Sunday, July 1, 2012

क्या न्याय की लड़ाई का भी वर्गीय पहलू है ?






8 जून को शाम हो चुकी थी जब इलाहाबाद से लेखिका नीलम शंकर ने एस.एम.एस पर वह बुरी ख़बर दी थी कि सीमा आज़ाद और विश्वविजय को इलाहाबाद में निचली अदालत ने उमर क़ैद और जुरमानों की सज़ा सुनाई है. तब से अब तक बाईस-पचीस दिन बीत चुके हैं, मानवाधिकार संस्था पी.यू.सी.एल. और अन्य कई संगठन हरकत में आ चुके हैं. दिल्ली में बैठकें हुई हैं, इलाहाबाद में बैठकें जारी हैं, रणनीति विचारी जा रही है, इरादे खंगाले जा रहे हैं, सलाहों और एकजुटता के संदेसों की झड़ी लगी हुई है, जो लोग अब तक ख़ामोशी से इन्तज़ार कर रहे थे वे आन्दोलित हो चुके हैं, पूरी उम्मीद है कि हम इस बार भी संगठित हो कर राज्य शक्ति का मुक़ाबला करेंगे और सीमा आज़ाद और विश्वविजय को रिहा कराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे.

लेकिन दोस्तो, इस मुक़ाम पर जब मैं थोड़ा रुक कर सोचता हूं तो मन में कुछ सवाल उठते हैं. पहला सवाल तो यह है कि क्या सीमा आज़ाद और विश्वविजय की रिहाई के बाद हम अपने संघर्ष कि इति मान लेंगे ? हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि भले ही प्रशान्त राही और विनायक सेन जैसे लोग रिहा होने में कामयाब हो गये हों, अभी ढेरों बन्दी कमोबेश उन्हीं धाराओं में क़ैद हैं जो सीमा और विश्वविजय पर लगायी गयी थीं. वे अभी अनाम हैं. क्या हम तब चेतेंगे जब उन्हें भी ऐसी ही कोई सज़ा सुनायी जायेगी जो सीमा आज़ाद और विश्वविजय को सुनायी गयी है.  क्या तभी हमें उनके नामों का भी पता चल पायेगा ? क्या हम उस समय फिर एक बार हलचल से भर उठेंगे और भाषणों, तजवीज़ों, एकजुटता के संदेसों, राज सत्ता के प्रति कोसनों की झड़ी लगायेंगे ?

दूसरा सवाल जो इसी पहले सवाल से जुड़ा है, वह यह है कि क्या न्याय, समता, मानवाधिकारों की लड़ाई, हिन्दुस्तान को दमन और शोषण से मुक्त कराने की लड़ाई, का कोई वर्गीय पहलू भी है ? क्या जब हम सोचते हैं कि कौन-कौन राज सत्ता के निशाने पर है और किस-किस के लिए हमें आवाज़ उठानी चाहिये तो हम अपने समाज की तरह दो हिस्सों में बंट जाते हैं ? एक हिस्सा विनायक सेन और अरुन्धती राय को ले कर आन्दोलित हो उठता है जबकि दूसरे सामान्य वर्ग में आने वाले सीमा आज़ाद और विश्वविजय जैसे लोग तब तक उपेक्षित रहते हैं जब तक कि राज सत्ता उन्हें अपनी ओर से सज़ा सुना कर सारे मानवीय अधिकारों से वंचित न कर दे ? क्या इन सभी लोगों को यह नहीं बताना चाहिये कि वह कौन सी अड़चन थी जिसकी वजह से वे चुप बैठे थे ?

दोस्तो, यह सवाल इधर बहुत शिद्दत से मुझे परेशान करता रहा है. कारण यह है कि 6 फ़रवरी 2010 से ले कर 8 जून 2012 तक -- इन दो बरसों के दौरान हम सभी कमोबेश ख़ामोश और निष्क्रिय बैठे रहे हैं. बीच-बीच में सीमा आज़ाद और विश्वविजय के बारे में और वह भी ख़ासकर हिन्दी दैनिक "जनसत्ता" में कुछ ख़बरें ज़रूर प्रकाशित हुईं; मासिक पत्रिका "समकालीन तीसरी दुनिया" ने भी कुछ लेख-टिप्पणियां प्रकाशित कीं लेकिन बाक़ी जगह सन्नाटा छाया रहा. पी.यू.सी.एल. जो इस मुद्दे पर अपनी ही इलाहाबाद इकाई की संगठन सचिव के पक्ष में एक देश-व्यापी आन्दोलन छेड़ सकता था चुप बैठा रहा या सिर्फ़ क़ानूनी लड़ाई लड़ता रहा. बाक़ी बहुत-से संगठन जो अचानक सक्रिय हो उठे हैं, हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहे.

