगती हैं</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वे सारी-की-सारी साज़िशें</span><br />
<span style="font-size: large;">जिनसे तुम्हारा कोई भी वास्ता नही रह गया है</span><br />
<span style="font-size: large;">20.</span><br />
<span style="font-size: large;">उस जलते हुए ज़हर से गुज़र कर</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हें विश्वास हो गया है:</span><br />
<span style="font-size: large;">जो तुम जानते हो</span><br />
<span style="font-size: large;">उससे कहीं ज़्यादा तुम्हारे लिए उसका महत्व है</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जो तुम महसूस करते हो</span><br />
<span style="font-size: large;">आग की सुर्ख़ सलाख़ों की तरह</span><br />
<span style="font-size: large;">बर्फ़ की सर्द शाख़ों की तरह</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तुम्हें मालूम है: जब कभी तुम्हारा सच</span><br />
<span style="font-size: large;">उनकी नफ़रत और शंका</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>और अपमान से टकराता है -</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>टूट जाता है</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इसी तरह टूट जाता है हर आदमी निरन्तर</span><br />
<span style="font-size: large;">भय और आतंक, अपमान और द्वेष में रहता हुआ</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सच्ची बात कह देने के बाद</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने ही लोगों से अपमानित होते रहने की विवशता</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सहता हुआ।</span><br />
<span style="font-size: large;">और अब तुम थके कदमों से</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपने घर की तरफ़ लौटते हो</span><br />
<span style="font-size: large;">और जानते हो कि</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हारे जलते हुए और असहाय चेहरे पर कोई पहचान नहीं।</span><br />
<span style="font-size: large;">अब तुम लौटते हो। अपने घर की तरफ़। थके कदमों से।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अकेले...और उदास...और नाकामयाब...</span><br />
<span style="font-size: large;">21.</span><br />
<span style="font-size: large;">लेकिन वह ख़ून से सना हुआ डोलता कबन्ध</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम कहीं भी जाओ</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>तुम्हारे साथ-साथ जायेगा</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">दूर, दूर, दूर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उसे ढूँढने के लिए</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>तुम्हें कहीं भी दूर नहीं जाना पड़ेगा</span><br />
<span style="font-size: large;">वह ख़ून से सना हुआ डोलता कबन्ध</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम कहीं भी जाओ - तुम्हारे साथ-साथ जायेगा</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">वही जिसे तुम लगातार-लगातार काट कर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपने से अलग करते रहते हो</span><br />
<span style="font-size: large;">वही जिसे तुम अपने ही अलग-अलग रूप¨ं में</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> गढ़ते रहते हो</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने अन्तर की सारी घृणा से, भय से</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>शंका और अपमान और पराजय से</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">वह लेकिन इसी तरह डोलता रहता है। निरन्तर।</span><br />
<span style="font-size: large;">ख़ून से सना हुआ। तुम्हारे अन्दर और बाहर।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तुम कहीं से भी शुरू करो: हाथों से। पैरों से।</span><br />
<span style="font-size: large;">उसके दीर्घकाय शरीर की गठी हुई माँस-पेशियों से</span><br />
<span style="font-size: large;">या उसकी रक्त-रंजित खाल पर गुदे हुए चिन्हों से</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हें उसे पहचानने में ज़रा भी दिक्कत नहीं होगी</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">दूर, दूर, दूर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>तुम कहीं भी जाओ। तुम देखोगे:</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हारे अन्तर की सारी नफ़रत और शंका,</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपमान और द्वेष झेल कर</span><br />
<span style="font-size: large;">जो छाया तुमसे पीछे और विमुख</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>ख़ून-सनी ज़मीन पर पड़ रही है -</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उसी कबन्ध की है</span><br />
<span style="font-size: large;">उसी रक्त-रंजित डोलते कबन्ध की</span><br />
<span style="font-size: large;">अन्दर और बाहर। चुपचाप। निःशब्द। निर्विकार।</span><br />
<span style="font-size: large;">22.</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं एक लम्बे अर्से से तलाश कर रहा हूँ</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपनी जड़ों की। इस यात्रा पर</span><br />
<span style="font-size: large;">मैं जानता हूँ: सिर्फ़ मुझे ही जाना है</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सभी सम्बन्धों से कट कर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>धरती और चट्टान के अँधेरे में</span><br />
<span style="font-size: large;">इस बार सिर्फ़ मुझे ही ढूँढना है वह स्रोत</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने दिमाग़ के सन्तुलन के लिए</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>हाथों और शब्दों की मुनासिब कार्रवाई के लिए</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">कौन-सी वह धारा थी</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जिस पर तिरती हुई यह नाव</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इतनी दूर तक चली आयी</span><br />
<span style="font-size: large;">कौन-सी हवा इस पतंग को</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>यहाँ तक खींच लायी</span><br />
<span style="font-size: large;">जब-जब मेरे कदम बढ़े</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मेरे अन्दर से आवाज़ आयी</span><br />
<span style="font-size: large;">रुक जाओ। रुक जाओ।</span><br />
<span style="font-size: large;">पहले अपने चारों ओर फैली इस दुनिया को देखो और जानो</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अकसर मैंने ख़ुद से सवाल किया है</span><br />
<span style="font-size: large;">कहाँ से ? क्यों ? किस ओर ?</span><br />
<span style="font-size: large;">मेरे दिमाग़ में गूँजता रहा है यह शोर। निरन्तर</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इसीलिए मैं लौटा हूँ। बार-बार</span><br />
<span style="font-size: large;">पत्तियों से टहनियों और शाख़ों से जड़ों की ओर</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और मेरा दिमाग़ अपने इस निजी संसार को</span><br />
<span style="font-size: large;">बदल डालने की तेज़ और आशा-रहित इच्छा से</span><br />
<span style="font-size: large;">लगातार ज़ख़्मी होता रहा है</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सोचो, क्या यह बहुत दिनों तक चल सकता है -</span><br />
<span style="font-size: large;">सर्द बारिश में खड़े रह कर</span><br />
<span style="font-size: large;">इतनी उपेक्षा को सह कर</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने अन्दर की आग को समिधा देना</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जब किसी भी चीज़ की सही पहचान</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आँखों के लिए तकलीफ़ बन जाय</span><br />
<span style="font-size: large;">जब अन्तर का लहलहाता वन</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सुख्र्¤ा लपटों में डूब जाय</span><br />
<span style="font-size: large;">जब एक ओर समय</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>और दूसरी ओर उसका सबक़ रह जाय</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">कितना मुश्किल है</span><br />
<span style="font-size: large;">अन्तर की लहलहाती धूप की जगह</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जलते हुए अँधेरे को दाख़िल होते हुए देखना</span><br />
<span style="font-size: large;">आँखों के नष्ट हो जाने के बाद।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">बहुत-से दिन मैंने इसी तरह बिताये हैं।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बहुत-सी रातें।</span><br />
<span style="font-size: large;">निरर्थक प्रतीक्षा की तरह लम्बे बहुत लम्बे दिन</span><br />
<span style="font-size: large;">जिनकी सुनहली धूप -</span><br />
<span style="font-size: large;">मेरी याददाश्त पर पसरी हुई है।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मेरे चाहने या न चाहने के बावजूद</span><br />
<span style="font-size: large;">जब कि दिमाग़ आजकल लपटों में खो गया है</span><br />
<span style="font-size: large;">कितना मुश्किल है</span><br />
<span style="font-size: large;">इस तरह ख़ामोश रहना और प्रतीक्षा करना</span><br />
<span style="font-size: large;">जब कि सारी सम्भावनाएँ</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आग और लोहे की</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एक अन्तहीन हलचल में खुलती हैं</span><br />
<span style="font-size: large;">23.</span><br />
<span style="font-size: large;">मैंने अपने शब्दों को ख़ुद अपने निकट -</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने और अधिक निकट होने के लिए रचा है</span><br />
<span style="font-size: large;">सच्ची बात कह देने के बाद</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और मुझे महसूस होता है -</span><br />
<span style="font-size: large;">कोई भी मेरे शब्दों से हो कर</span><br />
<span style="font-size: large;">मेरे पास नहीं आ सकेगा</span><br />
<span style="font-size: large;">उस इन्तज़ार और सपने के टूट जाने पर</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने अन्दर की पहचान को ज़िन्दा रख कर</span><br />
<span style="font-size: large;">सारी-की-सारी शंका और घृणा और अपमान झेल कर</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">क्योंकि ये शब्द आख़िर क्या हैं ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इस दलाल सभ्यता के ख़िलाफ़ एक चीख़</span><br />
<span style="font-size: large;">एक ऐसा शोक-गीत</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जिसकी भूमिका शोक की नहीं</span><br />
<span style="font-size: large;">ख़ुद अपने क़रीब जाने के उल्लास की है</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">क्या मैं ये शब्द लिख कर कहीं उस गहरी -</span><br />
<span style="font-size: large;">बहुत गहरी और अन्तरंग विवशता की</span><br />
<span style="font-size: large;">चिरपरिचित पहचान को झुठला नहीं देता ?</span><br />
<span style="font-size: large;">आँखों की पथरायी पुतलियों से हो कर</span><br />
<span style="font-size: large;">जलते हुए दिमाग़ के स्तब्ध आकाश तक निरन्तर</span><br />
<span style="font-size: large;">उस सारी-की-सारी नफ़रत और शंका</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>भय और अपमान को सहता हुआ</span><br />
<span style="font-size: large;">टूटता हुआ और सिमटता हुआ और बिखरता हुआ </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">नहीं। नहीं। अपने हृदय की गहराई से</span><br />
<span style="font-size: large;">दोनों हाथ भर-भर कर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मैं उलीचता रहा हूँ एहसास</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इसीलिए मैं चाहता हूँ</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जो भी मेरे शब्दों को पढ़े और जाने</span><br />
<span style="font-size: large;">जैसे आदमी अपनी पत्नी को</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>निरन्तर उसके साथ रह कर जानता है</span><br />
<span style="font-size: large;">सच्ची बात कह देने के बाद लोगों का अविश्वास सह कर</span><br />
<span style="font-size: large;">जैसे आदमी कटुता को</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> पहचानता है</span><br />
<span style="font-size: large;">वह लगातार अपने ही लोगों के </span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>और अधिक निकट हो।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>निकट हो। उल्लसित हो। और संगीतमय।</span><br />
<span style="font-size: large;">24.</span><br />
<span style="font-size: large;">नहीं। मैं अँधेरे में डूबती हुई शाम नहीं हूँ</span><br />
<span style="font-size: large;">वह जो कुछ भी मैं हूँ - गुमनाम नहीं हूँ</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अब भी कहीं भीतर से आती हुई वह पुकार। वह एक पुकार</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मुझे कहीं-न-कहीं आश्वस्त करती रहती है</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और मैंने अक्सर सोचा है</span><br />
<span style="font-size: large;">एक समय आयेगा, जब मुझे तुमसे पूछना ही पड़ेगा</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>तुम्हारी इन सभी मुद्राओं का अर्थ</span><br />
<span style="font-size: large;">जब। जब एक लम्बे अन्तराल के बाद</span><br />
<span style="font-size: large;">आख़िरकार</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>शुरू होगा - दर्शक-दीर्घा की ओर से</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>नाटक का वह अन्तिम अंक।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मुझे अब धीरे-धीरे यह एहसास होने लगा है:</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम तक मेरी बात पहुँच नहीं सकती।</span><br />
<span style="font-size: large;">मैंने अकसर अपने भय और आतंक</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>नफ़रत और अपमान और द्वेष के</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उस अँधेरे कारागार से लौट कर</span><br />
<span style="font-size: large;">तुम्हें अपने अन्तर की उस गहरी विवशता के बारे में</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> बताने की कोशिश की है</span><br />
<span style="font-size: large;">और हर बार ग़लत समझा गया हूँ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अपने अन्दर किसी एक नंगे,</span><br />
<span style="font-size: large;">बहुत नंगे सच का सामना करते हुए</span><br />
<span style="font-size: large;">मुझे हमेशा यह एहसास हुआ है कि</span><br />
<span style="font-size: large;">तुमने मुझे अपने से काट कर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>किस क़दर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>असहाय और निराश और बन्दी बना दिया है</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और जैसा कि तुम मुझसे हमेशा कहते रहे हो:</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>‘जो हम महसूस करते हैं, वह हमारे लिए</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उस सब से कहीं ज़्यादा सच होता है</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जिसे हम जानते हैं।’</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तभी एक बार। सिर्फ़ एक बार मेरे मन में</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>तुम्हारे प्रति सन्देह हुआ था।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मुझे लगा था, कहीं कुछ बहुत ज़्यादा -</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बहुत ज़्यादा ग़लत हो गया है। प्रारम्भ</span><br />
<span style="font-size: large;">या फिर उस कहानी में न अट सकने वाला</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>पहले से तय कर लिया गया अन्त।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और मैं सोचता: ऐसा ही होगा -</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>क्या सचमुच ऐसा ही होगा अन्त -</span><br />
<span style="font-size: large;">असहाय और बंजर और अशक्त बना कर छोड़ता हुआ ?</span><br />
<span style="font-size: large;">क्या मैं इसी तरह अपनी सारी शक्ति के साथ</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>टूट कर गिरता हुआ बिखर जाऊँगा -</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अकेला और उदास और नाकामयाब ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">नहीं। जब भी वह बियाबान</span><br />
<span style="font-size: large;">जब भी वह उदास अनमना बियाबान</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इसी तरह मृत्यु-सा निःशब्द</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मेरे चारों ओर फैल जायेगा</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तब मैं जाऊँगा नहीं नगर-पिताओं के पास</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपने सपनों के अर्थ पूछता हुआ</span><br />
<span style="font-size: large;">कमींगाह में छिपे क़ातिलों से</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>हताहत मित्रों के नाम पूछता हुआ</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मैं सिर्फ़ अपना जलता हुआ एहसास</span><br />
<span style="font-size: large;">आँखों की अथाह गहराई में सँजो कर</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सौंप जाऊँगा</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने हाथों और शब्दों के उत्तराधिकारियों को</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">फिर मैं लौट जाऊँगा</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उसी धुँधुआते अन्धकार में</span><br />
<span style="font-size: large;">दमन और आतंक और नफ़रत के</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उसी जलते हुए नरक में</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जहाँ आग और लोहे की कारगर कोशिश से</span><br />
<span style="font-size: large;">टूटते हुए कारागार के खँडहरों पर</span><br />
<span style="font-size: large;">फैल रहा होगा</span><br />
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एक नयी भोर का सुर्ख़ उजाला।</span><br />
<span style="font-size: large;">1967-70</span></div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-36429908008785321562015-07-04T17:43:00.000-07:002015-07-04T17:43:09.148-07:00सोहबते-ग़ालिब<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="line-height: 19.3199996948242px;">पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन है</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="line-height: 19.3199996948242px;">कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या</span></div>
<br />
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
आगरे से आ कर दिल्ली को मुस्तकिल तौर पर अपना घर बना लेने वाले हमारे महबूब शायर मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब (१७९७-१८६९) का ज़िक्र इतनी मर्तबा हो चुका है कि एक और तज़्किरा करने से पहले ठिठक जाना पड़ता है. मगर फिर ख़याल आता है कि ग़ालिब की प्रिय शै -- इश्क़ -- का ज़िक्र भी तो बेइन्तहा मर्तबा हो चुका है और उसमें कोई ठहराव आता नज़र नहीं आता. फ़ेसबुक की क़सम या फ़ेसबुकियों की, जिसे देखिये इश्क़ की किसी-न-किसी सूरत, किसी-न-किसी सीरत पर फ़िदा हुआ पड़ा है. मरने-मारने को तैयार है. तो साहेब, इश्क़ की तरह ग़ालिब के लिखे को भी चाहे जितनी बार उलटिये-पलटिये-बरतिये, हर बार नया लुत्फ़ मिलता है, नये मानी खुलते हैं, खयाल नयी दिशाओं की तरफ़ जाते महसूस होते हैं, ज़िन्दगी के -- और उसे देखने के ढंग के -- नये पहलू उजागर होते हैं.</div>
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="line-height: 19.3199996948242px;">चुनांचे यही सब सोच कर हमने अपनी इब्तेदाई हिचक पर क़ाबू पाते हुए यह फ़ैसला किया कि कुछ दिन अपने इस महबूब शायर की सोहबत में गुज़ारेंगे. अगर हमारे इल्म में कोई इज़ाफ़ा न भी हुआ तो क्या, उनकी सोहबत में यह वक़्त गुज़ारने की लज़्ज़त से तो हमें कोई महरूम न कर सकेगा. अलबत्ता, हमारी अक़ीदत को हमारी पाबन्दी से आंकना शायद हम पर कुछ ज़्यादती होगी. कोशिश तो हमारी यही रहेगी कि हम पाबन्द रहें, मगर ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता इस पाबन्दी में कोई ख़लल पैदा हुआ तो बहुत करके उसकी वजह वही होगी जो ग़ालिब ने ही अपने एक शेर में बयान करते हुए बतायी थी कि</span><span style="line-height: 19.3199996948242px;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="line-height: 19.3199996948242px;">गो मैं रहा रहीन-ओ-सितमहा-ए-रोज़गार</span><span style="line-height: 19.3199996948242px;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="line-height: 19.3199996948242px;">फिर भी तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा</span></div>
<br />
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
तो दोस्तो, इस छोटी-सी भूमिका के बाद हम ग़ालिब का ज़िक्र अपने टेढ़े-बैंगे अन्दाज़ में उनके एक ख़त का एक छोटा-सा अंश और उनका एक असंकलित शेर उद्धृत करते हुए शुरू कर रहे हैं.</div>
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
१६ फ़रवरी १८६२ को, यानी १८५७ की उथल-पुथल के तक़रीबन पांच साल के बाद, ग़ालिब ने अपने अज़ीज़ मिर्ज़ा अलाउद्दीन अहमद ख़ां अलाई को लिखा--</div>
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
"ऐ मेरी जान, ये वो दिल्ली नहीं है जिसमें तुम पैदा हुए हो; वो दिल्ली नहीं है जिसमें तुमने इल्म तहसील किया है; वो दिल्ली नहीं है जिसमें तुम शाबान बेग की हवेली में मुझसे पढ़ने आते थे; वो दिल्ली नहीं है जिसमें मैं सात बरस की उम्र से आता-जाता हूं; वो दिल्ली नहीं है जिसमें इक्यावन बरस से मुक़ीम हूं. एक कैम्प है -- मुसलमान, अहले हर्फ़ा या हुक्काम के शागिर्द पेशा, बाक़ी सरासर हनूद."</div>
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
दिलचस्प बात है कि डेढ़ सौ साल के अर्से में दिल्ली की यह कैफ़ियत काफ़ी हद तक वैसी-की-वैसी है. बरबादी के जिन निशानात ने ग़ालिब के वक़्त में इस शहर को नाक़ाबिल-ए-रिहाइश बना दिया था, वे मिट गये हैं. दिल्ली फिर चाक-चौबन्द हो गयी है, पर उसका बुनियादी रंग-ढंग पुराना है. ढहने ही का ज़िक्र करना हो तो आज ही की ख़बर है कि दिल्ली की हृदय-स्थली, गुरुद्वारा शीशगंज के पास फ़व्वारे के नज़दीक "घण्टेवाला" के नाम से मिठाई की जो दुकान पिछले २२५ बरस से मौजूद थी उसने अपने दरवाज़े हमेशा के लिए मुक़फ़्फ़ल कर लिये. अलबत्ता, इज़ाफ़ा हुआ है तो बाहर से आने वाले उन लोगों का जो ग़ालिब द्वारा गिनायी गयी कोटियों में से बीच की कोटि में आते हैं -- अहले हर्फ़ा या हुक्काम के शागिर्द पेशा. तो जनाब, इसी दिल्ली में जिसमें मैं भी सात बरस की उम्र से आता-जाता हूं और पिछले आठ बरस से मुक़ीम हूं, हम ग़ालिब को याद कर रहे हैं.</div>
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: justify;">
इस मौज़ूं को बन्द करने से पहले तीन बातें. पहली यह कि यह ज़िक्र ग़ालिब का है, चुनांचे इसमें उनकी शायरी तो आयेगी ही, उनके ख़ुतूत का भी अच्छा-ख़ासा दख़ल रहेगा, क्योंकि वे भी उनके अशआर और कलाम के साथ एक अलग ही अहमियत रखते हैं. दूसरे, दिल्ली का भी उल्लेख ग़ालिब ने अपने कलाम ही में नहीं, बल्कि ख़तों में भी बार-बार किया है. हम उस तरफ़ भी बीच-बीच में पलटेंगे. तीसरी बात यह कि हम कोई आलोचना की पुस्तक नहीं लिख रहे, अपने महबूब शायर की सोहबत कर रहे हैं तो इस का क्रम भी किसी तन्क़ीदी मज़मून की तरह आदि, मध्य और अन्त की शक्ल में नहीं होगा. उसकी अपनी गति और अपनी रविश रहेगी.माशूक़ की महफ़िल में रखी शमा से उठते धुएं के पेच-ओ-ख़म की मानिन्द.</div>
<div style="background-color: white; color: #141823; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; line-height: 19.3199996948242px; margin-top: 6px;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="line-height: 19.3199996948242px;">आज यहीं तक. कल उस असंकलित शेर के हवाले से अपनी बात शुरू करेंगे जिसका ज़िक्र हम ऊपर कर आये हैं.</span></div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-53650548953933514202015-04-21T17:48:00.000-07:002015-04-21T17:48:05.057-07:00जैज़ पर लम्बा आलेख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत</span> </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>सत्ताईसवीं और समापन कड़ी</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
31.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
जैज़ के इस लम्बे सफ़र में हम उसके स्रोत से धीरे-धीरे निकलने वाली पतली-सी धार से ले कर उसके एक महानद बनने तक का विकास देख आये हैं. जैसा कि हमने कहा 1960 तक पहुंचते-पहुंचते जैज़ दुनिया के बेहतरीन संगीत की सफ़ में शामिल हो चुका था. उसका, कहा जाय, एक शास्त्र बन गया था, समीक्षा-प्रणाली निर्मित हो चुकी थी, उसे ले कर वाद-विवाद और बहसें होने लगी थीं. इसके बाद उसका विकास वैसे ही होना था जैसे एक छतनार पेड़ का होता है -- नयी-नयी डालियों और शाखाओं-प्रशाखाओं के साथ, जो अब तक जारी है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>1960 के बाद के कुछ दशकों के दौरान पुराने तपे हुए उस्तादों के साथ कुछ नये उस्ताद भी सामने आये, जिन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर जैज़ की परम्परा को निखारने की कोशिश की। पियानोवादक सेसिल टेलर, ब्रिटेन के ट्रॉम्बोन-वादक जार्ज चिज़म, फ्रान्सीसी जिप्सी गिटार-वादक जैंगो राइनहार्ट, बेस-वादक नील्स हैनिंग, आस्र्टीड पेडरसन, सैक्सोफ़ोन-वादक ऐल्बर्ट आइलर, आदि इन्हीं प्रतिभा-सम्पन्न जैज़ संगीतकारों में शामिल हैं, हालाँकि सूची इससे कहीं लम्बी हो सकती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इनमें भी जैंगो राइनहार्ट का नाम बिल्कुल अलग स्थान रखता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/wLjG8L4nnh4?list=PLMdpMzOy0l11KN-XHOckXjg5lb7OR9h3E ( जैंगो राइनहार्ट - औल औफ़ मी)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जैंगो राइनहार्ट को संगीत का शौक़ बचपन ही से था। जिप्सी होने के नाते संगीत उनके ख़ून में था, यह कहना शायद ग़लत न होगा। मगर इस शौक़ को एक नयी दिशा मिली युवावस्था में जब, उन्होंने लुई आर्मस्ट्रौंग और ड्यूक एलिंग्टन के रिकॉर्ड सुने और जैज़-संगीत की ओर आकर्षित हुए। जैंगो राइनहार्ट की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने जैज़-संगीत में -- जो पिछले कई दशकों से पियानो, सैक्सोफ़ोन और ट्रम्पेट अथवा बैस जैसे वाद्यों के इर्द-गिर्द केन्द्रित रहा है -- एक बार फिर गिटार, यानी तार वाले वाद्य का समावेश किया है, जो बात कि इस शैली की जड़ों में रैगटाइम और बैंजो तथा गिटार की उपस्थिति से मेल खाती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/UoaJprTBYRc?list=PLMdpMzOy0l11KN-XHOckXjg5lb7OR9h3E (जैंगो राइनहार्ट - ब्लूज़ एन मिनियोर)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस दौर में संगीत के वाद्यों के साथ-साथ सुनने के साधनों में जो तकनीकी विकास हुआ, उसने जैज़ संगीत को और भी ज़्यादा लोकप्रिय बनाने में मदद दी. मिसाल के लिए पुराने 78 आरपीएम के तवों से ले कर जिनमें अमूमन 3.5 मिनट की रिकौर्डिंग हो सकती थी, एक्स्टॆंडेड प्लेयिंग और लौंग प्लेयिंग रिकौर्डों तक और फिर कैसेट से ले कर सीडी और डीवीडी तक -- जिस तरह संगीत के प्रसार का विकास हुआ है, जैज़ का दायरा सिर्फ़ अफ़्रीकी-अमरीकी अश्वेत संगीतकारों तक सीमित न रह कर धीरे-धीरे दुनिया भर में फैलता चला गया है. इसके अलावा जैज़ के प्रसार का एक कारण यह भी है कि भले ही उसकी भौतिक जड़ें अफ़्रीकी-अमरीकी अश्वेत समुदाय में गहरे उतरी हुई हों, लेकिन इस संगीत के अन्दर सम्वेदना के जो पहलू हैं, वे इसे इस काबिल बनाते हैं कि दूसरे देशों के लोग भी इससे जुड़ सकें. आशु प्रेरणा का आधार भी इस संगीत को सहज ही अपना लिये जाने योग्य बनाता है. यही वजह है कि जैसे-जैसे 1960 के बाद जैज़ दूसरे देशों में फैला, वहां के संगीतकारों ने इसे अपना कर, अपनी-अपनी संगीत परम्पराओं से समृद्ध करके इसके नये-नये रूप विकसित किये हैं. लैटिन जैज़, ऐफ़्रो-क्यूबन जैज़, सोल जैज़, ब्रज़िलियन जैज़, जैज़ फ़्यूजन, पंक जैज़, साइकेडेलिक जैज़, जैज़ फ़ंक, रौक जैज़, स्मूद जैज़ -- फ़ेहरिस्त ख़ासी लम्बी है और बजाने की तकनीकें और नये वाद्यों का दख़ल भी उतना ही अलग है जितना बजाने वाले. लेकिन इस सारे विकास और विभिन्नता के बीच एक धारा लगातार इस बात की कोशिश करती रही है कि सारे विकास और प्रयोग के बावजूद, जैज़ को उसकी जड़ों से इतना दूर न जाने दिया जाये कि वह अपनी बुनियादी प्रतिज्ञाएं ही भूल जाये, जो उसे एक दलित उत्पीड़ित जाति के विरोध और अभिव्यक्ति का दस्तावेज़ बनाती हैं. यही कारण है कि इसी दौर में जब जैज़ हैरतंगेज़ रफ़्तार से फैल रहा था, संगीतकारों का एक समूह ऐसा भी था जो परम्परा को बरक़रार रखने की कोशिश कर रहा था. आर्ची शेप और सेसिल टेलर का नाम लिया ही जा चुका है, उनसे आगे बढ़ने पर हमें विंटन मार्सेलिस, हर्बी हैनकौक, चिक कोरिया और पियानोवादिका मेरी लू विलियम्स जैसे संगीतकार मिलते हैं जिन्हों ने उस धारा को फिर से जीवित करने की कोशिश की थी जो लुई आर्मस्ट्रौंग और ड्यूक एलिंग्टन के समय में मौजूद थी. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/oP-vD4ScAGA?list=PL8eK2Ek-HETlLMD7SyDgce8miz74_gaCG (हर्बी हैनकौक - वौटरमेलन मैन)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/z4THBVc47ug (मेरी लू विलियम्स - इट ऐन्ट नेसेसैरिली सो) </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>हाल के वर्षों में जैज़ का दायरा कई देशों में फैल गया है। जैज़ में एक आश्चर्यजनक बहुलता देखी जाती है. हर देश के अपने-अपने जैज़-प्रेमी हैं, हालाँकि यह एक दिलचस्प तथ्य है कि आज जैज़ के ज़्यादातर रिकॉर्ड जर्मनी और जापान में बिकते हैं। कुछ जानकारों का ख़याल है कि कुछ देशों में जहाँ स्थानीय लोक-संगीत की परम्परा लुप्त हो गयी थी और जीवन्त लोक-संगीत मौजूद नहीं था, वहाँ जैज़ संगीत ने जड़ें जमा ली हैं क्योंकि यह एक ऐसा संगीत था, जिसके साथ लोगों को महज़ गीत गाने की ज़रूरत नहीं थी, बल्कि वे उसके साथ प्रयोग कर सकते थे। अपने किस्म का संगीत तैयार कर सकते थे। शायद यही वजह है कि आज जैज़ संगीतकार किसी भी देश में, किसी भी जाति में पैदा हो सकते हैं। मिसाल के तौर पर जापान की महिला पियानो-वादक तोशिको आकियोशी को ही लिया जा सकता है, जिन्होंने अनेक प्रयोग किये हैं और जिनका रिकॉर्ड ’प्रेम पत्र’ उनकी प्रतिभा का प्रमाण है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/5eTDfJTqoZ4 (तोशिको आकियोशी - प्रेम पत्र)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन इस सब के बावजूद यह सच है कि चाहे जितने देशों में जैज़ के फूल खिलें, जब तक उसमें अमरीकी नीग्रो संगीत के स्वर सुनायी देते रहेंगे, श्रम और पीड़ा और मानवीय उदासी और अन्याय के विरोध के साथ, आंखों के पानी और दिल की आग के साथ उसका रिश्ता बना रहेगा, तब तक उसका अनोखापन और उसकी एक अलग पहचान भी बरकरार रहेगी। क्योंकि जैज़-संगीत महज़ संगीत की शैली नहीं है, बल्कि उसमें एक पूरी-की-पूरी जाति के संघर्ष का इतिहास गुँथा हुआ है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/Alga6OjOQeY?list=PLaqZLT1Rv3-Jus64lBH7uLjvljbpIWeTO (तोशिको आकियोशी - मिंगस को विदाई)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: right;">
