Saturday, September 25, 2010

रिसती हुई क्रान्ति -- दूसरी किस्त

दूसरी किस्त

जन्तर मन्तर दिल्ली का एकमात्र स्थान है जहां धारा १४४ लागू तो है पर जबरन अमल में नहीं लायी जाती. देश के कोने-कोने से लोग, राजनैतिक दलों और मीडिया की उपेक्षा से तंग आ कर, वहां इकट्ठे होते हैं, शिद्दत से उम्मीद करते हुए कि कोई सुनवाई होगी. कुछ लोग लम्बी-लम्बी रेल-यात्राएं करके आये हैं. कुछ, जैसे भोपाल गैस काण्ड के शिकार लोगों ने, हफ़्तों पैदल चल कर दिल्ली की दूरी तय की है. हालांकि उन्हें जलते हुए (या बर्फ़-सरीखे) फ़ुटपाथ पर सबसे अच्छी जगह हासिल करने के लिए एक-दूसरे से लड़ना पड़ा था, हाल के दिनों तक विरोध प्रदर्शनकारियों को, जब तक वे चाहते, जन्तर मन्तर पर तम्बू लगा कर टिके रहने की इजाज़त थी -- हफ़्तों, महीनों, यहां तक कि बरसों तक. पुलिस और स्पेशल ब्रांच की दुर्भावना-भरी निगाहों के सामने वे अपने बदरंग शामियाने और बैनर लगाते. यहां से वे, अपने ज्ञापन जारी करके, अपने विरोध-प्रदर्शन की योजनाएं घोषित करके और अनिश्चितकालीन भूख-हड़तालों पर बैठ कर, लोकतन्त्र में अपना विश्वास प्रकट करते. यहां से वे संसद भवन तक जुलूस निकालने की कोशिश करते (पर कभी सफल न होते). यहीं बैठ कर वे उम्मीद करते.

लेकिन हाल में अलबत्ता लोकतन्त्र की समय-सारिणी बदल गयी है. अब पूरी तरह दफ़्तरी हाज़िरी के हिसाब से काम होने लगा है -- नौ से पांच तक. कोई ओवरटाइम नहीं. कोई रतजगा नहीं. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लोग कितने दूर-दराज़ के इलाक़ों से आये हैं, कोई फ़र्क़ नहीं कि उनके पास शहर में कोई आसरा नहीं है -- अगर वे शाम के छह बजे तक चले नहीं जाते, तो उन्हें जबरन हटा दिया जाता है, ज़रूरत पड़े तो पुलिस द्वारा, और अगर हालात क़ाबू से बाहर हो जायें तो लाठियों और पानी की तेज़ बौछारों द्वारा. यह नयी समय-सारिणी ज़ाहिरा तौर पर इसलिए लागू की गयी थी कि २०१० के राष्ट्रमण्डलीय खेल, जिनकी मेज़बानी दिल्ली कर रही है, बिना विघ्न-बाधा के सम्पन्न हो जायें. लेकिन किसी को भी पुरानी समय-सारिणी के जल्दी बहाल होने की उम्मीद नहीं है.

शायद यह हालात के मुताबिक़ मुनासिब ही है कि हमारे लोकतन्त्र के बचे-खुचे हिस्से का सौदा ऐसे समारोह की एवज़ में कर लिया जाये जो बर्तानवी साम्राज्य का जश्न मनाने के लिए शुरू किया गया था. शायद यह उचित ही है कि ४,००,००० लोगों के घर उजाड़ दिये जायें और उन्हें रातों-रात शहर-बदर कर दिया जाये. या सुप्रीम कोर्ट के हुक्म पर लाखों फेरीवालों और सड़क-किनारे सौदा बेचने वालों से उनकी रोज़ी-रोटी छीन ली जाये ताकि शहर के मौल उनके बणिज-ब्योपार को हड़प लें. और हज़ारों भिखारियों को शहर के बाहर दफ़ा कर दिया जाये और इसी के साथ एक लाख से ज़्यादा ग़ुलामों को शहर के फ़्लाई ओवर, मेट्रो सुरंगें, ओलिम्पिक आकार के तरण-ताल, अभ्यास के स्टेडियम और खिलाड़ियों के लिए शानो-शौकत वाली रिहाइशी इमारतें बनाने के लिए शहर के बाहर से पकड़ बुलाया जाये. भले ही पुराने साम्राज्य का अब कोई वजूद न रह गया हो. लेकिन प्रकट ही ग़ुलामी की हमारी परम्परा इतनी लाभदायक हो गयी है कि उसे ख़त्म करना सम्भव नहीं.

