Monday, February 7, 2011

देशान्तर

नीलाभ के लम्बे संस्मरण की बारहवीं क़िस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान
ज्ञानरंजन के बहाने - १२



आज बसन्त का दिन है. बेसाख़्ता निराला याद आते हैं -- सखि वसन्त आया, भरा हर्ष वन के मन नवोत्कर्ष छाया; लेकिन क्या सचमुच वन के मन नवोत्कर्ष छाया हुआ है ? क्या वासन्ती पीलेपन में एक रक्तिम आभा नहीं झलकती ? देश में आग लगी हुई है, किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, भ्रष्टाचार का बाज़ार पहले से भी ज़ियादह गर्म है, लूट-पाट और छीना-झपटी वे लोग कर रहे हैं जिन्हें धरोहर की हिफ़ाज़त का काम सौंपा गया था, रक्षक ही भक्षक बने हुए हैं, स्त्री होना अपने को रौंदे जाने के लिए पेश कर देना है, और हमारे देसी नीरो मनमोहन सिंह, अमरीका और इंग्लैण्ड के बल पर चैन की बंसी बजा रहे हैं. ऐसे में आपको किस वसन्त की शुभकामना दूं और किन शब्दों में ? ख़ैर, ये अधूरी लड़ाई है जिसे हमें लड़ना है -- वैसे ही जैसे उन लड़ाइयों को जिन्हें हम पिछले पड़ाव पर अधूरा छोड़ आये थे.

अधूरी लड़ाइयों के पार- ५


40 वर्ष बीत गये हैं, स्मृति ने समय के साथ मिल कर जाने कैसी अबूझ प्रक्रिया से ऐसे जाले बुन दिये हैं जिन्हें भेद कर उस पार के दृश्य को देखना मुश्किल होता चला गया है। भादों की अँधेरी रात में बिजली की कौंध की तरह कुछ दृश्य अनायास चमक उठते हैं और अपने पीछे पहले से भी गहरा अँधेरा छोड़ जाते हैं। कभी-कभी कोई दृश्य या प्रसंग लम्बे समय तक टिका रहता है, मानो बिजली की एक कौंध दूसरी कई शाखाओं को शुरू करती हुई आकाश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक तड़पती, थरथराती चली जाय। कई बार मैंने सोचा है कि उस दौर को जीवित, या कहा जाय कि पुनर्जीवित, करने का प्रयास काफ़ी कुछ ईसा मसीह द्वारा लज़ारस को पुनर्जीवित करने के प्रयत्न सरीखा है। कौन जाने कब्र से उठ कर जो कफ़न में लिपटा चला आयेगा, वह किस हालत में होगा ? इतने दिनों तक दफ़्न रहने के दौरान वक्त और कुदरत ने उसकी देह के साथ क्या कुछ नहीं कर दिया होगा। ज़मीन में गाड़े जाने और उस पार की दुनिया का नज़ारा कर लेने के बाद क्या वह दोबारा इस तरफ़ की दुनिया की ताब ला पायेगा या इधर आना भी चाहेगा ?
स्मृतियों के साथ यही दिक्कत है। जिन्हें आप अक्सर याद करते हैं और दूसरों को बताना चाहते हैं, वे ठीक बताने के समय ग़ायब हो जाती हैं। कई बार ढेर सारी ऐसी स्मृतियाँ मस्तिष्क के थिर पानी पर भूसे के तिनकों की तरह उतराने लगती हैं, जिनका कोई ख़ास मतलब नहीं होता। शायद इसीलिए अनेक लोग स्मृतियों के बारे में एक बिलकुल ही अलग विचार रखते हैं। ज्ञान ने एक जगह लिखा है -
’स्मृति ज्यों-त्यों इतिहास नहीं है। वह लगातार विकृति की ओर बढ़ते-बढ़ते एक नये अजूबा संसार में पहुँच जाती है। स्मृति चमकाती और मुग्ध भी करती है और अवसाद भी देती है। कुछ, इसीलिए, मैं प्रारम्भ में ही इससे अलग-थलग रहा। एक साक्षात्कार में कथाकार बोर्खेस ने कहा है कि पहली बार किसी को याद करना उसको बदलना है, दूसरी बार, तीसरी बार याद करना काफ़ी बदलना है। जिस तरह कोई अनुवाद, उसका दूसरी और तीसरी भाषाओं में अनुवाद, और इसी तरह के सिलसिले।’