<b>(तमामशुद)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हर्फ़े-आख़िर</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>दोस्तो, </b></div>
<div style="text-align: justify;">
जैज़ की यह मुख़्तसर-सी कहानी यहीं आ कर ख़त्म होती है. लेकिन जैसा कि हमारे प्रिय कवि मुक्तिबोध ने कहा था "नहीं होती, कहीं भी ख़त्म कविता नहीं होती, कि वह आवेग त्वरित काल-यात्री है," जैज़ की कहानी भी यहां एक पड़ाव तक पहुंची है, ख़त्म नहीं हुई. वह भी आवेग-त्वरित काल-यात्री है. मैंने भरसक कोशिश की है कि इस सैर-बीनी तस्वीर को आप के सामने पेश कर सकूं ताकि आप इस नायाब संगीत से परिचित हो सकें, यह जान सकें कि कैसे जान-लेवा श्रम और अमानवीय व्यथा के बीच से भी एक जाति अपने लिए जीने के आधार बनाती है और दूसरों को भी जीने की प्रेरणा देती है. ज़ाहिर है, जैज़ की समूची कहानी कहना एक आदमी के एक प्रयास के बस की बात नहीं. इस कहानी में कई पहलू छूट गये होंगे. उम्मीद है, यह आपको यह कमी पूरी करने के लिए भी प्रेरित करेगी. यही मेरे इस विनम्र प्रयास की सार्थकता होगी.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: right;">
<b>नीलाभ </b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-30226945572408110342015-04-20T16:53:00.000-07:002015-04-20T16:53:00.965-07:00जैज़ पर लम्बा आलेख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>छब्बीसवीं कड़ी</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
30.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
1958 में जैज़ संगीत का एक ऐल्बम आया जिसमें सिर्फ़ सैक्सोफ़ोन, बेस और ड्रम -- तीन वाद्य इस्तेमाल किये गये थे. न पियानो था, न ट्रम्पेट और न और कोई वाद्य. ऐल्बम के आवरण पर लिखा था -- "कैसी विडम्बना है कि नीग्रो के साथ, जो और किसी भी समुदाय से ज़्यादा अमरीकी संस्कृति को अपना कह सकता है, इतना बुरा सलूक हो रहा है; उसे दबाया और कुचला जा रहा है; कि नीग्रो, जिसने अपने अस्तित्व में ही मनुष्यता का सबूत दिया है, ऐसी अमानवीयता का शिकार बनाया जा रहा है." इस ऐल्बम की शीर्षक धुन लगभग बीस मिनट लम्बा और तात्कालिक प्रेरणा से रचा गया एक टुकड़ा था जो सुनने वाले को काल और युगों के फ़ासले लंघा कर उस मन:स्थिति में ले जाता था जो जैज़ संगीत के शुरुआती दौर की ख़ासियत थी -- एक नाराज़, उदासी-भरी कैफ़ियत. रिकौर्ड के कुछ हिस्से बेहद तनाव से रचे-बसे थे और आने वाले दिनों में उभरने वाले अफ़्रीकी-अमरीकी अश्वेत समुदाय के आक्रोश की पूर्व-सूचना देते थे. ऐल्बम का नाम था ’फ़्रीडम सुइट" और इसके रचयिता थे सनी रौलिन्स जिन्होंने इसमें सैक्सोफ़ोन बजाया था. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/CERGVEqPoT0 (सनी रौलिन्स - फ़्रीडम सुइट)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>रौलिन्स जैज़ संगीतकारों के उस समूह के एक्ज प्रमुख सदस्य थे जिसने 1960 के दशक में जैज़ को कोरे पेशेवराना संगीत और मनोरंजन के दायरों से बाहर निकालने में एक बड़ी भूमिका अदा की।</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वैसे तो सनी रॉलिन्स ने काफ़ी पहले ही सैक्सोफ़ोन बजाना शुरू कर दिया था और एकल वादन के अलावा वे नाइट-क्लबों, संगीत-सभाओं और रिकॉर्ड कम्पनियों के लिए भी सैक्सोफ़ोन बजाया करते थे, मगर पचास के दशक के मध्य तक पहुँचते-पहुँचते सुनने वालों को ऐसा महसूस होने लगा था कि वे ख़ुद को दोहरा रहे हैं। एक समीक्षक ने तो यहाँ तक कह दिया था कि सनी रॉलिन्स को उन संगीतकारों में शुमार किया जा सकता है, जो अपनी निजी प्रतिभा के बल पर जैज़ की प्रथम श्रेणी के कलाकार रहते हैं, लेकिन जैज़ संगीत में सीधे कोई योगदान करने के योग्य नहीं जान पड़ते। इसी बीच तरह-तरह की अफ़वाहें भी उड़ती रहीं-कि सनी रॉलिन्स ने सैक्सोफ़ोन छोड़ कर बाँसुरी जैसा वाद्य -- ओबो -- सीखना शुरू कर दिया है; कि दोहराव से बचने के लिए उन्होंने संगीत-सभाओं में शिरकत करना बन्द कर दिया है; कि वे नयी धुनों पर काम कर रहे हैं; कि शुरू की प्रशंसा को वे सहेज नहीं पाये; कि अब वे बिना संगत के सफल सैक्सोफ़ोन-वादन करेंगे। इस आख़िरी अफ़वाह के पीछे चोट करने की एक छिपी हुई प्रवृत्ति भी थी, जैसा कि कला के क्षेत्र में अक्सर होता है, क्योंकि कुछ समय पहले ही सनी रॉलिन्स ने संगीत के कार्यक्रमों में अक्सर पियानोवादक के बिना ही सैक्सोफ़ोन बजाना शुरू कर दिया था और कई बार धुन की रचना तथा ऑकेस्ट्रा का निर्देशन भी ख़ुद ही सँभाल लिया था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इसके पीछे एक कारण तो संगीतकार का अपना व्यक्तित्व हो सकता है। मगर व्यापक रूप से पचास के दशक के मध्य में जैज़-संगीत फिर एक नयी दिशा ले रहा था। इस दौर में कलाकारों के सामने जैज़ की बुनियादी ’भाषा’ या ’रंग’ को पहचानने या परखने की समस्या नहीं थी, बल्कि समस्या यह थी कि जैज़-संगीत के प्रचलित मुहावरे के भीतर कुछ ऐसा ताल-मेल बैठाया जाय, लय-ताल-सुर और धुन को ऐसा व्यवस्थित रूप दिया जाय, जो पहले की शैलियों के सन्दर्भ में बीस के दशक में जेली रोल मॉर्टन ने, तीस के दशक में ड्यूक एलिंग्टन ने और चालीस के दशक में चार्ली पार्कर ने दिया था। पचास के दशक में इस समस्या को कई लोग सुलझाने की कोशिश कर रहे थे। एक ओर पियानोवादक तथा कम्पोज़र थियोलोनियस मंक और उनकी मण्डली थी तो दूसरी ओर बेस वादक चार्ल्स मिंगस, सैक्सोफ़ोन वादक माइल्स डेविस और उनकी ’माइल्स डेविस सेक्स्टेट’ नामक मण्डली, और्नेट कोलमैन और उनका दल और तीसरी ओर आर्ची शेप और सनी रॉलिन्स जैसे संगीतकार, जो अकेले ही इस काम में जुटे हुए थे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एक अर्थ में जैज़ संगीतकार अब भी उसी मूल समस्या से जूझ रहे थे, जो लुई आर्मस्ट्रौंग के ज़माने से चली आ रही थी -- संगीत को दोहराव की एकरसता से बचाते हुए किस प्रकार धुन और एकल वादन की लम्बाई को बढ़ाया जाय। भारतीय संगीत में भी किसी-न-किसी समय यह समस्या ज़रूर पैदा हुई होगी कि राग को लम्बे समय तक कैसे पेश किया जाय। ज़ाहिर है इस तरह की समस्या में वादकों के रचनात्मक कौशल का बहुत बड़ा हाथ होता है और जब मौलिक प्रतिभा के बल पर कल्पनाशील के साथ धुन पेश की जाती है तो उसका महत्व निश्चय ही बढ़ जाता है। बहुत अच्छे वादक तो निश्चय ही इससे भी आगे बढ़ कर एक तरह से नया संगीत ही रचने की कोशिश करते हैं। जैज़-संगीत में इसकी मिसाल के तौर पर चार्ली पार्कर तो पहले से ही मौजूद थे। लेकिन पार्कर के एकल वादन की विशेषता थी -- उसका सीधी रेखा में विस्तार। जैसे किसी माला में कडि़याँ जुड़ती चली जायें। सनी रॉलिन्स ने जब लम्बे-लम्बे एकल वादन किये तो उन्होंने कुछ ऐसी पद्धति अपनायी, जैसी एक वास्तु-शिल्पी भवन का नक्शा तैयार करते समय अपनाता है। संगीत की अमूर्तता को ध्वनि-बिम्बों के सहारे उन्होंने मूर्त-और वह भी कई दिशाओं में मूर्त करने की कोशिश की। शायद इसी लचीलेपन की सहायता से वे माइल्स डेविस, जॉनी कोल्ट्रेन, थियोलोनियस मंक, मैक्स रोच और जॉन ल्यूइस जैसे विविध प्रकार के उस्तादों का साथ निभा सके।</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जैज़ संगीत में अक्सर गायकों और वादकों ने पहले के रचनाकारों के गाये या बजाये संगीत को दोबारा अपने ढंग से पेश करके अपनी निजी शैली साबित की है. सनी रौलिन्स इसके अपवाद नहीं हैं. उन्होंने मशहूर गायिका बिली हौलिडे के गाये गीत "गौड ब्लेस द चाइल्ड हू’ज़ गौट हिज़ ओन" कुछ इस तरह पेश किया :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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https://youtu.be/_O-wMuGt63c?list=PLZS7EwPLsVu0RMpG0Xu8yAGydiWz3lXm- (सनी रौलिन्स - गौड ब्लेस द चाइल्ड हू’ज़ गौट हिज़ ओन)</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>1949 में अपनी पहली रिकौर्डिंग में हिस्सा लेने के बाद सनी रौलिंस ने तरह-तरह के प्रयोग किये और हर तरह के वादकों और मण्डलियों के साथ संगत की. संगत करते समय उन्होंने बड़े और छोटे बैण्डों और संगीत की बड़ी सभाओं में कोई फ़र्क नहीं किया, जिससे सैक्सोफ़ोन पर उनकी महारत का बख़ूबी अन्दाज़ा होता है. उनके प्रयोगों का मामला सिर्फ़ पियानो को इस्तेमाल करने या न करने से ही ताल्लुक़ नहीं रखता, बल्कि उनमें यह ख़ूबी भी है कि वे बेहद मामूली धुनों और गीतों को ले कर उन्हें नया बना कर पेश कर दें. यह भी सनी रौलिन्स की ख़ूबी ही कही जायेगी कि उन्होंने जब-जब पाया कि उनका संगीत ठहराव का शिकार हो रहा है तो उन्होंने अपनी मर्ज़ी से कुछ समय तक जैज़ संगीत की दुनिया से छुट्टी भी ले ली. पहला मौका १९६० के दशक में आया जब समीक्षकों ने उनके संगीत में दोहराव की शिकायत की और ख़ुद सनी रौलिन्स को भी लगा कि वे एक मुक़ाम तक पहुंच कर ठहर-से गये थे. इस दौर का एक मज़ेदार क़िस्सा यह है कि अपने पड़ोस के घर में रहने वाली औरत के आराम और सुकून के खयाल से, जो बच्चे से थी, सनी रौलिन्स विलियम्सबर्ग सेतु पर जा कर अभ्यास करते. तीन साल के अवकाश के बाद जब उनकी "वापसी" हुई तो उन्होंने अपने नये ऐल्बम का नाम रखा "द ब्रिज" -- "सेतु". यही वह पुल था जिसने सनी रौलिन्स के पहले के दौर को नये दौर से जोड़ने का काम किया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अवकाश का दूसरा मौक़ा १९७० के दशक के आरम्भ में आया जब रौलिन्स ने योग, ध्यान और पूर्वी दर्शन के अध्ययन के लिए सैक्सोफ़ोन बजाने और मण्डलियों में संगत करने से छुट्टी ली. जब वे 1972 में दोबारा जैज़ संगीत की दुनिया में लौटे तो एक नये अवतार में. उन्होंने वाद्यों और वादन की पुरानी शैली से अलग हटते हुए इलेक्ट्रिक गिटार, इलेक्ट्रिक बेस और आम तौर पर पौप या फ़ंक की तर्ज़ पर ड्रम बजाने वालों की संगत करनी शुरू की. बस पुराना अगर कुछ था तो वह था उनका अपना सैक्सोफ़ोन. लेकिन सारे रिकौर्ड डिस्को क़िस्म के नहीं थे. इसी दौर में एकल वादन की इच्छा उनके अन्दर बढ़ती चली गयी और 1985 में उन्होंने "द सोलो ऐल्बम" के नाम से अपने एकल वादन का ऐल्बम रिकौर्ड कराया. </div>
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https://youtu.be/s6bgbaVpukE (सनी रौलिन्स - एकल वादन)</div>
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<div style="text-align: justify;">
रौलिन्स को 2001 में उनके रिकौर्ड "दिस इज़ वौट आई डू" के लिए ग्रैमी पुरस्कार मिला और जैज़ संगीत में उनके योगदान के लिए 2004 में उन्हें ग्रैमी लाइफ़ टाइम अवौर्ड से सम्मानित किया गया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/xb85Y2TZTp0 (सनी रौलिन्स - दिस इज़ वौट आई डू)</div>
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<br /></div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मगर रौलिन्स का असली पुरस्कार सुनने वालों और समीक्षकों की तरफ़ से आया है. और इस तरह सनी रौलिन्स लगातार किसी-न-किसी शहर में दोपहर के वक्त या रात के आठ बजे की सभा में अपने सैक्सोफ़ोन के साथ सुनने वालों को मोहित करते रहते हैं मानो यह भी एक रोज़मर्रा का काम हो, जैसा कि वह लगभग डेढ़ सौ साल पहले उन्नीसवीं सदी के अन्त में हुआ करता था.</div>
<div style="text-align: right;">
<b>(जारी) </b></div>
<div style="text-align: justify;">
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Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-70479341261830692662015-04-20T01:36:00.001-07:002015-04-20T01:36:28.934-07:00जैज़ पर लम्बा आलेख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत </span></div>
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<b>पच्चीसवीं कड़ी</b></div>
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29.</div>
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<br /></div>
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जौन कोल्ट्रेन के अनुयायियों में से आर्ची शेप्प पहले सेक्सोफ़ोन वादक हैं, जिन्हें भरपूर सराहना मिली। आर्ची शेप में और्नेट कोल्ट्रेन की तरह रूढ़ियों को तोड़ने का जज़्बा एक कदम और आगे तक गया. उन्होंने अफ़्रीकी मूल के संगीत को फिर से जैज़ की मुख्यधारा में लाने की कोशिशें तो कीं ही, अफ़्रीकी अमरीकी अश्वेतों के साथ किये जा रहे अन्याय को भी सामने ला कर उसका विरोध करने की प्रेरणा दी. आर्ची शेप का जन्म अमरीका के पूर्वी किनारे पर फ़्लौरिडा में हुआ लेकिन वे पले-बढ़े पेन्सिल्वेनिया के फ़िलाडेल्फ़िया शहर में. शुरू-शुरू में पियानो, क्लैरिनेट और सैक्सोफ़ोन सीखने के बाद उन्होंने सैक्सोफ़ोन बजाना जारी रखा और बीच में चार साल एक नाट्य संस्थान में नाटक और रंगमंच का प्रशिक्षण भी लिया जो किसी व्यवसायिक जैज़ संगीतकार के लिए एक अनोखा फ़ैसला था. नाट्य प्रशिक्षण के बाद आर्ची शेप फिर से पेशेवर वादकों में शामिल हो गये और उन्होंने अपने स्वभाव के मुताबिक प्रयोगशील पियानो-वादक सेसिल टेलर की संगत शुरू की. इसके साथ साथ वे जौन कोल्ट्रेन के साथ भी जुड़े और 1965 में जब उन्होंने कोल्ट्रेन के साथ मिल कर "न्यू थिंग्ज़" नाम से एक रिकौर्ड तैयार किया जिसकी एक तरफ़ उन्का एकल वादन था और दूसरी तरफ़ जौन कोल्ट्रेन का तो उनका नाम जैज़ संगीत की "नयी लहर" के वादकों की अगली पंक्ति में गिना जाने लगा. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/cGE-9GliyCw (आर्ची शेप - न्यू थिंग्ज़)</div>
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</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>1965 में ही शेप ने "फ़ायर म्यूज़िक" नाम का एक ऐल्बम तैयार किया जिससे उनके अन्दर अर्से से पनप रही राजनैतिक चेतना के साफ़-साफ़ संकेत मिले. ऐल्बम का नाम उन्होंने अफ़्रीकी कर्मकाण्ड की एक पुरानी परम्परा के नाम पर रखा था और इसमें अफ़्रीकी अधिकारों के लिए लड़ने वाले सुप्रसिद्ध नेता मैल्कम एक्स की हत्या पर एक शोक गीत भी शामिल था. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/cVPoMrs3QZA (आर्ची शेप - फ़ायर म्यूज़िक)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अफ़्रीकी परम्परा के साथ शेप का जुड़ाव बढ़ता चला गया. यह दौर भी ऐसा था जब सामाजिक और राजनैतिक मोर्चों पर वे सभी लोग अपनी आवाज़ें बुलन्द करने लगे थे, जो अब तक गोरों के अन्याय और गोरे साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का शिकार थे. जैज़ पर भी इसका असर पड़ रहा था और एक तरफ़ तो जैज़ संगीतकार अफ़्रीका और एशिया और लातीनी अमरीका में अपनी जड़ें तलाश रहे थे, दूसरी तरफ़ नये-नये प्रयोगों में खुल कर हिस्सा ले रहे थे, भले ही व्यावसायिकता का कितना भी दबाव क्यों न रहा हो. आर्ची शेप ने भी नयी-नयी हिकमतें आज़माना जारी रखा और अपनी रचनाओं में कुछ अफ़्रीकी वाद्यों के साथ माउथ और्गन जैसे पुराने मगर त्याग दिये गये वाद्य को भी जगह दी. इसके अलावा उन्होंने कवियों की हिस्सेदारी का भी स्वागत किया. 1972 में वे "ऐटिका ब्लूज़" और "क्राई औफ़ माई पीपल" जैसे ऐल्बमों से खुले तौर पर नागरिक अधिकार आन्दोलन करने वालों के साथ जा खड़े हुए.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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https://youtu.be/ZVyy8bvv3dg (आर्ची शेप - ऐटिका ब्लूज़)</div>
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<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>1971 में शेप ने प्रतिष्ठित मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय में संगीत के प्रोफ़ेसर का पद संभाला और अगले तीस साल वे वहीं रह कर अफ़्रीकी-अमरीकी संगीत की क्रान्तिकारी परम्परा और रंगमंच में अश्वेत संगीतकारों के योगदान के पाठ्यक्रम संचालित करते रहे. इस बीच अफ़्रीकी संगीत के विभिन्न तत्वों की खोज-बीन के साथ वे रंगमंच और फ़िल्म में भी संगीतकार की हैसियत से जुड़े रहे हैं और कविता और संगीत के रिश्ते को उजागर करते रहे हैं. इसी वजह से समीक्षकों ने उन्हें ’जैज़ के आनन्द का बहुप्रतीक्षित पुररुद्धार’ कहा है। लेकिन शेप्प संगीत के बारे में एक ज़्यादा जटिल और भिन्न नज़रिया रखते हैं -- ’संगीत को कभी-कभी आतंकित भी करना चाहिए, लोगों को गर्दन से पकड़ कर झकझोरना चाहिए। संगीत को चाहिए कि वे भरे हुए पेटों और गदबदे हँसते हुए भिक्षुओं की अनिवार्य विजय का गुणगान करे। हमारे जीवन में सामाजिक ही नहीं कलात्मक व्यवस्था भी लाये।’ आर्ची शेप्प की यह मान्यता दरअसल जैज़ संगीत की बुनियादी मान्यता है -- सुखी जीवन की अनिवार्य विजय का गुणगान, जिसमें भूख और दुख से छुटकारा हो और ज़िन्दगी में सामाजिक व्यवस्था के साथ कलात्मक व्यवस्था भी कायम हो।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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https://youtu.be/sU_PTQFJA8s (क्राई औफ़ माई पीपल)</div>
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<b>(जारी)</b></div>
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Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-60749372085653956892015-04-18T18:03:00.002-07:002015-04-18T18:03:36.335-07:00जैज़ पर लम्बा आलेख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
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<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत</span> </div>
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<b>चौबीसवीं कड़ी</b></div>
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28.</div>
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और्नेट कोलमैन के ही एक अत्यन्त सावधान और हमदर्द श्रोता थे जॉन कोल्ट्रेन (1926 – 1967), जिन्होंने जैज़ के क्षेत्र में अगली कड़ी जोड़ी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कोल्ट्रेन की कहानी एक ऐसे आदमी की कहानी है, जिसने बिल्कुल नीचे से शुरू किया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जॉन कोल्ट्रेन ने अपनी छोटी-सी ज़िन्दगी में जैज़ के कई रंग देखे और कुछ ऐसे लोगों के साथ संगत की जो काफ़ी टेढ़े माने जाते थे. जैसे माइल्स डेविस और थेलोनिअस मंक. कोल्ट्रेन की निजी ज़िन्दगी में भी कई उतार-चढ़ाव आये, जिनका असर उनके संगीत पर भी पड़ा. जौन कोल्ट्रेन का जन्म नौर्थ कैरोलाइना में हुआ था, जहां उन्होंने ज़िन्दगी के शुरुआती साल गुज़ारे. अभी वे बारह साल के थे जब कुछ ही महीनों के अन्दर उनके दादा-दादी, बुआ और पिता का देहान्त हो गया और उन्हें उनकी मां ने पाल-पोस कर बड़ा किया. सोलह बरस की उमर में कोल्ट्रेन अपने परिवार के साथ फ़िलाडेल्फ़िया चले आये और उसी समय उनकी मां ने उन्हें तोहफ़े में एक सैक्सोफ़ोन दिया, जिस पर दो-ढाई बरस में ही कोल्ट्रेन ने इतनी महारत हासिल कर ली कि वे पेशेवर मण्डलियों में संगत करने लगे. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>दूसरे विश्व युद्ध के अन्तिम दौर में कोल्ट्रेन 1945 में नौसेना में भरती हो गये और साल भर तक एक नौसैनिक के तौर पर काम करने के बाद जब वे फ़िलाडेल्फ़िया लौटे तो एक बार फिर जैज़ संगीत का नशा उन पर सवार हो गया. हालांकि वे कई मण्डलियों में संगत करते रहे और बाहर दौरों पर भी जाते रहे, मगर उन पर असर चार्ली पार्कर का था, जिन्हें वे नौसेना में भरती होने से दो महीने पहले सुन चुके थे और उन्हीं के लफ़्ज़ों में कहें तो पार्कर की शैली ने "उनकी ठीक आंखों के बीच चोट की थी." वे कोलमैन हौकिन्स को भी सुन चुके थे और धीरे-धीरे यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि ये सारे तपे हुए जैज़ वादक कैसी नयी चाल में जैज़ को ढालने का काम कर रहे थे. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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https://youtu.be/saN1BwlxJxA (जौन कोल्ट्रेन - ऐलाबामा)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इसी दौर में कोल्ट्रेन एक ओर तो डिज़ी गिलेस्पी और जौनी हौजेस के सम्पर्क में आये, दूसरी तरफ़ माइल्स डेविस जैसे "कठिन" जैज़ संगीतकार के सम्पर्क में, जिनके साथ कोल्ट्रेन का एक अजीबो-ग़रीब रिश्ता रहा -- एक तरफ़ आदर-सम्मान का दूसरी तरफ़ तनाव का और तीसरी तरफ़ संघर्ष का. हो सकता है, जैज़-संगीत के प्रेमियों ने कोल्ट्रेन को 1949 के आस-पास सुना हो, जब वे डिज़ी गिलिस्पी के बैण्ड में बहुत-से लोगों के बीच एक और सेक्सोफ़ोन-वादक की हैसियत से मौजूद थे, लेकिन उनकी वास्तविक प्रतिभा का पता लोगों को सन 1955 में चला, जब उन्होंने माइल्स डेविस की मण्डली में संगत शुरू की। बड़ी बात यह थी कि कोल्ट्रेन एक जाने-माने संगीतकार से नयी हिकमतें सीखते हुए आज़ाद पेशेवर की ज़िन्दगी जी रहे थे जब माइल्स डेविस ने उन्हें ख़ास तौर पर बुला कर अपनी मण्डली "फ़र्स्ट ग्रेट क्विण्टेट" में सैक्सोफ़ोन वादक की जगह दी थी. 1955 से 1957 के बीच कोल्ट्रेन ने माइल्स डेविस की मण्डली के साथ कई महत्वपूर्ण रिकौर्ड जारी किये जिनसे उनकी बढ़ती हुई महारत का साफ़ पता चला. लेकिन समस्या यह थी कि जौन कोल्ट्रेन अब तक हेरोइन की चपेट में आ गये थे और माइल्स डेविस ने जब 1957 में अपनी मण्डली भंग की तो उसके पीछे एक वजह कोल्ट्रेन की नशे की लत भी थी. लेकिन सब कुछ के बावजूद माइल्स डेविस के मन में कोल्ट्रेन की प्रतिभा के लिए गहरा सम्मान था और आगे चल कर जब 1958 में कोल्ट्रेन माइल्स डेविस की मण्डली में वापस आये तो दोनों मिल कर संगीत के कार्यक्रमों में एक-दूसरे का साथ देते रहे, जैसे 1960 में स्टौकहोम की संगीत सभा में जो एक यादगार सभा थी. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/4_z221y8TOs (जौन कोल्ट्रेन और माइल्स डेविस - युगल वादन - स्टौकहोम 1960)</div>
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<br /></div>
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<br /></div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस बीच कोल्ट्रेन 1955 में जुआनीटा नईमा ग्रब्स से शादी कर चुके थे जो धर्म-परिवर्तन करके मुस्लिम बनी थी और नईमा के साथ वे इस्लाम के सम्पर्क में भी आये. लेकिन यह विवाह आठ साल बाद टूट गया और इसके बाद कोल्ट्रेन ने ऐलिस मक्लाउड से दूसरा विवाह किया जो उनकी निजी ज़िन्दगी और संगीत -- दोनों के लिए बहुत सार्थक साबित हुआ, क्योंकि दोनों की रुचियां बहुत मिलती थीं, ख़ास तौर पर भारतीय दर्शन और धर्म में. ऐलिस चूंकि खुद भी जैज़ पियानोवादक थी और जानती थी कि पेशेवर संगीतकार को किस तरह के तनावों से जूझना पड़ता है.</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बहरहाल, माइल्स डेविस की संगत में कोल्ट्रेन उस नयी धारा में शामिल हो चुके थे, जिसकी शुरुआत माइल्स डेविस, चार्ल्स मिंगस और थेलोनिअस मंक जैसे "सोचने वाले" जैज़ संगीतकारों ने की थी. स्वाभाविक रूप से कोल्ट्रेन का अगला कदम उन्हें थेलोनिअस मंक की मण्डली में ले गया जहां उन्होंने 1957 में कुछ ही महीनों के लिए पड़ाव डाला, लेकिन उस साल के आख़ीर में सुप्रसिद्ध कारनेगी हौल में जो कार्यक्रम आयोजित हुआ वह आज भी कोल्ट्रेन और मंक के चाहने वालों और आम जैज़ प्रेमियों में बहुत लोकप्रिय है. </div>
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<br /></div>
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Thelonious Monk Quartet with John Coltrane at Carnegie Hall </div>
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<br /></div>
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रूढि़यों से मुक्ति का प्रयास साठ के दशक में जॉन काल्ट्रेन भी करते रहे और यह कोशिश काफ़ी हद तक सफल भी हुई। इसीलिए जब वे परम्परागत ढंग के ब्लूज़ बजाते तो भी उनका एक अलग अन्दाज़ रहता. सुरों के बीच आवा-जाही काफ़ी जटिल और ताल का परिवर्तन भी बिलकुल अपनी तरह का होता जिसे कोल्ट्रेन के परिवर्तन कहा जाने लगा था. जैसा कि उस दौर के सबसे मशहूर ऐल्बम "ब्लू नोट" में सुनायी देता है, ख़ास तौर पर दो रिकौर्डों -- "ब्लू ट्रेन" और "लेज़ी बर्ड" में.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/XpZHUVjQydI --- (जॉन काल्ट्रेन - ब्लू ट्रेन)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/DAsUNTHRjaM<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>-- ( जॉन काल्ट्रेन - लेज़ी बर्ड)</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>माइल्स डेविस और थेलोनिअस मंक की संगत में -- जिनमें से एक ट्रम्पेट वादक थे और दूसरे पियानो -- जौन कोल्ट्रेन ने अपनी शैली को इस हद तक सान पर चढ़ाया था कि एक समीक्षक ने कहा था कि उनका वादन "संगीत की चादरों" जैसा लगता है. ख़ूब कसा हुआ और एक ही मिनट के दौरान सैकड़ों सुरों के फ़ासले तय कर लेने वाला. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस बीच जॉन काल्ट्रेन के संगीत में कई उतार-चढ़ाव आये। एक दौर ऐसा भी था, जब वे ’मुक्त जैज़’ के सबसे बड़े समर्थक थे और ऐसा संगीत पेश कर रहे थे, जिसमें नाद और स्वर की कोई सुसंगत संरचना नहीं रह गयी थी -- संगीत विशुद्ध ध्वनि बन कर रह गया था। लेकिन इस अति से अलग हो कर जब उन्होंने ’काले मोती’ जैसी धुनें रिकॉर्ड कीं तो रूढि़यों को तोड़ते हुए भी जैज़ की बुनियादी परम्परा का-उसके सुर, ताल और लय का-पूरा ख़याल रखा। ’काले मोती’ नामक मशहूर रिकॉर्ड के आरम्भ में हानल्ड बर्ड के ट्रम्पेट-वादन के बाद जब जॉन कोल्ट्रेन सेक्सोफ़ोन पर धुन को बढ़ाते हैं तो उनकी रचनात्मकता का एहसास सहज ही हो जाता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/grdV-iNIsQs -- (जॉन काल्ट्रेन - काले मोती)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"काले मोती" के आस-पास कोल्ट्रेन ने अपना एक बेहद कामयाब ऐल्बम जारी किया -- "जायण्ट स्टेप्स" -- "विराट कदम." इसमें ज़्यादातर उनकी अपनी रचनाएं थीं और ऐल्बम का मुख्य रिकौर्ड आम तौर पर उनकी प्रयोगशीलता की मिसाल माना जाता है, जिसमें सुर-ताल का मेल बेहद पेचीदा भी है और कोल्ट्रेन की अनोखी शैली में इस्तेमाल किया गया है, जहां सुरों के बढ़ते हुए क्रम के साथ धुन और राग का सामंजस्य मुग्ध कर देता है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/30FTr6G53VU --- (जॉन काल्ट्रेन - जायण्ट स्टेप्स)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जैसा कि हमने कहा, कोल्ट्रेन के संगीत का सफ़र सीधा नहीं था. 1960 के दशक के शुरू में वे एक बार फिर इस हद तक चले गये कि समीक्षक और जैज़ प्रेमी उनके संगीत को "ऐण्टी जैज़" कहने लगे. खुद कोल्ट्रेन ने माना कि वे कुछ ज़्यादा ही तकनीकी बारीकियों में उलझ गये थे. मगर हर बार की तरह वे फिर अपनी पुरानी शैली की तरफ़ लौट आये, अल्बत्ता उसमें कुछ नया जोड़ते हुए. अब तक कोल्ट्रेन कुछ नये लोगों की संगत करने लगे थे और उनकी मण्डली "द क्लासिक क्वौर्टेट" ने अपना सबसे मशहूर रिकौर्ड "ए लव सुप्रीम" दिसम्बर 1964 में जारी किया. कहा जाता है कि कोल्ट्रेन को, जो लगातार हेरोइन और एल एस डी जैसे नशों से कूझते रहे थे -- उन्हें अलविदा कहते और फिर उन्हें गले लगाते हुए -- "ए लव सुप्रीम" की प्रेरणा 1957 में नशे की एक लगभग जानलेवा मात्रा लेने के बाद मिली थी. बहरहाल, यह रिकौर्ड न सिर्फ़ कोल्ट्रेन की अब तक की उपलब्धियों की बानगी था, बल्कि बहुत हद तक उनके आध्यात्मिक मिज़ाज की झलकी भी पेश करता था. "ए लव सुप्रीम" का चौथा सुर परिवर्तन कोल्ट्रेन की एक कविता के लिए संगीत का आधार बिछाने के लिए रचा गया था. ऐल्बम के आवरण पर दी गयी इस कविता में आये शब्दों के हर बलाघात के लिए कोल्ट्रेन ने एक सुर बजाया था और हर शब्द पर संगीत का एक टुकड़ा. ज़ाहिर है ऐल्बम काफ़ी चुनौती भरा था, लेकिन मज़े की बात है कि वह सुनने वालों में बहुत लोकप्रिय भी हुआ. जौन कोल्ट्रेन ने "ए लव सुप्रीम" को किसी सभा में एक ही बार बजाया -- 1965 में -- और उसका भी एक छोटा-सा टुकड़ा ही उपलब्ध है, हालांकि ऐल्बम में पूरा रिकौर्ड मिलता है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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http://youtu.be/_qt435yF2Qg -- (जौन कोल्ट्रेन - ए लव सुप्रीम)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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http://youtu.be/clC6cgoh1sU -- (ए लव सुप्रीम - पूरा)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>१९६४-६५ में "ए लव सुप्रीम" तक आते आते जौन कोल्ट्रेन का एक बहुत लम्बा दौर पूरा हो चुका था और उनके संगीत में "ए लव सुप्रीम" से आध्यात्मिकता का जो पुट दाख़िल हुआ था वह आगे के ऐल्बमों -- "ओम" और "मेडिटेशन्स" -- में परवान चढ़ने लगा था. तभी जब किसी को अन्दाज़ा नहीं था कि कोल्ट्रेन की नशे की लत उनके शरीर को कितना खोखला कर चुकी थी, १९६७ में महज़ ४० साल की उमर में जिगर के कैन्सर से कोल्ट्रेन की मौत हो गयी. आज पीछे मुड़ कर देखते हुए यह साफ़-साफ़ देखा जा सकता है कि जौन कोल्ट्रेन ने जैज़ ही नहीं दूसरी तरह के संगीत पर भी कितना असर छोड़ा था. वे ऐसे संगीतकार थे जो परम्परा का साथ निभाते हुए प्रयोगों को उनके चरम तक ले जाने की कूवत रखते थे.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जौन कोल्ट्रेन की मौत के बाद फ़िलाडेल्फ़िया का उनका पुराना घर राष्ट्रीय ऐतिहासिक भवन घोषित कर दिया गया है और यही दर्जा उनके ्न्यू यौर्ख वाले घर को भी दिया गया है जहां वे 1964 से ले कर मृत्यु तक रहे. लेकिन उनकी सबसे बड़ी विरासत वह संगीत है जो वे अपने पीछे छोड़ गये हैं. जारी किये गये ऐल्बमों और रिकौर्डों के अलावा बहुत कुछ ऐसा भी है जो अभी सामने नहीं आया है. उनके बेटे रवि कोल्ट्रेन के पास --जिसका नाम सितारवादक पण्डित रविशंकर के नाम पर रखा गया था और जो खुद भी एक सैक्सोफ़ोनवादक है -- काफ़ी सामग्री रखी हुई है, जिसमें से कुछ तो यकीनन नायाब है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अन्त में बस इतना कहना बाकी रह जाता है कि किसी फ़नकार की पहचान जिस हद तक उसके प्रयोगों से होती है उतनी ही इस बात से कि वह परम्परा के साथ ताल-मेल बैठाने की कितनी कूवत रखता है. जौन कोल्ट्रेन का ज़िक्र हम उनके सैक्सोफ़ोन पर ड्यूक एलिंग्टन के पियानो की संगत में बजायी गयी ड्यूक एलिंग्टन ही की प्रसिद्ध रचना "इन ए सेण्टिमेण्टल मूड" के साथ ख़त्म कर रहे हैं :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/r594pxUjcz4 -- इन ए सेण्टिमेण्टल मूड</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: right;">