मैं जन्तर मन्तर पर इसलिए मौजूद थी क्योंकि देश भर के शहरों में फ़ुटपाथों पर रहने वाले एक हज़ार लोग कुछ मौलिक अधिकारों की मांग ले कर आये हुए थे : आसरे का, खाने ( राशन कार्डों) का, जीवन (पुलिस के उत्पीड़न और नगर पालिकाओं के अफ़सरों की ग़ैर-क़ानूनी वसूली से रक्षा) का अधिकार.

शुरू फागुन के दिन थे, धूप तीखी थी, मगर अब भी सभ्य और शिष्ट. विरोध प्रदर्शन की महक काफ़ी दूर से ही महसूस की जा सकती थी -- यह कहना भयानक और क्रूरतापूर्ण है, पर यह सच था : वह एक हज़ार इन्सानी जिस्मों की इकट्ठा गन्ध थी जिन्हें अमानवीय बना दिया गया था, आजीवन नहीं तो कम-से-कम बरसों तक स्वास्थ्य और साफ़-सफ़ाई की बुनियादी मानवीय ( या पशुओं की भी) ज़रूरतों से वंचित रखा गया था. जिस्म जो हमारे बड़े शहरों के कचरे में लिथड़े रहे थे, जिस्म जिनके पास मौसम की सख़्तियों से बचने की कोई सूरत नहीं थी, साफ़ पानी, साफ़ हवा, शारीरिक स्वच्छता और चिकित्सा तक जिनकी कोई पहुंच नहीं थी. इस महान देश का कोई इलाक़ा, तथाकथित प्रगतिशील योजनाओं में से कोई योजना, कोई भी शहरी संस्था उन्हें आसरा देने के उद्देश्य से नहीं बनायी गयी थी. न तो जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय नगर पुनर्नवीकरण मिशन, न कोई और मलिन बस्ती विकास और रोज़गार सुनिश्चित करने वाली या कल्याणकारी योजना. यहां तक कि मल-निष्कासन तन्त्र भी नहीं -- वे उसके ऊपर बैठ कर हगते हैं. वे उन दरारों में रहने वाले छाया प्राणी हैं जो योजनाओं और संस्थाओं के बीच पड़ गयी हैं. वे सड़कों पर रहते हैं, सड़कों पर खाते हैं, सड़कों पर सम्भोग करते हैं, सड़कों पर बच्चे पैदा करते हैं, सड़कों पर बलात्कार का शिकार होते हैं, अपनी सब्ज़ी-तरकारी काटते हैं, कपड़े धोते हैं, बच्चों को पालते-पोसते हैं, सड़कों पर ही जीते हैं और सड़कों पर ही मर जाते हैं.

अगर चलचित्र ऐसा कला रूप होता जिसमें सूंघने की हिस का भी दख़ल होता -- दूसरे शब्दों में अगर फ़िल्मों से महक भी आती -- तो स्लमडौग मिलियनेअर जैसी फ़िल्में कभी औस्कर पुरस्कार न जीत पातीं. गरम पौप कौर्न की सुगन्ध से उस क़िस्म की ग़रीबी की दुर्गन्ध का मेल कभी न हो पाता.