लेकिन आप देखिये कि विनायक सेन वाले मामले पर एक हंगामा बरपा हो गया था. बयानों की झड़ी लग गयी थी. अपर्णा सेन और शर्मिला टैगोर जैसी अभिनेत्रियां ही नहीं, हमारी जुझारू लेखिका अरुन्धती राय भी मैदान में कूद पड़ी थीं. यह बात दीगर है कि छूटने के बाद सबसे पहला काम "सीमा बहन को छुड़ाने" का घोषित करने वाले विनायक सेन सीधे मोनटेक सिंह आहलूवालिया और उनके योजना आयोग से जा जुड़े. सीमा और विश्वविजय जेल में सड़ते रहे और अभी तक सड़ रहे हैं. 

इन पंक्तियों के लेखक ने दो बरस के इस अरसे में कम नहीं लगभग  बारह-पन्द्रह बार अरुन्धती राय से आग्रह किया -- कभी फ़ोन पर और कभी ईमेल द्वारा कि वे सीमा के मामले को उठायें. पर वे देश-विदेश घूमती रहीं, उन्होंने किसी भी  प्रेस सम्मेलन में या टिप्पणी में इस की चर्चा करना गवारा नहीं किया. ज़ाहिर है, उनकी तरफ़ हमारी निगाहें इसलिए उठी थीं क्योंकि उन्होंने -- अगर अपने मित्र अजय सिंह के शब्दों में कहूं तो -- "हमारी अपेक्षाएं जगायी थीं." इसके साथ ही मैंने कम-से-कम पांच-छै बार गौतम नौलखा से भी इस मामले को ले कर बात की. लेकिन वे कश्मीर जाने का वक़्त तो निकाल पाये लेकिन सीमा आज़ाद का ज़िक्र करने का नहीं. यह बात मैं इसलिए ज़ोर दे कर कह रहा हूं क्योंकि अरुन्धती राय अब केवल एक व्यक्ति नहीं रह गयी हैं, वे लगभग एक संगठन का स्वरूप ग्रहण कर चुकी हैं और गौतम नौलखा तो बाज़ाब्ता एक संगठन से जुड़े हैं और जिस तरह की लड़ाई की मांग सीमा का मामला करता था वह संगठित हो कर ही लड़ी जा सकती है.

क्या यह इसलिए होता है कि न्याय, समता और मानवाधिकारों की लड़ाई को वर्गीय नज़रों से देखा जाने लगा है. बड़े लोगों की गिरफ़्तारी और सज़ाएं तत्काल हलचल पैदा करती हैं, जबकि उसी लड़ाई को लड़ने वाले साधनहीन लोग गुमनामी में डूबे रहते हैं ? राजनीति में अगर-मगर का खेल नहीं होता पर मन करता है इस अटकल पर ग़ौर करने को कि पिछले दो वर्षों के दौरान अगर विनायक सेन और अरुन्धती राय जैसे लोगों के मामलों पर आन्दोलित होने के साथ-साथ हम ने सीमा आज़ाद और विश्वविजय के मामले पर भी आवाज़ बुलन्द की होती तो शायद राज सत्ता यह सज़ा देने से पहले दस बार सोचती और हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से सीमा अज़ाद और विश्वविजय की अर्ज़ियां यों लौटायी न जातीं. क्योंकि यह बात अब स्पष्ट है कि यह सज़ा इसलिए दी या ऊपर से दबाव डाल कर दिलवायी गयी है क्योंकि हमारे गृह मन्त्री और गृह मन्त्रालय एक नज़ीर क़ायम करना चाहते हैं, लोगों को बताना चाहते हैं कि राज सत्ता का विरोध करने पर आप के साथ भी क्या या क्या नहीं हो सकता. 

बहरहाल, ख़ुशी की बात है कि हमारी साथी अरुन्धती राय ने अपने अत्यन्त व्यस्त कार्यक्रम से समय निकाल कर जुलाई के पहले हफ़्ते में यानी इस सज़ा के घोषित होने के महीने भर बाद प्रेस सम्मेलन को सम्बोधित करना स्वीकार कर लिया है और यह भी खबरें हैं कि वे लखनऊ में भी एक प्रेस सम्मेलन को सम्बोधित करेंगी. अगर ऐसा होता है तो यकीनन लड़ाई को बल मिलेगा. अंगेज़ी की कहावत के अनुसार हमें हर छोटे-से-छोटे और हर बड़े-से-बड़े अनुग्रह के लिए शुक्रगुज़ार होना चाहिये.

लेकिन साथ ही अब वक़्त आ गया है कि हम एक बार फिर बैठ कर सोचें कि हमें रुक-रुक कर हरकतज़दा होने की बजाय निरन्तर इस मुहिम को जारी रखना है जब तक कि राज सत्ता का विरोध करने वालों को इस तरह क़ैदें और सज़ाएं दी जाती रहती हैं. और जो वर्ग-भेद धीरे-धीरे हमारी लड़ाई में रेंगता हुआ या रिसता हुआ चला आया है, उसे दूर करें.

१ जुलाई २०१२