<b>(जारी)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-8010353220141975402015-04-17T21:15:00.001-07:002015-04-17T21:24:02.186-07:00जैज़ पर लम्बा आलेख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>तेईसवीं कड़ी</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
27.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इसी समय मिंगस और माइल्स से उमर में कुछ साल छोटे, लेकिन लीक से हट कर चलने की वैसी ही ज़िद रखने वाले संगीतकार थे सैक्सोफ़ोन वादक और्नेट कोलमैन (1930- ), जिनके उस ऐल्बम का, जो 1959 में रिकौर्ड किया गया, शीर्षक ही बहुत-से लोगों को बड़बोलेपन की मिसाल लग सकता था. और्नेट कोलमैन ने इस ऐल्बम का नाम रखा था "शेप औफ़ जैज़ टू कम" यानी "आने वाले दिनों में जैज़ का स्वरूप." </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>और्नेट कोलमैन ने, जिनका जन्म और पालन-पोषण फ़ोर्ट वर्थ, टेक्सास में हुआ, 1959 में जैसे एक छलांग लगा कर अपने ऐल्बम में शामिल छै धुनों को रिकौर्ड कराते हुए जैज़ संगीत के बारे में अपना बयान दर्ज कराया था. जहां माइल्स डेविस और चार्ल्स मिंगस पुराने तपे हुए संगीतकार थे और कई-कई बार अपने संगीत को रिकौर्ड करा चुके थे, वहीं और्नेट कोलमैन का यह महज़ तीसरा ऐल्बम था और इसका मौका भी उन्हें ख़ासी मुश्किल से मिला था. बात यह थी कि जिस लीक पर वे अपने स्कूली दिनों ही में चल पड़े थे वह पैदाइशी विद्रोहियों की लीक कही जा सकती थी. अभी वे स्कूल के बैण्ड में थे कि उन्हें एक प्रसिद्ध धुन को बजाने के दौरान तात्कालिक प्रेरणा से तयशुदा सुर-ताल से हट कर प्रयोग करने की हिमाकत की वजह से बैण्ड के बाहर कर दिया गया था. लेकिन और्नेट कोलमैन अपने इरादे के पक्के थे. वे उस छोटी उमर में भी जानते थे कि अगर उन्हें संगीत में अपनी राह बनानी है तो वह उनकी अपनी राह होगी, पिटी-पिटायी लीक नहीं. उन्नीस साल की उमर तक वे अपनी तरह के कुछ साथियों को इकट्ठा करके स्थानीय क्लबों में बजाना शुरू कर चुके थे. किसी तरह अपने छोटे से शहर से बाहर निकलने की कोशिश में उन्होंने कुछ घुमन्तू मण्डलियों के साथ आस-पास के दौरे शुरू किये. इसी तरह के एक दौरे में बेटन रूज नाम की जगह के सुनने वाले इतने भड़के कि उन्होंने और्नेट के साथ हाथा-पाई करते हुए उनका सैक्सोफ़ोन भी तोड़ दिया. इस घटना के बाद और्नेट एक बैण्ड में शामिल हो कर लौस ऐन्जिलीज़ चले गये, लेकिन वहां पहुंचते ही उन्हें उनकी हठी फ़ितरत की वजह से बैण्ड से बाहर कर दिया गया. अगले नौ साल वे लौस ऐन्जिलीज़ में छोटे-मोटे काम करके अपना ख़र्चा चलाते हुए स्थानीय बैण्डों में सैक्सोफ़ोन बजाते रहे. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/JbEuvFmx1lU?list=PLlvZuli9Xh9gznxUbfrhjEihXck9ZhQLD (और्नेट कोलमैन - वेन विल द ब्लूज़ लीव)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>फिर, जब ऑर्नेट कोलमैन सन 1958-59 में पहले पहल न्यूयॉर्क आये तो बहुत-से लोगों को यह लगा कि उन्होंने अचानक एक ऐसे क्षेत्र में धावे मारने शुरू कर दिये हैं, जिसे दूसरे संगीतकार अभी दूर से ही जाँच-परख रहे थे। कुछ लोगों की नज़र में ऑर्नेट कोलमैन एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होंने जैज़ में अव्यवस्था और बेसुरापन पैदा किया था, जबकि बहुत-से लोगों का ख़याल था कि कोलमैन एक क्रान्तिकारी संगीतकार थे, जिन्होंने जैज़ को उसकी रूढि़यों से मुक्त कर खुलापन प्रदान किया। अपनी अदाकारी में आर्नेट कोलमैन ने हर प्रकार की पारम्परिक रचनाओं के साथ छूट ली थी। यहाँ तक कि स्वर, सुर और तान के सिलसिले में चली आ रही रूढि़यों को भी उन्होंने तोड़ा था। इसके अलावा अलावा चूँकि वे लगभग पूरी तरह तात्कालिक प्रेरणा पर निर्भर करते थे, इसलिए बहुत-से समीक्षकों ने उन्हें या तो संगीत से कतई रहित कहा या फिर एक प्रतिभाशाली नौसिखिया। इसके बावजूद जहाँ तक बुनियादी लय और ताल का सवाल है, इसमें कोई शक नहीं है कि कोलमैन यह जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं और इसीलिए अपने पूर्ववर्ती संगीतकार चार्ली पार्कर की तरह उनमें यह क्षमता थी कि जैज़ के किसी अत्यन्त पारम्परिक रूढि़ग्रस्त पिटे-पिटाये टुकड़े को उठा कर उसे बिल्कुल ताज़ा बना कर पेश कर दें।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/WoC69lxnS_Y?list=PL2Z8vT6D3wiQi7Qz6zwpwHYMfeOa6KXmJ (और्नेट कोलमैन - इवेन्चुअली)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"शेप औफ़ जैज़ टू कम" कुल 36-37 मिनट का ऐल्बम था और उसमें 4 मिनट से ले कर 9 मिनट तक की छै रचनाएं थीं -- लोनली वुमन, इवेन्चुअली, पीस, फ़ोकस औन सैनिटी, कन्जीनिऐलिटी और क्रोनौलोजी, लेकिन इन छै रचनाओं के माध्यम से ही और्नेट कोलमैन ने जैज़ की दुनिया में अपनी मुहर लगा दी थी. न सिर्फ़ वे पूरी तरह तात्कालिक प्रेरणा पर बजाते थे, बल्कि उन्होंने अपनी छोटी-सी मण्डली में न तो पियानो को जगह दी थी न गिटार को. मण्डली में चार लोग थे -- सैक्सोफ़ोन पर और्ने कोलमैन, कौर्नेट पर डौन चेरी, बेस पर चार्ली हेडन और ड्रम्स पर बिली हिगिन्स. जैसे इतना ही परम्परागत श्रोताओं और समीक्षकों को चौंकाने के लिए काफ़ी न हो, जो सैक्सोफ़ोन और्नेट कोलमैन बजाते थे वह पीतल का नहीं, प्लास्टिक का बना हुआ था, जिससे उसकी अवाज़ में एक खास क़िस्म की करख़्त फ़ितरत पैदा हो गयी थी.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"शेप औफ़ जैज़ टू कम" की सारी रचनाएं और्नेट कोलमैन ने तैयार की थीं और हालांकि वे इस ऐल्बम का नाम फ़ोकस औन सैनिटी रखना चहते थे, लेकिन फिर उन्होंने सलाह-मशविरे के बाद "शेप औफ़ जैज़ टू कम" ही तय किया. ऐल्बम की पहली रचना "लोनली वुमन" ने ऐल्बम के बाज़ार में आते ही लोगों का ध्यान खींचा और समय के साथ वह जैज़ की अविस्मरणीय रचनाओं में शामिल हो गयी है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/QSmYTc1Jv7w (Ornette Coleman The Lonely Woman in Vienna 2008)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"लोनली वुमन" के बारे में और्नेट ने बताया कि इस धुन का ख़याल उन्हें लौस ऐन्जिलीस में एक डिपार्टमेण्टल स्टोर में काम करते हुए खाने की छुट्टी के दौरान आया था जब उन्होंने एक औरत का फ़ोटो देखा था. "औरत के पीछे तमाम तरह की ऐशो-आराम की चीज़ें थीं," और्नेट कोलमैन ने बताया था,"दौलत से खरीदी जा सकने वाली हर तरह का सामान, लेकिन वह इतनी उदास थी. मैंने मन में सोचा -- हे भगवान, मैं इस एहसास को समझ सकता हूं. मैंने कभी इस तरह की दौलत नहीं देखी, पर मुझे वह महसूस हो रहा है जो उस औरत के मन में चल रहा है. जब मैं काम के बाद घर गया तो मैंने यह रचना तैयार की. मैंने ख़ुद को ठीक उस जगह रख कर उस भावना को अपने ऊपर हावी होने दिया और यह टुकड़ा रचा." </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वैसे, इस ऐल्बम की सारी-की-सारी रचनाएं अपनी सादगी में अनोखी कही जा सकती हैं. हर टुकड़े में एक छोटी-सी धुन है, काफ़ी कुछ जैज़ के किसी भी आम गीत की तरह, फिर बीच में तात्कालिक प्रेरणा से बजाये गये टुकड़े हैं और अन्त में एक बार फिर मुख्य धुन पर वापसी. मगर यह सादगी और वादकों की ग़ैरतयशुदा उड़ान ही इन टुकड़ों की जान है. और्नेट कोलमैन का कहना था कि जैज़ ही ऐसा संगीत है जहां किसी सुर या टुकड़े को हर बार बजाते हुए नया करके पेश किया जा सकता है और इस लिहाज़ से वह एकदम आज़ाद संगीत है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आज़ादी ही वह चीज़ थी जिसे हासिल करने के लिए और्नेट कोलमैन अपने बचपन से कोशिश करते आ रहे थे और "शेप औफ़ जैज़ टू कम" इस दिशा में उनका पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम था. इस ऐल्बम के माध्यम से उन्होंने जैज़ की दुनिया में ऐसी चुमौती पेश कर दी थी जिसे तस्लीम करना आज भी बहुत से लोगों को गवारा नहीं है. अनेक समीक्षकों ने उन्हें मूर्तिभंजक कहा, सुर-ताल से रहित कहा, जैज़ का घुसपैठिया भी कहा, लेकिन सुनने वालों और बहुत-से रचनाकारों ने उनकी प्रतिभा को पहचान कर उन्हें एक सच्चा फ़नकार माना. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>1959 में "शेप औफ़ जैज़ टू कम" को रिकौर्ड करने के बाद और्नेट कोलमैन ने अगले ऐल्बम को रिकर्ड कराने में देर नहीं की और जो नयी राह "शेप औफ़ जैज़ टू कम" में खोजी थी, उसी पर आगे बढ़ते हुए उन्होंने अगला ऐल्बम रिकौर्ड कराया और उसका नाम रखा "फ़्री जैज़" -- "उन्मुक्त जैज़." "फ़्री जैज़" स्टीरियो में रिकौर्ड हुआ था और इसमें और्नेट ने चारों वाद्यों के दो जोड़े इस्तेमाल किये थे. चालीस मिनट लम्बी यह रिकौर्डिंग अब तक का रिकौर्ड किया गया सबसे लम्बा जैज़ रिकौर्ड था और बाज़ार में आते ही इसे फ़ौरन कोलमैन की विवादग्रस्त रचनाओं में शुमार किया जाने लगा. और्नेट कोलमैन ने इसमें एक नियमित मगर जटिल ताल पर तजरुबे किये थे. एक ड्रम वादक नियमित ताल पकड कर चलता तो दूसरा डबल टाइम में यानी उसकी रफ़्तार निस्बतन तेज़ होती. बीच में उन्मुक्त झाले होते और हालांकि बैण्ड के हर सदस्य को एकल वादन का अवसर मिलता, पर वे अगर चाह्ते तो बीच-बीच में शामिल भी हो सकते थे.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/d0HB8ybKJzo (और्नेट कोलमैन - फ़्री जैज़ भाग 1)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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<br /></div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"फ़्री जैज़" का नाम और्नेट कोलमैन ने सिर्फ़ इस ऐल्बम के लिए तय किया था, लेकिन उनकी इच्छा के विपरीत धीरे-धीरे उनकी बढ़ती हुई प्रतिष्ठा ने इसे एक आन्दोलन का, जैज़ की एक नयी विधा का रूप दे दिया. फिर स्थितियां कुछ इस तरह बदलीं कि ख़ुद कोलमैन इसी राह को आगे बढ़ाते हुए नयी-नयी धाराओं के साथ जुड़ते चले गये और एक गुरु बन कर उभरे. उन्होंने तार वाले वाद्यों के साथ भी प्रयोग किये<br />
<br />
https://youtu.be/ml_BetwQ84I (और्नेट कोलमैन - फ़्री जैज़ भाग 2)<br />
<br />
इसके अलावा उन्होंने माइल्स डेविस की तरह इलेक्ट्रिक वाद्यों का भी इस्तेमाल किया और अपने पुराने प्लास्टिक के सैक्सोफ़ोन को न त्यागते हुए भी पीतल के सैक्सोफ़ोन भी बजाये. मगर जो कुछ और्नेट कोलमैन ने १९५९ के बाद किया उसमें उन्होंने रूढ़ियों को तोड़ते रहने की अपनी टेक बरकरार रखी.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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https://youtu.be/dM5WPCsWA3M?list=PL2Z8vT6D3wiQi7Qz6zwpwHYMfeOa6KXmJ (और्नेट कोलमैन - औफ़ ह्यूमन फ़ीलिंग्ज़)</div>
<br />
<div style="text-align: right;">
<b>(जारी)</b></div>
<br /></div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-19383759041323740242015-04-15T18:08:00.005-07:002015-04-15T18:12:41.868-07:00जैज़ पर लम्बा आलेख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>बाईसवीं कड़ी</b></div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
26.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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माइल्स डेविस अगर बहुत हद तक अन्तर्मुखी कलाकार थे, स्वभाव और संगीत दोनों के लिहाज़ से, तो चार्ल्स मिंगस (1922-79) अव्वल से आख़िर तक हर चीज़ से लोहा लेने वाले फ़नकार थे -- चाहे मामला संगीत का हो या देश-दुनिबया का, साथी कलाकारों का हो या फिर सुननेवालों का.<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>थेलोनिअस मंक को अगर उनके अन्तर्मुखी स्वभाव के कारण बहुत-से लोग "लोनली मंक" यानी एकाकी साधू कहते थे और इसी शीर्षक से "टाइम" पत्रिका ने उन पर आवरण कथा भी प्रकाशित की थी तो चार्ल्स मिंगस की शोहरत जैज़ के "नाराज़ आदमी" की थी. जैज़ संगीत और अपनी डगर से अलग न हटने की टेक के चलते मंच और संगीत सभाओं या रिकौर्डिंग के दौरान मिंगस का आपे से बाहर हो जाना या संगतकारों को फटकार देना या मण्डली से बाहर कर देना एक आम बात थी. मझोले आकार के बैण्डों के लिए संगीत रचने और अपनी मण्डली के वादकों की ताकत और कौशल को बढ़ाने और उस पर बल देने की अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के चलते चार्ल्स मिंगस को अक्सर ड्यूक एलिंग्टन का उत्तराधिकारी भी माना जाता था, जिनके लिए वैसे भी मिंगस के मन में बहुत श्रद्धा थी. ख़ुद डिज़ी गिलेस्पी ने एक बार कहा था कि मिंगस उन्हें "युवा ड्यूक" की याद दिलाते थे. लेकिन मिंगस उन गिने-चुने वादकों में थे जिन्हें ड्यूक एलिंग्टन ने अपने बैंड से उनके कलह-क्लेश-भरे स्वभाव के कारण एक बार निकाल भी दिया था.<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>चार्ल्स मिंगस का जन्म ऐरिज़ोना में हुआ था और वे लौस ऐन्जिलीस में पले-बढ़े थे. हालांकि वे अश्वेत थे, लेकिन मां और पिता, दोनों की तरफ़ से उनकी नसों में अलग-अलग क़ौमों का ख़ून भी दौड़ रहा था. मां की तरफ़ से चीनी और अंग्रेज़ तो पिता की तरफ़ से स्वीडी. बहरहाल, बाहर की सारी दुनिया के लिए चार्ल्स मिंगस नीग्रो थे. उनकी मां ने सख़्ती से घर में सिर्फ़ गिरजे में बजाये जाने वाले संगीत ही की इजाज़त दे रखी थी, लेकिन जल्दी ही चार्ल्स को दूसरी तरह के संगीत में दिलचस्पी पैदा हो गयी, ख़ास तौर पर ड्यूक एलिंग्टन की रचनाओं में. उन्होंने शुरुआत ट्रौम्बोन से की और फिर वे चेलो बजाने लगे जो बड़े आकार की वायलिन जैसा वाद्य था. लेकिन पेशेवर तौर पर वे चेलो बजाना जारी नहीं रख पाये, क्योंकि उस समय किसी अश्वेत संगीतकार के लिए शास्त्रीय संगीत के हलकों में दाख़िल होना असम्भव था और जैज़ में अभी चेलो को वाद्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया था. आख़िरकार मिंगस ने तार वाले दूसरे वाद्य -- बेस -- को चुना को, जिसे हाथ से बजाते थे और जो जैज़ में अपनी शमूलियत दर्ज कर चुका था. इसके बावजूद चेलो से मिंगस की मोहब्बत जीवन भर चली.<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>पढ़ाई-लिखाई में कमज़ोर होने की वजह से चार्ल्स मिंगस अपनी जवानी के दिनों में संगीत की स्वर-लिपि उतनी तेज़ी से नहीं पढ़ पाते थे जिसकी वजह से उन्हें हमेशा शास्त्रीय संगीत की दुनिया से बहिष्कृत होने का एहसास सालता रहा. ताज़िन्दगी नस्लवाद और रंगभेद से उनकी जद्दो-जेहद के साथ इन शुरुआती अनुभवों ने मिल कर बहुत हद तक उनके संगीत की फ़ितरत को गढ़ने की भूमिका निभायी. उनके संगीत में नस्लवाद, भेद-भाव और न्याय-अन्याय के स्वर साफ़ झलकते हैं.<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जब मिंगस ने हाई स्कूल में बेस बजाना शुरू किया तो जो हिकमतें उन्होंने चेलो के सिलसिले में सीखी थीं, उन्हें वे यहां आ़ज़माने लगे. पांच बरस तक वे न्यू यौर्क फ़िल्हार्मौनिक और्केस्ट्रा के मुख्य बेस वादक हर्मन राइन्सहागेन से सीखते रहे. अपनी किशोरावस्था से शुरू करके ही चार्ल्स मिंगस काफ़ी प्रौढ़ किस्म की संगीत रचनाएं करने लगे थे, क्योंकि उनमें पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के तत्व शामिल थे. इनमें से कुछ टुकड़े आगे चल कर 1960 में संगीत निर्देशक गुण्टर शिलर के साथ रिकौर्ड भी किय गये. मज़े की बात है इन्हें "बर्ड से पहले" कह कर श्रोताओं के सामने पेश किया गया, क्योंकि "बर्ड" यानी चार्ली पार्कर के साथ जुड़ने के बाद मिंगस उन बहुत-से वादकों में से थे जिनके संगीत की समझ पार्कर ने बदल कर रख दी थी.<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बेस-वादक के रूप में मिंगस अपनी मिसाल आप थे. 1943 से शुरू करके वे लुई आर्मस्ट्रौंग और ड्यूक एलिंग्टन जैसे तपे हुए संगीतकारों की संगत करने लगे थे और 1950 के दशक में वे चार्ली पार्कर की संगत में बेस बजाने लगे. मिंगस की नज़र में पार्कर जैज़ संगीत के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण और रचनात्मक वादक थे. लेकिन कई बार पार्कर की आत्म-विनाशक आदतों और नशे की लत के कारण उन्हें खीझ भी होती थी और उन्हें न सिर्फ़ इस बात से चिढ़ थी कि एक रूमानी नज़रिये के तहत नशों को जैज़ संगीतकारों के लिए मानो ज़रूरी चीज़ बताया जाता था, बल्कि इस बात से भी कि पार्कर के इर्द-गिर्द एक प्रभामण्डल बुन कर उनके नक़लचियों की एक खेप तैयार हो गयी थी. इसी को लक्ष्य करके मिंगस ने एक गीत तैयार किया जिसके बोल थे "अगर पार्कर होता बड़ा बन्दूकची तो मरे पड़े मिलते ढेरों नक़लची."<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>चर्ल्स मिंगस अक्सर मझोले आकार की मण्डलियों के साथ काम करना पसन्द करते थे जिसमें पारी-पारी से वादक आते-जाते रहते थे. अपने संगतकारों से वे लगातार यही अपेक्षा रखते कि वे बजाते समय अपने रचनात्मक कौशल का प्रदर्शन करते रहें. मिंगस की इन मण्डलियों को कुछ संगीतकारों ने जैज़ के विश्वविद्यालय भी कहा क्योंकि वहां वे इतनी तरह की तकनीकों से प्रयोग करते और अपने संगतकारों को भी सिखाते.</div>
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https://youtu.be/HafQ0B36ZIQ?list=PLcc51NYcXkvHWQV8vBLs38rOlsC7CkbE7<br />
(चार्ल्स मिंगस - टाइम्स स्क्वेयर में पुरानी यादें)</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मिंगस जैज़ संगीत के लगभग 10 ऐलबम रिकौर्ड कर चुके थे जब उन्होंने "पिथेकैन्थ्रोपस एरेक्टस" रिकौर्ड कराया, जिसे उनका पहला महत्वपूर्ण ऐल्बम माना जाता है -- मण्डली के निर्देशक और रचनाकार, दोनों के तौर पर. इसका शीर्षक गीत सुरों में रची गयी दस मिनट लम्बी कविता कहा जा सकता है जिसमें मनुष्य के बनने से ले कर उसके एक अन्तिम पतन तक के विकास को दर्शाया गया था. एलिंग्टन की तरह मिंगस भी ख़ास-ख़ास संगीतकारों को ध्यान में रख कर अपने गीत और राग तैयार करते थे मसलन "पिथेकैन्थ्रोपस एरेक्टस" में उन्होंने कुछ दुस्साहसी क़िस्म के वादकों को शामिल किया था. "पिथेकैन्थ्रोपस एरेक्टस" के बाद के दस साल मिंगस के जीवन के सबसे उर्वर और रचनात्मक साल थे. प्रभावशाली राग और ऐल्बम आश्चर्यजनक गति से आते रहे, दस बरस में लगभग तीस रिकौर्ड, जिसका मुक़ाबला ड्यूक एलिंग्टन के अलावा और कोई नहीं कर सकता था. </div>
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https://youtu.be/ZB6GkA54n_Q (चार्ल्स मिंगस - पिथेकैन्थोपस एरेक्टस)</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अगर "पिथेकैन्थ्रोपस एरेक्टस" मिंगस का पहला महत्वपूर्ण ऐल्बम था, तो उसके तीन साल बाद ही 1959 में रिकौर्ड किया गया ऐल्बम "मिंगस आ हुम" उनका घोषणा-पत्र कहा जा सकता है जिसमें न सिर्फ़ उन्होंने अपनी फ़नकारी, अपने संगीत-सम्बन्धी विचारों और अपने सामाजिक-राजनैतिक बयान को दर्ज किया था, बल्कि यह साबित कर दिया था वे बीसवीं सदी के अप्रतिम जैज़ संगीतकारों में शामिल किये जाने लायक हैं. इस दौर में सनी रॉलिन्स जैसे वादक अगर संगीत की अदाकारी की समस्या से जूझ रहे थे तो दूसरी ओर बैस-वादक चार्ल्स मिंगस अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों -- ड्यूक एलिंग्टन और चार्ली पार्कर -- की तरह इस अदाकारी में अन्तर्निहित वैचारिक पक्ष की समस्याओं का सामना कर रहे थे।</div>
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https://youtu.be/jfuisVNidXU?list=PLTP2K4U1d1_ypnCaXm9AtTijlk6JfhsVY (चार्ल्स मिंगस - ड्यूक के नाम खुला ख़त)</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एक संगीतकार के रूप में अपने अनुभवों को याद करते हुए अपनी पुस्तक ’आख़िरी आदमी के पीछे’ में चार्ल्स मिंगस ने लिखा था, ’सही मायनों में मेरे भीतर तीन आदमी हैं -- एक आदमी डरे हुए जानवर जैसा है, जो हमले की आशंका से पहले ही हमला कर बैठता है। दूसरा आदमी जीवन और लोगों को प्यार करने वाला निहायत शरीफ़ आदमी है, जो लोगों को अपनी ज़िन्दगी के दबे-छिपे कोनों में ले जाता है, जो उनकी तमाम बुरी बातें सहता है, जो उनकी तमाम चालाकियाँ और फ़रेब समझने के बाद भी न तो उन्हें नष्ट करता है, न अपने आप को। और तीसरा आदमी हमेशा बीच में खड़ा रहता है -- बेपरवाह; बेफ़िक्र; किसी लगाव के बिना; देखता हुआ, प्रतीक्षा करता हुआ कि जो कुछ उसने देखा है, उसे बाकी दोनों के सामने व्यक्त कर सके।’<br />
<br /></div>
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मिंगस ने अपने जीवन में गोरों के हाथों अश्वेत लोगों का जो अमानवीय सलूक देखा था, उसने समय ले बारे में उनकी अवधारणा पर भी असर डाला था. उनके एक साथी के अनुसार "मिंगस के लिए न तो कोई अतीत था, न वर्तमान, न भविष्य. सब कुछ घुल-मिल कर एक बन गया था."</div>
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https://youtu.be/vEWYeF122dI (चार्ल्स मिंगस - तीन रंगों में अपना चित्र)</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"मिंगस आ हुम" में नौ टुकड़े थे, नौ अलग-अलग धुनें -- बेटर गिट इट इन यौर सोल, गुडबाइ पोर्क पाई हैट, बूगी स्टौप शफ़ल, सेल्फ़ पोर्ट्रैट इन थ्री कलर्स, ओपन लेटर टू ड्यूक, बर्ड कौल्स, फ़ेबल्स औफ़ फ़ौबस, पुसी कैट ड्यूज़ और जेली रोल -- लेकिन इन सभी में एक विलक्षण एकाग्रता थी. मिंगस ने अक्सर कहा था कि अपने संगीत के माध्यम से वे अपने आप को व्यक्त करने की कोशिश करते थे और यह काम उनके लिए इस कारण से इतना मुश्किल था क्योंकि वे एक जगह खड़े होने की बजाय समय के साथ लगातार बदलते चल रहे थे. शायद यही वजह है कि जब उन्हें सही मौक़ा मिला तो उन्होंने अपने आप को समग्रता में सामने रख दिया. "मिंगस आ हुम" में एक तरफ़ बेटर गिट इट इन यौर सोल जैसी रचना है जो गिरजे में बजाये जाने वाले संगीत की याद दिलाती है, तो दूसरी तरफ़ सेल्फ़ पोर्ट्रैट इन थ्री कलर्स जैसी धुन जो मानो सुनने वाले को न सिर्फ़ मिंगस के अन्दर की झांकी दिखाती है, बल्कि ख़ुद अपने अन्दर झांकने के लिए प्रेरित करती है. इन्हीं के साथ फ़ेबल्स औफ़ फ़ौबस जैसी रचना भी है, जिसमें मिंगस ने धुन के साथ गीत भी शामिल किया था. </div>
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http://youtu.be/QT2-iobVcdw (Fables of Faubus)</div>
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गीत में अमरीकी प्रान्त आर्कैन्सस के गवर्नर और्वल फ़ौबस की खुली निन्दा थी, क्योंकि और्वल फ़ौबस ने अमरीका की सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के खिलाफ़ नौ काले छात्रों को लिटल रौक नामक जगह के एक स्कूल में दाखिल होने से रोक दिया था और नस्ली भेद-भाव के समर्थकों का खुल्लम-खुल्ला साथ दिया था. यह पहला मामला था, जब भेद-भाव जो अब तक छिपे तौर पर चलता था, खुल कर समूचे अमरीका ही नहीं, समूची दुनिया के सामने आ गया था. राष्ट्रपति आइज़नहावर और उनके प्रशासन के लिए संकट पैदा हो गया था, सेना बुलानी पड़ी थी, आक्रोश दोनों तरफ़ से फूट पड़ा था और अन्त में गवर्नर फ़ौबस को अपना आदेश वापस लेना पड़ा था. ज़ाहिर है, यह मिंगस का आन्दोलनकारी कार्यकर्ता वाला पक्ष था. यों, मिंगस बराबर यही कहते रहे कि वे कोई राजनैतिक कार्यकर्ता नहीं हैं, वे तो महज़ वादक और संगीत-निर्देशक हैं, लेकिन यह भी सही है कि मिंगस बहुत स्पष्टवादी कलाकार थे और संगीत के मंच को अपने विचार व्यक्त करने के लिए इस्तेमाल करने से कभी हिचकते नहीं थे चाहे बात सुनने वालों के व्यवहार की हो या संगतकारों के व्यवहार की, नस्ली भेद-भाव की हो या किसी और अन्याय-उत्पीड़न की.<br />
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>चूंकि चार्ल्स मिंगस ज़िन्दगी भर नस्ली और रंग आधारित भेद-भाव से जूझते रहे, इसका असर उनके संगीत पर लाज़िमी तौर पर पड़ता रहा, उर्वरता के दौर आते और फिर अवसाद के जिनमें वे ज़्यादा न रच पाते. तो भी वे जैज़ संगीत के हल्कों में बेस के सबसे महत्वपूर्ण वादक बने रहे, कहा जा सकता है कि उन्होंने इस वाद्य के सन्दर्भ में ज़मीन तोड़ने का काम किया. सबसे बड़ी बात यह थी कि चार्ल्स मिंगस किसी ख़ाने में रखे जाने से हमेशा बचते रहे. अपनी प्रेरणाएं वे जैज़ के ताज़ातरीन चलन से ले कर मुक्त जैज़, तीसरी धारा और शास्त्रीय संगीत के साथ पुराने धार्मिक संगीत को मिला कर तैयार करते. उनका ज़ोर सामूहिक रचनात्मकता पर रहता जैसा पुराने ज़माने में न्यू और्लीन्ज़ की मण्डलियों में मिलता था जहां महत्व इस बात पर रहता कि कोई भी वादक मण्डली के बाक़ी वादकों के साथ कैसे ताल-मेल बैठा कर एक गुंथा हुआ संगीत पेश करता था. और इस लिहाज़ से चार्ल्स मिंगस नये और पुराने का अद्भुत मेल थे.</div>
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<b>(जारी)</b></div>
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Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-39704029849875866202015-04-13T20:45:00.001-07:002015-04-13T20:45:23.559-07:00जैज़ पर लम्बा आलेख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत</span> </div>
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<b>इक्कीसवीं कड़ी</b></div>
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25.</div>
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1959 में जैज़ के चार ऐसे ऐल्बम आये जिन्होंने जैज़ को आगे के लिए बदल कर रख दिया. माइल्स डेविस का "काइण्ड औफ़ ब्लू," डेव ब्रूबेक का "टाइम आउट," चार्ल्स मिंगस का "मिंगस आ हुम" और और्नेट कोलमैन का "द शेप औफ़ जैज़ टू कम." इनमें माइल्स डेविस और चार्ल्स मिंगस जैज़ में काफ़ी पहले से सक्रिय थे और इस मुकाम पर पहुंच गये थे कि एक बड़ा धमाका कर सकें. डेव ब्रूबेक पियानो-वादक थे, जैज़ संगीत की दुनिया में -- जो लगभग पूरी-की-पूरी अश्वेत संगीतकारों की दुनिया थी -- एक आम गोरे अमरीकी संगीतकार की हैसियत से दाख़िल हुए थे और यह उम्मीद रखते थे कि वे इस अफ़्रीकी-अमरीकी संगीत में अपनी शमूलियत भी दर्ज करा सकेंगे. सिर्फ़ और्नेट कोलमैन न केवल इन सबसे कम उमर के वादक थे, बल्कि इस छोटी उमर में भी उन्होंने अपने वादन की अनोखी शैली से आम सुनने वालों और जैज़ पारखियों में तीखी प्रतिक्रिया पैदा की थी. जहां बहुत-से लोगों को लगता था कि और्नेट कोलमैन सचमुच प्रतिभाशाली और प्रयोगशील वादक हैं, वहीं कुछ लोग उन्हें बेसुरा कहते हुए उन्हें जैज़ की सफ़ में शामिल करने से ही इनकार कर देते थे. 1959 में अपना ऐल्बम रिकौर्ड कराने से पहले लगभग नौ साल और्नेट कोलमैन लौस ऐन्जिलीज़ में अपने संगीत के लिए जगह बनाने की कोशिश करते रहे थे और इस दौर में उन्होंने अपनी आजीविका तरह-तरह के मामूली काम करते हुए चलायी थी, यहां तक कि लिफ़्ट चालक का भी काम किया था.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>1959 का साल कई मानों में ख़ास था. दूसरे महायुद्ध के बाद के वर्षों में अमरीका एक तरफ़ तो नयी ख़ुशहाली के रास्ते पर चल पड़ा था, दूसरी तरफ़ विश्वयुद्ध के मैदान से निकल कर राष्ट्रपति की गद्दी संभालने वाले ड्वाइट डी. आइज़नहावर अपने दूसरे कार्यकाल के अन्तिम चरण में पहुंच चुके थे, जिसमें उन्होंने बाहरी दुनिया में अमरीकी वर्चस्व को बढाने के सभी सम्भव उपाय किये थे. इसी दौर में शीत युद्ध शुरू हुआ, वियतनाम में अमरीकी दख़लन्दाज़ी बढ़ी, अमरीकी गुप्तचर एजेन्सी सी.आइ.ए. ने बाहरी मुल्कों में घुसपैठ के ज़रिये अमरीका-विरोध को खत्म करने की राहें खोलीं और अमरीका के अन्दर बड़े पैमाने पर नागरिक अधिकार आन्दोलन शुरू हुआ, जिसकी अगली पांतें अफ़्रीकी मूल के अश्वेत लोगों ने संभाल रखी थीं. अश्वेत अफ़्रीकी अमरीकियों के खिलाफ़ गोरे लोगों ने जो मोर्चेबन्दियां कर रखी थीं, वे खुल कर सामने आ गयी थीं, बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने में आधी सदी की देर थी. कुल-मिला कर ख़ुशी और आशा के साथ भय और नफ़रत और दबे हुए आक्रोश का मिला-जुला माहौल था. अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वालों को साम-दाम-दण्ड-भेद -- हर तरीके से दबाया जाता था और जहां तक अश्वेत अफ़्रीकी मूल के अमरीकियों का सवाल था, अक्सर दण्ड वाला उपाय ही अमल में लाया जाता.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस माहौल का असर जैज़ संगीतकारों पर पड़ना लाज़िमी था, जो लगभग सारे के सारे अफ़्रीकी मूल के अश्वेत अमरीकी थे. लेकिन इस असर ने जैज़ की दुनिया में एक-सी प्रतिक्रिया नहीं पैदा की थी. एक कारण तो यह था कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जो ऊपरी तौर पर खुलापन नज़र आया था, उसकी असलियत से ज़्यादातर संगीतकार वाकिफ़ थे. वे जानते थे कि जैज़ तब भी "कालों का संगीत" समझा जाता था और अगर कोई संगीतकार कालों की क़तारों से निकल कर पश्चिमी शास्त्रीय संगीत की दुनिया में कदम रखने की जुर्रत करता तो वह दरवाज़ों को सख़्ती से बन्द पाता. इसलिए वे "कालों के संगीत" की दुनिया तक ही बने रहते. मगर वे इस सच्चाई से नज़रें नहीं चुरा सकते थे कि जहां उनके संगीत की खपत थी, जहां उनके लिए संगीतकार के तौर पर अपने पेशे से आजीविका चलाने की गुंजाइश थी -- वह चाहे क्लब हों या सभाएं या रिकौर्ड बनाने वाली कम्पनियां -- सारा प्रबन्ध-तन्त्र गोरे हाथों में था, जो उनके श्रम से मुनाफ़ा तो कमाता था, लेकिन उनके साथ अघोषित रूप से ग़ुलामों जैसा ही सुलूक करता था. आख़िरी बात यह थी कि जो वे अपने चारों तरफ़ देख रहे थे, उससे कहीं अधिक बुरी स्थितियां उनके बाबा-दादा देख चुके थे और उनकी कला का, अभिव्यक्ति का यह माध्यम -- जैज़ -- उसी काले अतीत से उपजा था, जो किसी भी तरह ख़त्म होने को नहीं आ रहा था. यह बात इसलिए भी ध्यान में रखनी ज़रूरी है, क्योंकि इन चार मण्डलियों में से तीन अश्वेत संगीतकारों की थीं. सिर्फ़ डेव ब्रूबेक की मण्डली गोरे वादकों की थी और उसके ऐल्बम का ऐतिहासिक महत्व इसी बात में था कि पहली बार गोरे संगीतकारों ने एक बड़ी पहलकदमी के तौर पर कालों के संगीत की दुनिया में कदम रखा था, जिसका नतीजा आने वाले वर्षों में यह हुआ कि जैज़ अपनी परम्परागत पांतों से बाहर आम गोरे श्रोताओं को भी बड़े पैमाने पर अपना मुरीद बना सका. लेकिन अगर डेव ब्रुबेक को अलग कर दें तो बाकी तीनों संगीतकारों में जैज़ के सारे मूल गुण थे -- अवसाद, दबा हुआ ग़ुस्सा, बेबसी, रूहानी कशिश, विद्रोह की लपट और लीक से हट कर चलने का एक बेफ़िक्र अन्दाज़. किसी में कम तो किसी में ज़्यादा. </div>