उस दिन जन्तर मन्तर पर विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए आये लोग स्लमडौग भी नहीं थे, वे फ़ुटपाथों पर रहने वाले लोग थे. कौन थे वे ? कहां से आये थे वे ? वे "इण्डिया शाइनिंग -- भारत उदय" के शरणार्थी थे, ऐसे लोग जो पगला गयी उत्पादन प्रक्रिया के ज़हरीले रिसाव की तरह यहां से वहां छलकाये जा रहे थे.वे उन छ्ह करोड़ से ज़्यादा लोगों के प्रतिनिधि थे जिन्हें ग्रामीण दरिद्रता ने, धीमे-धीमे ग्रसने वाली भुखमरी ने, ( अधिकतर मनुष्य निर्मित ) बाढ़ और सूखे ने, खदानों ने, इस्पात करख़ानों और ऐल्यूमिनियम गलाने वाले यन्त्रों ने, राजमार्गों और एक्सप्रेस पथों ने, आज़ादी के बाद बनाये गये ३३०० बड़े बांधों ने और अब विशेष आर्थिक क्षेत्रों ने विस्थापित कर दिया है. वे हिन्दुस्तान के उन ८३ करोड़ लोगों में शामिल हैं जो बीस रुपये रोज़ाना से भी कम में गुज़ारा करते हैं, जो भूखे मरते हैं जबकि लाखों टन अनाज या तो सरकारी गोदामों में चूहों की नज़र हो जाता है या थोक में जला दिया जाता है ( क्योंकि ग़रीबों में अनाज बांटने से उसे जलाना ज़्यादा सस्ता है ). वे हमारे देश में कुपोषण का शिकार दसियों लाख बच्चों के, पांच बरस की उमर से पहले ही मर जाने वाले २० लाख बच्चों के माता-पिता हैं. वे उन लाखों लोगों में से हैं जो मज़दूरों के जत्थों की शक्ल में शहर-दर-शहर "नये भारत" के निर्माण के लिए धकेले जा रहे हैं. क्या इसी को " आधुनिक विकास के फलों से लाभ उठाना" कहते हैं ?

क्या सोचते होंगे ये लोग उस सरकार के बारे में जो जनता के पैसों से ९००० करोड़ डालर ( मूल अनुमानित ख़र्च से २००० फ़ीसदी ज़्यादा ) महज़ दो हफ़्तों तक चलने वाले खेल समारोह पर ख़र्च करना मुनासिब समझ रही है जिसमें, आतंकवाद, डेंगू, मलेरिया और नयी दिल्ली के नये ज़हरीले कीड़े के डर से, बहुत से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों ने हिस्सा लेने से इनकार कर दिया है ?जिसकी अध्यक्षता करने का ख़याल राष्ट्र मण्डल की औपचारिक प्रमुख -- इंग्लैण्ड की महारानी -- को अपने सबसे ग़ैर-ज़िम्मेदार सपनों में भी नहीं आ सकता. वे इस तथ्य के बारे में क्या सोचेंगे कि उन करोड़ों डालरों में से कई करोड़ राजनेताओं और खेल अधिकारियों द्वारा चुरा कर छिपास दिये गये हैं ? मेरे ख़याल में ज़्यादा नहीं. क्योंकि जो लोग बीस रुपये रोज़ से भी कम पर गुज़ारा करते हैं उन्हें तो उस पैमाने की रक़में परियों की कहानियों सरीखी लगती होंगी. उन्हें तो शायद यह ख़ाबो-ख़याल भी नहीं आता होगा कि यह उनका पैसा है. यही वजह है कि भ्रष्ट नेताओं को लोगों से चुराये गये पैसे से चुनावोई ख़रीद-फ़रोख़्त करके, धड़ल्ले से सत्ता में लौटने में कोई दिक़्क़त नहीं होती. ( फिर वे रोष का नाटक कर के पूछते हैं, "माओवादी चुनावों में खड़े क्यों नहीं होते ?" ).

अगले अंक में जारी ........कल फिर

1 comment:

  1. सीधी बात एक अलग प्रभाव छोड़ती है...

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