ज्ञान के व्यक्तित्व को देखते हुए, ख़ास तौर पर अपनी उम्र के जिस दौर के सिलसिले में उसने ये पंक्तियाँ लिखीं हैं, इन पर मुझे आश्चर्य नहीं होता। वे उसके व्यक्तित्व के अनुरूप ही हैं। या कहा जाय कि उस समय जो उसका व्यक्तित्व था, उसके अनुरूप ठहरती हैं। मगर ज्ञान अब क्या महसूस करता है, यह मैं नहीं जानता। उसकी पुस्तक ‘कबाड़ख़ाना’ में शामिल कई टुकड़ों को देखूं तो उनमें स्मृति की झिलमिलाहट जगह-जगह नज़र आती हैं। कुछ तो ज्ञान के लाजवाब गद्य का कमाल है, लेकिन कोरा गद्य भी अन्तर की ऊष्मा के बिना सम्भव नहीं है। और ज्ञान के गद्य में तो एक अनोखी गरमाहट और चमक रहती है। इसलिए स्मृति का एक अपना महत्व तो है ही।
स्मृति को ले कर दूसरा नज़रिया ज्ञान के साथी दूधनाथ का है। दूधनाथ के संस्मरणनुमा गद्य के कई टुकड़े मैंने उसके मुँह से सुने हैं और फिर उन्हें छपा हुआ पढ़ा है। मुझे हमेशा दूधनाथ के संस्मरणों में ’फ़िक्शन’ यानी ’गल्प’ का तत्व प्रचुर मात्रा में नज़र आया है। कई बार तबियत होती है कि ’लौट आ ओ धार’ पर पुराने ज़माने के उपन्यासों की तरह यह छपा होता तो अच्छा था कि - ‘इस पुस्तक के सभी पात्र और प्रसंग काल्पनिक हैं और किसी जीवित या मृत व्यक्ति से उनका साम्य संयोग माना जाये।’

जब मैंने यह बात ’लौट आ ओ धार’ के सन्दर्भ में कह दी थी तो दूधनाथ नाराज़ हो गया था। ख़ासा नाराज़। सवाल यह नहीं है कि आप एक फ़ोटोग्राफ़र की तरह बीते हुए दिनों के दृश्य पेश करते चले जायें और तभी वह मुकम्मल संस्मरण कहलाये। लेकिन दूधनाथ के संस्मरणों में, ख़ास तौर पर ‘लौट आ ओ धार’ वाले संस्मरणों में, समस्या दूसरी है। एक तो वहाँ अपने को बचाने या महिमा-मण्डित करने की कोशिश है, जो प्रवृत्ति ‘सुखान्त’ या ‘नमो अन्धकारम’ जैसी उसकी कहानियों में भी नज़र आती है। दूसरे, बहुत कुछ दबाया-छिपाया भी गया है। ऐसा, जो ख़ुद दूधनाथ को मालूम है, मगर वह कह नहीं रहा। मसलन, शमशेर जी के प्रेम-प्रसंग का एक लम्बा वृत्तान्त है जिसमें जगह-जगह एक ‘लड़की’ का ज़िक्र आता है। कभी उसे ‘लड़की’ कहा गया है, कभी ‘वह लड़की’ कभी ‘उस लड़की।’ लेकिन उसका नाम कहीं भी नहीं लिया गया है। कारण तो शायद दूधनाथ ही जानता होगा, मगर सभी लोग जो शमशेर जी और इलाहाबाद से परिचित हैं, उन्हें पता है कि यह ‘लड़की’ और कोई नहीं, स्वयं दूधनाथ की बड़ी साली प्रेमलता वर्मा थीं। इसी प्रसंग में आगे वात्स्यायन जी का भी ज़िक्र आया है और यह संकेत दिया गया है कि प्रेमलता का कुछ लगाव वात्स्यायन जी से भी था और इसी वजह से शमशेर जी और वात्स्यायन जी के बीच कुछ तनाव भी रहा। इस पूरे प्रसंग में प्रेमलता वर्मा का उल्लेख ख़ासे निगेटिव और अनचैरिटेबल भाव से किया गया है। दूधनाथ के सामने शायद दिक्कत यह भी रही होगी कि प्रेमलता का नाम लेने पर उसकी पत्नी के घरवालों पर भी कुछ छींटे पड़ने की सम्भावना थी, क्योंकि यह इलाहाबाद में सभी लोग जानते थे कि दूधनाथ के साले मलयज के घर पर साहित्यकारों का अच्छा-ख़ासा जमावड़ा रहता था। मलयज ‘परिमल’ के संयोजकों में थे, इसलिए ‘परिमल’ से जुड़े साहित्यकारों के साथ-साथ उनके घर शमशेर, प्रभात, दूधनाथ सिंह और इलाहाबाद प्रवास के दौरान वात्स्यायन आदि भी जाते रहते थे। कारण जो भी रहा हो, लेकिन दूधनाथ का ऐसा करना उस संस्मरण में वर्णित तथ्यों से भी ज़्यादा दूधनाथ के मोटिव को सन्दिग्ध बना देता है।