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https://youtu.be/-488UORrfJ0?list=PLdhGk7gKuZxYV8bG4lrWS2viBrmp3bZnh (माइल्स डेविस - औल ब्लूज़)</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>नयी राहें खोलने वाले अपने ऐल्बम "काइण्ड औफ़ ब्लू" को रिकौर्ड करने से पहले माइल्स डेविस एक लम्बा रास्ता तय कर आये थे और अपने संगीत ही में नहीं, बल्कि अपने जीवन में भी बहुत-सी उथल-पुथल और उतार-चढ़ाव देख चुके थे. संगीत माइल्स ड्यूई डेविस (1926-91) को विरासत में नहीं मिला था, उनके पिता दांतों के डाक्टर थे और परिवार खाता-पीता परिवार था. अल्बत्ता, माइल्स की मां काफ़ी अच्छा पियानो बजा लेती थीं और चाहती थीं कि माइल्स भी पियानो सीखें. लेकिन तेरह साल की उमर में जब माइल्स के पिता ने उनकी संगीत शिक्षा का प्रबन्ध किया तो वाद्य चुना ट्रम्पेट. आगे चल कर माइल्स ने संकेत दिया कि ऐसा शायद उनके पिता ने अपनी पत्नी को चिढ़ाने के लिए किया था जिन्हें ट्रम्पेट की आवाज़ पसन्द नहीं थी. माइल्स के शिक्षक एलवुड बुकैनन सख़्त किस्म के गुरु थे और सुर ठीक न निकले तो माइल्स के हाथों पर थप्पड़ जड़ने से गुरेज़ नहीं करते थे. माइल्स के अनुसार उनकी सुर-साधना का यह पाठ आगे चल कर उनके बहुत काम आया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सोलह साल की उमर तक पहुंचते-पहुंचते माइल्स डेविस इतने माहिर हो चुके थे कि स्कूल के दौरान जब मौक़ा मिले, पेशेवर मण्डलियों में ट्रम्पेट बजा सकें. उसी दौर में जब माइल्स ने हाई स्कूल की पढ़ाई ख़त्म की एक मण्डली उनके शहर ईस्ट सेंट लूइस आयी जिसमें डिज़ी गिलेस्पी और चार्ली पार्कर भी थे. मण्डली के ट्रम्पेट वादक के बीमार पड़ने पर कुछ हफ़्तों के लिए माइल्स को उस मण्डली में शामिल कर लिया गया. इसके बाद मण्डली तो न्यू यौर्क लौट गयी लेकिन माइल्स के मन में तमाम तरह की लालसाएं बो गयी. 1944 के अन्त में माइल्स जूइलियार्ड संगीत विद्यालय में दाखिल होने के लिए न्यू यौर्क चले आये, लेकिन उनका मकसद था चार्ली पार्कर से राब्ता कायम करना, हालांकि सैक्सोफ़ोन-वादक कोलमैन हौकिन्स ने उन्हें बरजा भी था, जो चार्ली पार्कर के तीखे मिज़ाज और उनकी नशे की लत से वाकिफ़ थे. लेकिन माइल्स को उनके इरादे से डिगना आसान न था. जल्द ही उन्होंने अपने आदर्श वादक से सम्पर्क कर लिया और उन क्लबों में बजाने लगे जहां पार्कर के अलावा जैज़ के कुछ और जाने-माने संगीतकार अपना कौशल दिखाते, जैसे थेलोनिअस मंक, फ़ैट्स नवारो, केनी क्लार्क और जे.जे.जौन्सन.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>साल भर बाद ही माइल्स डेविस ने न्यू यौर्क के क्लबों में पेशेवर वादक के तौर पर कदम रख दिया और 1945 में वे पहली बार किसी रिकौर्डिंग स्टूडियो में दाख़िल हुए, मगर मण्डली के मुख्य वादक के रूप में नहीं, बल्कि एक नये वादक की हैसियत से. कुछ समय बाद जब डिज़ी गिलेस्पी ने चार्ली पार्कर का बैण्ड छोड़ा तो माइल्स उस जगह को भरने के लिए बुलाये गये और पार्कर के साथ माइल्स ने कई बार रिकौर्डिंग में हिस्सा लिया. इसी दौर में वे पुराने असर से बाहर आ कर अन्तत: अपनी शैली निखारने वाले थे और बीबौप का पल्ला छोड़ कर उस शैली की तरफ़ बढ़ने वाले थे जो कूल जैज़ कहलायी. </div>
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https://youtu.be/KcoqwKEtYDs?list=PLED9CF5CAEE7AD60A (माइल्स डेविस - रौकर )</div>
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पार्कर के साथ माइल्स का साथ तीन साल चला, लेकिन पार्कर के नशे की लत और तीखे स्वभाव ने आख़िरकार 1948 में माइल्स को पार्कर से अलग हो कर अपना रास्ता तलाश करने के लिए मजबूर कर दिया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अगले दस साल माइल्स के जीवन में कई तरह की तब्दीलियां पैदा करने वाले थे. जहां एक तरफ़ वे अपने संगीत को नयी-नयी ऊंचाइयों पर ले जा रहे थे और जैज़ की दुनिया में अपना सिक्का जमा रहे थे, वहीं उनकी निजी ज़िन्दगी उन्हें उस अवसाद की तरफ़ धकेल रही थी, जो उन्हें हेरोइन के ज़हरीले पंजों का कैदी बना देने वाली थी. 1948 में पार्कर से अलग होने के बाद माइल्स ने संगीत-निर्देशक गिल एवन्स के साथ एक नये तजरुबे को शुरू किया और कुछ ऐसे वाद्य भी मण्डली में शामिल किये जो आम तौर पर और्केस्ट्रा के वाद्य माने जाते थे, जैज़ के नहीं जैसे फ़्रान्सीसी हौर्न और ट्यूबा. मण्डली का नाम माइल्स डेविस नोनेट रखा गया. हालांकि परम्परागत जैज़ संगीतकारों में इस सब को ले कर कुछ ग़ुस्सा था, ख़ास तौर पर मण्डली में गोरे वादकों की उपस्थिति पर, मगर माइल्स के लिए यह एक नयी शुरुआत थी. 1949 में माइल्स फ़्रान्स गये और वहां उन्होंने पाया कि सुनने वाले उनके रंग में नहीं, उनके संगीत में दिलचस्पी रखते थे और अश्वेत संगीतकारों के लिए वहां का माहौल बेहतर था. इसी दौरे में उनका परिचय अभिनेत्री जुलिएट ग्रेको से हुआ और जल्दी ही यह परिचय प्रेम में बदल गया. इस सब को देखते हुए हालांकि लोगों ने उनसे पैरिस में रह् जाने को कहा, माइल्स न्यू यौर्क लौट आये.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>लौटने के बाद माइल्स धीरे-धीरे मानसिक अवसाद में डूबते चले गये. इसके पीछे वे जूलिएट ग्रेको से अपने अलगाव के साथ-साथ समीक्षकों की नाइन्साफ़ी को भी दोषी ठहराते जो उनके नोनेट वाले तजरुबे के लिए श्रेय उनकी बजाय उनकी मण्डली के सहयोगियों को दे रहे थे. इसी समय अपने स्कूल के दिनों की साथिन के साथ उनके सम्बन्ध भी उजागर हो गये जो न्यू यौर्क में उनके साथ रहती थी और जिससे उनके दो बच्चे भी थे. डेविस ने आम जैज़ संगीतकारों की तरह हेरोइन में सहारा तलाश किया. तीन-चार साल में ही असर दिखायी देने लगा. ट्रम्पेट पर उनकी पकड़ ढीली पड़ने लगी और एक दौरे में वे गिरफ़्तार भी हुए. अपनी बुरी हालत को देखते हुए माइल्स ने 1954 में अपने पिता के घर लौटने का फ़ैसला किया और फिर अपने को एक कमरे में तब तक बन्द रखा जब तक उनकी लत छूट नहीं गयी. लेकिन 1950-54 का यह दौर माइल्स के लिए फ़नकारी के लिहाज़ से काफ़ी ज़रख़ेज़ रहा. उन्हों ने कई महत्वपूर्ण संगीतकारों के साथ सहयोग किया, नयी तकनीकें सीखीं, अपने संगीत को कूल जैज़ से आगे की ओर ले जाने की राह खोजी और प्रेस्टिज रिकौर्डस नामक मशहूर कम्पनी के साथ अनुबन्ध करके जैज़ के नामी वादकों के साथ कई लोकप्रिय रिकौर्ड तैयार किये जिनमें से बैग्स ग्रूव और वौकिन जैसे रिकौर्ड आज भी लोगों को याद हैं. इसी दौर में जब एक तरफ़ माइल्स अपनी निजी परेशानियों से जूझ रहे थे और दूसरी तरफ़ नयी राहें खोज रहे थे, उनके अलग-थलग रहने वाली कैफ़ियत को देख कर लोगों ने उन्हें "अंधेरे का राजा" कहना शुरु कर दिया था.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/-xkiPPSVRvE (माइल्स डेविस - इफ़ आई वर अ बेल)</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>1955 में स्वस्थ हो कर न्यू यौर्क लौटने के बाद माइल्स ने अपनी मण्डली बनाने की कोशिशें शुरू कर दीं और आहिस्ता-आहिस्ता वे उन वादकों को छांटने लगे जो उनकी तरह नये के मुरीद थे. जल्द ही माइल्स डेविस क्विण्टेट के नाम से एक मण्डली तैयार हो गयी. अब माइल्स अपने सारे हुनर को सामने रख सकते थे. नयी मण्दली के साथ-साथ नया अनुबन्ध भी आया. इस बार कोलम्बिया रिकौर्ड्स के साथ. लेकिन नयी कम्पनी के साथ रिकौर्डिंग करने से पहले उन्हें प्रेस्टिज रिकौर्ड्स के साथ पुराने अनुबन्ध को पूरा करना था. ये सारे ऐल्बम प्रेस्टिज रिकौर्ड्स ने अगले तीन -चार वर्षों में सुनने वालों के सामने पेश किये और इनमें से कई रिकौर्ड ऐसे थे जिन्होंने माइल्स को जैज़ जगत की एक जानी-मानी हस्ती बना दिया. एक अर्से से माइल्स जैज़ को उस लीक से निकालने की कोशिश कर रहे थे और उन्होंने इस सिलसिले में बीबौप से ले कर कूल जैज़ तक का सफ़र करते हुए क्यूबा और लातीनी अमरीका के दूसरे देशों में बसे अफ़्रीकी संगीतकारों के तजरुबों का जायज़ा लिया था, तभी 1958 में पश्चिमी अफ़्रीका के देश गिनी से आयी एक मण्डली को सुनते हुए माइल्स ने ख़ालिस अफ़्रीकी वाद्य कलिम्बा को सुना. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/4XD02oMHC5E (कलिम्बा)</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> </div>
<div style="text-align: justify;">
इसमें दो या अधिक सुरों के ताल-मेल पर काफ़ी देर तक टिके रह कर संवादी और विवादी सुरों में आवा-जाही की जा सकती थी. माइल्स को मालूम था कि ट्रम्पेट में यह आसानी से सम्भव नहीं था तो भी वे इस तकनीक को अपनी रचनाओं में शामिल करना चाहते थे, ख़ास तौर पर इसलिए कि उनका ढर्रा ही आशु रचना का था, पहले से तयशुदा धुन को बजाने का नहीं, भले ही वे किसी और द्वारा पहले बजायी गयी एक पुरानी धुन को पेश कर रहे हों. ताल-मेल और बेताले होने के बीच की यह आवाजाही जैज़ के लिए उस समय एक नया विचार था, जहां बीबौप के जल्दी-जल्दी बदलने वाले ताल-मेल का चलन था. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अब तक माइल्स की मण्डली का नाम "क्विण्टेट" की बजाय "सेक्स्टेट" हो गया था और इसमें माइल्स ने बहुत ध्यान से अपने साथी वादकों का चुनाव किया था. इसी जत्थे के साथ 1959 में माइल्स डेविस रिकौर्डिंग स्टूडियो में दाख़िल हुए और उन्होंने "काइण्ड औफ़ ब्लू" के सारे टुकड़े -- कहा जाय सारे राग -- रिकौर्ड किये. अब तक जो कौशल माइल्स ने अर्जित किया था, संगीत के बारे में सोचा-विचारा था, वह सब जैसे एक जगह आ कर इकट्ठा हो गया था. इन सभी धुनों में ताज़गी तो थी ही जैसे कोई फूल तत्काल खिल रहा हो, एक अजीब मन पर छा जाने वाली कैफ़ियत भी थी, मानो संगीतकार बजाते हुए एक तरफ़ अपने किसी साथी से दिल खोल कर बात कर रहा हो और उसी के साथ अन्दर किसी ख़याल में डूबा हुआ सोच रहा हो. अकारण नहीं कि काइण्ड औफ़ ब्लू बिक्री के लिहाज़ से अब तक का सबसे लोकप्रिय रिकौर्ड साबित हुआ है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>काइण्ड औफ़ ब्लू के बाद माइल्स डेविस ने और बहुत-से पड़ाव तय किये. वे जैज़ को फ़्यूजन की तरफ़ ले गये. उन्होंने इलेक्ट्रिक वाद्य भी इस्तेमाल किये और जैज़ को उन धाराओं से मिलाने की कोशिशें जारी रखीं जो युवा सुनने वालों को आकर्षित कर रही थीं जैसे फ़ंक और रौक. आने वाले दसियों वादकों और संगीतकारों पर उनके वादन ही का नहीं, संगीत के बारे में उनके विचारों का भी गहरा असर पड़ा, लेकिन "काइण्ड औफ़ ब्लू" न सिर्फ़ माइल्स डेविस का शाहकार है, वह अब तक का सबसे ज़्यादा बिकने वाला जैज़ ऐल्बम भी बना हुआ है. वैसे, आगे चल कर माइल्स डेविस इन पुरानी धुनों को दोबारा पेश करने से इनकार करते रहे. उनका कहना था, समय बदलता है, संगीतकार बदलता है और इसके साथ उसका संगीत भी बदलता है. </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/X3jcoYvU5qg (माइल्स डेविस - माई मैन’ज़ गौन नाओ}</div>
<div style="text-align: right;">
<b>(जारी)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-5201071344354142402015-04-12T21:21:00.001-07:002015-04-12T21:21:58.222-07:00जैज़ पर लम्बा आलेख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<br /></div>
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<span style="font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत </span></div>
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<br /></div>
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<b>बीसवीं कड़ी</b></div>
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<br /></div>
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<br /></div>
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23.</div>
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<br /></div>
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चालीस के दशक में चार्ली पार्कर ने डिज़ी गिलिस्पी और फिर बाद में माइल्स डेविस के साथ मिल कर जो नया अन्दाज़े-बयाँ विकसित किया था, उसने पहले की अदाकारी को लय, ताल और सुर के लिहाज़ से कहीं अधिक विविध और पेचीदा, संश्लिष्ट और जटिल बना दिया। यही कारण है कि जैज़ के क्षेत्र में चार्ली पार्कर और माइल्स डेविस जैसे संगीतकारों के आगमन के बाद हम पाते हैं कि संगीतकार उत्तरोत्तर धुनों को स्वान्तः सुखाय, मानो ख़ुद अपने लिए पेश कर रहे हैं और कभी-कभी तो श्रोताओं को बिल्कुल नज़रन्दाज़ कर देते हैं। ये सभी नये संगीतकार उत्तरोत्तर अपने आपको महज़ पेशेवर संगीतकार अथवा ‘मनोरंजन-कर्ता’ की बजाय कलाकार मानने लगे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/zqNTltOGh5c?list=PLdhGk7gKuZxYV8bG4lrWS2viBrmp3bZnh (माइल्स डेविस - सो वौट)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस नयी धारा के साथ ही जैज़-संगीत के सभी बुनियादी उपकरण जुटा लिये गये थे। ब्लूज़ की उदासी और रैगटाइम की मस्ती को मिला कर जो शैली विकसित हुई थी, वह अब एक कला का रूप ले चुकी थी। छोटी-छोटी मण्डलियों की तकनीक के साथ संगीतकारों के सामने बड़े-बड़े बैण्डों की रंगारंग विविधता मौजूद थी। इसके अलावा जैज़-संगीत का अनिवार्य गुण -- ‘स्विंग’ -- तो था ही। यानी वह ख़ास गुण, जो इस संगीत को उसकी विशिष्ट ताल से जोड़ता था, मगर उसके साथ-साथ चार्ली पार्कर और माइल्स डेविस का अन्तरोन्मुखी वादन भी था। इसके अलावा कुछ ऐसे संगीतकार भी थे, जो बदलते हुए वक्त के साथ जैज़ को यूरोप की अन्य तकनीकों से जोड़ कर नयी दिशाएँ खोजने में संलग्न थे। क्योंकि कुल मिला कर इस समय तक जैज़ संगीत की धारा या तो संगीत के अब तक उपलब्ध उपकरणों का विस्तार करने की ओर बढ़ी थी या विभिन्न तकनीकों का मेल करने की ओर या फिर जैज़ की बुनियादी जड़ों की ओर वापसी की दिशा में।</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इसके बावजूद नयी दिशाओं की खोज बराबर जारी रही। इस बार नयी दिशा की खोज जैज़-संगीत के तकनीकी विकास के सन्दर्भ में उतनी नहीं थी, जितनी उसकी भावनात्मक विरासत के सन्दर्भ में। यह शायद इस वजह से था कि जैज़ पर शास्त्रीयता बहुत हावी होने लगी थी और उसकी जीवन्तता तकनीकी कलाबाज़ियों के नीचे दब-सी चली थी। नयी दिशा की खोज करने वालों या कहा जाय कि जैज़ को फिर से उसकी परम्परा के साथ जोड़ने वालों में ट्रम्पेट वादक क्लिफ़र्ड ब्राउन का नाम लिया जा सकता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/UXPzAasKWQg (क्लिफ़र्ड ब्राउन - चेरोकी)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
क्लिफ़र्ड ब्राउन (1930-56) की पैदाइश एक संगीत-प्रेमी परिवार में हुई थी. उनके पिता खुद ट्रम्पेट बजाते थे और उन्होंने अपने चार छोटे बेटों को मिला कर गायकों की एक मण्डली तैयार कर दी थी. बचपन में अपने पिता की चमकती हुई ट्रम्पेट को देख कर क्लिफ़र्ड ब्राउन इतना मुग्ध हो गये थे कि दस साल की उमर से उन्होंने अपने स्कूल के बैण्ड में बजाना शुरू कर दिया था और उनके उत्साह को देखते हुए उनके पिता ने उन्हें तेरह साल की उमर में उनकी अपनी ट्रम्पेट खरीद दी थी और उनके लिए एक संगीत शिक्षक का भी प्रबन्ध कर दिया था. विश्वविद्यालय तक पहुंचते-पहुंचते क्लिफ़र्ड संगीत सभाओं में बजाने लगे थे और यकीनन उन्होंने सुनने वालों पर असर डाला ही होगा, क्योंकि बीस साल की उमर में जब वे एक कार दुर्घटना में घायल हो कर साल भर तक हस्पताल में इलाज कराते रहे तो सुप्रसिद्ध जैज़ संगीतकार डिज़ी गिलेस्पी ने हस्पताल में आ कर उनको राय दी थी कि स्वस्थ हो जाने के बाद वे संगीत को पेशेवर तौर पर अपनाने के बारे में गम्भीरता से सोचें. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>क्लिफ़र्ड ब्राउन ने इस राय पर अमल किया था और जल्द ही वे व्यावसायिक वादकों की अगली पांत में अपनी जगह बनाने में कामयाब हो गये थे. उनके ट्रम्पेट वादन के शुरुआती दौर पर प्रसिद्ध जैज़ वादक फ़ैट्स नवारो का असर था लेकिन जल्द ही क्लिफ़र्ड ब्राउन ने अपनी शैली विकसित कर ली थी जो चार्ली पार्कर ही की परम्परा में बीबौप को आगे बढ़ाती थी. तेज़ रफ़्तार वाली धुनें जिनमें गर्मजोशी हो लेकिन अपनी रफ़्तार के बावजूद जिनमें हर सुर स्पष्ट सुना जा सके और वाद्य की पूरी गुंजाइशों का इस्तेमाल किया गया हो. अपने कौशल के चलते क्लिफ़र्ड जटिल संरचनाओं के माध्यम से और सुरों में तब्दीली करके बीबौप की "बीजगणित जैसी" सीधी रेखा वाली लय-ताल में प्रयोग कर लेते थे. जल्दी ही क्लिफ़र्ड ब्राउन ने ड्रम-वादक मैक्स रोच और सैक्सोफ़ोन-वादक सनी रौलिन्स के साथ अपना बैण्ड गठित कर लिया और कुछ बेहतरीन धुनें रिकौर्ड करायीं. यहां उनकी और मैक्स रोच की बजाई एक पुरानी धुन "स्टौम्पिन्ग ऐट द सवौय" पेश है :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/VcQmn5d9-b4 (क्लिफ़र्ड ब्राउन और मैक्स रोच - स्टौम्पिन्ग ऐट द सवौय)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जैज़ के आम परिदृश्य से उलटी धारा में चलते हुए क्लिफ़र्ड ब्राउन ने खुद को हर तरह के नशे से दूर रखा था और यह साबित कर दिया था कि अच्छा वादक बनने के लिए नशे की ऐसी कोई ज़रूरत नहीं होती. तभी जब वे जैज़ संगीत में एक लम्बी उड़ान भरने के लिए पर तौल रहे थे 1956 में एक कार दुर्घटना में असमय ही क्लिफ़र्ड ब्राउन का निधन हो गया, अगर समय के हिसाब से देखा जाये तो क्लिफ़र्ड ब्राउन ने कुल-जमा चार साल तक अपने संगीत की रिकौर्डिंग करायी थी, लेकिन यह उनकी प्रतिभा ही का कमाल था कि उन्होंने जैज़ को फिर उसकी जड़ों से जोड़ने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
24.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उन्हीं दिनों एक और संगीतकार-पियानो वादक हौरेस सिल्वर जैज़ की जीवन्तता को पुनर्जीवित करने के लिए नीग्रो गिरजों को ‘गॉस्पेल’ संगीत की छान-बीन कर रहे थे और उस बीते हुए ज़माने की धुनें तलाश रहे थे, जब ब्लूज़ और नीग्रो भजनों में इतना फ़र्क़ नहीं था। कुल मिला कर सिल्वर की कोशिश जैज़-संगीत के उस मूलभूत आधार को फिर से खोज निकालने की थी, जहाँ से वे पहले-पहल शुरू हुआ था। इस तलाश में नीग्रो भजनों की ओर जाने वालों में अकेले सिल्वर ही नहीं थे। बहुत सारे नीग्रो संगीतकारों के लिए जैज़ को ‘अपना संगीत’ कह कर फिर से अपने नज़दीक लाने का शायद यह भी एक रास्ता था -- यानी ऐसा संगीत, जो उनके अपने अनुभव से, उनकी अपनी ज़िन्दगी से उपजा हो। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/CWeXOm49kE0 (हौरेस सिल्वर - सौन्ग फ़ौर माई फ़ादर)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हौरेस सिल्वर (1928-2014) का जन्म अमरीका के सबसे दक्षिणी राज्य कनेटिकट में हुआ था. उनके पिता अफ़्रीका के पश्चिमी सिरे पर मध्य अतलान्तिक महासागर के टापू केप वर्दे के रहने वाले थे जो पुर्तगालियों का उपनिवेश रहा था. लिहाज़ा हौरेस को अपने पिता की ओर से पुर्तगाली संगीत के सुर-ताल का परिचय भी मिला. हालांकि हौरेस ने कभी इस बात को प्रचारित नहीं किया कि वे पुर्तगाली भाषा या संगीत-परम्परा की भी अच्छी जानकारी रखते थे. बहुत बाद में चल कर उन्होंने "केप वर्डियन ब्लूज़" के नाम से एक ऐल्बम जारी करके अपनी विरासत को तस्लीम किया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/PygdDdJ0IRY (द ऐफ़्रिकन क्वीन - केप वर्डियन ब्लूज़ - हौरेस सिल्वर)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
शुरुआत हौरेस ने सैक्सोफ़ोन बजाने से की थी, मगर बाद में वे पियानो बजाने लगे. सिल्वर को पहला बड़ा मौक़ा 1950 में मिला जब सक्सोफ़ोन वादक स्टैन गेट्ज़ ने उन्हें एक क्लब में बजाते सुना और अपने बैंड में शामिल कर लिया. स्टैन ही के साथ हौरेस सिल्वर ने अपना पहला ऐल्बम रिकौर्ड कराया. 1951 से 1955 तक सिल्वर लगातार दौरे करते रहे और अपनी कला को निखारते रहे. 1955 में उन्होंने अपना ऐल्बम "हौरेस सिल्वर ऐण्ड द जैज़ मेसेन्जर" रिकौर्ड कराया जिसकी हर तरफ़ भरपूर तारीफ़ हुई.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/5hjWcEPyHhk?list=PL49EA3C341BF92DFE (हौरेस सिल्वर - रूम 608 - जैज़ मेसेन्जर)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
1960 के दशक तक हौरेस सिल्वर धीरे-धीरे जैज़ के विभिन्न पहलुओं में हाथ आज़माते रहे और कुछ देर आक्रामकता से बजाते रहने के बाद अचानक रूमानी सुरों पर आ जाते और ये सारे परिवर्तन एक ही धुन में बड़ी तेज़ी से होते.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/ANTpZU2m9pY (सिक्स पीसेज़ औफ़ सिल्वर)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जब 1960 और 1970 के दशकों में अमरीका में सामाजिक असन्तोष और उथल-पुथल तेज़ हुई तो सिल्वर ने अपने संगीत के माध्यम से अपना सुर भी सामाजिक परिवर्तनकारियों के साथ मिलाते हुए अपना बयान अपने संगीत के माध्यम से दर्ज कराया. उनका महत्वपूर्ण ऐल्बम युनाइटेड "द स्टेट्स औफ़ माइण्ड" इसकी एक मिसाल है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/xCXB45lTeDc (हौरेस सिल्वर - द मर्जर औफ़ द माइण्ड्स)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"द युनाइटेड स्टेट्स औफ़ माइण्ड" के बाद सिल्वर ने जैज़ की जड़ों की तरफ़ जाने और पुराने भजनीकों की परम्परा को दोबारा जीवित करने का काम जारी रखा. उल्लेखनीय बात यह भी है कि मादक पदार्थों और नशे की अलग-अलग क़िस्मों से अटी-पड़ी जैज़ संगीत की दुनिया में क्लिफ़र्ड ब्राउन की तरह हौरेस सिल्वर भी नशों से दूर ही रहे. यही नहीं, हौरेस ने शोहरत और लोकप्रियता अर्जित करने के बाद ढेरों नये उभरते जैज़ संगीतकारों को बढ़ावा दिया. इसके साथ-साथ वे कई बार अपनी बनाई धुनों में अपने पसन्दीदा संगीतकारों के टुकड़े जोड़ लेते और इस तरह उन्हें ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश करते. हौरेस सिल्वर आर्ट टेटम और थेलोनिअस मंक जैसे जैज़ संगीतकारों के साथ-साथ नैट किंग कोल जैसे गायकों से भी प्रभावित थे. नैट किंग कोल ने पुराने भजनीकों की परम्परा को ज़िन्दा ही नहीं रखा था, बल्क्जि उसमें नयी राहें भी खोजी थीं. यही वजह है कि हौरेस सिल्वर की धारा आगे चल कर अपने ही समकालीन ब्लूज़ गायक रे चार्ल्स जैसे सम्वेदनशील ब्लूज़ गायकों से भी जुड़ती नज़र आयी जिनमें नीग्रो भजनों की परम्परा लगातार एक अन्तर्धारा की तरह मौजूद रही है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/fRgWBN8yt_E(रे चार्ल्स - जौर्जिया औन माई माइण्ड)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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रे चार्ल्स (1930-2004) के योगदान को किसी लेख में बयां करना सम्भव नहीं है, इसके लिए तो एक किताब ही दरकार होगी. यह हैरत की बात नहीं है कि उनकी गायकी के बारे में बात करते हुए फ़्रैंक सिनाट्रा जैसे गायक-अभिनेता ने उन्हें "जीनिअस" कहा था. और यह तब जब रे चार्ल्स भरपूर शोहरत का दौर देखने के बाद, बीच के वर्षों में गुमनामी का दौर भी झेल चुके थे. मगर यह उनकी प्रतिभा ही थी कि वे एक मंज़िल तक पहुंचने के बाद अगले राहियों के साथ हो लेते और उनसे आगे निकल जाते.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>रे चार्ल्स अभी चार बरस के थे कि उनकी आंखें जवाब देने लगी थीं और सात बरस तक आते-आते वे पूरी तरह अन्धे हो चुके थे. लेकिन उनके अन्दर संगीत सीखने की जो लगन थी उसकेबल पर उन्होंने ब्रेल पद्धति से पियानो के सुरों को पहचानना सीखा -- बायें हाथ से दायें हाथ की हरकतों को और दायें हाथ से बायें हाथ की हरकतों को, और फिर इन दोनों में ताल-मेल बैठाना . ज़ाहिर है, यह आसान नहीं था, मगर आगे चल कर पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के इस प्रशिक्षण ने ही रे चार्ल्स को रिदम और ब्लूज़ से ले कर भजनीकों की शैली तक, जैज़ की विभिन्न शैलियों को पूरी हुनरमन्दी के साथ निभाने की क़ूवत बख़्शी.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>हौरेस सिल्वर की तरह रे चार्ल्स भी लूइ आर्मस्ट्रौन्ग, आर्ट टेटम और नैट किंग कोल से प्रभावित थे. लेकिन शोहरत की राह आसान नहीं थी. 1949 में "कन्फ़ेशन ब्लूज़" के नाम से जारी किये गये रिकौर्ड से पहले रे चार्ल्स ने बेहद ग़रीबी के दिन भी देखे, कई बार बिना खाये रह जाते हुए. इस पूरे दौर में वे दूसरे गायकों और वादकों के लिए संगीत सजाते. लेकिन "कन्फ़ेशन ब्लूज़" ने यह सिलसिला बदल दिया. इसके बाद 1960 में रिकौर्ड किये गये गीत "जौर्जिया औन माई माइण्ड" ने उन्हें देश भर में प्रसिद्ध कर दिया और पहला ग्रैमी पुरस्कार दिलाया :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/fRgWBN8yt_E(रे चार्ल्स - जौर्जिया औन माई माइण्ड)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अगले रिकौर्ड "हिट द रोड जैक" से रे चार्ल्स ने साबित कर दिया कि 1960 का ग्रैमी रिकौर्ड कोई तुक्का नहीं था. "जौर्जिया औन माई माइण्ड" से बिलकुल अलग शैली में गाये गये गीत "हिट द रोड जैक" में जैज़ की सारी विशेषताएं थीं और इस पर उन्हें दूसरा ग्रैमी पुरस्कार मिला.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/0rEsVp5tiDQ (hit the road jack)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बहुत-से नीग्रो और जैज़ गायकों की तरह रे चार्ल्स भी उस सामाजिक आन्दोलन से अछूते नहीं रहे जिसमें मार्टिन लूथर किंग से ले कर मैल्कम एक्स जैसे अलग-अलग क़िस्म के आन्दोलनकारी शामिल थे. इसी दौर में रे चार्ल्स ने 1975 में युवा गायक स्टीवी वण्डर के गीत "लिविंग फ़ौर द सिटी" को अपनी शैली में पेश करके इस आन्दोलन से एकता प्रकट की. गीत में उस सारे भेद-भाव और उत्पीड़न का ज़िक्र था जो अफ़्रीकी मूल के अमरीकियों को गोरों के हाथों सहना पड़ता था. लीजिये पहले सुनिये स्टीवी वण्डर का मूल गीत :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/rc0XEw4m-3w (स्टीवी वण्डर - लिविंग फ़ौर द सिटी)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इसी गीत को जब रे चार्ल्स ने गाया तो अपनी शैली से उसमें कई नये रंग भर दिये :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/X8cz1Z7q4hA (रे चार्ल्स - लिविंग फ़ौर द सिटी)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कहने की बात नहीं कि दोनों ही गीत बहुत लोकप्रिय हुए और उन्होंने नीग्रो जाति के सामाजिक संघर्ष को और बल ही दिया. "लिविंग फ़ौर द सिटी" पर रे चार्ल्स को फिर एक बार ग्रैमी पुरस्कार से नवाज़ा गया. इस गीत की पहुंच बहुत गहरी थी और उसे सुनते हुए बेसाख़्ता प्रसिद्ध नीग्रो कवि-गायक-संगीतकार गिल स्कौट हेरौन के गीत "वौशिण्ग्टन डी सी" की याद हो आती है जिसमें गिल स्कौट हेरौन ने बड़े दर्द और व्यंग से देश की राजधानी में हुक्मरानों और अमरीकी संविधान की नाक के नीचे नीग्रो लोगों की दुर्दशा बयान की है :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/MF4UjnzlD3Q (Washington DC)</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
रे चार्ल्स की तरफ़ लौटें तो 1980 के दशक में उनकी लोकप्रियता घटने लगी. कारण था नयी-नयी शैलियों का चलन में आना जो कुछ दिन बहार दिखा कर जाती रहतीं. इस दौर में रे चार्ल्स ने अपनी डगर नहीं छोड़ी और जब वे इस विपरीत दौर से उभर कर सामने आये तो उन्होंने एक बार फिर धूम मचा दी. मृत्यु से कुछ ही पहले उन्होंने पण्डित रवि शंकर की बेटी नोरा जोन्स के साथ अपना एक पुराना गीत पेश किया -- "हियर वी गो अगेन" -- जिस पर नोर जोन्स को नवां ग्रैमी पुरस्कार मिला. पहले रे चार्ल्स का मूल गीत सुनिये : </div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/yNDUU4gHCuE (रे चार्ल्स - हियर वी गो अगेन )</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और अब एक पुराने गायक और नयी गायिका की संयुक्त पेशकश :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
https://youtu.be/DkkzlF1D3hg (नोरा जोन्स और रे चार्ल्स - हियर वी गो अगेन)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: right;">
<b>(जारी)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-3791053879500446092015-04-11T18:35:00.000-07:002015-04-11T18:44:48.165-07:00चट्टानी जीवन का संगीत <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">जैज़ पर एक लम्बा आलेख</span></div>
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<span style="font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत </span></div>
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<b>उन्नीसवीं कड़ी</b></div>
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see this on http://neelabhkamorcha.blogspot.com/</div>
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23. थेलोनिअस मंक </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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डिज़ी गिलेस्पी अगर बहिर्मुखी, मौज-मस्ती वाली शख़्सियत थे तो थेलोनिअस मंक (1917-1982)गम्भीर तबियत वाले "विचारक" वादक थे. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>थेलोनिअस मंक के योगदान का अन्दाज़ा महज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि ड्यूक एलिंग्टन के बाद वे सबसे ज़्यादा रिकौर्ड किये गये जैज़ कम्पोज़र थे, हालांकि जहां ड्यूक एलिंग्टन ने 1000 टुकड़े रचे थे, मंक की रचनाओं की तादाद महज़ 70 थी, जिनमें "राउण्ड मिडनाइट," "ब्लू मंक," "रूबी माई डियर," "इन वौक्ड बड" और "वेल यू नीडण्ट" जैसी रचनाएं शामिल थीं. उनके पियानो वादन की शैली भी अनोखी थी. वे काफ़ी धमक के साथ पियानो बजाते मानो तबला बजा रहे हों और बीच में अचानक अन्तरालों का नाटकीय इस्तेमाल करते.<br />
<br />
https://youtu.be/IKayR1oqC7w?list=RDIKayR1oqC7w (राउण्ड मिडनाइट)<br />
<br />
सुरों में भी सामंजस्य की बजाय वे विस्वरता से काम लेते और सुरीली ऐंठनों का प्रयोग करते. ज़ाहिर है, उनकी शैली सबको पसन्द नहीं आती थी और जहां उनके मद्दाहों की नज़र में थेलोनिअस मंक एक रचनात्मक पियानोवादक थे जिन्होंने जैज़ को समृद्ध किया था, फ़िलिप लार्किन जैसे कुछ समीक्षकों ने उन्हें "पियानो पर टहलते हाथी" तक कह डाला था. इसके साथ ही वे अपने सरापे की वजह से भी ध्यान खींचते थे -- सूट, हैट और धूप के चश्मों की अनोखी क़िस्मों से भी -- और अपनी कुछ ख़ास अदाओं से भी, मसलन पियानो बजाते-बजाते उठ कर खड़े हो जाना और कुछ पल नाचने के बाद फिर बैठ कर बजाने लगना.<br />
<br />
https://youtu.be/_40V2lcxM7k?list=RDIKayR1oqC7w (ब्लू मंक)<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वैसे तो थेलोनिअस मंक ने छै साल की उमर से पियानो बजाना शुरू किया था और थोड़ी-बहुत संगीत शिक्षा भी हासिल की थी, लेकिन बहुत हद तक उन्होंने अपने बल पर ही संगीत की तालीम हासिल की थी और किशोरावस्था में एक धर्म-प्रचारक के साथ पियानो वादन करते हुए यात्राएं भी की थीं. फिर लगभग बीस साल की उमर में उन्होंने न्यू यौर्क के मैनहैटन इलाके में मिण्टन्स प्लेहाउस नामक नाइटक्लब में आजीविका के लिए पियानो बजाना शुरू कर दिया. उनकी अनोखी शैली बहुत हद तक इसी नाइटक्लब में पियानो बजाते हुए विकसित हुई थी, जहां काम के बाद एकल वादकों के बीच मुक़ाबले होते थे जिनमें अच्छे-अच्छे फ़नकार हिस्सा लेते थे. जैज़ में जो नया मुहावरा सामने आ रहा था, उसके बहुत-से वादक जैसे डिज़ी गिलेस्पी, चार्ली पार्कर और माइल्स डेविस इस नाइटक्लब में बजाने के लिए आते और यहीं थेलोनिअस मंक का परिचय इन सब से हुआ. यों मंक को जिस कलाकार ने प्रभावित किया था, वे थे ड्यूक एलिंग्टन और जेम्स जौनसन.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एक बार थेलोनिअस मंक ने अपनी राह बना ली, उसके बाद उन्हें अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने में देर नहीं लगी. 1950 तक आते-आते उनका शुमार नये फ़नकारों की पहली पांत में होने लगा था. लेकिन तभी एक ऐसा हादसा हुआ जिस ने थेलोनिअस मंक की ज़िन्दगी पर गहरा असर डाला. अगस्त 1951 में न्यू यौर्क शहर की पुलिस ने सड़क के किनारे खड़ी एक कार की तलाशी ली जिसमें मंक और उनके मित्र बड पावेल बैठे हुए थे. तलाशी में पुलिस को कार में नशीले पदार्थ मिले जो बड पावेल के थे. मंक ने पावेल के खिलाफ़ गवाही देने से इनकार कर लिया और पुलिस ने मंक को सबक़ सिखाने के लिए कैबरे में बजाने का उनका लाइसेन्स ज़ब्त कर लिया. ज़ाहिर है, अब वे ऐसे किसी क्लब में नहीं बजा सकते थे जहां शराब मिलती थी. इससे उनके प्रदर्शनों पर एकबारगी पाबन्दी लग गयी और अगले पांच-छै वर्षों तक मंक ने अपना समय रागों की रचना करने, उन्हें रिकौर्ड कराने और शहर के बाहर के थिएटरों और संगीत सभाओं में अपने हुनर का जलवा दिखाने में बिताये. इसी बीच वे यूरोप के पहले दौरे पर भी गये. फिर जब 1956 में उन पर लगी पाबन्दी हटी और उनका लाइसेन्स वापस मिला तो एक बार फिर उन्होंने न्यू यौर्क में बड़े-बड़े क्लबों में बजाना और बड़ी-बड़ी कम्पनियों के साथ अपना संगीत रिकौर्ड कराना शुरू किया. जून 1957 में अपनी पत्नी नेली स्मिथ के नाम पर रची और रिकौर्ड करायी गयी धुन "नेली के साथ गोधूलि" ने सुनने वालों और समीक्षकों के सामने थेलोनिअस मंक की रागदारी के कौशल को उजागर कर दिया. "नेली के साथ गोधूलि" शुद्ध रूप से मंक की अपनी रचना थी और इसकी अदायगी में वे पहले से तय किये सुरों और लय-ताल से ज़रा भी नहीं हटे थे, कोई आशु वादन की कोशिश नहीं थी. उन्होंने उसकी रचना बड़े ध्यान और मेहनत से की थी.<br />
<br />
https://youtu.be/QIVoOwOMq2c (नेली के साथ गोधूलि)<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अगले दस साल थेलोनिअस मंक के उर्वर वर्ष थे और उन्होंने पियानो पर अनेक जाने-माने वादकों के साथ संगत की -- माइल्स डेविस, जौन कोल्ट्रेन, डिज़ी गिलेस्पी और आर्ट ब्लेकी. लेकिन इसी बीच मंक का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था. वे रचनात्मक सक्रियता और अवसाद के दो छोरों के बीच झूलने लगे थे. नतीजा यह हुआ कि उनकी रचनात्मकता धीमी पड़ गयी. 1970 तक आते-आते थेलोनिअस मंक जैज़ के परिदृश्य से लगभग ग़ायब हो चुके थे. मण्डली के नेता के रूप में उनकी आखिरी बड़ी रिकौर्डिंग का क़िस्सा बयान करते हुए उनके साथ बीसेक साल से संगत करने वाले बेस-वादक ऐल मैक्गिबन ने बताया कि उस रिकौर्डिंग के बाद जब मंक डिज़ी गिलेस्पी, काई विण्डिंग, सनी स्टिट और आर्ट ब्लेकी जैसे जैज़ के महारथियों के साथ पूरी दुनिया के दौरे पर निकले तो उस समूचे दौरे में उन्होंने "बस दो शब्द, सचमुच दो शब्द" कहे. न तो उन्होंने किसी को "गुड मौर्निंग" कही, न "गुड नाइट" और न "समय क्या है?" जबकि एक अन्य जीवनी में उनके जीवनीकार ने कहा कि "मंक माइल्स डेविस के बिलकुल विपरीत हैं, वे सारा समय संगीत ही के बारे में बात करते रहते हैं और कई बार कुछ समझाने के लिए अगर ज़रूरी हो तो घण्टों खर्च कर सकते हैं." <br />
<br />
https://youtu.be/zriS77PCaTk?list=RDIKayR1oqC7w<br />
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>थेलोनिअस मंक के आखिरी छै साल अपनी संरक्षिका और मित्र बैरोनेस पैनोनिका डि कोएनिग्सवार्टर की देख-रेख में गुज़रे और इस अर्से में उम्होंने एक बार भी पियानो नहीं बजाया हालांकि उनके कमरे में हमेशा पियानो रखा रहता था और उन्होंने बहुत कम मुलाकातियों से भी बात की. 1982 में दिमाग़ की नस फट जाने से उनका निधन हो गया. बाद में चल कर थेलोनिअस मंक को जैज़ में उनके योगदान के लिए मरणोपरान्त ग्रैमी सम्मान और पुलिट्ज़र पुरस्कार भी दिया गया और उनके नाम पर एक संस्थान भी स्थापित हुआ. जैसे-जैसे वक़्त गुज़रा, अनगिनत संगीतकारों ने उनकी धुने और रचे गये राग बजाये और उनके नाम अपनी रचनाएं समर्पित करके उनके अप्रतिम योगदान को स्वीकार किया.</div>
<div style="text-align: right;">
<b>(जारी) </b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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<br /></div>
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<br /></div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-27675412553034680382015-03-06T05:08:00.003-08:002015-03-06T05:08:53.185-08:00जैज़ पर एक लम्बा आलेख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<span style="font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत </span><br />
<br />
<b>अट्ठारहवीं कड़ी</b><br />
<br />
<br />
22.<br />
<br />
<div style="text-align: right;">
<i>मुझे यह जानने में ज़िन्दगी लग गयी है कि क्या नहीं बजाना है.</i></div>
<div style="text-align: right;">
<i>-- डिज़ी गिलेस्पी</i></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
चालीस के दशक में चार्ली पार्कर ने डिज़ी गिलिस्पी और फिर बाद में माइल्स डेविस के साथ मिल कर एक नया अन्दाज़े-बयाँ विकसित किया था। नयी सोच के साथ जैज़ की दुनिया में दाख़िल होने वाले संगीतकारों में दो नाम और थे -- थेलोनिअस मंक और चार्ल्स मिंगस. चार्ली पार्कर का ज़िक्र हम कर आये हैं, अब औरों की चर्चा करने के सिलसिले में पहले ज़िक्र जौन बर्क्स गिलेस्पी का, जिन्हें लोगों ने शायद इसलिए डिज़ी बुलाना शुरू कर दिया था, क्योंकि उनके वादन में ऐसे पेचो-ख़म होते जो सुनने वालों को चकरा देने की कैफ़ियत रखते थे.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लिंक http://youtu.be/iUPbs2iHeRg A Night in Tunisia</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>डिज़ी गिलेस्पी का जीवन ही नहीं, उनका वादन भी परस्पर विरोधी तत्वों से बना था. शायद यही वजह है कि उनका ज़िक्र "आश्चर्य की आवाज़" कह कर किया गया. उनके एकल वादन की ख़ूबी थी ते़ज़ रफ़्तार वाली तानें जिनके बीच में हल्की-हल्की ख़ामोशियां पिरोयी गयी होतीं और फिर लम्बी-लम्बी छलांगें होतीं, ख़ासे ऊंचे सुर आते जिनके बीच ब्लूज़-सरीखे टुकड़े होते. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>http://youtu.be/kOmA8LOw258 (सौल्ट पी नट्स)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
डिज़ी गिलेस्पी अपने सुनने वालों को हमेशा अपनी अनोखे तान-पलटों से चकित करते रहते. उनके वादन में कभी कुछ भी पहले से तय न होता, ट्रम्पेट बजाने के दौरान अगर कोई नया ख़याल या सुर आ जाता तो वे उसे अपनी धारा में शामिल कर लेते.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/cWDxU813wd0 (नो मोर ब्लूज़ भाग 1)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>डिज़ी के वादन की इस कैफ़ियत के सिलसिले में मुझे वह क़िस्सा याद आ जाता है, जो प्रसिद्ध नाटककार पु.ल. देशपाण्डे ने कुमार गन्धर्व के बारे में सुनाया था. कुमार गन्धर्व एक बार बम्बई में दादर के एक हाल में राग भूप में एक बन्दिश पेश कर रहे थे. भूप चल रहा था , जैसे हाथी-घोड़ों और छत्र-चंवर के साथ राजा की सवारी निकल रही हो. कोई पौन-एक घण्टे के बाद उस भूप को शुद्ध मद्धम का एक बारीक-सा सुर छू गया. महफ़िल को अच्छा लगा; लेकिन जो जानकार थे, वे कुछ विचलित भी हो उठे. कुमार गन्धर्व ने सुनने वालों की उस हल्की-सी हलचल को भांप लिया, तानपुरे वालों से आवाज़ धीमी करवायी, तबले पर वसन्त आचरेकर की उंगलियां भी नरम हो गयीं. कुमार ने कहा : "भाई, क्या करूं, यह शुद्ध मद्धम बहुत देर से अनुरोध कर रहा था कि मुझे भी अन्दर ले लीजिए, ले लीजियए. भूप के दरबार में उसे प्रवेश की इजाज़त नहीं है. पर बहुत गिड़गिड़ाने लगा तो सोचा -- आने दो बेचारे को थोड़ी देर के लिए, कब तक बाहर रखें, आख़िर अपना दोस्त है."</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>शायद यह गुण सभी बड़े कलाकारों में होता है. उन कलाओं में जहां परम्परा और शास्त्र ने मिल कर दायरे तय कर दिये हैं वहां भी लीक छोड़ कर कुछ अनोखा कर ले जाने की हुनरमन्दी सचमुच क़ाबिले-तारीफ़ है. डिज़ी भी ऐसे ही बिरले वादक थे. उनकी बिजली की-सी तेज़ प्रतिक्रिया और बेहद सधे हुए कान उनके ख़यालों और उनकी अदायगी का निर्दोष ताल-मेल सम्भव बनाते. मज़े की बात यह थी कि वे किसी भी तरह का जोखिम उठाने से हिचकते नहीं थे और यह जोखिम कभी उन्हें धोखा नहीं देता था. इसका कारण था बचपन में हर इतवार को गिरजे में जा कर बजाना जहां से उनके अनुसार उन्होंने "रूह को मुख़ातिब करना" सीखा.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/DwIRM9LjKpg (नो मोर ब्लूज़ भाग 2)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अब जैसे यही देखिए कि डिज़ी गिलेस्पी जिस ट्रम्पेट को बजाते थे उसका अगला सिरा बजाय सीधा होने के लगभग पैंतालीस डिग्री के कोण पर ऊपर को उठा रहता. डिज़ी ने बताया था कि यह अनोखापन एक दुर्घटना की वजह से आया था जब दो नाचने वाले न्यू यौर्क में डिज़ी की पत्नी के जन्म दिवस के जलसे में उस मेज़ पर जा गिरे जहां यह ट्रम्पेट रखा हुआ था और इसका अगला सिरा ऊपर को मुड़ गया. इससे वाद्य के सुरों में थोड़ा फ़र्क आ गया और हालांकि डिज़ी ने ट्रम्पेट को सीधा करा लिया, पर वे उन बदले हुए सुरों को भूल नहीं पाये और उन्होंने फिर वाद्य बनाने वाले कारीगर से कह कर वैसे ही मुड़े हुए सिरे वाला ट्रम्पेट बनवाया और अन्त तक उसे ही बजाते रहे. लेकिन उनके जीवनीकार ने किस्सा यों बयान किया है कि डिज़ी को मुड़े हुए सिरे वाले ट्रम्पेट का खयाल इंग्लैण्ड की एक यात्रा के दौरान आया जब वहां उन्होंने एक ऐसा ही ट्रम्पेट देखा और उसे बजाने पर उन्हें नया प्रयोग करने की सूझी. बहरहाल, किस्सा जो भी हो, इतना सच है कि सीधे सिरे वाला हो या मुड़े सिरे वाला, ट्रम्पेट पर डिज़ी को कमाल की महारत हासिल थी और उन्होंने बहुत-से नये वादकों को सिखा कर परवान चढ़ाया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/f3jPpYFc4Yo (ब्लूज़ आफ़्टर डार्क) </div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस सारी गम्भीर संगीत-साधना के पीछे जो इन्सान था, वह जहां श्रोताओं को अपने मज़ाकिया स्वभाव से हंसा सकता था, वहीं ग़ुस्से में हिंसक भी हो सकता था. एक बार का क़िस्सा उस झगड़े का है जो डिज़ी गिलेस्पी और कैब कैलोवे के बीच हुआ जिनके बैण्ड में डिज़ी शामिल थे. हुआ यह कि संगीत के एक कार्यक्रम में कैब कैलोवे ने डिज़ी पर आरोप लगाया कि उन्होंने खंखार कर बलग़म का लौंदा मंच पर फेंक दिया था. यों भी, कैलोवे डिज़ी के बजाने की शैली से चिढ़े रहते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि डिज़ी कुछ ज़्यादा ही नियमों को तोड़ते थे और वैसे भी कैलोवे को डिज़ी का शरारती नटखट अन्दाज़ पसन्द नहीं था. कैलोवे के बैण्ड के एक अन्य सदस्य के अनुसार कैलोवे डिज़ी के बजाने के अन्दाज़ को "चीनी संगीत" कहते थे. बहरहाल, डिज़ी ने बलग़म का लौंदा फेंकने से इनकार किया, मगर कैलोवे नहीं माने और बात इतनी बढ़ी कि कैब कैलोवे ने डिज़ी पर हाथ उठा दिया. डिज़ी कहां पीछे रहने वाले थे. उन्होंने अपनी जेब से चाकू निकाला और कैब को दौड़ा लिया. किसी तरह मण्डली के बाक़ी सदस्यों ने दोनों को अलग किया. छीना-झपटी के दौरान कैब का हाथ कट भी गया. नतीजा वही हुआ जो होना था. कैब कैलोवे और डिज़ी गिलेस्पी अलग हो गये और डिज़ी अर्ल हाइन्ज़ के बैण्ड में जा शामिल हुए.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मगर ग़ुस्से के ये दौरे बहुत विरल थे. बुनियादी तौर पर डिज़ी मौज-मस्ती में यक़ीन रखने वाले आदमी थे. इसकी सबसे बड़ी मिसाल थी 1964 का अमरीकी राष्ट्रपति का चुनाव, जिसमें डिज़ी गिलेस्पी ने ठिठोली के तौर पर निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर अपना नामांकन भी कर दिया. अपने घोषणा-पत्र में डिज़ी ने कुछ बहुत ही मज़ेदार क़िस्म के वादे किये. उन्होंने कहा कि अगर वे चुने गये तो राष्ट्रपति भवन का नाम "वाइट हाउस" से बदल कर "द ब्लूज़ हाउस" रख दिया जायेगा और उनके मन्त्रिमण्डल में ड्यूक एलिंग्टन(विदेश मन्त्री), माइल्ज़ डेविस (सी.आई.ए. के निदेशक), लुई आर्मस्ट्रौंग (कृषि मन्त्री), मैक्स रोच (रक्षा मन्त्री), चार्ल्स मिंगस (शान्ति मन्त्री), रे चार्ल्स (संसद के पुस्तकालयाध्यक्ष), थेलोनिअस मंक (घुमन्तू राजदूत), मेरी लू विलियम्स (वैटिकन को राजदूत) और मैल्कम एक्स (ऐटोर्नी जेनरल) शामिल होंगे. इनमें मैल्कम एक्स को छोड़ कर, जो नीग्रो अधिकारों के उग्रतावादी आन्दोलनकारी थे, बाक़ी सब संगीतकार थे. अपने इस कथित मख़ौल को बढ़ाते हुए डिज़ी ने राष्ट्रपति चुनाव के अभियान के बिल्ले भी बंटवाने शुरू कर दिये. ये बिल्ले उनकी प्रचार एजेन्सी ने बरसों पहले "प्रचार के लिए, मज़ाक के तौर पर" बनाये थे. अब उनके बदले चन्दे में आने वाली रक़म नस्ली समता संगठन और मार्टिन लूथर किंग को अनुदान के रूप में जानी थी. ख़ैर, मज़ाक तो मज़ाक था, डिज़ी गिलेस्पी ने उसी भावना के साथ लिया और फिर अपनी असली मुहिम -- संगीत -- की तरफ़ लौट गये. ये बिल्ले बाद के वर्षों में संग्रहणीय बन गये. 1971 में डिज़ी गिलेस्पी ने ऐलान किया कि वे फिर चुनावी अखाड़े में उतरेंगे, लेकिन इस बार उन्होंने कहा कि बहाई पन्थ के अनुयायी होने के कारण वे चुनाव से अपना नाम वापस ले रहे हैं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बहरहाल, अगर इन क़िस्से कहानियों को छोड़ दें तो डिज़ी गिलेस्पी ने अपने 76 वर्षों के लम्बे जीवन के दौरान बहुत-से उतार-चढ़ाव देखे, ज़िन्दगी में भी और संगीत में भी. कैब कैलोवे के बैण्ड में अपनी शमूलियत के दौरान ही डिज़ी ने बड़े बैण्डों के लिए धुनों और रागों की रचना शुरू कर दी थी. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/1aMCviqO95k (लीप फ़्रौग -- चार्ली पार्कर और डिज़ी गिलेस्पी)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जैज़ संगीत भी अपने पिछले दौर से बाहर आ कर लोकप्रिय होने के क्रम में स्विंग म्यूज़िक और बीबौप कहलाने लगा था. अर्ल हाइन्ज़ के बैण्ड में अपने समय के बारे में याद करते हुए डिज़ी ने कहा,"...लोगों का ख़याल है कि जब स्विंग और बीबौप आया तो वह संगीत नया था. ऐसा नहीं था. वह संगीत उसी संगीत से विकसित हुआ था जो उसके पहले था. बुनियादी तौर पर वही संगीत था. फ़्र्क सिर्फ़ इतना था कि आप यहां से वहां कैसे जाते थे...कुदरती तौर पर हर ज़माने का अपना रंग होता है." </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>डिज़ी गिलेस्पी जीवन के अन्त तक सक्रिय रहे और 1970 के बाद उन्होंने बहाई धर्म अपना लिया था, जिसने उन्हीं के हवाले से कहें तो उन्हें चाकूबाज़ की अपनी छवि बदल कर एक विश्व नागरिक बनने में और दारू छोड़ कर आत्म-परीक्षण करने में मदद की. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: right;">
<b>(जारी)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-86879123449155810902015-02-25T01:22:00.000-08:002015-04-11T17:56:26.086-07:00जैज़ संगीत पर एक लम्बा आलेख <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<span style="color: #990000; font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत </span><br />
<br />
<b>सत्रहवीं कड़ी</b><br />
<br />
<br />
21.<br />
<br />
<div style="text-align: right;">
<i>"जैज़ का इतिहास चार शब्दों में बताया जा सकता है -- </i></div>
<div style="text-align: right;">
<i>लुई आर्मस्ट्रौंग चार्ली पार्कर."</i></div>
<div style="text-align: right;">
<i>-- माइल्स डेविस </i></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
तीस का दशक अगर प्रसार के लिहाज़ से जैज़ संगीत का सुनहरा काल था तो चालीस का दशक एक बिलकुल ही अलग ढंग से जैज़ के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ। पहली बार संगीतकारों के रवैये में एक तब्दीली आयी और उन्होंने अपने संगीत को केवल मनोरंजन से नहीं, बल्कि कला के प्रतिमानों से जोड़ कर देखना शुरू किया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जहाँ तक दूसरों पर असर डालने का सम्बन्ध है इसमें कोई शक नहीं कि लुई आर्मस्ट्रौंग जैज़ संगीत के पहले महान कलाकार के रूप में सामने आते हैं, लेकिन उनकी निगाह हमेशा अपने श्रोताओं की ओर केन्द्रित रही। यही नहीं, बल्कि तीस के दशक से पहले जैज़ का जो बुनियादी ढाँचा तैयार हुआ था, उसमें उन्होंने बहुत कम परिवर्तन किया। यही वजह है कि लुई आर्मस्ट्रौंग के साये में जैज़ संगीत उत्तरोत्तर मनोरंजन प्रधान होता गया था। न्यू और्लीन्स का प्रारम्भिक जैज़ खुली फ़िज़ा का संगीत था, उस शहर के बाशिन्दों का संगीत था और इस तरह पूरे समाज का अंग था। लुई आर्मस्ट्रौंग ने अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर इस संगीत को जन-सामान्य के दायरे से उठा कर संगीत की शोभा-यात्रा का सिरमौर बना दिया, ‘शो बिज़’ का अंग बना दिया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मगर दूसरी ओर ऐसे बहुत-से उभरते हुए संगीतकार थे, जो इस चकाचौंध-भरी व्यावसायिकता के ख़िलाफ़ थे, जो महसूस करते थे कि अगर जैज़-संगीत को सचमुच अपना सही रूप माना है तो उसे जन-रुचि और आत्माभिव्यक्ति के बीच सन्तुलन बनाये रख कर, तल्लीनता और द्वन्द्व के आपसी रिश्तों को पुष्ट करते चलना होगा। और चाहे प्रयोग और आशु रचना जिस भी सीमा तक की जाये जैज़ को अपनी जड़ों को विस्मृत नहीं करना है जो एक पूरी जाति के सुख-दुख, हर्ष-विषाद, संघर्ष और आशा-आकांक्षा में गहरे उतरी हुई हैं. और इस धारा के सबसे बड़े प्रवक्ता थे -- चार्ली पार्कर, जिन्होंने अपने तईं जैज़ को एक बिल्कुल नयी दिशा में मोड़ दिया। सुनिये उन पर लिखा ऐन्टनी प्रोवो का गीत :</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/psHeVgk8rj8 (यार्ड्बर्ड स्वीट -- चार्ली पार्कर -- शब्दों के साथ)</div>
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<br /></div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>चार्ली पार्कर (1920-55) कैन्सस सिटी में पैदा हुए थे और ग्यारह साल की उमर ही से सैक्सोफ़ोन बजाने लगे थे. चौदह का होने पर वे अपने स्कूल के बैण्ड में शामिल हो गये, ताकि उन्हें अभ्यास और प्रदर्शन के लिए स्कूल का वाद्य उप्लब्ध हो सके. अपने जीवन के शुरू ही में उन्हें "यार्डबर्ड" (आंगन पाखी) या सिर्फ़ "बर्ड" के नाम से बुलाया जाने लगा और यह नाम ज़िन्दगी भर उनके बुलाने वाला नाम रहा उनकी बहुत-सी रचनाओं की प्रेरणा भी रहा जैसे "यार्डबर्ड सुईट" --</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/HmroWIcCNUI (यार्डबर्ड स्वीट -- चार्ली पार्कर )</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कैन्सस सिटी में रहते हुए ही पार्कर ने सैक्सोफ़ोन वादक बनने का फ़ैसला कर लिया था और यही वह समय था जब संगीत को गम्भीरता से लेते हुए पार्कर ने जम कर अभ्यास करना शुरू किया. अर्से बाद एक इण्टर्व्यू में उन्होंने बताया कि तकरीबन 3-4बरस का समय उन्होंने 15-15 घण्टे रोज़ाना अभ्यास किया था. इसी अर्से में काऊण्ट बेसी और बेनी मूटौन के बैण्डों ने उन पर गहरा असर डाला और इसी दौरान अपने शहर के स्थानीय मण्डलियों में सैक्सोफ़ोन बजाते हुए उन्होंने आशु रचना की बारीक़ियां भी सीखीं. 1938 में पार्कर ने जे मक्शैन की मण्डली में हिस्सा लेते हुए बाहर के शहरों के दौरे भी किये जो उन्हें शिकागो और न्यू यौर्क तक ले गये.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/_KaNwqdlz50 (औटम इन न्यू यौर्क -- चार्ली पार्कर ) </div>
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<br /></div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
1939 में चार्ली पार्कर न्यू यौर्क आ गये और यह शहर उन्हें इतना भाया कि उन्होंने इसे ही अपना घर बना लिया. इससे कुछ समय पहले एक दुर्घटना में घायल हो जाने पर इलाज के दौरान चार्ली पार्कर को हस्पताल ही में मौर्फ़ीन की लत लग गयी जो आगे चल कर हेरोइन की लत में बदल गयी. जैज़ के परिवेश और परिदृश्य में गांजा, अफ़ीम, कोकीन और हेरोइन का नशा आम था और यह लत दूर होने के बजाय जड़ पकड़ती चली गयी. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>न्यू यौर्क में कुछ समय बाद पार्कर ने अर्ल हाइन्स की मण्डली में भी सैक्सोफ़ोन बजाया जहां उनकी मुलाक़ात डिज़ी गिलेस्पी से हुई जिनके साथ वे मिल कर बहुत-से अवसरों पर कार्यक्रम देने वाले थे. लेकिन सिर्फ़ डिज़ी गिलेस्पी ही नहीं, चार्ली पार्कर के परिचय के दायरे में ऐसे बहुत-से बुतशिकन आने वाले थे जो जैज़ में नयी राहें खोज रहे थे, मसलन, माइल्ज़ डेविस, थेलोनिअस मंक, मैक्स रोच, चार्ल्स मिंगस. ये सभी प्रतिभाशाली संगीतकार अब जैज़ को केवल मनोरंजन के दायरे से उठा कर एक कला-रूप बनाने पर कमर कसे बैठे थे. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/reqvTT8oCxs (ब्लूमडीडू -- पार्कर, गिलेस्पी, थेलोनिअस मंक) </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पार्कर का इनकी तरफ़ आकर्षित होना एक ही बालो-पर के अन्दीलबों के इकट्ठा होने जैसा था. एक दिन वे गिटारवादक विलियम फ़्लीट के साथ किसी सभा में बजा रहे थे जब अचानक उन्हें यह सूझा कि जैज़ की क्रोमैटिक सरगम के बारह सुरों से किसी भी "की" में नियमपूर्वक जाया जा सकता है, जिससे जैज़ के एकलवादन की बहुत-सी पाबन्दियां तोड़ी जा सकती हैं. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन इन सभी नये पैग़म्बरों के संगीत को शुरू-शुरू में काफ़ी विरोध का सामना पड़ा. इसके अलावा, दुर्भाग्य से उन दिनों संगीतकारों के संघ ने व्यावसायिक रिकौर्डिंग पर पाबन्दी लगायी हुई थे, इसलिए ढेरों अवसर बिना रिकौर्ड किये ही गुज़र गये. लेकिन पाबन्दी उठने के बाद साल भर बाद 1945 में दो ऐसे मौक़े आये जब इन सभी साथियों के साथ पार्कर ने अपनी कला का सिक्का जमा दिया. पहला मौका जून के महीने में डिज़ी गिलेस्पी, मैक्स रोच और बड पावेल की संगत में न्यू यौर्क के टाउन हौल की एक संगीत सभा में बजाने का था और दूसरा अवसर सवौये की एक रिकौर्डिंग सभा का था जिसमें सभी नये संगीतकार चार्ली पार्कर के नेतृत्व में इकट्ठा थे -- डिज़ी गिलेस्पी, माइल्ज़ डेविस, मैक्स रोच और कर्ली रसेल -- और इस रिकौर्डिंग के कई टुकड़े आज ऐतिहासिक माने जाते हैं, जैसे को-को, बिलीज़ बाउन्स और नाओ’ज़ द टाइम -- </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/a6xoifznoZ8 (बिलीज़ बाउन्स -- चार्ली पार्कर) </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अगले दस साल चार्ली पार्कर की ज़िन्दगी के सुनहरे साल कहे जा सकते हैं हालांकि हेरोइन की लत ने उन्हें परेशान करना नहीं छोडा था. एक बार तो वे हस्पताल में छै महीने काट कर पूरी तरह "साफ़" हो आये थे और इसी समय उन्होंने "रिलैक्सिन ऐट द कैमारिलो" के नाम से एक गत कैमारिलो हस्पताल को खिराज देते हुए पेश की --</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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http://youtu.be/F22y1pHsCdo (रिलैक्सिन ऐट द कैमारिलो -- चार्ली पार्कर)</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन न्यू यौर्क आने पर हेरोइन ने फिर पार्कर को अपनी चंगुल में जकड़ लिया. तो भी वे लगातार सैक्सोफ़ोन बजाते रहे और उन्होंने दर्जनों नयी धुनें रिकौर्ड कीं. अब तक यह नयी शैली लोकप्रिय हो चुकी थी और लोगों ने इसे बीबौप कहना शुरू कर दिया था. अपने साथियों -- थेलोनिअस मंक और चार्लस मिंगस -- की तरह चार्ली पार्कर भी संगीत की बुनियाद में दिलचस्पी रखते थे, इसलिए उनकी बहुत इच्छा थी कि वे पश्चिमी शस्त्रीय संगीत के वाद्य वृन्द यानी और्केस्ट्रा के साथ जैज़ को मिला कर बजायें और नये प्रयोग करें. वे शास्त्रीय संगीत में अच्छा-ख़ासा दखल रखते थे और जब 1949 में जब उन्हें जैज़ वादकों और शास्त्रीय संगीतकारों की एक मिली-जुली मण्डली के साथ सैक्सोफ़ोन बजाने का मौका मिला तो उन्हों ने कुछ शानदार धुनें रिकौर्ड कीं जैसे, "जस्ट फ़्रेण्ड्स," "एवरीथिंग हैपन्स टू मी," "एप्रिल इन पैरिस," "समरटाइम," और "इफ़ आई शुड लूज़ यू."</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/zPBAIVK-JRA (एप्रिल इन पैरिस -- चार्ली पार्कर)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जीवन के अन्त तक चार्ली पार्कर प्रयोग करते ही रहे, कभी संगीत की अदायगी को ले कर और कभी अपने वाद्य को ले कर जिसके अनेक नमूनों को उन्होंने आज़माया और सुनने वालों को अपनी महारत से चकित किया. उनके वादन की शैली अनोखी थी और उन्होंने जैज़ के हर पहलू पर अपनी प्रतिभा से अमिट छाप छोड़ी. 1955 में जब वे दिवंगत हुए तो अपने महज़ पैंतीस बरस के जीवन के पीछे न सिर्फ़ अनगिनत चाहने वालों का समुदाय छोड़ गये, बल्कि अपने प्रशंसक साथियों को भी. चार्ली पार्कर के साथ अनेक बार संगत कर चुके प्रख्यात सैक्सोफ़ोन वादक माइल्स डेविस ने उनके निधन पर शायद उन्हें सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यह कह कर दी,"जैज़ का इतिहास चार शब्दों में बताया जा सकता है -- लुई आर्मस्ट्रौंग चार्ली पार्कर."</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/eeM0JMgj358 (चार्ली पार्कर -- श्रेष्ठ चयन 1)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/Ed4LyJ8h-jk (चार्ली पार्कर -- श्रेष्ठ चयन 2)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: right;">
<b>(जारी)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-69867380257965964332015-02-24T05:27:00.001-08:002015-02-24T05:27:25.483-08:00जैज़ संगीत पर एक लम्बा आलेख <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<span style="color: #351c75;"><span style="font-size: large;"><b>जैज़ संगीत पर एक लम्बा आलेख</b></span> </span><br />
<br />
<span style="font-size: x-large;"><span style="color: #cc0000;">चट्टानी जीवन का संगीत</span> </span><br />
<br />
<b>सोलहवीं कड़ी</b><br />
<br />
20.<br />
<br />
<div style="text-align: right;">
<i>लोग यह समझते ही नहीं कि जो तुम गाना चाहते हो और </i></div>
<div style="text-align: right;">
<i>जैसे गाना चाहते हो, उसे गाने के लिए कैसी लड़ाई लड़नी पड़ती है.</i></div>
<div style="text-align: right;">
<i>-- बिली हौलिडे</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तीस के ही दशक में कई छोटे-छोटे मगर शानदार दल भी मौजूद थे और तीस के ही दशक में प्रख्यात ब्लूज़ गायिका बिली हॉलिडे ने अपने जादू भरे गायन से लोगों के दिल जीत लिये थे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/YtqjW2uhBT4 ( लेडी सिंग्स द ब्लूज़ -- बिली हौलिडे)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
चवालीस साल की छोटी-सी उमर में दिवंगत होने से पहले बिली हॉलिडे की दुखद कहानी एक सम्वेदनशील कलाकार और उसके इर्द-गिर्द के निपट व्यावसायिक वातावरण के द्वन्द्व की अनिवार्य परिणति थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वैसे तो अमरीका में रंगभेद के युग में किसी भी नीग्रो या नीग्रो मूल के कलाकार का जीवन आसान नहीं था, लेकिन संगीत और वह भी जैज़ संगीत के सिलसिले में बड़े-से-बड़े फ़नकारों को ऐसे-ऐसे उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ता कि हैरत होनी स्वाभाविक थी. एक पल आप शोहरत की बुलन्दियों पर होते और दूसरे ही पल मामूली-से-मामूली लोग आपको आपके रंग और नस्ल की वजह से दो कौड़ी का बना कर रख सकते थे. हालांकि कहा जाता है कि अब हालात सुधर गये हैं, मगर लोग जानते हैं कि अन्दर की सच्चाई कुछ और ही है. और आज से सौ साल पहले तो हालत कहीं ज़्यादा ख़राब रही होगी जब भेद-भाव खुले तौर पर बरता जाता था. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बिली हौलिडे को शोहरत की बुलन्दियों पर पहुंचने से पहले नारकीय स्थितियों से हो कर गुज़रना पड़ा था. पिता संगीतकार थे और मां को कुंवारेपन ही में मां बनने पर अपने मां-बाप के घर से निकल कर चले आना पड़ा था. बिली का जन्म फिलाडेल्फ़िया में १९१५ में हुआ, लेकिन एक तो उनके पिता ने उसकी मां से शादी नहीं की हुई थी, दूसरे दो साल बाद ही उसके पिता उन सब को छोड़ कर जैज़ गिटारवादक के तौर पर अपनी किस्मत आज़माने निकल लिये थे और तीसरी बात यह थी कि बिली की मां को अक्सर रेलगाड़ियों में काम मिलता जिसकी वजह से बिली को वापस उसके ननिहाल बौल्टिमोर भेज दिया गया. ज़ाहिर है, मां-बाप की देख-रेख के अभाव में दूसरों का आसरा बिली के बहुत काम नहीं आ सकता था. उसका बिगड़ जाना लाज़िमी था. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>नौ साल की उमर में जब इस लगभग बेआसरा लड़की से चालीस बरस के एक आदमी ने बलात्कार किया तो सज़ा भी उस आदमी को नहीं बिली को दी गयी. वह आवारगी के आरोप में बाल गृह के हवाले कर दी गयी, फिर जब वह छूट कर आयी और कुछ समय अपनी मां के साथ रही जो इस बीच एक होटल चलाने की कोशिश कर रही थी तो एक पड़ोसी ने उससे बलात्कार का प्रयास किया. बारह साल की उमर में बिली हौलिडे जो तब तक अपने असली नाम एलेनोरा फ़ैगन के नाम से जानी जाती थी, फिर रिमाण्ड होम पहुंच गयी. 1929 में बिली की मां ने न्यू यौर्क में कालों की बस्ती हारलेम में किस्मत आज़माने का फ़ैसला किया और बिली भी वहीं आ गयी. उनकी मकान मालिकिन एक वेश्यालय चलाती थी और कोई और काम न ढूंढ पाने पर बिली की मां ने भी यही पेशा अपना लिया. और फिर बिली भी अभी चौदह की नहीं हुई थी कि उसे भी पेशा करने पर मजबूर होना पड़ा. जल्दी ही उस चकले पर छापा पड़ा और एक बार फिर बिली सुधार गृह की दीवारों के पीछे थी.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस बार छूटने पर बिली ने अपनी ज़िन्दगी का ढर्रा बदलने का फ़ैसला किया और नाइट क्लबों में गाना शुरू किया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/HbEZqeoUhGA (योर मदर्स सन इन लौ -- बिली हौलिडे) </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक लोकप्रिय गायिका बिली डव के नाम का पहला हिस्सा अपने पिता क्लैरेन्स हौलिडे के नाम के दूसरे हिस्से से जोड़ कर बिली ने अपना पेशेवर नाम बिली हौलिडे ईजाद किया और अगले दो साल तक न्यू यौर्क के अलग-अलग क्लबों में अपनी गायकी के बल पर शोहरत की सीढ़ियां चढ़नी शुरू कर दीं. 1932 में बिली की साधना रंग लायी और उन पर संगीत प्रोड्यूसर जौन हैमण्ड की नजर पड़ी. हुआ यों कि बिली को एक क्लब की जानी-मानी गायिका के एवज़ में गाने का मौका मिला क्योंकि उस दिन वह गायिका वहां नहीं आ पायी थी. जौन हैमण्ड उस गायिका को पसन्द करते थे और उसे सुनने आये हुए थे. वे बिली के गाने से बहुत प्रभावित हुए. बाद में उन्होंने कहा,"बिली के गाने ने मेरी संगीत की रुचि और संगीत के जीवन को लगभग बदल कर रख दिया, क्योंकि जो गायिकाएं मैंने तब तक देखी थीं, उनमें वह पहली गायिका थी, जो जैज़ को सचमुच किसी जीनियस फ़नकार की तरह गाती थी." हैमण्ड ने जाने-माने जैज़ संगीतकार बेनी गुडमैन की संगत में बिली के गाये गाने रिकौर्ड करवाये और यहां से बिली का जीवन एक दूसरी ही दिशा में मुड़ गया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/RvDZOX9IdKs (गुड मौर्निंग हार्टेक -- बिली हौलिडे)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अगले कुछ साल बिली हौलिडे टेडी विल्सन, काउण्ट बेसी और आर्टी शौ जैसे संगीतकारों की मण्डलियों में गाती रही और धीरे-धीरे उनके रिकौर्डों की लोकप्रियता बढ़ती रही. लेकिन यह सफ़र आसान नहीं था. मण्डलियों के साथ दौरा करने पर कई बार उन्हें रंगभेद के सबसे घटिया रूपों से रू-ब-रू होना पड़ता. फिर जैसे सामाजिक भेद-भाव और सफ़र के तनाव ही काफ़ी न थे, बिली को शराब और नशीले पदार्थों की भी लत लग गयी थी. और जीवन के अन्त तक इन लतों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>तभी 1930 के दशक के अन्त में पहली बार बिली हौलिडे की ज़िन्दगी में ऐसा मौका आया जिसने उनकी शोहरत को एकबारगी आसमान की ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया. वे कोलम्बिया के लिए गाने रिकौर्ड कर रही थीं जब उनके सामने एक गीत आया "स्ट्रेन्ज फ़्रूट" (अजीब फल). </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/-KLl-vrH6Sc (स्ट्रेंज फ़्रूट -- बिली हौलिडे)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गीत गोरों द्वारा कालों को फांसी दे कर पेड़ पर लटकाये जाने की घटनाओं के बारे में था जो अमरीका के दख्षिणी इलाक़ों में आम थीं. उसे एक यहूदी स्कूल अध्यापक ने लिखा था और छद्म नाम से जारी किया था. यह गीत न्यू यौर्क के ग्रीनविच विलेज के एक क्लब मालिक ने सुना और बिली के सामने प्रस्ताव रखा कि वह इसे गाये. ज़ाहिर है, गीत के बोल बहुत विस्फोटक थे और बिली हौलिडे को डर था कि उन्हें बदले की कार्रवाई का निशाना बनना पड़ सकता है. इसलिए जब वह उसे गाने के लिए क्लब के मंच पर आयी तो उसके मन में घबरहट थी. लेकिन दूसरी तरफ़ उनका कहना था कि गीत के बिम्बों ने उन्हें उनके पिता की मौत की याद करा दी थी, जिनसे उनके सम्बन्ध गायिका बनने के बाद सुधर गये थे और जिनको उनके रंग की वजह से फेफड़े के कैन्सर का इलाज नहीं मुहैया कराया गया था.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