यह हम सब जानते हैं कि वक्त के साथ स्मृति भी धूमिल पड़ती है। कई बार उसमें कुछ जुड़-घट भी जाता है। कभी-कभी उसके साथ कुछ अद्भुत भी घटित होता है। लोग कहते हैं कि भाई, हम भी तो वहाँ थे, यह घटना ऐसे नहीं ऐसे हुई थी। हुई होगी। हो सकती है। मुझे इससे इनकार नहीं। लेकिन जो मैं बयान कर रहा हूँ, वह मेरा बयान है, मेरी आँखों से देखा हुआ, मेरी स्मृति में सँजोया हुआ और वह मेरे लिए महत्वपूर्ण है। और अगर मेरे लिए महत्वपूर्ण है - इतना महत्वपूर्ण कि मैं उसे याद करूँ तो इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि उसमें कुछ ब्योरे दायें-बायें हो गये हों। आख़िर दूसरे लोग उन्हें सही नहीं कर देंगे भला। भूल जाने से तो बेहतर है, जैसा भी याद हो उसे दर्ज कर देना। 1970 का लेखक सम्मेलन ऐसा ही स्मृतियों का ढेर है। कुछ चीज़ें सिलसिलेवार ढंग से याद हैं, कुछ छोटे-छोटे दृश्यों की शक्ल में और कुछ महज़ मन पर पड़ी छापों की तरह। प्रकट ही इन्हें इसी तरह पेश करने की कोशिश की जा सकती है। यों ’सिर्फ़’ पत्रिका के दो अंक मौजूद हैं, जिनमें सम्मेलन की रपटें और भाग लेने वाले लेखकों के पत्रांश छपे थे, उनसे कुछ चीज़ों की तसदीक तो की ही जा सकती है।
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40 बरस बीत गये हैं। दिल्ली से आ कर पटना होते हुए कलकत्ता जाने वाली अपर इण्डिया एक्सप्रेस अब रद्द कर दी गयी है। अनेक नयी रेलगाड़ियों ने उसे रेल यात्रा के स्मृति-लोक में धकेल दिया है। मगर उस ज़माने में, जब बंगलादेश की लड़ाई नहीं हुई थी, जब ग़रीबी हटाओ का नारा बुलन्द नहीं हुआ था, जब बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने पूँजी के पहले-पहले संकट की दस्तकें नहीं दी थीं, जब हरित क्रान्ति ने पंजाब के किसानों के लिए पतन के द्वार नहीं खोले थे, और जब बंगाल के एक गुमनाम-से गाँव का नाम धीरे-धीरे क्रान्ति की तीर्थस्थलियों में दर्ज होता जा रहा था, इलाहाबाद से पटना जाने के लिए यही एक सुविधाजनक गाड़ी थी। दूसरी गाड़ियाँ या तो गया होते हुए कलकत्ते का रुख़ करती थीं, या फिर रात के ऐसे प्रहरों में इलाहाबाद से हो कर गुज़रती थीं, जब किताबों या किसी और चीज़ के एजेण्ट या सफ़री सेल्समैन तो गाड़ी में सवार होने की सोच सकते थे ताकि अगली सुबह समय से ही ‘नया स्टेशन कर सकें,’ मगर लेखकों के लिए, और ख़ास तौर पर ऐसे लेखकों के लिए जो युवा लेखक सम्मेलन में शामिल होने पटना जा रहे हों, ऐसी ज़हमत और फ़ज़ीहत मोल लेना एक नितान्त असाहित्यिक उपक्रम माना जा सकता था। चुनांचे एक अघोषित-से फ़ैसले के तहत इलाहाबाद के जत्थे ने यही तय किया था कि सुबह अपर इण्डिया एक्सप्रेस पकड़ कर दोपहर के 2-2.30 बजे तक पटना पहुँचा जायेगा। इलाहाबाद से काफ़ी लोग पटना जा रहे थे - ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, ममता, दूधनाथ, सतीश जमाली, ज्ञान प्रकाश, अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा और उसकी पत्नी वन्दना, अजय सिंह, और हम तीन तिलंगे - मैं, वीरेन और रमेन्द्र त्रिपाठी! जत्था क्या था, एक पूरी-की-पूरी बटालियन थी।
(जारी)

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