दक्षिण के पेड़ों पर फलते हैं अजीब फल</div>
<div style="text-align: justify;">
पत्तियों पर लहू और जड़ों पर है ख़ून</div>
<div style="text-align: justify;">
दक्षिणी हवाओं पर झूमें काले शरीर</div>
<div style="text-align: justify;">
पोपलर के पेड़ों पर कैसे अजीब फल</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
शूरों की धरती का देहाती नज़ारा</div>
<div style="text-align: justify;">
बाहर को निकली आंखें ऐंठा मुंह सारा</div>
<div style="text-align: justify;">
मैग्नोलिया के फूलों की महक मीठी मधुर</div>
<div style="text-align: justify;">
सहसा जलते हुए मांस की गन्ध हवा में फिर </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ये रहे फल कौवे मारेंगे चोंचें जिन पर</div>
<div style="text-align: justify;">
बारिश बहा ले जायेगी, हवा चूसेगी जम कर</div>
<div style="text-align: justify;">
सूरज सड़ायेगा इन्हें, पेड़ गिरायेंगे</div>
<div style="text-align: justify;">
यही है वह अजीब और कड़वी फ़सल</div>
<div style="text-align: justify;">
दक्षिण के पेड़ों के ये अजीबो-ग़रीब फल</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/98CxkS0vzB8 (स्ट्रेंज फ़्रूट -- बिली हौलिडे)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस गीत को गाते समय बिली सुनने वालों को बिलकुल चुप करा दिया करती थी. गीत के दौरान धीरे-धीरे बत्तियां मद्धिम होती जातीं और सारी हरकतें बन्द हो जातीं, सिर्फ़ रोशनी का एक चकत्ता बिली के चेहरे पर रहता और आखिरी सुर पर यह बत्ती भी गुल हो जाती और जब लौटती तो बिली जा चुकी होती.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>न सिर्फ़ यह गीत बेइन्तेहा लोकप्रिय हुआ, अगले कई बरसों तक यह बिली का फ़रमाइशी गीत बना रहा. अपनी आत्म-कथा में उसने लिखा,"यह मुझे याद कराता है कि पिता किस तरह मरे थे. लेकिन मुझे इसको गाते ही रहना है, महज़ इसलिए नहीं कि लोग फ़रमाइश करते हैं, बल्कि इसलिए भी कि पिता के मरने के बीस साल बाद भी हालात वैसे ही हैं."</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"अजीब फल" की लोकप्रियता के बाद जहां तक संगीत और गायकी का ताल्लुक है बिली ने मुड़ कर नहीं देखा. एक के बाद दूसरा हिट गीत आता रहा और इसी के साथ बड़े-बड़े क्लबों और संगेत सभाओं में गाने के मौके भी. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/YKqxG09wlIA ( फ़ाइन ऐण्ड मेलो -- बिली हौलिडे)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन दूसरी तरफ़ शराब और हेरोइन की लत और उसके चलते लगातार पुलिस और अदालत के चक्कर भी जान का वबाल बने रहे. एक हफ़्ते वह कार्नेगी हौल या ब्रौडवे पर भारी भीड़ के सामने गा रही होती और दूसरे हफ़्ते वह सलाखों के पीछे होती.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>संगीत से जुड़ी व्यावसायिकता के दबाव सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं थे कि संगीतकार बराबर अपनी कला को बेचते चले जायें। इससे भी आगे बढ़ कर कई बार संगीतकारों के मैनेजर उनके जीवन तक को नियन्त्रित करने लगते थे। बिली हॉलिडे के साथ हुआ यह कि एक शहर से दूसरे शहर और दूसरे शहर से तीसरे शहर का दौरा करने के क्रम में जब शरीर जवाब देने लगा तो उनके अपने प्रबन्धकों ने उन्हें मादक दवाइयों का आदी बना दिया। दूसरी ओर अपने माहौल के साथ ताल-मेल न बिठा पाने से उपजे अन्तर्विरोधों और विषमताओं ने बिली हॉलिडे को मानसिक रूप से भी तोड़ दिया। नतीजे के तौर पर यह शानदार गायिका, जिसका कार्यक्रम लन्दन के ऐल्बर्ट हॉल में हो चुका था, अन्ततः पागलख़ाने और फिर अकाल मृत्यु के शिकंजे में जा पहुँची। मगर अपने छोटे-से जीवन में ही बिली हॉलिडे अपने पीछे संगीत का ऐसा विरसा छोड़ गयीं, जिसका मूल्य आज भी कम नहीं हुआ है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बिली के गाये गानों को बहुत-सी गायिकाओं ने गाया जिनमें सारा वौहन और डायना रौस जैसी गायिकाएं शामिल हैं. डायना रौस ने तो बिली के जीवन पर बनी फ़िल्म "लेडी सिंग्स द ब्लूज़" में बिली का किरदर भी अदा किया. यहां बिली के एक मशहूर गीत "कवर मैन" की तीन अदायगियां पेश हैं. एक बिली के स्वर में, एक सारा वौहन के और एक डायना रौस के. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/thSfGPZGmnQ?list=PLCCA3BD86C5D8F482 लवर मैन बिली हौलिडे</div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/ynC0711OHPY lover man sarah vaughan</div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/hMtXuD4-63o lover man diana ross</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बिली के गायन में बोलों की अदायगी में दम-ख़म और विश्वास तो था ही, एक अजीब-सी गर्मजोशी भी थी जो बोलों को सतर-दर-सतर आगे बढ़ाती हुई सुनने वालों के दिलों के तार भी झंकृत करती चलती थी. जैसा कि एक समीक्षक ने लिखा कि उसकी आवाज़ में एक ही साथ इस्पाती दृढ़ता भी थी और बेहिसाब नरमी भी, उसमें बुज़ुर्गों का-सा सयानापन भी था और एक अजीब-सी बच्चों जैसी फ़ितरत भी. इसीलिए बिली हौलिडे के बेहतरीन गीतों में जो सबसे बड़ा गुण उभर कर सामने आता है वह दिल की सच्चाई है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/bKNtP1zOVHw (गौड ब्लेस द चाइल्ड दैट्स गौट इट्स ओन -- बिली हौलिडे)</div>
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<div style="text-align: right;">
<b>(जारी)</b></div>
<br />
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<br /></div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-51646635102356464052015-02-23T06:51:00.000-08:002015-02-23T06:51:24.295-08:00जैज़ संगीत पर एक लम्बा आलेख <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="color: #990000; font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत </span><br />
<br />
<b>पन्द्रहवीं कड़ी</b><br />
<br />
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<br />
19.<br />
<br />
<div style="text-align: right;">
<i>"ड्यूक एलिंग्टन अपने जीवन के अन्त तक लगातार नयी-नयी </i></div>
<div style="text-align: right;">
<i>रचनाएं, नये-नये राग पेश करते रहे. संगीत-कला सचमुच उनकी प्रेयसी थी"</i></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
इसमें कोई शक नहीं कि 1935-36 से 1942-43 के बीच चाहे गोरे संगीतकारों की कुछ मण्डलियाँ बड़ी दक्षता से जैज़ बजाती रहीं, मगर जैज़ को महानता के शिखर पर पहुँचाने का काम इन्हीं नीग्रो संगीतकारों ने किया और इसमें भी दो रायें नहीं हैं कि इस दौर के सर्वश्रेष्ठ रिकॉर्डों में से एक ड्यूक एलिंग्टन ने तैयार किया था। वर्ष था 1940 और रिकॉर्ड का शीर्षक था -- ‘को-को’।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/qemBuum2jSU ( को को )</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मगर ड्यूक एलिंग्टन का सही जायज़ा लेने के लिए तो एक अलग लेख ही दरकार होगा। उनकी बहुमुखी प्रतिभा और बेशकीमती योगदान का मूल्यांकन आसान नहीं है। ख़ास तौर पर इसलिए भी कि उनके कृतित्व के कई पहलू हैं और वह कई दशकों को नापता है। लुई आर्मस्ट्रौंग बुनियादी तौर पर वादक थे, परफ़ॉर्मर थे, उनकी प्रतिभा संगीत के व्यवहार में व्यक्त हुई थी, जबकि ड्यूक एलिंग्टन शास्त्री और चिन्तक थे; कम्पोज़र थे और स्रष्टा थे। संगीत के प्रति इन दोनों महान कलाकारों के रवैये में भी बहुत फ़र्क़ था। लुई आर्मस्ट्रौंग मण्डली में शिरकत करते हुए भी लगातार अपनी निजी दक्षता और कौशल पर ज़ोर देने, ‘मुखर’ होने के हामी थे, मगर ड्यूक एलिंग्टन अपने अपूर्व कला-कौशल को रचना और पूरी मण्डली के हित में लीन कर देने में विश्वास रखते थे। इन्हीं विशेषताओं के चलते अपनी बहुमुखी प्रतिभा से ड्यूक एलिंग्टन ने जैज़-संगीत को उसका संस्कार दिया, उसे परिष्कृत किया, श्रम और अमरीकी नीग्रो समुदाय की जातीय स्मृति में विद्यमान गहरी भावनाओं से जुड़े इस संगीत की सामूहिकता बरकरार रखी। शायद इसीलिए उन्होंने अपने निजी वाद्य के तौर पर पियानो पियानो को चुना था, मगर वे सिर्फ़ संगत नहीं करते थे, वे धुनें भी रचते थे। ऐसे में कई बार लोगों का ध्यान इस बात की ओर नहीं जाता कि ड्यूक एलिंग्टन के उन रिकॉर्डों में, जो उन्होंने अपनी मण्डली के साथ तैयार किये, पियानो के सुर इतने मद्धम क्यों हैं -- ‘सुनाई’ क्यों नहीं देते? कारण यह था कि ऐसे रिकॉर्डों में ड्यूक अपने अप्रतिम वादन से पूरे दल को बाँधे रखते थे। उनकी रचनाओं में पियानो के सुर अन्य वाद्यों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम करते थे, उसी तरह जैसे माला का धागा अलग-अलग मनकों को जोड़े रखता है। लेकिन जब-जब ड्यूक एलिंग्टन ने अपने पियानो की एकल प्रस्तुतियाँ पेश कीं, उनकी अद्भुत क्षमता चकित करती रही। मिसाल के तौर पर ‘इन अ सेण्टीमेण्टल मूड’ (भावुकता के क्षण) नामक उनकी प्रसिद्ध रचना, जिसे उन्होंने सन पैंतीस में तैयार किया था और जो उनकी श्रेष्ठतम रचनाओं में शुमार की जाती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/7UKGc8J463k ( इन अ संटिमेंटल मूड)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हस्ब मामूल इस धुन को भी वे अपने दल-बल के साथ पेश किया करते थे, लेकिन अमरीका के प्रसिद्ध कैपिटल स्टूडियो के संचालकों के साथ उनका पुराना वादा था कि वे एक पूरा रिकॉर्ड केवल अपने पियानोवादन पर केन्द्रित रखते हुए तैयार करेंगे। इस वादे को वफ़ा करने में उन्हें लगभग बीस साल लग गये। फिर एक दिन 13 अप्रैल सन 53 को ड्यूक एलिंग्टन अपने साथियों को ले कर कैपिटल स्टूडियो पहुँचे और उस रोज़ दोपहर बाद से रिकॉर्डिंग का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह अगली सुबह तक चलता रहा। इस एक बैठक में उन्होंने कोई बारह धुनें रिकॉर्ड करायीं, जिनमें से अनेक धुनें बहुत लोकप्रिय हुईं।जैसे "मूड इण्डिगो" --</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>http://youtu.be/x02lJ023tJ4 (मूड इण्डिगो)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>लेकिन ऐसे एकल वादन के अवसर ड्यूक एलिंग्टन के जीवन में भी अनोखे कहे जा सकते हैं। ज़्यादातर तो वे अपने समकालीनों और उभरते हुए नये संगीतकारों के साथ मिल कर ही अपनी बनायी धुनों को पेश करते रहे। उनकी मण्डलियों में जैज़ का एक-न-एक अविस्मरणीय संगीतकार हमेशा रहा -- मिसाल के तौर पर सैक्सोफ़ोन-वादक जॉनी हॉजेस या ट्रम्पेट-वादक कूटी विलियम्स। यही नहीं, बल्कि ड्यूक एलिंग्टन ने कोलमैन हॉकिन्स और उन जैसे अन्य अप्रतिम वादकों के साथ बीसियों रिकॉर्ड बनाये और जैज़ को एक तरह से अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान कर दिया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/x5C_BLHaT00 (ड्यूक एलिंग्टन और कोलमैन हॉकिन्स -- वौण्डरलस्ट )</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/w_-h04qW_CY (इन ए सेंटिमेण्टल मूड -- ड्यूक एलिंग्टन और जौन कोल्ट्रेन)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एड्वर्ड केनेडी "ड्यूक" एलिंग्टन (1899-1974) का जन्म देश की राजधानी वौशिंग्टन डी.सी. में हुआ था. उनके पिता और माता, दोनों पियानो बजाते थे और उनकी मां ने सात साल की उमर ही से उन्हें पियानो सीखने के लिए भेजना शुरू कर दिया था. साथ ही उन्हें इस बात की भी हिदायत दी थी कि वे सभ्य और सज्जनों जैसे दिखें और वैसा ही व्यवहार करें. एलिंग्टन के तौर-तरीकों को देख कर उनके दोस्तों ने उन्हें "ड्यूक" कहना शुरू कर दिया. इस प्रसंग पर अपने स्वाभाविक मज़ाकिया अन्दाज़ में एक बार एलिंग्टन ने इस नामकरण का श्रेय एक दोस्त को देते हुए टिप्पणी की थी,"मेरे ख़याल में उसे लगा कि अगर मुझे उसकी दोस्ती के क़ाबिल बनना है तो मेरा कोई विरुद होना चाहिए, सो उसने मुझे ड्यूक कह कर बुलाना शुरू कर दिया." बहरहाल, बचपन की इस तरबियत को तो एलिंग्टन नहीं भूले, लेकिन जहां तक पियानो का सवाल था, दिलचस्प बात यह थी कि उन्हें पियानो और संगीत सीखने से ज़्यादा बेसबौल खेलना पसन्द था. बाद में उन्होंने याद किया,"कभी-कभी राष्ट्रपति रूज़वेल्ट अपने घोड़े पर बैठे गुज़रते वक़्त रुक कर हमें खेलते हुए देखने लगते."</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मज़े की बात यह थी कि चाहे ड्यूक एलिंग्टन अपनी पियानो शिक्षिका से जितने सबक लेते, उससे ज़्यादा वे छोड़ देते, तो भी संगीत की कुछ अन्दरूनी प्रेरणा ज़रूर रही होगी. शायद यही वजह है कि अपने नक्शा-नवीस पिता द्वारा पेशेवर कलाकार के प्रशिक्षण के लिए एक तकनीकी हाई स्कूल में भेजे जाने के बावजूद, ड्यूक एलिंग्टन ने अन्तिम परीक्षा से तीन महीने पहले स्कूल छोड़ दिया और संगीत को अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बना लिया. इसके पहले महज़ सोलह साल की उमर में एलिंग्टन अपनी पहली संगीत रचना तैयार कर चुके थे -- "सोडा फ़ाउण्टेन रैग." बहुत बाद में उन्होंने इसे याददाश्त के बल पर बजाया --</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/RgcJyZA-rrE?list=PLikMSODoYlvY0jXkz4uJ4km79Wu4Ou-Jy (सोडा फ़ाउण्टेन रैग)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस धुन के पीछे क़िस्सा यह है कि उन दिनों ड्यूक एलिंग्टन "पूडल डौग कैफ़े" नामक होटल में ठण्डे पेय बेचने का काम कर रहे थे और यहीं एक दिन अचानक उनके दिमाग़ में यह धुन आयी थी, जिसे वे महज़ कान से सुन कर बजाया करते क्योंकि अभी उन्हें संगीत की स्वर-लिपि पढ़नी नहीं आयी थी. वे इसे कई शैलियों में पेश करते जिससे सुनने वालों को लगता कि वे अलग-अलग रचनाएं बजा रहे हैं, कभी जैज़ की तरह तो कभी रैग टाइम, वौल्ट्ज़, फ़ौ़क्स ट्रौट और कभी टैंगो की तरह. 1917 से ड्यूक एलिंग्टन अपना खर्च चलाने के लिए साइनबोर्ड रंगने का काम करने लगे और यह सिलसिला 1919 तक चलता रहा जब वे ड्रम वादक सनी ग्रियर से मिले और सनी के आग्रह पर उन्होंने अपना पेशेवर बैण्ड कायम करने की तरफ़ कदम बढ़ाया. धीरे-धीरे उन्होंने वौशिंग्टन में सफल संगीतकार की हैसियत से कामयाबी हासिल कर ली. लेकिन तभी सनी ग्रियर ने न्यू यौर्क जाने का फ़ैसला किया और ड्यूक एलिंग्टन को भी लगा अगर कुछ करना है तो फिर वहां चलना चाहिए जहां सचमुच का मैदान है. एक औसत दर्जे के कामयाब युवक के लिए यह फ़ैसला आसान नहीं था, लेकिन ड्यूक उस मिट्टी के नहीं बने थे जिससे औसत दर्जे के कामयाब कलाकार बनते हैं. एक बार उन्होंने वौशिंग्टन के अपने हिफ़ाज़त भरे माहौल को घोड़ा तो फिर मुड़ कर नहीं देखा. और आगे की कहानी एक ऐसे संगीतकार की सफलता की कहानी है जिसके बारे में कहा गया है -- "ड्यूक एलिंग्टन अपने जीवन के अन्त तक लगातार नयी-नयी रचनाएं, नये-नये राग पेश करते रहे. संगीत-कला सचमुच उनकी प्रेयसी थी. संगीत ही उनका जीवन था और उसके प्रति उनके समर्पण का कोई मुक़ाबला नहीं था. वे सचमुच महान लोगों में एक महान कलाकार थे और ऐन मुमकिन है कि एक दिन वे बीसवीं सदी के पांच-छै महानतम जैज़ संगीतकारों में शुमार किये जायें." यों, ड्यूक एलिंग्टन के लिए जैज़ जैसी कोई अलग शैली नहीं थी, वे ख़ुद को हमेशा ठप्पों से दूर महज़ एक संगीतकार मानते थे और शायद यही वजह है कि वे जैज़ को उसके दायरे से ऊपर उठा कर अमरीकी संगीत के व्यापक दायरे में ले जा सके और जैज़ को एक कला रूप बना सके. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/pOuuaF6OyQI (ड्यूक प्लेज़ एलिंग्टन -- एकल वादन)</div>
<div style="text-align: justify;">
ड्यूक की विनम्रता का हाल यह था कि 1965 में उनका नाम पुलिट्ज़र पुरस्कार के लिए प्रस्तावित किया गया, मगर चयन समिति ने उसे ख़ारिज कर दिया. ड्यूक तब तक बड़े पैमाने पर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके थे. पुरस्कार न मिलने पर उन्होंने बस इतना कहा, " क़िस्मत ने मुझ पर दया की है. वह नहीं चाहती कि मैं कम उमर में बहुत मशहूर हो जाऊं." यह तब जब अगले ही साल उन्हें ग्रैमी का लाइफ़टाइम उपलब्धि पुरस्कार दिया गया. इस भूल को सुधारने का मौक़ा पुलिट्ज़र पुरस्कार की चयन समिति को 1999 में मिला जब ड्यूक की जन्म-शताब्दी के अवसर पर उन्हें विशेष पुलिट्ज़र पुरस्कार से सम्मानित किया गया. ड्यूक एलिंग्टन का देहान्त 1974 में अपने पचहत्तरवें जन्मदिन के कुछ हे समय बाद हुआ. उनके आख़िरी शब्द थे "यह संगीत ही है कि मैं कैसे जीता हूं, क्यों जीता हूं और मैं कैसे याद किया जाऊंगा." </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/tB7aBVPoFAw (स्वौम्पी रिवर -- 1928 -- एकल )</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: right;">
<b>(जारी)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-11961030948179706662015-02-22T02:54:00.002-08:002015-02-22T03:00:37.213-08:00जैज़ संगीत पर एक लम्बा आलेख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<span style="font-size: x-large;"><span style="color: #cc0000;">चट्टानी जीवन का संगीत</span> </span><br />
<br />
<b>चौदहवीं कड़ी</b><br />
<br />
<br />
<br />
17.<br />
<div style="text-align: right;">
<i>जब मैं ने हौक को सुना मैंने लम्बे राग बजाना सीखा</i></div>
<div style="text-align: right;">
<i>-- माइल्स डेविस </i></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
कोलमैन हॉकिन्स (1904-69) से पहले हालांकि कुछ लोग टेनर सैक्सोफ़ोन बजाते थे, लेकिन इस वाद्य को जैज़ के वाद्यों की पहली पांतमें जगह नहीं मिली थी. कोलमैन हौकिन्स ने ही सबसे पहले इस वाद्य पर महारत हासिल करके उसे जैज़ की क़तारों में शामिल कराया. इसीलिए उनके साथी सैक्सोफ़ोन वादक लेस्टर यंग ने -- जिन्हें सब "प्रेज़िडेन्ट" (राष्ट्रपति) का छोटा रूप "प्रेज़" कह कर बुलाते थे -- 1959 में "द जैज़ रिव्यू" को दिये गये एक इन्टर्व्यू में कहा -- "जहां तक मेरा सवाल है, मेरे ख़याल में कोलमैन हौकिन्स ही राष्ट्रपति थे पहले, ठीक ? रहा मैं, तो मैं दूसरा था." आगे चल कर सुप्रसिद्ध सैक्सोफ़ोन वादक माइल्स डेविस ने कहा -- "जब मैं ने हौक को सुना मैंने लम्बे राग बजाना सीखा."</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कोलमैन हौकिन्स हालांकि मिसूरी में पैदा हुए थे, पर उनकी पढ़ाई-लिखाई शिकागो और कैनसास में हुई. शुरू-शुरू में वे पियानो और चेलो बजाते थे, लेकिन जल्दी ही लगभग नौ-दस साल की उमर से वे सैक्सोफ़ोन बजाने लगे. चौदह तक पहुंचते-पहुंचते वे पूर्वी कैनसास में जैज़ मण्डलियों में बजाने लगे थे. हौकिन्स को उनका पहला बड़ा मौक़ा मैमी स्मिथ के जैज़ हाउण्ड्स नामक बैण्ड में मिला और वे 1921 से 23 तक उसी बैण्ड के साथ रहे और फिर न्यू यौर्क चले आये. यहां आ कर हौकिन्स फ़्लेचर हेण्डर्सन की मण्डली में शामिल हो गये और अगले दस साल तक उसी के साथ रहे. कभी-कभीए वे क्लैरिनेट और बेस सैक्सोफ़ोन भी बजाते. हौकिन्स के जीवन में सब से बड़ा मोड़ तब आया जब लूई आर्मस्ट्रौंग 1924-25 के आस-पास न्यू यौर्क आ कर फ़्लेचर हेण्डर्सन के बैण्ड से जुड़ गये. ज़ाहिर है, दो बड़े संगीतकारों का यह मेल नयी दिशाएं खोलने वाला था और इस दौरान कोलमैन हौकिन्स की वादन शैली में ज़बर्दस्त बदलाव आया. ख़ुद एक प्रतिभाशाली संगीतकार होने के अलावा हौकिन्स में दूसरी प्रतिभाओं को पहचानने का गुण भी था. समय-समय पर आर्मस्ट्रौंग, ड्यूक एलिंग्टन, जैंगो राइनहार्ट और बेनी कार्टर जैसे वादकों के साथ जैज़ बजाने के साथ-साथ उन्होंने लेस्टर यंग, माइल्स डेविस, थेलोनियस मंक और मैक्स रोच जैसे युवा जैज़ संगीतकारों को प्रेरित-प्रभावित भी किया. 1934-39 के बीच लम्बे अर्से तक वे अमरीका के बाहर यूरोप का भी दौरा करते रहे. 1939 में अमरीका लौटने पर उन्होंने अपना प्रसिद्ध रिकौर्ड "बौडी ऐण्ड सोल" (देह और आत्मा) जारी किया जो एक मील का पत्थर बन गया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/zUFg6HvljDE ("बौडी ऐण्ड सोल" )</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>१९४० के आस-पास उन्होंने जैज़ की ही एक शैली "स्विंग" और फिर "बीबौप" में जम कर प्रयोग किये. हालांकि कुछ आगे चल कर लेस्टर यंग और चार्ली पार्कर जिस तरह सूझ और उपज के साथ बजाने लगे थे उससे लगता था कि कोलमैन हौकिन्स पुराने पड़ गये हैं. मगर यह हौकिन्स का कमाल था कि वे नयी-से-नयी शैली को अपनाने के लिए तैयार रहते थे और जल्दी ही उन्होंने डिज़ी गिलिस्पी के साथ "स्विंग" और "बीबौप" का जादू जगाना शुरू कर दिया था. आज अगर जैज़ में सैक्सोफ़ोने एक अनिवार्य वाद्य बन चुका है तो इसके पीछे कोलमैन हौकिन्स की बहुत बड़ी भूमिका है.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सन तीस के दशक में एक ओर तो जैज़ के क्षेत्र में नयी-नयी प्रतिभाएँ उभर कर सामने आ रही थीं, दूसरी ओर इन नयी प्रतिभाओं के बीच अपनी सहयोग की एक अद्भुत भावना भी पनप रही थी। कूटी विलियम्स, जॉनी हॉजेस, बैनी कार्टर, रे नैंस, लॉरेन्स ब्राउन -- ये कुछ प्रमुख संगीतकार थे, जो अपने-अपने फ़न के माहिर होने के साथ एक-दूसरे से मिल कर संगीत सभाओं में भाग लिया करते थे। उन दिनों लुई आर्मस्ट्रौंग और कोलमैन हॉकिन्स के अलावा जो संगीतकार संगीत-प्रेमियों को अपनी मौलिक प्रतिभा से मुग्ध कर रहा था -- उसका नाम है ड्यूक एलिंग्टन। उसी ज़माने का एक किस्सा याद करते हुए कोलमैन हाकिन्स ने बताया कि एक दिन ड्यूक एलिंग्टन आये और कहने लगे कि मैं चाहता हूँ तुम मेरे साथ मिल कर एक रिकॉर्ड तैयार करो। मैं पियानो बजाऊँगा, तुम सैक्सोफ़ोन सँभालो। धुन मैं तैयार करूँगा। कोलमैन हॉकिन्स ने फ़ौरन हामी भर दी लेकिन इन दोनों संगीतकारों को मिल-बैठने में बीस बरस लग गये। फिर सन 1962 में एक इन्टरव्र्यू के दौरान कोलमैन हॉकिन्स ने इस घटना का ज़िक्र किया तो इन दोनों के इकट्ठा होने की नौबत आयी। और तब दोनों ने मिल कर जो रिकॉर्ड तैयार किया -- लिम्बो जैज़ -- उसने जैज़ की दुनिया में एकबारगी तहलका मचा दिया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/rN6UlJEXySY (लिम्बो जैज़)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>लेकिन यह काफ़ी समय बाद की बात है। सन तीस के दशक में तो ड्यूक एलिंग्टन ख़ुद अपनी मण्डली को जमाने में जुटे हुए थे और कोलमैन हॉकिन्स अकेले दम अपनी प्रतिभा का सिक्का मनवाने की कोशिश कर रहे थे। 1933 में ही उन्होंने कुछ शानदार मिसालें कायम कर दी थीं जिनमें से ‘होकस पोकस’ शीर्षक से की गयी रचना बहुत मशहूर हुई।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/DCAWyZk8lNY (होकस पोकस)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वैसे, बहुत-से लोग सन 30 के दशक के मध्य से ले कर 40 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों तक के समय को ‘स्विंग म्यूज़िक’ के युग के नाम से याद करते हैं। लेकिन ‘स्विंग म्यूज़िक का युग’ दरअसल कोई मायने नहीं रखता। इस दौर में बस हुआ यह कि संगीत का मोर्चा कुछ देर के लिए बड़े-बड़े बैण्डों ने सँभाल लिया। इनमें से ज़्यादातर बैण्ड गोरे संगीतकारों के थे और प्रचार भी इनका ज़्यादा हुआ, जैसे बेनी गुडमैन का, जिनका रिकॉर्ड ‘स्टॉम्पिंग ऐट द सैवॉय’ एक ज़माने में बहुत लोकप्रिय हुआ था। मगर बहत-से दूसरे बैण्ड ख़ालिस तौर पर नीग्रो संगीतकारों के थे, जिनमें काउण्ट बेसी का ऑकैस्ट्रा और ड्यूक एलिंग्टन के बैण्ड काफ़ी मशहूर हुए।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
18.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<i> बैण्ड सचमुच मस्ती में झूम सकता है, जब आप इस तरह सबका साथ निभा सकें </i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मानो आप मक्खन को छुरी से काट रहे हों.</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>-- काउण्ट बेसी</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस बीच जैज़ का दायरा न्यू ऑर्लीन्स और शिकागो से बढ़ कर अमरीका के अन्य शहरों तक फैल गया था। काउण्ट बेसी अमरीका के कैन्सस सिटी नामक नगर की देन थे। काउण्ट बेसी को कैन्सस सिटी से निकल कर अपनी प्रतिभा का चमत्कार दिखाने का मौका कब मिला, इसका जैज़ संगीत के इतिहास में कोई उल्लेख नहीं है, न ही इस बात का ज़िक्र है कि काउण्ट बेसी ने जैज़ के एक और मशहूर संगीतकार बेनी कार्टर की संगत कब शुरू की, मगर इतना तय है कि सन 40-41 के आस-पास ये दोनों कलाकार मिल कर जैज़ संगीत में नयी धारा बहाने में मशग़ूल थे। शायद इसी शुरू की संगत का असर था कि वर्षों बाद जब सन 1961 में बेनी कार्टर ने काउण्ट बेसी के साथ मिल कर धुनों के संकलन का एक मशहूर रिकॉर्ड तैयार किया तो उसका नाम काउण्ट बेसी के अपने शहर के नाम पर रखा -- ‘कैन्सस सिटी सुईट’।</div>
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<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/HtzbK_ByFG8 (कैन्सस सिटी के बारे में)</div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/3Pgmb0Y9nGc (कैन्सस सिटी सेवेन) </div>
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<div style="text-align: justify;">
अपने शुरू के दिनों में काउण्ट बेसी कैन्सस सिटी के मशहूर रेनो क्लब में पियानो बजाया करते थे और यह अकारण नहीं कि इस रिकार्ड की एक धुन का नाम है -- ‘राम्पिन ऐट द रेनो’ -- यानी रेनो क्लब की धमा चौकड़ी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/GGomvd__bqU (राम्पिन ऐट द रेनो)</div>
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बात यह थी कि न्यू और्लीन्ज़ और शिकागो से होते हुए जैज़ संगीत की शाखाएं न्यू यौर्क, न्यू जर्सी और दूसरी बहुत-सी छोटी-बड़ी जगहों पर भी फैलने लगी थीं और जब कैनसस सिटी के दरवाज़े मनोरंजन की दुनिया के लिए खोल दिये गये तो जुआघरों, शराबख़ानों और वेश्यालयों के साथ-साथ क्लबों के लिए भी जगह बन गयी और ऐसी हालत में उत्तर-दक्षिण-पूरब-पच्छिम से संगीत-मण्डलियां, बड़े-बड़े बैण्ड और संगीतकार आ कर कैनसस सिटी में इकट्ठा होने लगे. काउण्ट बेसी का नाम इन में प्रमुख था.</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>विलियम जेम्स "काउण्ट" बेसी का जन्म न्यू जर्सी के रेड बैंक नामक गांव में हुआ था. माता-पिता, दोनों संगीत-प्रेमी थे, मां पियानो बजाती थीं और उन्हीं से काउण्ट बेसी को पियानो के शुरुआती सबक भी मिले. स्कूल में बेसी पढ़ने-लिखने की बजाय यात्राओं के सपने लेते. उन पर उन घुमन्तू मेलों का असर था जो उनके कस्बे में आया करते. हाई स्कूल की दहलीज़ लांघने के बाद काउण्ट बेसी रेड बैंक के पैलेस थियेटर में काफी समय गुज़ारते जहां छिट्पुट काम करने के एवज़ में उन्हें मुफ़्त में कार्यक्रम देखने-सुनने को मिल जाते. उन्होंने जल्दी ही मंच पर चल रहे कार्यक्रमों और मूक फ़िल्मों के साथ बजने वाले उपयुक्त संगीत को रचना सीख लिया. हालांकि पियानो बजाने में उन्हें स्वाभाविक रूप से महारत हासिल थी, बेसी ने ड्रम बजाना पसन्द किया, लेकिन अपने ही कस्बे में रहने वाले सनी ग्रियर की प्रतिभा से हतोत्साह हो कर, जो आगे चल कर ड्यूक एलिंग्टन के बैण्ड में शामिल हुए, काउण्ट बेसी ने पन्द्रह साल की उमर में पूरी तरह पियानो पर ही ध्यान लगाया. फिर बेसी और ग्रियर वहीं रेड बैंक में अलग-अलग कार्यक्रमों में साथ-साथ पियानो और ड्रम बजाते रहे, जब तक कि ग्रियर अपने व्यावसायिक जीवन के सिलसिले में रेड बैंक से चले नहीं गये. इसके बाद कुछ साल वहीं अपने पर तोलने के बाद 1920 के आस-पास काउण्ट बेसी हार्लेम चले गये, हार्लेम में, जो जैज़ संगीत का गढ़ बनता जा रहा था, बेसी अल्हम्ब्रा थियेटर के पास रहते थे और जैज़ संगीतकारों से अक्सर उनका मिलना-जुलना होता. सनी ग्रियर भी वहीं थे. धीरे-धीरे सोलह वर्षीय बेसी संगीत की बारीकियां सीखने लगे और सीखने का इससे बेहतर तरीका और क्या होता कि जो भी मौका मिले उसे थाम लो, बीस साल की उमर तक वे बैण्डों के साथ और एकल रूप में भी कैन्सस सिटी, सेंट लुई, न्यू और्लीन्ज़ और शिकागो तक दौरे कर आये थे. इस विविध रूपी काम में उन्हें जो अनुभव मिल रहा था वह आगे चल कर उनके बहुत काम आने वाला था. 1925 में हार्लेम लौट कर बेसी को पहला स्थायी काम लेरौय’ज़ नामक जगह में मिला जो अपने पियानो वादकों के लिए जानी जाती थी. यहीं बेसी की मुलाकात फ़ैट्स वौलर से हुई और उन्होंने और्गन बजाना भी सीख लिया, जिसे वे बाद में कैन्सस सिटी के एबलोन थियेटर और फिर ड्यूक एलिंग्टन के बैण्ड में भी बजाने वाले थे.</div>
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http://youtu.be/iBDMTT_GVeU?list=PLwF7H2q48PPMT2FuxFczAapwlJbE4yjWv (वन ओ क्लौक जम्प)</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>1928 में बेसी टुल्सा में थे जब उन्होंने वौल्टर पेज और उनके बैण्ड को सुना. कुछ महीनों के बाद उन्हें भी उस बैण्ड में शामिल होने का मौका मिला और उनके वादन को सुन कर पहली बार लोग उन्हें "काउण्ट" कहने लगे. अगले ही साल बेसी कैन्सस सिटी चले आये और बेनी मोटेन के बैण्ड मे शामिल हो गये. मोटेन की हसरत ड्यूक एलिंग्टन या फ़्लेचर हेण्डरसन जैसा बैण्ड कायम करने की थी. मोटेन थे भी काफी प्रतिष्ठित और 1935 तक बेसी और मोटेन का साथ तमाम तरह के उतार-चढ़ाव के बीच बना रहा. 1935 में मोटेन की मौत के बाद, बेसी ने एक नया बैण्ड कायम किया, जिसमें मोटेन के कई सद्स्य शामिल थे. 1936 के अन्त में काउण्ट बेसी कैन्सस सिटी से शिकागो आ गये और पहली बार उनके बैण्ड "काउण्ट बेसी ऐण्ड हिज़ बैरन्स औफ़ रिदम" ने जैज़ संगीत की दुनिया में अपना सिक्का मनवाना शुरू कर दिया. शुरू ही से बेसी और उनका बैण्ड अपनी लय-ताल के लिए जाना जाता था. बेसी ने एक और नया प्रयोग यह किया कि वे दो टेनर सैक्सोफ़ोन वादकों को औल्टो वादकों के अगल-बगल रखने लगे. इससे जो होड़ और मुकाबले का समां बंधने लगा उसने दूसरे बैण्डों को भी यह हिकमत आज़माने की प्रेरणा दी. इस बीच उनके संगीत के रिकौर्ड भी बनने लगे थे. </div>
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http://youtu.be/Rxg_kA6YaYk?list=PLwF7H2q48PPMT2FuxFczAapwlJbE4yjWv (स्विंगिंग द ब्लूज़ 1938)</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एक बार काउण्ट बेसी ने अपना सिक्का जमा दिया तो फिर गाड़ी चल निकली. शहरों के नाम एक के बाद एक गुज़रने लगे. न्यू यौर्क में बेसी अनेक ब्लूज़ गायकों के सम्पर्क में आये बिली हौलिडे, जिमी रशिंग, बिग जो टर्नर, हेलेन ह्यूम्ज़ और जो विलियम्स जैसी प्रतिभाएं. यही नहीं, बेसी ने कुछ जाने-माने हौलिवुड सितारों के साथ भी कार्यक्रम दिये. इसी के साथ बेसी का सम्बन्ध फ़िल्मों से भी हुआ. यह सिलसिला 1958 तक चलता रहा जब काउण्ट बेसी और उनका बैंड अपने पहले यूरोपीय दौरे पर गया. दौरा कामयाब रहा और इसके बाद कार्यक्र्मों की गिनती न रही. अमरीका के पूर्वी तट पर न्यू यौर्क से ले कर पश्चिमी तट पर हौलिवुड और लास वेगास तक -- काउण्ट बेसी संगीत सभाओं, फ़िल्मों और टेलिविजन के कार्यक्रमों में भाग लेते रहे और बड़े-बड़े गायकों के संगतकार बने रहे. यह सिलसिला 1984 में काउण्ट बेसी के देहान्त तक चलता रहा. </div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जैज़ संगीत में यह कहना मुश्किल है कि कौन-सी चीज़ अहम है -- गाना या बजाना. एकदम शुरुआती दौर की गुहारों और कनस्तरों और बैंजो जैसे वाद्यों से ले कर रैग टाइम, ब्लूज़, स्विंग और हिप-हौप की मंज़िलें तय करते हुए जैज़ गायन और जैज़ के वाद्यों ने कई पड़ाव देखे हैं, उसमें कई क़िस्म की शैलियां और वाद्य जुड़े हैं. आज जब जैज़ संगीत की बात होती है तो आम लोगों के मन में या तो ड्रम बजाते ड्रमवादक की छवि उभरती है या सैक्सोफ़ोन पर हिलोरें और झटके लेते सैक्सोफ़ोनवादक की. अक्सर लोग उस वाद्य को नज़रन्दाज़ कर देते हैं जो जैज़ के सारे वाद्यों -- ड्रम, सैक्सोफ़ोन, क्लैरिनेट, ट्रौम्बोन, ट्रम्पेट, गिटार, बेस गिटार और बैंजो आदि -- को जोड़े रहता है, वैसे ही जैसे धागा सारे मनकों को माला की शक्ल में पिरोये रखता है. और यह वाद्य है पियानो जो शायद ड्रम (या उसके बहुत ही कच्चे रूप कनस्तर) और बैंजो के बाद पहला वाद्य था जो जैज़ संगीत के साथ जुड़ा था. दरअसल, अगर संगीत कुल मिला कर सुर-ताल का मामला है तो सुर-ताल के बीच सामंजस्य कायम करने का काम जो वाद्य करता है, वह पियानो है. काउण्ट बेसी की सबसे बड़ी ख़ूबी यही थी कि वे अपने बैण्ड की रीढ़ बने रहे जो अक्सर नज़र नहीं आती, लेकिन ढांचे को खड़ा रखने की भूमिका निभाती है. यही वजह है कि उन्होंने अपने लगभग अस्सी वर्ष के जीवन में न केवल जैज़ के बेगिनती गायकों के साथ संगत की, बल्कि अनेक वादकों को भी पियानो के पीछे बैठे-बैठे वह फलक मुहैया कराया, जिस पर वे अपने सुरों की कारीगरी दिखा सकें. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>काउण्ट बेसी ने सुनने वालों की कई पीढ़ियों को बड़े बैण्ड के संगीत से परिचित कराया. वे बहुत-से जैज़ संगीतकारों के विपरीत विनम्र और किसी हद तक संकोची कलाकार थे, तनावरहित, मज़ा लेने वाले और हमेशा अपने संगीत लो ले कर उत्साह से भरे हुए. उन्होंने लिखा है ,"मेरे ख़याल से बैण्ड सचमुच मस्ती में झूम सकता है अगर वह बिना झटकों के झूम सके, जब आप इस तरह अपने वाद्य को बजाते हुए सबका साथ निभा सकें मानो आप मक्खन को छुरी से काट रहे हों."</div>
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<br /></div>
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http://youtu.be/gMko51An5JU (काउण्ट बेसी -- पैरिस में -- 1981)</div>
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<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आज जब काउण्ट बेसी की फ़ेहरिस्त को हम देखते हैं तो हैरत होती है. बिली हौलिडे से ले कर जो जोन्स, जिमी रशिंग, एला फ़िट्ज़जेरल्ड, फ़्रैंक सिनाट्रा, सैमी डेविस जूनियर, बिंग क्रौसबी और सारा वौहन जैसे नामी गायकों के साथ काउण्ट बेसी का लम्बा सम्बन्ध रहा और यह संगीत सभाओं से लेकर रिकौर्ड बनाने वाली कम्पनियों और फ़िल्मों औत टेलिविजन तक हर क़िस्म की संगत का रहा. यही हाल वादकों का भी था. बस उनकी सबसे बड़ी निराशा यह रही कि वे कभी लुई आर्मस्ट्रौंग की संगत नहीं कर सके. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस विनम्र कलाकार को सबसे बड़ा ख़िराज उनके देहान्त के बाद दिया गया. रेड बैंक में एक थियेटर हौल और एक मैदान को तो उनका नाम दिया ही गया, 2009 में न्यू यौर्क की एजकोम्ब ऐवेन्यू और 160वीं सड़क का नाम बदल कर दो महान संगीतकारों पर रखा गया. एजकोम्ब ऐवेन्यू को पौल रोबसन बूलेवार और 160वीं सड़क का नाम काउण्ट बेसी प्लेस रखा गया.</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: right;">
<b>(जारी)</b></div>
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Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-35768153256348293272015-02-22T02:53:00.001-08:002015-02-22T03:00:49.236-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत </span><br />
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<b>चौदहवीं कड़ी</b><br />
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17.<br />
<div style="text-align: right;">
<i>जब मैं ने हौक को सुना मैंने लम्बे राग बजाना सीखा</i></div>
<div style="text-align: right;">
<i>-- माइल्स डेविस </i></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
कोलमैन हॉकिन्स (1904-69) से पहले हालांकि कुछ लोग टेनर सैक्सोफ़ोन बजाते थे, लेकिन इस वाद्य को जैज़ के वाद्यों की पहली पांतमें जगह नहीं मिली थी. कोलमैन हौकिन्स ने ही सबसे पहले इस वाद्य पर महारत हासिल करके उसे जैज़ की क़तारों में शामिल कराया. इसीलिए उनके साथी सैक्सोफ़ोन वादक लेस्टर यंग ने -- जिन्हें सब "प्रेज़िडेन्ट" (राष्ट्रपति) का छोटा रूप "प्रेज़" कह कर बुलाते थे -- 1959 में "द जैज़ रिव्यू" को दिये गये एक इन्टर्व्यू में कहा -- "जहां तक मेरा सवाल है, मेरे ख़याल में कोलमैन हौकिन्स ही राष्ट्रपति थे पहले, ठीक ? रहा मैं, तो मैं दूसरा था." आगे चल कर सुप्रसिद्ध सैक्सोफ़ोन वादक माइल्स डेविस ने कहा -- "जब मैं ने हौक को सुना मैंने लम्बे राग बजाना सीखा."</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कोलमैन हौकिन्स हालांकि मिसूरी में पैदा हुए थे, पर उनकी पढ़ाई-लिखाई शिकागो और कैनसास में हुई. शुरू-शुरू में वे पियानो और चेलो बजाते थे, लेकिन जल्दी ही लगभग नौ-दस साल की उमर से वे सैक्सोफ़ोन बजाने लगे. चौदह तक पहुंचते-पहुंचते वे पूर्वी कैनसास में जैज़ मण्डलियों में बजाने लगे थे. हौकिन्स को उनका पहला बड़ा मौक़ा मैमी स्मिथ के जैज़ हाउण्ड्स नामक बैण्ड में मिला और वे 1921 से 23 तक उसी बैण्ड के साथ रहे और फिर न्यू यौर्क चले आये. यहां आ कर हौकिन्स फ़्लेचर हेण्डर्सन की मण्डली में शामिल हो गये और अगले दस साल तक उसी के साथ रहे. कभी-कभीए वे क्लैरिनेट और बेस सैक्सोफ़ोन भी बजाते. हौकिन्स के जीवन में सब से बड़ा मोड़ तब आया जब लूई आर्मस्ट्रौंग 1924-25 के आस-पास न्यू यौर्क आ कर फ़्लेचर हेण्डर्सन के बैण्ड से जुड़ गये. ज़ाहिर है, दो बड़े संगीतकारों का यह मेल नयी दिशाएं खोलने वाला था और इस दौरान कोलमैन हौकिन्स की वादन शैली में ज़बर्दस्त बदलाव आया. ख़ुद एक प्रतिभाशाली संगीतकार होने के अलावा हौकिन्स में दूसरी प्रतिभाओं को पहचानने का गुण भी था. समय-समय पर आर्मस्ट्रौंग, ड्यूक एलिंग्टन, जैंगो राइनहार्ट और बेनी कार्टर जैसे वादकों के साथ जैज़ बजाने के साथ-साथ उन्होंने लेस्टर यंग, माइल्स डेविस, थेलोनियस मंक और मैक्स रोच जैसे युवा जैज़ संगीतकारों को प्रेरित-प्रभावित भी किया. 1934-39 के बीच लम्बे अर्से तक वे अमरीका के बाहर यूरोप का भी दौरा करते रहे. 1939 में अमरीका लौटने पर उन्होंने अपना प्रसिद्ध रिकौर्ड "बौडी ऐण्ड सोल" (देह और आत्मा) जारी किया जो एक मील का पत्थर बन गया. </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/zUFg6HvljDE ("बौडी ऐण्ड सोल" )</div>
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<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>१९४० के आस-पास उन्होंने जैज़ की ही एक शैली "स्विंग" और फिर "बीबौप" में जम कर प्रयोग किये. हालांकि कुछ आगे चल कर लेस्टर यंग और चार्ली पार्कर जिस तरह सूझ और उपज के साथ बजाने लगे थे उससे लगता था कि कोलमैन हौकिन्स पुराने पड़ गये हैं. मगर यह हौकिन्स का कमाल था कि वे नयी-से-नयी शैली को अपनाने के लिए तैयार रहते थे और जल्दी ही उन्होंने डिज़ी गिलिस्पी के साथ "स्विंग" और "बीबौप" का जादू जगाना शुरू कर दिया था. आज अगर जैज़ में सैक्सोफ़ोने एक अनिवार्य वाद्य बन चुका है तो इसके पीछे कोलमैन हौकिन्स की बहुत बड़ी भूमिका है.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span></div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सन तीस के दशक में एक ओर तो जैज़ के क्षेत्र में नयी-नयी प्रतिभाएँ उभर कर सामने आ रही थीं, दूसरी ओर इन नयी प्रतिभाओं के बीच अपनी सहयोग की एक अद्भुत भावना भी पनप रही थी। कूटी विलियम्स, जॉनी हॉजेस, बैनी कार्टर, रे नैंस, लॉरेन्स ब्राउन -- ये कुछ प्रमुख संगीतकार थे, जो अपने-अपने फ़न के माहिर होने के साथ एक-दूसरे से मिल कर संगीत सभाओं में भाग लिया करते थे। उन दिनों लुई आर्मस्ट्रौंग और कोलमैन हॉकिन्स के अलावा जो संगीतकार संगीत-प्रेमियों को अपनी मौलिक प्रतिभा से मुग्ध कर रहा था -- उसका नाम है ड्यूक एलिंग्टन। उसी ज़माने का एक किस्सा याद करते हुए कोलमैन हाकिन्स ने बताया कि एक दिन ड्यूक एलिंग्टन आये और कहने लगे कि मैं चाहता हूँ तुम मेरे साथ मिल कर एक रिकॉर्ड तैयार करो। मैं पियानो बजाऊँगा, तुम सैक्सोफ़ोन सँभालो। धुन मैं तैयार करूँगा। कोलमैन हॉकिन्स ने फ़ौरन हामी भर दी लेकिन इन दोनों संगीतकारों को मिल-बैठने में बीस बरस लग गये। फिर सन 1962 में एक इन्टरव्र्यू के दौरान कोलमैन हॉकिन्स ने इस घटना का ज़िक्र किया तो इन दोनों के इकट्ठा होने की नौबत आयी। और तब दोनों ने मिल कर जो रिकॉर्ड तैयार किया -- लिम्बो जैज़ -- उसने जैज़ की दुनिया में एकबारगी तहलका मचा दिया।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/rN6UlJEXySY (लिम्बो जैज़)</div>
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<br /></div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>लेकिन यह काफ़ी समय बाद की बात है। सन तीस के दशक में तो ड्यूक एलिंग्टन ख़ुद अपनी मण्डली को जमाने में जुटे हुए थे और कोलमैन हॉकिन्स अकेले दम अपनी प्रतिभा का सिक्का मनवाने की कोशिश कर रहे थे। 1933 में ही उन्होंने कुछ शानदार मिसालें कायम कर दी थीं जिनमें से ‘होकस पोकस’ शीर्षक से की गयी रचना बहुत मशहूर हुई।</div>
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<br /></div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वैसे, बहुत-से लोग सन 30 के दशक के मध्य से ले कर 40 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों तक के समय को ‘स्विंग म्यूज़िक’ के युग के नाम से याद करते हैं। लेकिन ‘स्विंग म्यूज़िक का युग’ दरअसल कोई मायने नहीं रखता। इस दौर में बस हुआ यह कि संगीत का मोर्चा कुछ देर के लिए बड़े-बड़े बैण्डों ने सँभाल लिया। इनमें से ज़्यादातर बैण्ड गोरे संगीतकारों के थे और प्रचार भी इनका ज़्यादा हुआ, जैसे बेनी गुडमैन का, जिनका रिकॉर्ड ‘स्टॉम्पिंग ऐट द सैवॉय’ एक ज़माने में बहुत लोकप्रिय हुआ था। मगर बहत-से दूसरे बैण्ड ख़ालिस तौर पर नीग्रो संगीतकारों के थे, जिनमें काउण्ट बेसी का ऑकैस्ट्रा और ड्यूक एलिंग्टन के बैण्ड काफ़ी मशहूर हुए।</div>
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<br /></div>
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18.</div>
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<br /></div>
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<i> बैण्ड सचमुच मस्ती में झूम सकता है, जब आप इस तरह सबका साथ निभा सकें </i></div>
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<i>मानो आप मक्खन को छुरी से काट रहे हों.</i></div>
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<i>-- काउण्ट बेसी</i></div>
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इस बीच जैज़ का दायरा न्यू ऑर्लीन्स और शिकागो से बढ़ कर अमरीका के अन्य शहरों तक फैल गया था। काउण्ट बेसी अमरीका के कैन्सस सिटी नामक नगर की देन थे। काउण्ट बेसी को कैन्सस सिटी से निकल कर अपनी प्रतिभा का चमत्कार दिखाने का मौका कब मिला, इसका जैज़ संगीत के इतिहास में कोई उल्लेख नहीं है, न ही इस बात का ज़िक्र है कि काउण्ट बेसी ने जैज़ के एक और मशहूर संगीतकार बेनी कार्टर की संगत कब शुरू की, मगर इतना तय है कि सन 40-41 के आस-पास ये दोनों कलाकार मिल कर जैज़ संगीत में नयी धारा बहाने में मशग़ूल थे। शायद इसी शुरू की संगत का असर था कि वर्षों बाद जब सन 1961 में बेनी कार्टर ने काउण्ट बेसी के साथ मिल कर धुनों के संकलन का एक मशहूर रिकॉर्ड तैयार किया तो उसका नाम काउण्ट बेसी के अपने शहर के नाम पर रखा -- ‘कैन्सस सिटी सुईट’।</div>
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http://youtu.be/HtzbK_ByFG8 (कैन्सस सिटी के बारे में)</div>
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http://youtu.be/3Pgmb0Y9nGc (कैन्सस सिटी सेवेन) </div>
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अपने शुरू के दिनों में काउण्ट बेसी कैन्सस सिटी के मशहूर रेनो क्लब में पियानो बजाया करते थे और यह अकारण नहीं कि इस रिकार्ड की एक धुन का नाम है -- ‘राम्पिन ऐट द रेनो’ -- यानी रेनो क्लब की धमा चौकड़ी।</div>
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http://youtu.be/GGomvd__bqU (राम्पिन ऐट द रेनो)</div>
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बात यह थी कि न्यू और्लीन्ज़ और शिकागो से होते हुए जैज़ संगीत की शाखाएं न्यू यौर्क, न्यू जर्सी और दूसरी बहुत-सी छोटी-बड़ी जगहों पर भी फैलने लगी थीं और जब कैनसस सिटी के दरवाज़े मनोरंजन की दुनिया के लिए खोल दिये गये तो जुआघरों, शराबख़ानों और वेश्यालयों के साथ-साथ क्लबों के लिए भी जगह बन गयी और ऐसी हालत में उत्तर-दक्षिण-पूरब-पच्छिम से संगीत-मण्डलियां, बड़े-बड़े बैण्ड और संगीतकार आ कर कैनसस सिटी में इकट्ठा होने लगे. काउण्ट बेसी का नाम इन में प्रमुख था.</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>विलियम जेम्स "काउण्ट" बेसी का जन्म न्यू जर्सी के रेड बैंक नामक गांव में हुआ था. माता-पिता, दोनों संगीत-प्रेमी थे, मां पियानो बजाती थीं और उन्हीं से काउण्ट बेसी को पियानो के शुरुआती सबक भी मिले. स्कूल में बेसी पढ़ने-लिखने की बजाय यात्राओं के सपने लेते. उन पर उन घुमन्तू मेलों का असर था जो उनके कस्बे में आया करते. हाई स्कूल की दहलीज़ लांघने के बाद काउण्ट बेसी रेड बैंक के पैलेस थियेटर में काफी समय गुज़ारते जहां छिट्पुट काम करने के एवज़ में उन्हें मुफ़्त में कार्यक्रम देखने-सुनने को मिल जाते. उन्होंने जल्दी ही मंच पर चल रहे कार्यक्रमों और मूक फ़िल्मों के साथ बजने वाले उपयुक्त संगीत को रचना सीख लिया. हालांकि पियानो बजाने में उन्हें स्वाभाविक रूप से महारत हासिल थी, बेसी ने ड्रम बजाना पसन्द किया, लेकिन अपने ही कस्बे में रहने वाले सनी ग्रियर की प्रतिभा से हतोत्साह हो कर, जो आगे चल कर ड्यूक एलिंग्टन के बैण्ड में शामिल हुए, काउण्ट बेसी ने पन्द्रह साल की उमर में पूरी तरह पियानो पर ही ध्यान लगाया. फिर बेसी और ग्रियर वहीं रेड बैंक में अलग-अलग कार्यक्रमों में साथ-साथ पियानो और ड्रम बजाते रहे, जब तक कि ग्रियर अपने व्यावसायिक जीवन के सिलसिले में रेड बैंक से चले नहीं गये. इसके बाद कुछ साल वहीं अपने पर तोलने के बाद 1920 के आस-पास काउण्ट बेसी हार्लेम चले गये, हार्लेम में, जो जैज़ संगीत का गढ़ बनता जा रहा था, बेसी अल्हम्ब्रा थियेटर के पास रहते थे और जैज़ संगीतकारों से अक्सर उनका मिलना-जुलना होता. सनी ग्रियर भी वहीं थे. धीरे-धीरे सोलह वर्षीय बेसी संगीत की बारीकियां सीखने लगे और सीखने का इससे बेहतर तरीका और क्या होता कि जो भी मौका मिले उसे थाम लो, बीस साल की उमर तक वे बैण्डों के साथ और एकल रूप में भी कैन्सस सिटी, सेंट लुई, न्यू और्लीन्ज़ और शिकागो तक दौरे कर आये थे. इस विविध रूपी काम में उन्हें जो अनुभव मिल रहा था वह आगे चल कर उनके बहुत काम आने वाला था. 1925 में हार्लेम लौट कर बेसी को पहला स्थायी काम लेरौय’ज़ नामक जगह में मिला जो अपने पियानो वादकों के लिए जानी जाती थी. यहीं बेसी की मुलाकात फ़ैट्स वौलर से हुई और उन्होंने और्गन बजाना भी सीख लिया, जिसे वे बाद में कैन्सस सिटी के एबलोन थियेटर और फिर ड्यूक एलिंग्टन के बैण्ड में भी बजाने वाले थे.</div>
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http://youtu.be/iBDMTT_GVeU?list=PLwF7H2q48PPMT2FuxFczAapwlJbE4yjWv (वन ओ क्लौक जम्प)</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>1928 में बेसी टुल्सा में थे जब उन्होंने वौल्टर पेज और उनके बैण्ड को सुना. कुछ महीनों के बाद उन्हें भी उस बैण्ड में शामिल होने का मौका मिला और उनके वादन को सुन कर पहली बार लोग उन्हें "काउण्ट" कहने लगे. अगले ही साल बेसी कैन्सस सिटी चले आये और बेनी मोटेन के बैण्ड मे शामिल हो गये. मोटेन की हसरत ड्यूक एलिंग्टन या फ़्लेचर हेण्डरसन जैसा बैण्ड कायम करने की थी. मोटेन थे भी काफी प्रतिष्ठित और 1935 तक बेसी और मोटेन का साथ तमाम तरह के उतार-चढ़ाव के बीच बना रहा. 1935 में मोटेन की मौत के बाद, बेसी ने एक नया बैण्ड कायम किया, जिसमें मोटेन के कई सद्स्य शामिल थे. 1936 के अन्त में काउण्ट बेसी कैन्सस सिटी से शिकागो आ गये और पहली बार उनके बैण्ड "काउण्ट बेसी ऐण्ड हिज़ बैरन्स औफ़ रिदम" ने जैज़ संगीत की दुनिया में अपना सिक्का मनवाना शुरू कर दिया. शुरू ही से बेसी और उनका बैण्ड अपनी लय-ताल के लिए जाना जाता था. बेसी ने एक और नया प्रयोग यह किया कि वे दो टेनर सैक्सोफ़ोन वादकों को औल्टो वादकों के अगल-बगल रखने लगे. इससे जो होड़ और मुकाबले का समां बंधने लगा उसने दूसरे बैण्डों को भी यह हिकमत आज़माने की प्रेरणा दी. इस बीच उनके संगीत के रिकौर्ड भी बनने लगे थे. </div>
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<br /></div>
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http://youtu.be/Rxg_kA6YaYk?list=PLwF7H2q48PPMT2FuxFczAapwlJbE4yjWv (स्विंगिंग द ब्लूज़ 1938)</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एक बार काउण्ट बेसी ने अपना सिक्का जमा दिया तो फिर गाड़ी चल निकली. शहरों के नाम एक के बाद एक गुज़रने लगे. न्यू यौर्क में बेसी अनेक ब्लूज़ गायकों के सम्पर्क में आये बिली हौलिडे, जिमी रशिंग, बिग जो टर्नर, हेलेन ह्यूम्ज़ और जो विलियम्स जैसी प्रतिभाएं. यही नहीं, बेसी ने कुछ जाने-माने हौलिवुड सितारों के साथ भी कार्यक्रम दिये. इसी के साथ बेसी का सम्बन्ध फ़िल्मों से भी हुआ. यह सिलसिला 1958 तक चलता रहा जब काउण्ट बेसी और उनका बैंड अपने पहले यूरोपीय दौरे पर गया. दौरा कामयाब रहा और इसके बाद कार्यक्र्मों की गिनती न रही. अमरीका के पूर्वी तट पर न्यू यौर्क से ले कर पश्चिमी तट पर हौलिवुड और लास वेगास तक -- काउण्ट बेसी संगीत सभाओं, फ़िल्मों और टेलिविजन के कार्यक्रमों में भाग लेते रहे और बड़े-बड़े गायकों के संगतकार बने रहे. यह सिलसिला 1984 में काउण्ट बेसी के देहान्त तक चलता रहा. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जैज़ संगीत में यह कहना मुश्किल है कि कौन-सी चीज़ अहम है -- गाना या बजाना. एकदम शुरुआती दौर की गुहारों और कनस्तरों और बैंजो जैसे वाद्यों से ले कर रैग टाइम, ब्लूज़, स्विंग और हिप-हौप की मंज़िलें तय करते हुए जैज़ गायन और जैज़ के वाद्यों ने कई पड़ाव देखे हैं, उसमें कई क़िस्म की शैलियां और वाद्य जुड़े हैं. आज जब जैज़ संगीत की बात होती है तो आम लोगों के मन में या तो ड्रम बजाते ड्रमवादक की छवि उभरती है या सैक्सोफ़ोन पर हिलोरें और झटके लेते सैक्सोफ़ोनवादक की. अक्सर लोग उस वाद्य को नज़रन्दाज़ कर देते हैं जो जैज़ के सारे वाद्यों -- ड्रम, सैक्सोफ़ोन, क्लैरिनेट, ट्रौम्बोन, ट्रम्पेट, गिटार, बेस गिटार और बैंजो आदि -- को जोड़े रहता है, वैसे ही जैसे धागा सारे मनकों को माला की शक्ल में पिरोये रखता है. और यह वाद्य है पियानो जो शायद ड्रम (या उसके बहुत ही कच्चे रूप कनस्तर) और बैंजो के बाद पहला वाद्य था जो जैज़ संगीत के साथ जुड़ा था. दरअसल, अगर संगीत कुल मिला कर सुर-ताल का मामला है तो सुर-ताल के बीच सामंजस्य कायम करने का काम जो वाद्य करता है, वह पियानो है. काउण्ट बेसी की सबसे बड़ी ख़ूबी यही थी कि वे अपने बैण्ड की रीढ़ बने रहे जो अक्सर नज़र नहीं आती, लेकिन ढांचे को खड़ा रखने की भूमिका निभाती है. यही वजह है कि उन्होंने अपने लगभग अस्सी वर्ष के जीवन में न केवल जैज़ के बेगिनती गायकों के साथ संगत की, बल्कि अनेक वादकों को भी पियानो के पीछे बैठे-बैठे वह फलक मुहैया कराया, जिस पर वे अपने सुरों की कारीगरी दिखा सकें. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>काउण्ट बेसी ने सुनने वालों की कई पीढ़ियों को बड़े बैण्ड के संगीत से परिचित कराया. वे बहुत-से जैज़ संगीतकारों के विपरीत विनम्र और किसी हद तक संकोची कलाकार थे, तनावरहित, मज़ा लेने वाले और हमेशा अपने संगीत लो ले कर उत्साह से भरे हुए. उन्होंने लिखा है ,"मेरे ख़याल से बैण्ड सचमुच मस्ती में झूम सकता है अगर वह बिना झटकों के झूम सके, जब आप इस तरह अपने वाद्य को बजाते हुए सबका साथ निभा सकें मानो आप मक्खन को छुरी से काट रहे हों."</div>
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<br /></div>
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http://youtu.be/gMko51An5JU (काउण्ट बेसी -- पैरिस में -- 1981)</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आज जब काउण्ट बेसी की फ़ेहरिस्त को हम देखते हैं तो हैरत होती है. बिली हौलिडे से ले कर जो जोन्स, जिमी रशिंग, एला फ़िट्ज़जेरल्ड, फ़्रैंक सिनाट्रा, सैमी डेविस जूनियर, बिंग क्रौसबी और सारा वौहन जैसे नामी गायकों के साथ काउण्ट बेसी का लम्बा सम्बन्ध रहा और यह संगीत सभाओं से लेकर रिकौर्ड बनाने वाली कम्पनियों और फ़िल्मों औत टेलिविजन तक हर क़िस्म की संगत का रहा. यही हाल वादकों का भी था. बस उनकी सबसे बड़ी निराशा यह रही कि वे कभी लुई आर्मस्ट्रौंग की संगत नहीं कर सके. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस विनम्र कलाकार को सबसे बड़ा ख़िराज उनके देहान्त के बाद दिया गया. रेड बैंक में एक थियेटर हौल और एक मैदान को तो उनका नाम दिया ही गया, 2009 में न्यू यौर्क की एजकोम्ब ऐवेन्यू और 160वीं सड़क का नाम बदल कर दो महान संगीतकारों पर रखा गया. एजकोम्ब ऐवेन्यू को पौल रोबसन बूलेवार और 160वीं सड़क का नाम काउण्ट बेसी प्लेस रखा गया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: right;">
<b>(जारी)</b></div>
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Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-72119698100610322492015-02-22T02:52:00.001-08:002015-02-22T02:52:42.734-08:00जैज़ संगीत पर एक लम्बा आलेख <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत </span><br />
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<b>चौदहवीं कड़ी</b><br />
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17.<br />
<div style="text-align: right;">
<i>जब मैं ने हौक को सुना मैंने लम्बे राग बजाना सीखा</i></div>
<div style="text-align: right;">
<i>-- माइल्स डेविस </i></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
कोलमैन हॉकिन्स (1904-69) से पहले हालांकि कुछ लोग टेनर सैक्सोफ़ोन बजाते थे, लेकिन इस वाद्य को जैज़ के वाद्यों की पहली पांतमें जगह नहीं मिली थी. कोलमैन हौकिन्स ने ही सबसे पहले इस वाद्य पर महारत हासिल करके उसे जैज़ की क़तारों में शामिल कराया. इसीलिए उनके साथी सैक्सोफ़ोन वादक लेस्टर यंग ने -- जिन्हें सब "प्रेज़िडेन्ट" (राष्ट्रपति) का छोटा रूप "प्रेज़" कह कर बुलाते थे -- 1959 में "द जैज़ रिव्यू" को दिये गये एक इन्टर्व्यू में कहा -- "जहां तक मेरा सवाल है, मेरे ख़याल में कोलमैन हौकिन्स ही राष्ट्रपति थे पहले, ठीक ? रहा मैं, तो मैं दूसरा था." आगे चल कर सुप्रसिद्ध सैक्सोफ़ोन वादक माइल्स डेविस ने कहा -- "जब मैं ने हौक को सुना मैंने लम्बे राग बजाना सीखा."</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कोलमैन हौकिन्स हालांकि मिसूरी में पैदा हुए थे, पर उनकी पढ़ाई-लिखाई शिकागो और कैनसास में हुई. शुरू-शुरू में वे पियानो और चेलो बजाते थे, लेकिन जल्दी ही लगभग नौ-दस साल की उमर से वे सैक्सोफ़ोन बजाने लगे. चौदह तक पहुंचते-पहुंचते वे पूर्वी कैनसास में जैज़ मण्डलियों में बजाने लगे थे. हौकिन्स को उनका पहला बड़ा मौक़ा मैमी स्मिथ के जैज़ हाउण्ड्स नामक बैण्ड में मिला और वे 1921 से 23 तक उसी बैण्ड के साथ रहे और फिर न्यू यौर्क चले आये. यहां आ कर हौकिन्स फ़्लेचर हेण्डर्सन की मण्डली में शामिल हो गये और अगले दस साल तक उसी के साथ रहे. कभी-कभीए वे क्लैरिनेट और बेस सैक्सोफ़ोन भी बजाते. हौकिन्स के जीवन में सब से बड़ा मोड़ तब आया जब लूई आर्मस्ट्रौंग 1924-25 के आस-पास न्यू यौर्क आ कर फ़्लेचर हेण्डर्सन के बैण्ड से जुड़ गये. ज़ाहिर है, दो बड़े संगीतकारों का यह मेल नयी दिशाएं खोलने वाला था और इस दौरान कोलमैन हौकिन्स की वादन शैली में ज़बर्दस्त बदलाव आया. ख़ुद एक प्रतिभाशाली संगीतकार होने के अलावा हौकिन्स में दूसरी प्रतिभाओं को पहचानने का गुण भी था. समय-समय पर आर्मस्ट्रौंग, ड्यूक एलिंग्टन, जैंगो राइनहार्ट और बेनी कार्टर जैसे वादकों के साथ जैज़ बजाने के साथ-साथ उन्होंने लेस्टर यंग, माइल्स डेविस, थेलोनियस मंक और मैक्स रोच जैसे युवा जैज़ संगीतकारों को प्रेरित-प्रभावित भी किया. 1934-39 के बीच लम्बे अर्से तक वे अमरीका के बाहर यूरोप का भी दौरा करते रहे. 1939 में अमरीका लौटने पर उन्होंने अपना प्रसिद्ध रिकौर्ड "बौडी ऐण्ड सोल" (देह और आत्मा) जारी किया जो एक मील का पत्थर बन गया. </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/zUFg6HvljDE ("बौडी ऐण्ड सोल" )</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>१९४० के आस-पास उन्होंने जैज़ की ही एक शैली "स्विंग" और फिर "बीबौप" में जम कर प्रयोग किये. हालांकि कुछ आगे चल कर लेस्टर यंग और चार्ली पार्कर जिस तरह सूझ और उपज के साथ बजाने लगे थे उससे लगता था कि कोलमैन हौकिन्स पुराने पड़ गये हैं. मगर यह हौकिन्स का कमाल था कि वे नयी-से-नयी शैली को अपनाने के लिए तैयार रहते थे और जल्दी ही उन्होंने डिज़ी गिलिस्पी के साथ "स्विंग" और "बीबौप" का जादू जगाना शुरू कर दिया था. आज अगर जैज़ में सैक्सोफ़ोने एक अनिवार्य वाद्य बन चुका है तो इसके पीछे कोलमैन हौकिन्स की बहुत बड़ी भूमिका है.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सन तीस के दशक में एक ओर तो जैज़ के क्षेत्र में नयी-नयी प्रतिभाएँ उभर कर सामने आ रही थीं, दूसरी ओर इन नयी प्रतिभाओं के बीच अपनी सहयोग की एक अद्भुत भावना भी पनप रही थी। कूटी विलियम्स, जॉनी हॉजेस, बैनी कार्टर, रे नैंस, लॉरेन्स ब्राउन -- ये कुछ प्रमुख संगीतकार थे, जो अपने-अपने फ़न के माहिर होने के साथ एक-दूसरे से मिल कर संगीत सभाओं में भाग लिया करते थे। उन दिनों लुई आर्मस्ट्रौंग और कोलमैन हॉकिन्स के अलावा जो संगीतकार संगीत-प्रेमियों को अपनी मौलिक प्रतिभा से मुग्ध कर रहा था -- उसका नाम है ड्यूक एलिंग्टन। उसी ज़माने का एक किस्सा याद करते हुए कोलमैन हाकिन्स ने बताया कि एक दिन ड्यूक एलिंग्टन आये और कहने लगे कि मैं चाहता हूँ तुम मेरे साथ मिल कर एक रिकॉर्ड तैयार करो। मैं पियानो बजाऊँगा, तुम सैक्सोफ़ोन सँभालो। धुन मैं तैयार करूँगा। कोलमैन हॉकिन्स ने फ़ौरन हामी भर दी लेकिन इन दोनों संगीतकारों को मिल-बैठने में बीस बरस लग गये। फिर सन 1962 में एक इन्टरव्र्यू के दौरान कोलमैन हॉकिन्स ने इस घटना का ज़िक्र किया तो इन दोनों के इकट्ठा होने की नौबत आयी। और तब दोनों ने मिल कर जो रिकॉर्ड तैयार किया -- लिम्बो जैज़ -- उसने जैज़ की दुनिया में एकबारगी तहलका मचा दिया।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/rN6UlJEXySY (लिम्बो जैज़)</div>
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<br /></div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>लेकिन यह काफ़ी समय बाद की बात है। सन तीस के दशक में तो ड्यूक एलिंग्टन ख़ुद अपनी मण्डली को जमाने में जुटे हुए थे और कोलमैन हॉकिन्स अकेले दम अपनी प्रतिभा का सिक्का मनवाने की कोशिश कर रहे थे। 1933 में ही उन्होंने कुछ शानदार मिसालें कायम कर दी थीं जिनमें से ‘होकस पोकस’ शीर्षक से की गयी रचना बहुत मशहूर हुई।</div>
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<br /></div>
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<br /></div>
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<br /></div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वैसे, बहुत-से लोग सन 30 के दशक के मध्य से ले कर 40 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों तक के समय को ‘स्विंग म्यूज़िक’ के युग के नाम से याद करते हैं। लेकिन ‘स्विंग म्यूज़िक का युग’ दरअसल कोई मायने नहीं रखता। इस दौर में बस हुआ यह कि संगीत का मोर्चा कुछ देर के लिए बड़े-बड़े बैण्डों ने सँभाल लिया। इनमें से ज़्यादातर बैण्ड गोरे संगीतकारों के थे और प्रचार भी इनका ज़्यादा हुआ, जैसे बेनी गुडमैन का, जिनका रिकॉर्ड ‘स्टॉम्पिंग ऐट द सैवॉय’ एक ज़माने में बहुत लोकप्रिय हुआ था। मगर बहत-से दूसरे बैण्ड ख़ालिस तौर पर नीग्रो संगीतकारों के थे, जिनमें काउण्ट बेसी का ऑकैस्ट्रा और ड्यूक एलिंग्टन के बैण्ड काफ़ी मशहूर हुए।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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18.</div>
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<br /></div>
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<i> बैण्ड सचमुच मस्ती में झूम सकता है, जब आप इस तरह सबका साथ निभा सकें </i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मानो आप मक्खन को छुरी से काट रहे हों.</i></div>
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<i>-- काउण्ट बेसी</i></div>
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<br /></div>
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इस बीच जैज़ का दायरा न्यू ऑर्लीन्स और शिकागो से बढ़ कर अमरीका के अन्य शहरों तक फैल गया था। काउण्ट बेसी अमरीका के कैन्सस सिटी नामक नगर की देन थे। काउण्ट बेसी को कैन्सस सिटी से निकल कर अपनी प्रतिभा का चमत्कार दिखाने का मौका कब मिला, इसका जैज़ संगीत के इतिहास में कोई उल्लेख नहीं है, न ही इस बात का ज़िक्र है कि काउण्ट बेसी ने जैज़ के एक और मशहूर संगीतकार बेनी कार्टर की संगत कब शुरू की, मगर इतना तय है कि सन 40-41 के आस-पास ये दोनों कलाकार मिल कर जैज़ संगीत में नयी धारा बहाने में मशग़ूल थे। शायद इसी शुरू की संगत का असर था कि वर्षों बाद जब सन 1961 में बेनी कार्टर ने काउण्ट बेसी के साथ मिल कर धुनों के संकलन का एक मशहूर रिकॉर्ड तैयार किया तो उसका नाम काउण्ट बेसी के अपने शहर के नाम पर रखा -- ‘कैन्सस सिटी सुईट’।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/HtzbK_ByFG8 (कैन्सस सिटी के बारे में)</div>
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http://youtu.be/3Pgmb0Y9nGc (कैन्सस सिटी सेवेन) </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अपने शुरू के दिनों में काउण्ट बेसी कैन्सस सिटी के मशहूर रेनो क्लब में पियानो बजाया करते थे और यह अकारण नहीं कि इस रिकार्ड की एक धुन का नाम है -- ‘राम्पिन ऐट द रेनो’ -- यानी रेनो क्लब की धमा चौकड़ी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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http://youtu.be/GGomvd__bqU (राम्पिन ऐट द रेनो)</div>
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बात यह थी कि न्यू और्लीन्ज़ और शिकागो से होते हुए जैज़ संगीत की शाखाएं न्यू यौर्क, न्यू जर्सी और दूसरी बहुत-सी छोटी-बड़ी जगहों पर भी फैलने लगी थीं और जब कैनसस सिटी के दरवाज़े मनोरंजन की दुनिया के लिए खोल दिये गये तो जुआघरों, शराबख़ानों और वेश्यालयों के साथ-साथ क्लबों के लिए भी जगह बन गयी और ऐसी हालत में उत्तर-दक्षिण-पूरब-पच्छिम से संगीत-मण्डलियां, बड़े-बड़े बैण्ड और संगीतकार आ कर कैनसस सिटी में इकट्ठा होने लगे. काउण्ट बेसी का नाम इन में प्रमुख था.</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>विलियम जेम्स "काउण्ट" बेसी का जन्म न्यू जर्सी के रेड बैंक नामक गांव में हुआ था. माता-पिता, दोनों संगीत-प्रेमी थे, मां पियानो बजाती थीं और उन्हीं से काउण्ट बेसी को पियानो के शुरुआती सबक भी मिले. स्कूल में बेसी पढ़ने-लिखने की बजाय यात्राओं के सपने लेते. उन पर उन घुमन्तू मेलों का असर था जो उनके कस्बे में आया करते. हाई स्कूल की दहलीज़ लांघने के बाद काउण्ट बेसी रेड बैंक के पैलेस थियेटर में काफी समय गुज़ारते जहां छिट्पुट काम करने के एवज़ में उन्हें मुफ़्त में कार्यक्रम देखने-सुनने को मिल जाते. उन्होंने जल्दी ही मंच पर चल रहे कार्यक्रमों और मूक फ़िल्मों के साथ बजने वाले उपयुक्त संगीत को रचना सीख लिया. हालांकि पियानो बजाने में उन्हें स्वाभाविक रूप से महारत हासिल थी, बेसी ने ड्रम बजाना पसन्द किया, लेकिन अपने ही कस्बे में रहने वाले सनी ग्रियर की प्रतिभा से हतोत्साह हो कर, जो आगे चल कर ड्यूक एलिंग्टन के बैण्ड में शामिल हुए, काउण्ट बेसी ने पन्द्रह साल की उमर में पूरी तरह पियानो पर ही ध्यान लगाया. फिर बेसी और ग्रियर वहीं रेड बैंक में अलग-अलग कार्यक्रमों में साथ-साथ पियानो और ड्रम बजाते रहे, जब तक कि ग्रियर अपने व्यावसायिक जीवन के सिलसिले में रेड बैंक से चले नहीं गये. इसके बाद कुछ साल वहीं अपने पर तोलने के बाद 1920 के आस-पास काउण्ट बेसी हार्लेम चले गये, हार्लेम में, जो जैज़ संगीत का गढ़ बनता जा रहा था, बेसी अल्हम्ब्रा थियेटर के पास रहते थे और जैज़ संगीतकारों से अक्सर उनका मिलना-जुलना होता. सनी ग्रियर भी वहीं थे. धीरे-धीरे सोलह वर्षीय बेसी संगीत की बारीकियां सीखने लगे और सीखने का इससे बेहतर तरीका और क्या होता कि जो भी मौका मिले उसे थाम लो, बीस साल की उमर तक वे बैण्डों के साथ और एकल रूप में भी कैन्सस सिटी, सेंट लुई, न्यू और्लीन्ज़ और शिकागो तक दौरे कर आये थे. इस विविध रूपी काम में उन्हें जो अनुभव मिल रहा था वह आगे चल कर उनके बहुत काम आने वाला था. 1925 में हार्लेम लौट कर बेसी को पहला स्थायी काम लेरौय’ज़ नामक जगह में मिला जो अपने पियानो वादकों के लिए जानी जाती थी. यहीं बेसी की मुलाकात फ़ैट्स वौलर से हुई और उन्होंने और्गन बजाना भी सीख लिया, जिसे वे बाद में कैन्सस सिटी के एबलोन थियेटर और फिर ड्यूक एलिंग्टन के बैण्ड में भी बजाने वाले थे.</div>
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http://youtu.be/iBDMTT_GVeU?list=PLwF7H2q48PPMT2FuxFczAapwlJbE4yjWv (वन ओ क्लौक जम्प)</div>
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<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>1928 में बेसी टुल्सा में थे जब उन्होंने वौल्टर पेज और उनके बैण्ड को सुना. कुछ महीनों के बाद उन्हें भी उस बैण्ड में शामिल होने का मौका मिला और उनके वादन को सुन कर पहली बार लोग उन्हें "काउण्ट" कहने लगे. अगले ही साल बेसी कैन्सस सिटी चले आये और बेनी मोटेन के बैण्ड मे शामिल हो गये. मोटेन की हसरत ड्यूक एलिंग्टन या फ़्लेचर हेण्डरसन जैसा बैण्ड कायम करने की थी. मोटेन थे भी काफी प्रतिष्ठित और 1935 तक बेसी और मोटेन का साथ तमाम तरह के उतार-चढ़ाव के बीच बना रहा. 1935 में मोटेन की मौत के बाद, बेसी ने एक नया बैण्ड कायम किया, जिसमें मोटेन के कई सद्स्य शामिल थे. 1936 के अन्त में काउण्ट बेसी कैन्सस सिटी से शिकागो आ गये और पहली बार उनके बैण्ड "काउण्ट बेसी ऐण्ड हिज़ बैरन्स औफ़ रिदम" ने जैज़ संगीत की दुनिया में अपना सिक्का मनवाना शुरू कर दिया. शुरू ही से बेसी और उनका बैण्ड अपनी लय-ताल के लिए जाना जाता था. बेसी ने एक और नया प्रयोग यह किया कि वे दो टेनर सैक्सोफ़ोन वादकों को औल्टो वादकों के अगल-बगल रखने लगे. इससे जो होड़ और मुकाबले का समां बंधने लगा उसने दूसरे बैण्डों को भी यह हिकमत आज़माने की प्रेरणा दी. इस बीच उनके संगीत के रिकौर्ड भी बनने लगे थे. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/Rxg_kA6YaYk?list=PLwF7H2q48PPMT2FuxFczAapwlJbE4yjWv (स्विंगिंग द ब्लूज़ 1938)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एक बार काउण्ट बेसी ने अपना सिक्का जमा दिया तो फिर गाड़ी चल निकली. शहरों के नाम एक के बाद एक गुज़रने लगे. न्यू यौर्क में बेसी अनेक ब्लूज़ गायकों के सम्पर्क में आये बिली हौलिडे, जिमी रशिंग, बिग जो टर्नर, हेलेन ह्यूम्ज़ और जो विलियम्स जैसी प्रतिभाएं. यही नहीं, बेसी ने कुछ जाने-माने हौलिवुड सितारों के साथ भी कार्यक्रम दिये. इसी के साथ बेसी का सम्बन्ध फ़िल्मों से भी हुआ. यह सिलसिला 1958 तक चलता रहा जब काउण्ट बेसी और उनका बैंड अपने पहले यूरोपीय दौरे पर गया. दौरा कामयाब रहा और इसके बाद कार्यक्र्मों की गिनती न रही. अमरीका के पूर्वी तट पर न्यू यौर्क से ले कर पश्चिमी तट पर हौलिवुड और लास वेगास तक -- काउण्ट बेसी संगीत सभाओं, फ़िल्मों और टेलिविजन के कार्यक्रमों में भाग लेते रहे और बड़े-बड़े गायकों के संगतकार बने रहे. यह सिलसिला 1984 में काउण्ट बेसी के देहान्त तक चलता रहा. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जैज़ संगीत में यह कहना मुश्किल है कि कौन-सी चीज़ अहम है -- गाना या बजाना. एकदम शुरुआती दौर की गुहारों और कनस्तरों और बैंजो जैसे वाद्यों से ले कर रैग टाइम, ब्लूज़, स्विंग और हिप-हौप की मंज़िलें तय करते हुए जैज़ गायन और जैज़ के वाद्यों ने कई पड़ाव देखे हैं, उसमें कई क़िस्म की शैलियां और वाद्य जुड़े हैं. आज जब जैज़ संगीत की बात होती है तो आम लोगों के मन में या तो ड्रम बजाते ड्रमवादक की छवि उभरती है या सैक्सोफ़ोन पर हिलोरें और झटके लेते सैक्सोफ़ोनवादक की. अक्सर लोग उस वाद्य को नज़रन्दाज़ कर देते हैं जो जैज़ के सारे वाद्यों -- ड्रम, सैक्सोफ़ोन, क्लैरिनेट, ट्रौम्बोन, ट्रम्पेट, गिटार, बेस गिटार और बैंजो आदि -- को जोड़े रहता है, वैसे ही जैसे धागा सारे मनकों को माला की शक्ल में पिरोये रखता है. और यह वाद्य है पियानो जो शायद ड्रम (या उसके बहुत ही कच्चे रूप कनस्तर) और बैंजो के बाद पहला वाद्य था जो जैज़ संगीत के साथ जुड़ा था. दरअसल, अगर संगीत कुल मिला कर सुर-ताल का मामला है तो सुर-ताल के बीच सामंजस्य कायम करने का काम जो वाद्य करता है, वह पियानो है. काउण्ट बेसी की सबसे बड़ी ख़ूबी यही थी कि वे अपने बैण्ड की रीढ़ बने रहे जो अक्सर नज़र नहीं आती, लेकिन ढांचे को खड़ा रखने की भूमिका निभाती है. यही वजह है कि उन्होंने अपने लगभग अस्सी वर्ष के जीवन में न केवल जैज़ के बेगिनती गायकों के साथ संगत की, बल्कि अनेक वादकों को भी पियानो के पीछे बैठे-बैठे वह फलक मुहैया कराया, जिस पर वे अपने सुरों की कारीगरी दिखा सकें. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>काउण्ट बेसी ने सुनने वालों की कई पीढ़ियों को बड़े बैण्ड के संगीत से परिचित कराया. वे बहुत-से जैज़ संगीतकारों के विपरीत विनम्र और किसी हद तक संकोची कलाकार थे, तनावरहित, मज़ा लेने वाले और हमेशा अपने संगीत लो ले कर उत्साह से भरे हुए. उन्होंने लिखा है ,"मेरे ख़याल से बैण्ड सचमुच मस्ती में झूम सकता है अगर वह बिना झटकों के झूम सके, जब आप इस तरह अपने वाद्य को बजाते हुए सबका साथ निभा सकें मानो आप मक्खन को छुरी से काट रहे हों."</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/gMko51An5JU (काउण्ट बेसी -- पैरिस में -- 1981)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आज जब काउण्ट बेसी की फ़ेहरिस्त को हम देखते हैं तो हैरत होती है. बिली हौलिडे से ले कर जो जोन्स, जिमी रशिंग, एला फ़िट्ज़जेरल्ड, फ़्रैंक सिनाट्रा, सैमी डेविस जूनियर, बिंग क्रौसबी और सारा वौहन जैसे नामी गायकों के साथ काउण्ट बेसी का लम्बा सम्बन्ध रहा और यह संगीत सभाओं से लेकर रिकौर्ड बनाने वाली कम्पनियों और फ़िल्मों औत टेलिविजन तक हर क़िस्म की संगत का रहा. यही हाल वादकों का भी था. बस उनकी सबसे बड़ी निराशा यह रही कि वे कभी लुई आर्मस्ट्रौंग की संगत नहीं कर सके. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस विनम्र कलाकार को सबसे बड़ा ख़िराज उनके देहान्त के बाद दिया गया. रेड बैंक में एक थियेटर हौल और एक मैदान को तो उनका नाम दिया ही गया, 2009 में न्यू यौर्क की एजकोम्ब ऐवेन्यू और 160वीं सड़क का नाम बदल कर दो महान संगीतकारों पर रखा गया. एजकोम्ब ऐवेन्यू को पौल रोबसन बूलेवार और 160वीं सड़क का नाम काउण्ट बेसी प्लेस रखा गया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: right;">
<b>(जारी)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-22519757013263428072015-02-19T07:15:00.000-08:002015-02-19T07:18:31.349-08:00 जैज़ संगीत पर एक लम्बा आलेख <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<span style="font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत </span><br />
<br />
<b>तेरहवीं कड़ी</b><br />
<br />
16.<br />
<br />
<div style="text-align: right;">
<i>अगर आपको यह पूछना पड़े कि जैज़ क्या है तो आप कभी नहीं जान पायेंगे. </i></div>
<div style="text-align: right;">
<i>-- लूई आर्मस्ट्रौंग</i></div>
<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
सिड्नी बेशेत अगर किंग औलिवर के बाग़ी शागिर्द थे, अवसाद और बौद्धिकता की अपनी ही दुनिया में विचरने वाले वादक तो लूई आर्मस्ट्रौंग किंग औलिवर के उन शिष्यों में थे जिन्होंने जैज़ को दृढ़ता से उसकी जड़ों से जोड़े रखा और उसे लोकप्रियता की नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया. बेशेत जैज़ के अन्तर्मुखी साधक थे तो आर्मस्ट्रौंग उसके सन्देशवाहक, उसके राजदूत. बेशेत अगर एक मध्यवर्गीय परिवार से आये थे तो लूई आर्मस्ट्रौंग ने न्यू और्लीन्ज़ को उसकी तमाम हलचल और ग़लाज़त और हिंसा के साथ देखा था और ऐसे ही माहौल से निकल कर अपार लोकप्रियता और शोहरत के अपने लम्बे जीवन की शुरूआत की थी। अकारण नहीं है कि अपनी कला और शोहरत के लिए किंग औलिवर को पूरी कृतज्ञता से याद करते हुए भी आर्मस्ट्रौंग अपने बचपन और किशोरावस्था के कड़वे-कसैले अनुभवों को नहीं भूले. "हर बार जब मैं अपनी ट्रम्पेट बजाते हुए आंखें बन्द करता हूं," उन्होंने एक बार कहा था,"मैं अपने प्यारे पुराने न्यू और्लीन्ज़ के दिल में झांकता हूं. उसने मुझे जीने का एक ज़रिया, एक मक़सद दिया."</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>लुई आर्मस्ट्रौंग को किंग ऑलिवर ने सन 1922 में न्यू ऑर्लीन्स से शिकागो बुला कर अपने बैण्ड में जगह दी थी और अगले कई वर्षों तक ये दोनों संगीतकार क्रियोल जैज़ बैण्ड में एक-दूसरे के पूरक बने रहे। किंग ऑलिवर और लुई आर्मस्ट्रौंग के बीच जो घनिष्टता थी, वह उनके हर रिकॉर्ड में झलकती है। सारी ज़िन्दगी लुई आर्मस्ट्रौंग किंग ऑलिवर को अग्रज-समान मानते रहे और उनकी कला, उदारता और शिक्षा को याद करते रहे और पूरी विनम्रता के साथ यह स्वीकार करते रहे कि उनकी सारी सफलता का श्रेय अगर किसी एक व्यक्ति को दिया जा सकता है तो किंग ऑलिवर ही वह व्यक्ति हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जैज़ संगीत के सामूहिक शिरकत वाले मूल तत्व को बरकरार रखते हुए किंग ऑलिवर और उनका क्रियोल जैज़ बैण्ड, दल के विभिन्न वादकों के व्यक्तिगत कौशल की बजाय मिले-जुले, कहा जाय कि सहयोगी, प्रयास पर ज़ोर देता था। लेकिन जैसे-जैसे समय गुज़रता गया, लुई आर्मस्ट्रौंग ने धीरे-धीरे अपनी शैली विकसित करनी शुरू कर दी। उस ज़माने के रिकॉर्ड सुनें तो इस बात का स्पष्ट आभास हो जाता है कि लुई आर्मस्ट्रौंग का कॉर्नेट, बैण्ड में शामिल अन्य वाद्यों की तुलना में अधिक ‘मुखर’ है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/TdYJwL_9W7Y (King Oliver's Creole Jazz Band & Louis Armstrong - Just Gone)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बाद में भी जब लुई आर्मस्ट्रौंग किंग ऑलिवर के बैण्ड से बाहर आ कर अपेक्षाकृत बड़े बैण्डों में शामिल हो गये थे, तब भी हम यही पाते हैं कि सारा रिकॉर्ड एक तरह से उन्हीं के इर्द-गिर्द केन्द्रित है। 1920 के ही दशक में आगे चल कर जब लुई आर्मस्ट्रौंग ने ‘हॉट फ़ाइव’ और ‘हॉट सेवेन’ जैसी मण्डलियों में संगत की और रिकॉर्ड तैयार किये तो हालाँकि वहाँ न्यू ऑर्लीन्स ‘घराने’ की परम्परा में ट्रम्पेट, ट्रॉम्बोन और क्लैरिनेट की कतार मौजूद थी, मगर लुई आर्मस्ट्रौंग को लगातार अधिक ज़ोरदारी के साथ कॉर्नेट बजाते और पूरे दल पर हावी होते सुना जा सकता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/zPgh7nxTQT4 (Louis Armstrong - West End Blues - Chicago, 28 June 1928) </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सवाल इसमें अच्छाई-बुराई का नहीं था, बल्कि एक विलक्षण प्रतिभा के अपने निजी और अनोखे व्यक्तित्व का था और फिर तीस के दशक में जब और भी बड़े दलों के साथ लुई आर्मस्ट्रौंग ने अपने प्रारम्भिक चरण के कुछ अविस्मरणीय रिकॉर्ड तैयार किये -- जिनमें वे ट्रम्पेट बजाने के साथ-साथ गाते भी थे -- मिसाल के तौर पर उनका प्रसिद्ध रिकॉर्ड ‘आई काण्ट गिव यू एनीथिंग बट लव’ (मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सकता अपनी मुहब्बत के सिवा) सुनें तो हम पाते हैं कि सारा रिकॉर्ड आर्मस्ट्रौंग के ट्रम्पेट वादन और आर्मस्ट्रौंग द्वारा ही संगत में गायी गयी गीत की पँक्तियों पर केन्द्रित है। आर्मस्ट्रौंग के इस "गाने" में मज़े की बात यह थी कि वे कई बार गीत के शब्दों को छोड़ कर "स्कैट शैली" अपनाते, यानी शुद्ध अक्षरों और व्यंजनों पर चले आते और उनकी करख़्त खरखराती आवाज़ में ये अर्थहीन ध्वनियां ट्रम्पेट के स्वरों की पूरक बन जातीं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इसी प्रकार के एकल रिकॉर्डों के बल पर लुई आर्मस्ट्रौंग ने अलगे दस-पन्द्रह वर्षों तक जैज़ की शैली निर्धारित कर दी। उस समय के लगभग सभी ट्रम्पेट-वादकों पर तो उनका असर पड़ा ही, अन्य वाद्यों के फ़नकार भी उनके प्रभाव से अछूते नहीं रहे। यहाँ तक कि लुई आर्मस्ट्रौंग द्वारा अदा किये गये अनेक ‘टुकड़े’ आज भी जैज़ की बहुत-सी रचनाओं में सुने जा सकते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/xO3k-S_pqK4 (Louis Armstrong Hot Seven - Wild Man Blues (1927)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>हालांकि किंग औलिवर के साथ लूई आर्मस्ट्रौंग का एक ख़ास रिश्ता था, मगर धीरे-धीरे न्यू और्लीन्ज़ और मिसिसिपी नदी के सफ़र उनकी प्रतिभा के लिए कमतर साबित होने लगे. तब तक शिकागो जैज़ संगीत की दुनिया में एक केन्द्र के रूप में उभर कर सामने आ चुका था और इस बीच आर्मस्ट्रौंग किंग औलिवर के बैंड में पियानो बजाने वाले लिलियन हार्डिन के शरीक-ए-हयात बन चुके थे. नये क्षितिजों की खोज दोनों को पहले शिकागो और फिर लौज़ ऐन्जिलीज़ ले गयी जहां फ़िल्मों की रुपहली दुनिया में एक अलग ही आकर्षण था. 1943 में न्यू यौर्क में मुस्तक़िल तौर पर आ बसने से पहले आर्मस्ट्रौंग इन्हीं केन्द्रों में अपनी कला का प्रदर्शन करते रहे, साथ ही लम्बे-लम्बे दौरों पर भी जाते रहे. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मंच पर अपने ट्रम्पेट-वादन के अलावा अपनी करिश्माई मौजूदगी के लिए विख्यात लूई आर्मस्ट्रौंग उन पहले-पहले अफ़्रीकी-अमरीकी लोकप्रिय संगीतकारों में थे जो "पार उतरे" थे, यानी जिन्होंने रंग और नस्ल की सारी बन्दिशें पार करके एक सच्ची अखिल अमरीकी ख्याति और हरदिल-अज़ीज़ी हासिल की थी. वे बिरले ही रंग और नस्ल की राजनीति में मुखर हिस्सा लेते, जिसकी वजह से उन्हें कलाकारों की बिरादरी की आलोचना का निशाना भी बनना पड़ता, मगर अपने ढंग से वे दृढ़ता से रंग और नस्ल के आधार पर किये जाने वाले भेद-भाव का विरोध करते और अपने विनम्र अन्दाज़ में भेद-भाव के समर्थकों को जवाब भी देते जैसा कि कई बहु-प्रचारित अवसरों पर देखा भी गया. इसीलिए जब कुछेक मौक़ों पर उन्होंने ज़बान खोली तो वह और भी असरन्दाज़ बन गया, मसलन जब उन्होंने स्कूली बच्चों को रंग और नस्ल के आधार पर अलग-अलग स्कूलों में भेजे जाने की व्यवस्था के ख़िलाफ़ आन्दोलन में हिस्सा लेते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति आइज़नहावर को "दोमुंहा" और "साहसहीन" कहा था, जो बयान राष्ट्रीय खबरों में छाया रहा था. फिर जैसे इतना ही काफ़ी नहीं था लूई आर्मस्ट्रौंग ने अमरीकी विदेश मन्त्रालय द्वारा प्रायोजित सोवियत संघ के एक दौरे पर यह कहते हुए जाने से इनकार कर दिया था कि,"जिस तरह वे मेरे लोगों के साथ दक्षिण में बरताव कर रहे हैं, सरकार जाये भाड़ में" और यह कि वे विदेश में अपनी सरकार की नुमाइन्दगी नहीं कर सकते जब उसने अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ लड़ाई छेड़ रखी हो. यह भी क़ाबिल-ए-ज़िक्र है कि लूई आर्मस्ट्रौंग के बयान के छै दिन बाद राष्ट्रपति आइज़नहावर ने केन्द्रीय पुलिस बल को आदेश दिया था कि लिटल रौक के बच्चों को स्कूलों में प्रवेश कराने के लिए सिपाही उनके साथ जायें. सारी उमर वे अपनी किशोरावस्था के सरपरस्त यहूदी कौर्नोव्स्की परिवार के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए यहूदियों की ख़ास निशानी "डेविड का सितारा" अपने कोट पर तमग़े की तरह लगा कर मंच पर आते. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>यह तो उनकी कला और व्यक्तित्व ही था कि उन्हें सामाजिक रूप से उन तबकों में भी न्योता जाने लगा जो किसी काले आदमी के लिए प्रतिबन्धित क्षेत्र का दर्जा रखते थे. आर्मस्ट्रौंग की ख़ूबी थी कौर्नेट और ट्रम्पेट पर उनकी असाधारण पकड़. वे कोई प्रचलित धुन बजाना शुरू करते और फिर सहसा छलांग लगा कर उसके कुछ ऐसे पहलू उजागर कर देते जिन पर पहले किसी का ध्यान नहीं गया था. वे उन पहले-पहले संगीतकारों में थे जिन्होंने अपने वादन की रिकौर्डिंग को अपने ही प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए इस्तेमाल किया. अपने ख़ाली समय में उनका रियाज़ भी अनोखा था. वे अपनी रिकौर्डिंग सुनते-सुनते साथ-साथ बजाने लगते और इसके अलावा एक ही धुन की दो अलग-अलग रिकौर्डिंगों का मुक़ाबला करके अपनी तकनीक को सुधारते. यही वजह है कि १९६४ में जब बीटल्स की तूती बोल रही थी और आर्मस्ट्रौंग की उमर ६३ साल के हो चली थी, उनके "हेलो डौली" शीर्षक रिकौर्ड ने बीटल्स के रिकौर्ड को लोकप्रिय गानों की बिलबोर्ड सूची के प्रथम स्थान से हटा कर वहां अपना झण्डा गाड़ दिया था. इससे वे अव्वल नम्बर पर आने वाले अमरीका के सबसे उमरदार संगीतकार बन गये. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/kmfeKUNDDYs (लुई आर्मस्ट्रौंग - हेलो डौली")</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अगर लुई आर्मस्ट्रौंग की शैली ‘मुखर’ थी, संगीतकार के निजी कौशल और प्रतिभा की महत्ता स्थापित करने में उनका विश्वास था तो उन्हीं के एक अन्य समकालीन -- ड्यूक एलिंग्टन -- जैज़ की सामूहिकता को बरकरार रखने और उसे ‘नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाने में जुटे हुए थे। मगर ड्यूक एलिंग्टन की चर्चा बाद में।</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>1930 का दशक एक तरह से जैज़ संगीत का स्वर्ण युग कहा जाता है, जिसमें एक-से-एक अनोखे एकल वादक सामने आये। जैज़ संगीत का क्षेत्र न्यू ऑर्लीन्स से शिकागो और फिर शिकागो से अमरीका के अन्य भागों में फैलने लगा। इसी युग की उपज थे कोलमैन हॉकिन्स, जिन्होंने औरों को पीछे छोड़ कर जैज़ संगीत में अपनी एक अलग जगह बनायी और जैज़ को उसका असली वाद्य -- सैक्सोफ़ोन -- उपलब्ध कराया। जैज़ में बैंजो और गिटार से ले कर पियानो, ट्रम्पेट, ट्रॉम्बोन, कॉर्नेट और क्लैरिनेट संगीत-शैली के रूप में निखर कर सामने आ चुका था, लेकिन जैज़ को अब भी एक ऐसे साज़ की तलाश थी, जो उसे पूरी तरह व्यक्त कर सके और इस साज़ को सामने लाये कोलमैन हॉकिन्स। कोलमैन हॉकिन्स ने ही पहले-पहल सैक्सोफ़ोन पर जैज़ की शानदार रचनाएँ प्रस्तुत कीं और आगे आने वाले वादकों के लिए एक नयी राह खोल दी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: right;">
<b>(जारी)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5209606789739464712.post-73916352631504917052015-02-17T06:19:00.003-08:002015-02-17T06:19:40.273-08:00जैज़ संगीत पर एक लम्बा आलेख <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<span style="color: #cc0000; font-size: x-large;">चट्टानी जीवन का संगीत </span><br />
<br />
<b>बारहवीं कड़ी</b><br />
<br />
<br />
15.<br />
<br />
<div style="text-align: right;">
<i>जैज़ रोज़मर्रा की धूल को धो कर साफ़ कर देता है.</i></div>
<div style="text-align: right;">
<i>-- आर्ट ब्लेकी</i></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
यक़ीनन, ग़ुलामों के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा और कुछ नहीं होता. लेकिन जो लोग अपनी सरज़मीन से उखाड़ कर एक अजनबी देश में, अजनबी लोगों द्वारा, अजनबी लोगों के बीच ग़ुलाम बना कर ले जाये गये होते हैं, उनका तो न इतिहास होता है, न भूगोल; बस दर्द-ओ-ग़म का एक इलाक़ा होता है, जिसमें नाउम्मीदी हर क़दम पर उनसे वह सब भी छीन लेने के लिए घात लगाये रहती है जो वे किसी तरह जुटाते रहते हैं. अफ़्रीका से ग़ुलाम बना कर अमरीका ले जाये गये लोगों के साथ कुछ ऐसी ही कैफ़ियत थी, या शायद इससे भी ज़्यादा. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मगर इसे उनके जीवट का ही सबूत माना जायेगा कि हर तरह की विपरीत स्थिति में उन्होंने नये सिरे से अपनी ज़िन्दगियों को दोबारा कंकड़-दर-कंकड़ जोड़ने की कोशिश की और इसमें वे कामयाब भी हुए. इस जद्दो-जेहद से जो चीज़ें उभर कर सामने आयीं और जिन्होंने अपनी बारी में इस जद्दो-जेहद में उनका साथ भी निभाया, उनमें जैज़ को पहली सफ़ पर रखा जा सकता है. यह सिलसिला 1862-64 के अमरीकी गृह युद्ध के बाद और भी तेज़ हो गया कि वह युद्ध लड़ा ही इन ग़ुलामों को आज़ाद करने के मक़सद से गया था. यह बात दीगर है कि उसके बाद भी मोटे तौर पर अफ़्रीकी मूल के अमरीकियों के हालात पहले जैसे ही रहे, या अगर सुधरे भी तो टुकड़ों में और बेहद धीरे-धीरे. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>ज़ाहिर है कि जिनका इतिहास और भूगोल ही नहीं था, उनके संगीत के इतिहास की फ़िक्र किसे होती ? इसीलिए जैज़ का शुरुआती सफ़र अंधेरे में खोया हुआ है. और अगर आज उसका थोड़ा-बहुत अन्दाज़ा किया भी जा सकता है तो महज़ उन क़िस्सों और बयानों के बल पर जो लोगों ने बाद में दर्ज कराये, जब जैज़ संगीत ने बड़े पैमाने पर हरदिल अज़ीज़ी हासिल कर ली और अमरीकी संगीत समीक्षकों को महसूस हुआ कि उनके पास अमरीकी संगीत के नाम पर कहने के लिए जैज़ के सिवा कुछ भी नहीं था, बाक़ी तो जो था, वह सारे-का-सारा यूरोपी संगीत था, वहीं से लाया गया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>क़िस्से-कहानियों में हक़ीक़त से थोड़ी-बहुत छेड़-छाड़ की गुंजाइश तो रहती ही है. अब यही देखिये कि उसी ज़माने में जब किंग औलिवर और उनका क्रियोल बैण्ड मिसिसिपी की लहरों पर धूम मचा रहा था और लूई आर्मस्ट्रौंग शोहरत और कामयाबी की मंज़िलें एक-एक करके तय कर रहे थे, कुछ ऐसे भी लोग थे जिन्हें जैज़ के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने के लिए बीस-तीस साल इन्तज़ार करना पड़ा. ऐसे ही एक शख़्स थे बंक जौन्सन (1889-1949).</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
http://youtu.be/397ne_szA7A (Bunk Johnson -- Panama)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>तो दोस्तो, जैज़ के सफ़र में एक छोटा-सा घुमाव ले कर लुई आर्मस्ट्रौंग की चर्चा से पहले बंक जौन्सन का ज़िक्र कर लिया जाये.</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>नाम तो उनका था विलियम गैरी जौन्सन, मगर वे जाने जाते हैं बंक जौन्सन के नाम से. और उनका यह नाम कैसे और क्यों पड़ा, इसके पीछे एक मज़ेदार क़िस्सा है. हुआ यह कि जब जैज़ के इतिहास को मुकम्मल करने का भूत अमरीकी संगीत समीक्षकों पर चढ़ा तो भाग-दौड़ शुरू हुई. खोज-खोज कर बूढ़-पुरनिये पकड़े जाने लगे और उनसे बात-चीत करके जैज़ संगीत की कड़ियां कुछ उसी अन्दाज़ में जोड़ी जाने लगीं जैसे मानव के विकास क्रम की छान-बीन करने वाले वैज्ञानिक प्रागैतिहासिक काल से ले कर अब तक छान-फटक करते रहते हैं. इस क्रम में नामी संगीतकारों के साथ गुमनाम लोगों के इण्टर्व्यू रिकौर्ड करने का सिलसिला शुरू हुआ. </div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इसी क्रम में जब कुछ नामी-गिरामी संगीतकारों ने, जिनमें लुई आर्मस्ट्रौंग के साथ-साथ कुछ और संगीतकार भी शामिल थे, बातचीत के दौरान न्यू और्लीन्ज़ का ज़िक्र करते हुए वहां के प्रभावशाली वादकों में विलियम जौन्सन का ज़िक्र बड़े सम्मान से किया तो जौन्सन की तलाश शुरू हुई. मगर जौन्सन का कुछ अता-पता न था. बड़ी खोज-बीन के बाद आख़िरकार 1938 में जब बिल रसेल और फ़्रेद्रिक रैम्ज़े ने अपनी किताब "जैज़मेन" -- जैज़ के लोग -- लिखने की योजना बनायी तो उन्होंने किसी तरह विलियम जौन्सन को लूज़ियाना के न्यू आइबीरिया शहर में खोज निकाला और उनसे ढेरों क़िस्से रिकौर्ड किये. </div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जौन्सन जो एक लम्बे अरसे से गुमनामी के गर्त में खोये हुए थे, इस नयी तवज्जो से बहुत उत्साहित हुए और उन्होंने पुराने ज़माने के बारे में, जैज़ के माहौल, संगीतकारों, बैण्डों, गायकों और वादकों के बारे में और सबसे ज़्यादा अपने बारे में कहानियां सुनायीं. ख़ैर किताब लिखी गयी, मगर धीरे-धीरे यह राज़ खुलने लगा कि जौन्सन ने उस ज़माने की बातें करते हुए ढेरों और सेरों झूठ बोला था. यहां तक कि अपने को अहमियत देने के चक्कर में अपनी पैदाइश की तारीख़ दस साल पीछे सरका दी थी. ज़ाहिर है, एक हंगामा खड़ा हो गया और संगीत समीक्षकों ने कहा कि विलियम जौन्सन "बंक" यानी बकवास से भरे हुए थे. और लीजिये साहब यह नाम विलियम जौन्सन के साथ चस्पां हो गया. मगर इससे जौन्सन पर रत्ती भर फ़र्क नहीं पड़ा. चूंकि जब बिल रसेल और फ़्रेड्रिक रैम्ज़े विलियम जौन्सन से मिले थे तब उनके आगे के दांत टूटे हुए थे और उनके पास कोई साज़ नहीं था, इसलिए यह जानने का भी कोई ज़रिया नहीं था कि लुई आर्मस्ट्रौंग ने जो दावा किया था, वह सच भी था या नहीं. चुनांचे एक बार फिर जौन्सन के यहां धरना दिया गया. उन्होंने कहा कि अगर उनके दांत लगवा दिये जायें और उन्हें ट्रम्पेट मुहैया करा दिया जाये तो वे अपने जौहर दिखा सकते हैं. </div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बहरहाल, क़िस्सा-कोताह यह कि इस बीच जौन्सन के चटपटे क़िस्सों ने बिल रसेल की किताब को ख़ासा लोकप्रिय बना दिया था. सो लेखकों ने संगीत-प्रेमियों और संगीतकारों और रिकौर्ड कम्पनियों से चन्दा करके बंक जौन्सन के दांत बनवाये, उन्हें साज़ ख़रीद कर दिया और 1940 के बाद जा कर विलियम गैरी "बंक" जौन्सन ने अपने संगीत को रिकौर्ड कराया.</div>
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http://youtu.be/oY3Go5Ydeao (Sister Kate)</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आज बंक जौन्सन के बारे में जो मालूमात हैं, उनके अनुसार जौन्सन का जन्म न्यू और्लीन्ज़ में ग़ालिबन 1889 में हुआ था, हालांकि ख़ुद वे इसे 1879 में हुआ बताते थे. मामूली परिवार था और जौन्सन ऐडम औलिवियर से संगीत सीख कर उन्हीं की मण्डली में शामिल हो गये थे. कुछ समय उन्होंने बडी बोल्डन के बैंड में भी शिरकत की और आगे चल कर फ़्रैंकी डुसेन और क्लैरेन्स विलियम्स के बैंड में भी. 1915 में जौन्सन ने न्यू और्लीन्ज़ को विदा कही और घुमन्तू मण्डलियों में शामिल हो गये. बात यह थी कि जौन्सन को एक संगीत कार्यक्रम में शिरकत करनी थी. वे वहां पहुंचे ही नहीं. उनके साथियों ने ऐलान किया कि जौन्सन को इसकी माक़ूल सज़ा दी जायेगी जिसका एक पहलू उनकी पिटायी करने से जुड़ा था. सो, संक्षेप में कहें तो वे फूट लिये. </div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>फिर, 1930 में जब वे ब्लैक ईगल्ज़ नाम के बैण्ड में ट्रम्पेट बजा रहे थे तो बैंड के दूसरे ट्रम्पेट वादक एवन टौमस को किसी ने छुरा मार दिया. इसके बाद जो हंगामा हुआ उसमें न केवल जौन्सन के आगे के सारे दांत टूट गये, उनका साज़ भी तबाह हो गया. उनके लिए ट्रम्पेट बजाना मुहाल हो गया. कई साल तक मेहनत-मज़दूरी करके और ट्रक ड्राइवरी करके वे अपना गुज़ारा चलाते रहे. फिर जब अमरीकी राष्ट्रपति रूज़वेल्ट ने अपनी नयी आर्थिक नीति के तहत आदिवासियों, ग़रीबों, विस्थापितों और समाज के दलित तबक़ों के लिए सांस्कृतिक योजना शुरू की तो जौन्सन बच्चों को संगीत सिखाने के काम पर लग गये और यही वह समय था जब उन्हें जैज़ के इतिहासकारों ने खोज निकाला.</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>1940 के बाद बंक जौन्सन ने जो संगीत रिकौर्ड किया, उसने यह साबित कर दिया कि उन्हें क्यों उनके समय के संगीतकार इतना सम्मान देते थे. उनके वादन में एक उल्लेख्नीय कल्पनाशीलता, सूक्ष्मता और सौन्दर्य है. लेकिन इन्हीं रिकौर्डों ने यह भी संकेत दिया कि वे क्यों अपना मुक़ाम नहीं हासिल कर पाये थे. वे जब बहकते थे तो उनके वादन की दिशा का पता लगाना मुश्किल होता, कभी मन्द हो जाते कभी ज़रूरत से ज़्यादा आक्रामक. ऊपर से उनकी शराबनोशी अलग अपना असर दिखाती रहती. लेकिन इन कमियों के बावजूद उनका बेहतरीन वादन अव्वल दर्जे का है, और चाहे उन्होंने कितनी ही लनतरानियां हांकी हों उनका संगीत आज भी न्यू और्लीन्ज़ और उसके युग की एक धरोहर है. </div>
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http://youtu.be/IJFXQSIsc8M (Franklin Street Blues -Bunk Johnson)</div>
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<b>(जारी)</b></div>
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Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0